राजनीतिक शास्त्र । (Political Science – I) part-1

राजनीतिक शास्त्र । (Political Science – I)


1. राज्य की परिभाषा और तत्व
राज्य एक राजनीतिक संगठन है, जिसकी चार प्रमुख विशेषताएँ होती हैं—जनसंख्या, क्षेत्र, सरकार और संप्रभुता। यह एक ऐसी संस्था है जो समाज को संगठित करती है और विधि तथा शासन के माध्यम से व्यवस्था बनाए रखती है। प्लेटो, अरस्तु, हॉब्स, लॉक तथा रूसो जैसे विचारकों ने राज्य की विभिन्न व्याख्याएं दी हैं। आधुनिक दृष्टिकोण में, राज्य को एक संप्रभु इकाई माना जाता है, जो आंतरिक और बाह्य रूप से स्वतंत्र होती है।


2. संप्रभुता का अर्थ और प्रकार
संप्रभुता से तात्पर्य है सर्वोच्च सत्ता, जो राज्य के भीतर अंतिम निर्णय लेने वाली शक्ति है। यह दो प्रकार की होती है—आंतरिक संप्रभुता (देश के अंदर सभी व्यक्तियों और संस्थाओं पर नियंत्रण) और बाह्य संप्रभुता (अन्य देशों से स्वतंत्रता)। जॉन ऑस्टिन ने इसे “न्यायिक संप्रभुता” कहा, जबकि बोडिन और रूसो ने नैतिक तथा जन-आधारित व्याख्याएं दीं।


3. राजनीति और राजनीतिक शास्त्र में अंतर
राजनीति एक व्यावहारिक प्रक्रिया है जो सत्ता प्राप्ति और उसके प्रयोग से संबंधित है, जबकि राजनीतिक शास्त्र एक अकादमिक अनुशासन है, जो राज्य, सरकार, नीतियों, सिद्धांतों व संस्थाओं का अध्ययन करता है। राजनीति गतिशील और प्रायोगिक होती है जबकि राजनीतिक शास्त्र विश्लेषणात्मक और सैद्धांतिक होता है।


4. राज्य और समाज में अंतर
राज्य एक राजनीतिक संस्था है जबकि समाज एक सामाजिक संस्था है। समाज प्राकृतिक है और लोगों के बीच संबंधों से विकसित होता है, जबकि राज्य कृत्रिम संस्था है जो विधियों और शासन के माध्यम से संचालित होती है। समाज का उद्देश्य सामाजिक सहयोग है, जबकि राज्य का उद्देश्य शासन और नियंत्रण है।


5. शासन के अंग
राज्य के तीन प्रमुख अंग होते हैं—विधायिका (कानून बनाने वाली संस्था), कार्यपालिका (कानून लागू करने वाली संस्था), और न्यायपालिका (कानून की व्याख्या व न्याय प्रदान करने वाली संस्था)। इन तीनों अंगों के बीच शक्ति का संतुलन और पृथक्करण लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक होता है।


6. अधिकार और कर्तव्यों में संबंध
अधिकार व्यक्ति को कुछ करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, जबकि कर्तव्य वह नैतिक और कानूनी दायित्व हैं जो नागरिकों को राज्य और समाज के प्रति निभाने होते हैं। अधिकार और कर्तव्यों में संतुलन आवश्यक है ताकि व्यक्ति स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करे और समाज में अनुशासन बना रहे।


7. लोकतंत्र का अर्थ और विशेषताएँ
लोकतंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें जनता सर्वोच्च होती है और शासक जनता द्वारा चुने जाते हैं। इसकी विशेषताएँ हैं—स्वतंत्र चुनाव, मौलिक अधिकार, बहुदलीय व्यवस्था, कानून का शासन, और उत्तरदायी सरकार। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता को सुनिश्चित करता है।


8. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत
धर्मनिरपेक्षता वह सिद्धांत है जिसमें राज्य किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेता और सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है। भारत में यह संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है और धर्म की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में संरक्षित किया गया है।


9. स्वतंत्रता का अर्थ और प्रकार
स्वतंत्रता का अर्थ है बिना किसी अनुचित प्रतिबंध के कार्य करने की स्वतंत्रता। यह दो प्रकार की होती है—सकारात्मक स्वतंत्रता (कुछ करने की क्षमता) और नकारात्मक स्वतंत्रता (बाधाओं से मुक्ति)। स्वतंत्रता व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक है परंतु इसे अनुशासन और कानून के अधीन रखा जाना चाहिए।


