“मानसिक अस्वस्थता और क्रूरता के आधार पर विवाह विच्छेद याचिका की अस्वीकृति को झारखंड उच्च न्यायालय ने ठहराया विधिसंगत: हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) की व्याख्या”

“मानसिक अस्वस्थता और क्रूरता के आधार पर विवाह विच्छेद याचिका की अस्वीकृति को झारखंड उच्च न्यायालय ने ठहराया विधिसंगत: हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) की व्याख्या”

परिचय:
झारखंड उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि मानसिक अस्वस्थता का दावा, जब तक वह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(iii) में निर्धारित विधिक मानकों को पूरा नहीं करता, तब तक विवाह विच्छेद (Dissolution of Marriage) का वैध आधार नहीं बन सकता। यह फैसला उस अपील में आया जिसमें पति ने विवाह समाप्त करने हेतु पत्नी की मानसिक अस्वस्थता और क्रूरता का आरोप लगाया था, किंतु पर्याप्त प्रमाण न होने के कारण पारिवारिक न्यायालय द्वारा याचिका खारिज कर दी गई थी।


मामले की पृष्ठभूमि:
पति ने हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1) के अंतर्गत एक वाद दायर किया जिसमें दो आधार प्रस्तुत किए गए:

  1. पत्नी की मानसिक अस्वस्थता, और
  2. उसके कथित व्यवहार से उत्पन्न मानसिक क्रूरता।

पति ने दावा किया कि पत्नी का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है और वह सामान्य वैवाहिक जीवन जीने में असमर्थ है। इसके साथ ही उसने यह भी आरोप लगाया कि पत्नी का व्यवहार क्रूर था, जिससे वैवाहिक संबंध निर्वहन असंभव हो गया था।


पारिवारिक न्यायालय का निर्णय:
पारिवारिक न्यायालय ने दोनों ही आधारों पर विस्तृत परीक्षण के पश्चात याचिका को खारिज कर दिया। न्यायालय ने पाया कि:

  • पत्नी की मानसिक स्थिति अस्थायी और उपचार योग्य थी तथा धारा 13(1)(iii) की कठोर शर्तों को पूरा नहीं करती।
  • पति द्वारा प्रस्तुत किए गए दस्तावेज और गवाह पत्नी के मानसिक असंतुलन को गंभीर, असाध्य या वैवाहिक जीवन को असंभव बना देने वाली स्थिति प्रमाणित नहीं करते।
  • मानसिक क्रूरता के आरोप भी अस्पष्ट एवं सामान्य थे और उन पर कोई ठोस साक्ष्य नहीं था।

उच्च न्यायालय का अवलोकन एवं निर्णय:
पति ने इस निर्णय को झारखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने अपील की विस्तृत समीक्षा की और निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर बल दिया:

  1. धारा 13(1)(iii) के अनुसार, मानसिक विकार इतना गंभीर और असाध्य होना चाहिए कि वह विवाहिक जीवन निर्वाह में वास्तविक कठिनाई उत्पन्न करे।
  2. मात्र चिकित्सकीय उपचार या सामान्य असंतुलन को तलाक का आधार नहीं माना जा सकता।
  3. मानसिक क्रूरता के लिए आवश्यक है कि पति द्वारा प्रस्तुत तथ्य इस बात को प्रमाणित करें कि पत्नी का व्यवहार वास्तव में अमानवीय, अपमानजनक या असहनीय था – ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण अभिलेखों में नहीं था।
  4. अपील में प्रस्तुत तर्क केवल अनुमान और भावनाओं पर आधारित थे, जो विधिक रूप से पर्याप्त नहीं हैं।

अतः न्यायालय ने अपील को खारिज करते हुए पारिवारिक न्यायालय के निर्णय को सही और विधिसंगत ठहराया।


न्यायिक महत्त्व:
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि:

  • मानसिक अस्वस्थता के आधार पर विवाह विच्छेद तभी संभव है जब मानसिक स्थिति गंभीर, असाध्य और दांपत्य जीवन के लिए अवरोधक हो।
  • “क्रूरता” का आरोप भी केवल असहमति या वैवाहिक कलह के आधार पर नहीं लगाया जा सकता; इसके लिए ठोस साक्ष्य अनिवार्य हैं।
  • न्यायालय केवल अनुमान या सामाजिक पूर्वाग्रहों के आधार पर विवाह विच्छेद की अनुमति नहीं दे सकता।

निष्कर्ष:
झारखंड उच्च न्यायालय का यह निर्णय हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) की व्याख्या में स्पष्टता प्रदान करता है और यह संदेश देता है कि विवाह जैसे पवित्र संबंध को समाप्त करने के लिए आरोपों का विधिक मानकों पर खरा उतरना अत्यावश्यक है। मानसिक अस्वस्थता और क्रूरता जैसे आरोपों का गंभीर परीक्षण आवश्यक है और न्यायालय भावनात्मक नहीं बल्कि साक्ष्य आधारित दृष्टिकोण अपनाता है।