घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत पति से निर्माणाधीन फ्लैट की किश्तें भरवाना अनिवार्य नहीं: कोर्ट ने ‘साझा घरेलू संबंध’ की सीमाएं स्पष्ट कीं
परिचय
भारत में महिलाओं की सुरक्षा एवं सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) लागू किया गया है। इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं को घरेलू जीवन में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, यौन और मौखिक हिंसा से सुरक्षा प्रदान करना है।
हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कोई पत्नी घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत पति से निर्माणाधीन फ्लैट की किश्तें भरने की मांग नहीं कर सकती, विशेषतः जब वह फ्लैट ‘साझा घरेलू संबंध’ (shared household) की परिभाषा में नहीं आता।
यह निर्णय इस बात को रेखांकित करता है कि कानून के अंतर्गत अर्थिक निर्भरता की सीमा और संपत्ति से जुड़े अधिकार किस प्रकार लागू होते हैं, और ‘साझा मकान’ की कानूनी अवधारणा क्या है।
मामले की पृष्ठभूमि
एक महिला ने अपने पति के विरुद्ध घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत एक याचिका दायर की, जिसमें उसने पति को निर्देश देने की मांग की कि वह एक निर्माणाधीन फ्लैट की किश्तों का भुगतान करें, जो कि पति के नाम पर बुक था। महिला का कहना था कि वह फ्लैट भविष्य में उनका रहने का स्थान बनने वाला था, इसलिए इसे ‘shared household’ माना जाए और पति को किश्तें भरने का निर्देश दिया जाए।
वहीं पति का तर्क था कि:
- यह फ्लैट अभी निर्माणाधीन है और वे कभी उसमें साथ नहीं रहे हैं।
- फ्लैट पूरी तरह से पति की व्यक्तिगत संपत्ति है, और उसमें पत्नी का कोई कानूनी स्वामित्व या दखल नहीं है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत इस तरह की आर्थिक मांगें करना विधिसम्मत नहीं है।
प्रमुख कानूनी प्रश्न
इस मामले में दो मूल प्रश्न उठते हैं:
- क्या निर्माणाधीन फ्लैट, जिसमें पति-पत्नी कभी साथ नहीं रहे, shared household (साझा घरेलू संबंध) माना जा सकता है?
- क्या पत्नी घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत पति को निर्माणाधीन फ्लैट की किश्तें भरने के लिए बाध्य कर सकती है?
न्यायालय का निर्णय
न्यायालय ने महिला की याचिका खारिज करते हुए निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं:
🔹 साझा घरेलू संबंध की परिभाषा
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2(s) के अनुसार, ‘साझा घरेलू संबंध’ वह घर है जहाँ पत्नी अपने पति के साथ वास्तविक रूप से निवास करती है या कर चुकी है। चूँकि संबंधित फ्लैट में दोनों कभी साथ नहीं रहे, और वह अभी निर्माणाधीन है, अतः उसे साझा घरेलू संबंध नहीं माना जा सकता।
🔹 निर्माणाधीन फ्लैट का स्वामित्व
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कोई महिला केवल इस आधार पर किसी संपत्ति पर दावा नहीं कर सकती कि वह उसके पति के नाम पर है। जब तक वह संपत्ति पति-पत्नी के निवास का वास्तविक स्थल नहीं रही हो, वह घरेलू हिंसा अधिनियम के दायरे में नहीं आती।
🔹 आर्थिक हिंसा की सीमा
अधिनियम में आर्थिक हिंसा को मान्यता दी गई है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि पति को हर प्रकार की संपत्ति या खर्च के लिए बाध्य किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि महिला की बुनियादी आवश्यकताओं और सुरक्षा का ध्यान रखा जाना चाहिए, न कि उन सुविधाओं की मांग की जाए जो साझा जीवन का हिस्सा नहीं रही हों।
कानूनी विश्लेषण
इस निर्णय से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत सामने आते हैं:
✅ 1. Shared Household का व्यावहारिक पक्ष:
सिर्फ स्वामित्व के आधार पर किसी संपत्ति को साझा घरेलू संबंध नहीं माना जा सकता। आवश्यकता है कि पति-पत्नी ने उसमें साथ निवास किया हो, या कम से कम वहाँ साझा जीवन की मंशा और गतिविधियाँ हुई हों।
✅ 2. आर्थिक जिम्मेदारी की मर्यादा:
पति को घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत केवल आवश्यक भरण-पोषण, निवास और सुरक्षा के प्रावधानों तक बाध्य किया जा सकता है। निर्माणाधीन संपत्तियाँ, निवेश आदि का खर्च उससे नहीं वसूला जा सकता जब तक कि वह जीवन का हिस्सा न रही हो।
✅ 3. पत्नी के अधिकार सीमित नहीं हैं, परंतु विवेकपूर्ण हैं:
इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना है, न कि उन्हें पति की प्रत्येक संपत्ति या वित्तीय संसाधन पर असीम अधिकार देना।
पूर्ववर्ती निर्णयों का प्रभाव
यह निर्णय पूर्व के कई उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के निर्णयों के अनुरूप है। विशेष रूप से निम्नलिखित मामलों में साझा घरेलू संबंध की परिभाषा को सीमित किया गया है:
- S.R. Batra v. Taruna Batra (2007) – सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सास-ससुर के घर को साझा घरेलू संबंध नहीं माना जा सकता यदि पति-पत्नी वहाँ साथ नहीं रहे हों।
- Vimlaben Ajitbhai Patel v. Vatslaben Ashokbhai Patel (2008) – पत्नी को पति की व्यक्तिगत संपत्ति पर अधिकार नहीं मिल सकता केवल विवाह के कारण।
नारी सशक्तिकरण बनाम कानूनी अनुशासन
इस तरह के मामलों से यह स्पष्ट होता है कि घरेलू हिंसा अधिनियम का उपयोग नारी सशक्तिकरण के सकारात्मक उद्देश्य के लिए होना चाहिए, लेकिन इसका दुरुपयोग रोकने के लिए न्यायपालिका को स्पष्ट मानदंड स्थापित करने होंगे। न्यायालय की भूमिका यही है कि वह अधिकारों और दायित्वों के बीच संतुलन बनाए।
निष्कर्ष
इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि घरेलू हिंसा अधिनियम महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा हेतु एक प्रभावी कानून है, लेकिन इसका प्रयोग वास्तविक घरेलू परिस्थिति के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। पति को केवल इस आधार पर आर्थिक रूप से दंडित नहीं किया जा सकता कि उसने किसी संपत्ति का स्वामित्व रखा है, जब तक वह संपत्ति साझा जीवन का हिस्सा न रही हो।
यह निर्णय आने वाले समय में ऐसे मामलों में मार्गदर्शक बन सकता है जहाँ पत्नी घरेलू हिंसा अधिनियम का उपयोग कर पति की विभिन्न संपत्तियों पर दावा करती है। इससे न्यायिक प्रक्रिया को दिशा मिलेगी और कानून का दुरुपयोग रोका जा सकेगा।