10. समानता का अर्थ और महत्व
समानता का अर्थ है कि सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समान अधिकार और अवसर मिलें। यह राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और कानूनी स्तर पर आवश्यक होती है। समानता लोकतंत्र की नींव है और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है।


11. कानून का शासन (Rule of Law)
यह सिद्धांत कहता है कि सभी नागरिक, चाहे वह सामान्य हों या शासक, कानून के अधीन हैं। यह विचार इंग्लैंड के ए. वी. डाइसी ने दिया। इसके अनुसार, मनमानी के स्थान पर कानून का शासन होना चाहिए। भारत के संविधान में इसका समावेश मौलिक अधिकारों और न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हुआ है।


12. नागरिकता का अर्थ और प्रकार
नागरिकता वह स्थिति है जो किसी व्यक्ति को राज्य का सदस्य बनाती है और उससे अधिकार व कर्तव्यों का संबंध जोड़ती है। नागरिकता जन्म, वंश, विवाह या प्राकृतिककरण द्वारा प्राप्त होती है। भारत में नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत नागरिकता प्रदान की जाती है।


13. राष्ट्र और राज्य में अंतर
राष्ट्र एक सांस्कृतिक, भाषाई, ऐतिहासिक और भावनात्मक इकाई होती है, जबकि राज्य एक राजनीतिक और कानूनी संस्था है। राष्ट्र भावना पर आधारित होता है, जबकि राज्य कानून और शासन पर। कोई राष्ट्र राज्य हो सकता है, लेकिन हर राज्य राष्ट्र नहीं होता।


14. समाजिक न्याय का अर्थ
सामाजिक न्याय एक ऐसी अवस्था है जिसमें समाज के सभी वर्गों को समान अवसर, संसाधनों की भागीदारी और सम्मान मिलता है। यह आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विषमताओं को समाप्त करने और वंचित वर्गों को सशक्त बनाने पर बल देता है। यह भारतीय संविधान के उद्देशिका में एक प्रमुख आदर्श है।


15. यूनानी विचारकों द्वारा राज्य की अवधारणा
यूनानी विचारकों—प्लेटो और अरस्तु—ने राज्य को नैतिक संस्था के रूप में देखा। प्लेटो के अनुसार, राज्य न्याय के लिए है और उसके अनुसार एक आदर्श राज्य में दार्शनिक राजा होना चाहिए। अरस्तु ने राज्य को मनुष्य की नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बताया। उनके अनुसार, “मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है” और राज्य का उद्देश्य सद्गुण का विकास है।


16. राजनीतिक दलों का अर्थ और महत्व
राजनीतिक दल ऐसे संगठित समूह होते हैं जो किसी विचारधारा या नीति के आधार पर सरकार प्राप्त करने और शासन चलाने का लक्ष्य रखते हैं। ये जनमत को संगठित करते हैं, उम्मीदवार खड़े करते हैं, और शासन में भागीदारी करते हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक दल अनिवार्य भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे जनता और सरकार के बीच पुल का कार्य करते हैं। भारत में प्रमुख राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस, भाजपा, व क्षेत्रीय दल जैसे सपा, टीएमसी शामिल हैं।


17. मताधिकार का अर्थ और उसका विकास
मताधिकार वह अधिकार है जिसके अंतर्गत कोई व्यक्ति चुनाव में भाग लेकर अपना मत दे सकता है। प्रारंभ में यह सीमित वर्ग तक सीमित था, परंतु आधुनिक लोकतंत्रों में यह सार्वभौमिक व समान मताधिकार के रूप में विकसित हुआ है। भारत में सभी 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मताधिकार प्राप्त है, जो लोकतंत्र की नींव है।


18. सार्वजनिक प्रशासन का अर्थ
सार्वजनिक प्रशासन वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सरकार की नीतियाँ और कार्यक्रम कार्यान्वित होते हैं। यह प्रशासनिक तंत्र का हिस्सा है जिसमें कार्यपालिका, नौकरशाही, नीतियाँ, और सरकारी योजनाएँ शामिल हैं। यह लोक सेवा, कानून व्यवस्था, और सामाजिक कल्याण को क्रियान्वित करता है और शासन की प्रभावशीलता को दर्शाता है।


19. सत्ता (Power) का अर्थ और प्रकार
सत्ता वह क्षमता है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति या संस्था दूसरों के व्यवहार को नियंत्रित कर सकती है। सत्ता कई प्रकार की होती है—राजनीतिक सत्ता (सरकार द्वारा), आर्थिक सत्ता (धन व संसाधनों द्वारा), सामाजिक सत्ता (परंपराओं द्वारा), और वैचारिक सत्ता (विचारों व शिक्षा द्वारा)। राजनीति में सत्ता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसके माध्यम से नीतियाँ बनाई और लागू की जाती हैं।


