पीएम और आरएसएस पर आपत्तिजनक कार्टून बनाना पड़ा भारी: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने अग्रिम ज़मानत याचिका की खारिज
परिचय
भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। लेकिन यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है – अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत कुछ यथोचित प्रतिबंध लगाए गए हैं, जिनमें सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, मानहानि, राष्ट्र की एकता एवं अखंडता शामिल हैं। ऐसे में जब कोई अभिव्यक्ति सीमाओं का उल्लंघन करती है, तो वह कानून के दायरे में आ जाती है। इसी प्रकार का एक मामला हाल ही में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में देखा गया, जहाँ एक कार्टूनिस्ट द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर बनाए गए आपत्तिजनक कार्टून को लेकर FIR दर्ज की गई और आरोपी ने अग्रिम जमानत की याचिका दायर की, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला तब सामने आया जब एक कार्टूनिस्ट द्वारा सोशल मीडिया पर एक ऐसा कार्टून साझा किया गया जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस को नकारात्मक और कथित तौर पर अपमानजनक तरीके से चित्रित किया गया था। यह कार्टून सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और कई लोगों ने इसे राष्ट्र विरोधी तथा सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाला माना। इसके पश्चात संबंधित व्यक्ति के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई, जिनमें निम्नलिखित धाराएँ प्रमुख थीं:
- धारा 153A: विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना,
- धारा 295A: धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर ठेस पहुँचाना,
- धारा 505(2): शांति भंग करने हेतु उत्तेजक वक्तव्य देना,
- आईटी अधिनियम की धारा 66A (पूर्व में) या अन्य संबंधित प्रावधान।
इसके बाद आरोपी ने गिरफ्तारी से बचने हेतु अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) की याचिका मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में दायर की।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता (कार्टूनिस्ट) की ओर से प्रस्तुत की गई प्रमुख दलीलें निम्नलिखित थीं:
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार: कार्टून एक व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति है और यह लोकतंत्र में जनतांत्रिक विमर्श का हिस्सा है।
- राजनीतिक आलोचना का अधिकार: एक नागरिक के रूप में सरकार या राजनेताओं की आलोचना करना दंडनीय नहीं हो सकता।
- जानबूझकर अपमान की मंशा नहीं थी: कार्टून का उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं था, बल्कि एक सामाजिक-राजनीतिक विषय पर टिप्पणी करना था।
- पूर्व अपराध का अभाव: याचिकाकर्ता का कोई आपराधिक इतिहास नहीं है।
राज्य पक्ष की दलीलें
सरकार या पुलिस की ओर से प्रस्तुत की गई दलीलें इस प्रकार थीं:
- सांप्रदायिक सौहार्द को क्षति: कार्टून के माध्यम से प्रधानमंत्री और आरएसएस को गलत तरीके से चित्रित किया गया जिससे समाज में वैमनस्य उत्पन्न हो सकता है।
- जानबूझकर भावनाएं भड़काना: सोशल मीडिया पर इसे प्रसारित करने से यह एक संगठित प्रयास प्रतीत होता है।
- साक्ष्य से छेड़छाड़ की संभावना: यदि आरोपी को अग्रिम ज़मानत दी जाती है, तो वह डिजिटल साक्ष्यों को नष्ट कर सकता है।
- जनता में गलत संदेश: ऐसे कृत्यों को प्रोत्साहन देना कानून व्यवस्था के लिए खतरनाक हो सकता है।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का निर्णय
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए अग्रिम ज़मानत याचिका को अस्वीकार (Reject) कर दिया। कोर्ट ने अपने निर्णय में निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदु रखे:
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित है: संविधान अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों के दायरे में।
- सार्वजनिक व्यवस्था महत्वपूर्ण: ऐसा कोई भी कृत्य जो सार्वजनिक व्यवस्था या शांति को प्रभावित कर सकता है, उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत संरक्षण नहीं दिया जा सकता।
- राजनीतिक व्यंग्य बनाम आपराधिक कृत्य: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब राजनीतिक व्यंग्य मानहानि या सांप्रदायिक भड़काव में बदल जाए, तब वह अपराध बन जाता है।
- डिजिटल साक्ष्य का संरक्षण आवश्यक: डिजिटल माध्यमों से फैलाई गई आपत्तिजनक सामग्री की जाँच हेतु गिरफ्तारी आवश्यक हो सकती है।
कानूनी विश्लेषण
इस प्रकरण में प्रमुख रूप से यह प्रश्न उठता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विधिक प्रतिबंधों के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि:
- राजनीतिक आलोचना लोकतंत्र की आत्मा है, लेकिन यदि वह द्वेषपूर्ण या हिंसात्मक है तो उसे संरक्षण नहीं मिल सकता।
- शंकरा कुरुप बनाम केरल राज्य, श्रेया सिंगल बनाम भारत संघ जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि कोई भी कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं कर सकता, जब तक कि वह स्पष्ट रूप से समाज विरोधी न हो।
इसलिए, हर मामले की प्रकृति, संदर्भ और प्रभाव का परीक्षण करना न्यायालय का कर्तव्य है, जो इस केस में किया गया।
निष्कर्ष
यह मामला स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व (Responsibility) का संतुलन अत्यंत आवश्यक है। व्यंग्य और आलोचना लोकतंत्र की बुनियाद हैं, लेकिन जब वे समाज में नफरत, विद्वेष या सार्वजनिक अशांति को जन्म दें, तो वे अपराध का रूप ले सकते हैं।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का यह निर्णय एक संकेत है कि सोशल मीडिया पर सार्वजनिक व्यक्तित्वों या संस्थाओं पर टिप्पणी करते समय सावधानी और विधिक समझ आवश्यक है। यह फैसला आने वाले समय में डिजिटल स्पीच बनाम राष्ट्रहित जैसे मामलों में एक उदाहरण बन सकता है।