20. वैधता (Legitimacy) का अर्थ
वैधता का तात्पर्य उस जन स्वीकृति से है जिसके आधार पर किसी शासन या सत्ता को वैध और स्वीकार्य माना जाता है। मैक्स वेबर के अनुसार, वैधता के तीन प्रकार होते हैं—परंपरागत, कानूनी-प्राकृतिक, और करिश्माई वैधता। भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में वैधता चुनावों, संविधान और न्यायपालिका पर आधारित होती है।


21. राष्ट्रवाद का अर्थ और विकास
राष्ट्रवाद वह भावना है जो लोगों को एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भाषाई या नस्लीय एकता के आधार पर संगठित करती है। इसका विकास विशेष रूप से यूरोप में औद्योगिक क्रांति और फ्रांसीसी क्रांति के बाद हुआ। भारत में राष्ट्रवाद का उदय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ और महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने इसे जन आंदोलन बनाया।


22. नागरिक समाज का अर्थ
नागरिक समाज वह क्षेत्र है जो राज्य और बाजार के बीच स्थित होता है, जिसमें गैर-सरकारी संगठन, सामाजिक समूह, मीडिया, धार्मिक संस्थाएँ आदि शामिल होते हैं। यह समाज में जनहित को बढ़ावा देता है और सरकार पर निगरानी रखता है। यह लोकतंत्र को मजबूत करता है और नागरिक सहभागिता को प्रेरित करता है।


23. अभिजात्यवाद (Elitism) का अर्थ
अभिजात्यवाद वह सिद्धांत है जिसमें शासन या सत्ता समाज के एक विशेष वर्ग—अभिजात वर्ग या विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग—के हाथों में केंद्रित रहती है। यह वर्ग बुद्धिजीवी, अमीर, या उच्च प्रशासनिक पदों पर आसीन हो सकता है। आलोचक इसे लोकतंत्र के विरोध में मानते हैं क्योंकि यह सत्ता का केंद्रीकरण करता है।


24. मानवाधिकारों का अर्थ और प्रकार
मानवाधिकार वे मूल अधिकार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होते हैं, जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा, आदि। ये सार्वभौमिक, अविच्छेद्य और गैर-विचारणीय होते हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा 1948 ने इन्हें वैश्विक मान्यता दी। भारत में इन्हें संविधान के मौलिक अधिकारों व मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत संरक्षित किया गया है।


25. कानून की प्रकृति और विशेषताएँ
कानून वह प्रणाली है जो समाज में नियमों द्वारा शांति और व्यवस्था बनाए रखती है। यह लिखित, अनिवार्य, सार्वभौमिक और न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय होती है। कानून की विशेषताएँ हैं—यह सभी पर लागू होता है, इसका उल्लंघन दंडनीय है, और यह न्यायपालिका द्वारा लागू किया जाता है।


26. स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व
स्वतंत्र न्यायपालिका लोकतंत्र की रीढ़ होती है। यह विधायिका और कार्यपालिका से स्वतंत्र रहकर निष्पक्ष रूप से न्याय करती है। यह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है, कानून की व्याख्या करती है और असंवैधानिक कार्यों की समीक्षा करती है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय इसके उदाहरण हैं।


27. संविधान का अर्थ और प्रकार
संविधान वह सर्वोच्च कानून है जो राज्य की शासन व्यवस्था, संस्थाओं और नागरिकों के अधिकारों को निर्धारित करता है। यह दो प्रकार का होता है—लिखित (जैसे भारत, अमेरिका) और अलिखित (जैसे ब्रिटेन)। संविधान शासन को सीमित करता है और सत्ता का संतुलन बनाए रखता है।


28. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में अंतर
प्रत्यक्ष लोकतंत्र में नागरिक स्वयं विधि निर्माण और निर्णय में भाग लेते हैं (जैसे स्विट्ज़रलैंड), जबकि अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करती है (जैसे भारत)। आधुनिक समय में जनसंख्या की अधिकता के कारण अधिकतर देश अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाते हैं।


29. निरंकुशता (Authoritarianism) का अर्थ
निरंकुशता एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता एक व्यक्ति या छोटे समूह के हाथों में होती है और नागरिक स्वतंत्रता सीमित होती है। इसमें चुनाव, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होती। ऐसे शासन में सरकार की आलोचना पर प्रतिबंध होता है।


30. भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष कैसे है?
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है क्योंकि यह राज्य को किसी धर्म से न जोड़ता है, न ही किसी धर्म को प्रोत्साहन देता है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ घोषित किया गया है। अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं। राज्य धार्मिक भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है।


यह रहे BA LL.B. प्रथम वर्ष – राजनीतिक शास्त्र (Political Science – I) से संबंधित प्रश्न 31 से 50 तक के 15 शॉर्ट उत्तर (प्रत्येक 150–200 शब्दों में) हिंदी में:


31. संविधान सभा की स्थापना और उद्देश्य
भारत की संविधान सभा की स्थापना 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत हुई थी। इसका उद्देश्य स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान बनाना था जो लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी मूल्यों पर आधारित हो। संविधान सभा में विभिन्न राज्यों, समुदायों और वर्गों के प्रतिनिधि शामिल थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर इसके प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिन में संविधान का निर्माण किया।


32. डॉ. भीमराव आंबेडकर का योगदान
डॉ. भीमराव आंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माण में प्रमुख वास्तुकार थे। उन्होंने समानता, सामाजिक न्याय और मौलिक अधिकारों की नींव रखी। उन्होंने छुआछूत उन्मूलन, शिक्षा का अधिकार और पिछड़े वर्गों के आरक्षण की पैरवी की। वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे और उन्होंने संविधान में सामाजिक रूपांतरण की दृष्टि को स्थान दिया।


33. भारतीय संविधान की प्रस्तावना
संविधान की प्रस्तावना भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करती है। यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की मूल भावना को प्रतिबिंबित करती है। प्रस्तावना संविधान का परिचय-पत्र है और इसकी मूल आत्मा मानी जाती है। 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा इसमें “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़े गए।


34. भारतीय संघ की विशेषताएँ
भारतीय संघ एक संघात्मक व्यवस्था है लेकिन इसकी कुछ विशेषताएँ एकात्मक राज्य की ओर झुकाव रखती हैं। इसमें दो सरकारें (केंद्र व राज्य), दोहरी संविधान व्यवस्था, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, और स्वतंत्र न्यायपालिका है। परंतु भारत में केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं जैसे आपातकालीन प्रावधान, राज्यपाल की नियुक्ति आदि।


35. केंद्र-राज्य संबंधों का वर्णन
भारत में केंद्र-राज्य संबंध तीन भागों में विभाजित हैं—विधानमंडलीय, कार्यपालिका और वित्तीय संबंध। संविधान केंद्र को अधिक शक्ति प्रदान करता है। संसद को राज्य सूची में कानून बनाने की कुछ परिस्थितियों में अनुमति दी गई है। आपातकाल की स्थिति में राज्य की शक्तियाँ केंद्र के अधीन आ जाती हैं।


36. भारत में संघवाद की प्रकृति
भारत का संघवाद ‘सशक्त संघवाद’ है जिसमें केंद्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं। यह लचीला संघ है क्योंकि अनुच्छेद 3 के तहत संसद नए राज्यों का निर्माण कर सकती है। भारत में संघात्मक ढांचा तो है, लेकिन वह केंद्र पर आधारित है।


37. संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन दो प्रकार से किया जा सकता है: सामान्य प्रक्रिया (संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से) और विशेष प्रक्रिया (राज्यों की सहमति सहित)। अब तक 100 से अधिक बार संविधान में संशोधन हो चुके हैं। 42वां संशोधन सबसे व्यापक था, जबकि 44वां संशोधन आपातकालीन शक्तियों को सीमित करने हेतु हुआ।


38. मूल अधिकारों की विशेषताएँ
मूल अधिकार भारतीय नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, धर्म की स्वतंत्रता, शोषण से मुक्ति, संस्कृति और शिक्षा के अधिकार प्रदान करते हैं। ये संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12 से 35) में वर्णित हैं। ये अधिकार न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय हैं और नागरिकों की गरिमा तथा स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।


39. मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख करें
मौलिक कर्तव्य संविधान के भाग IV-A में अनुच्छेद 51A के तहत उल्लेखित हैं। ये कर्तव्य नागरिकों से अपेक्षा करते हैं कि वे संविधान का पालन करें, राष्ट्रध्वज का सम्मान करें, पर्यावरण की रक्षा करें, वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहित करें, और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करें। इनकी शुरुआत 42वें संविधान संशोधन (1976) से हुई।


40. नीति-निर्देशक सिद्धांतों का महत्व
नीति-निर्देशक सिद्धांत संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36–51) में हैं। ये सरकार को सामाजिक-आर्थिक न्याय, समान वेतन, पर्यावरण संरक्षण, ग्राम पंचायतों के सशक्तिकरण आदि की दिशा में नीति-निर्माण हेतु मार्गदर्शन देते हैं। ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं लेकिन राज्य को जनकल्याणकारी बनाने में सहायक हैं।


41. राष्ट्रपति की भूमिका और शक्तियाँ
राष्ट्रपति भारत का राष्ट्राध्यक्ष होता है। वह कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख है और संसद का अंग भी। उसकी शक्तियाँ नाममात्र की होती हैं और वह मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है। राष्ट्रपति विधायी, कार्यपालिका, न्यायिक, आपातकालीन व सैन्य शक्तियाँ रखता है, परंतु सभी क्रियाएं मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होती हैं।


42. प्रधानमंत्री की भूमिका
प्रधानमंत्री भारत सरकार का वास्तविक प्रमुख होता है। वह मंत्रिपरिषद का प्रमुख होता है और राष्ट्रपति को सलाह देता है। वह संसद और सरकार के बीच समन्वय करता है और नीतियों का निर्धारण करता है। प्रधानमंत्री के पास प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों प्रकार की शक्तियाँ होती हैं।


43. लोकसभा और राज्यसभा में अंतर
लोकसभा को निम्न सदन और राज्यसभा को उच्च सदन कहा जाता है। लोकसभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव से चुने जाते हैं, जबकि राज्यसभा के सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं। लोकसभा सरकार को उत्तरदायी बनाती है जबकि राज्यसभा पुनर्विचार का सदन है।


44. न्यायपालिका की स्वतंत्रता के तत्व
भारतीय संविधान न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने के लिए कई प्रावधान करता है—न्यायाधीशों की नियुक्ति व हटाने की विशेष प्रक्रिया, उनके वेतन की सुरक्षा, कार्यकाल की निश्चितता, और कार्यपालिका से स्वतंत्रता। यह स्वतंत्रता नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और सरकार के नियंत्रण हेतु आवश्यक है।


45. चुनाव आयोग का कार्य
चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है जो भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए उत्तरदायी है। यह लोकसभा, राज्य विधानसभा, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव आयोजित करता है। यह राजनीतिक दलों को मान्यता देता है और आदर्श आचार संहिता लागू करता है।


46. भारत में भ्रष्टाचार की समस्या
भ्रष्टाचार भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है, जो शासन, नौकरशाही, राजनीति, और न्यायिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है। यह विकास की गति को रोकता है और आम जनता का विश्वास कमजोर करता है। इसके समाधान हेतु लोकपाल, लोकायुक्त, RTI जैसे कानून बनाए गए हैं।


47. राजनीतिक भागीदारी का महत्व
राजनीतिक भागीदारी से तात्पर्य है नागरिकों का राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना, जैसे मतदान करना, आंदोलन, जन प्रतिनिधित्व आदि। यह लोकतंत्र की जड़ को मजबूत करती है और शासन को उत्तरदायी बनाती है। जागरूक नागरिक लोकतांत्रिक प्रणाली को प्रभावी बनाते हैं।


48. भारत में समाजवाद का स्वरूप
भारतीय संविधान समाजवाद को आर्थिक और सामाजिक समानता की भावना से परिभाषित करता है। भारत में समाजवाद का अर्थ है संसाधनों का समान वितरण, गरीबों का उत्थान, श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा, और कल्याणकारी राज्य की स्थापना। यह लोकतांत्रिक ढांचे के अंतर्गत सामाजिक न्याय की भावना को बढ़ावा देता है।


49. पंचायती राज की भूमिका
पंचायती राज भारत की त्रिस्तरीय स्थानीय स्वशासन प्रणाली है—ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद। यह ग्रामीण विकास, जन भागीदारी और लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करता है। 73वां संविधान संशोधन (1992) इसके लिए मील का पत्थर था। यह स्थानीय समस्याओं का स्थानीय स्तर पर समाधान करता है।


50. वैश्वीकरण का राजनीति पर प्रभाव
वैश्वीकरण से राष्ट्रों की संप्रभुता, आर्थिक नीति, और सांस्कृतिक पहचान पर प्रभाव पड़ा है। यह अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यापार और संचार के माध्यम से देशों को आपस में जोड़ता है। राजनीतिक रूप से यह नीति-निर्माण को वैश्विक दबावों के अधीन करता है। हालांकि इससे लोकतंत्र, मानवाधिकार और वैश्विक सहयोग को भी बल मिला है।