1. दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC), 1908 का उद्देश्य क्या है?
दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 का मुख्य उद्देश्य नागरिक मामलों में एकसमान प्रक्रिया निर्धारित करना है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता, समानता और दक्षता बनी रहे। यह संहिता दीवानी मामलों की दाखिला प्रक्रिया, नोटिस, तामील, साक्ष्य, निर्णय, अपील आदि सभी चरणों को विस्तार से निर्दिष्ट करती है। CPC न्यायालयों को अधिकार क्षेत्र, कार्य विभाजन और प्रक्रिया संबंधी नियमों में मार्गदर्शन प्रदान करती है। इससे मुकदमों का शीघ्र और निष्पक्ष निपटारा सुनिश्चित होता है। यह संहिता वादी और प्रतिवादी दोनों को समान अवसर प्रदान करती है और न्यायिक अनुशासन को कायम रखने में सहायक है। कुल मिलाकर, CPC का उद्देश्य कानून के शासन की रक्षा करना, न्याय तक आसान पहुंच सुनिश्चित करना और दीवानी मुकदमों के निष्पादन को प्रभावी बनाना है।
2. दीवानी वाद कैसे प्रारंभ किया जाता है?
दीवानी वाद प्रारंभ करने के लिए सबसे पहले वादी को संबंधित न्यायालय में एक लिखित वाद-पत्र (Plaint) दाखिल करना होता है। इस वाद पत्र में वादी अपनी शिकायत, विवाद का संक्षिप्त विवरण, प्रतिवादी का नाम, पता और माँग स्पष्ट रूप से दर्ज करता है। वाद पत्र के साथ उचित न्यायिक शुल्क भी जमा करना होता है। न्यायालय प्रारंभिक जाँच के बाद यदि वाद ग्राह्य समझता है तो प्रतिवादी को समन जारी करता है, जिससे उसे अदालत में प्रस्तुत होकर अपना उत्तर देने का अवसर प्राप्त हो सके। प्रतिवादी इसके उत्तर में लिखित कथन (Written Statement) दाखिल करता है। इसके बाद न्यायालय साक्ष्य, जिरह और सुनवाई के आधार पर निर्णय देता है। वाद की प्रक्रिया CPC के नियमों के तहत निर्धारित होती है, जिससे निष्पक्ष और न्यायपूर्ण न्यायिक कार्यवाही सुनिश्चित होती है।
3. समन (Summons) क्या होता है और इसका उद्देश्य क्या है?
समन एक न्यायिक दस्तावेज होता है, जिसे न्यायालय द्वारा प्रतिवादी या गवाह को भेजा जाता है, जिससे उन्हें अदालत में उपस्थित होकर या कोई दस्तावेज प्रस्तुत करने हेतु निर्देशित किया जाता है। CPC की धारा 27 से 32 के अंतर्गत समन की प्रक्रिया निर्धारित की गई है। समन का उद्देश्य है कि संबंधित पक्ष को विधिवत जानकारी दी जाए कि उसके विरुद्ध कोई वाद दाखिल हुआ है और उसे सुनवाई में भाग लेने का अवसर प्रदान किया जाए। समन उचित समय पर और विधि अनुसार तामील होना आवश्यक होता है ताकि न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनी रहे। यदि समन की तामील उचित ढंग से नहीं होती है, तो मुकदमे की सुनवाई पर प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए समन प्रक्रिया न्याय की मूलभूत गारंटी है जो “नैसर्गिक न्याय” के सिद्धांत को पूरा करती है।
4. प्राथमिक सुनवाई (Preliminary Hearing) का क्या महत्व है?
प्राथमिक सुनवाई मुकदमे की प्रारंभिक अवस्था होती है जिसमें न्यायालय यह निर्धारित करता है कि वाद में विचारणीय प्रश्न है या नहीं। यदि वाद प्रथम दृष्टया ग्राह्य नहीं है, तो न्यायालय इसे प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर सकता है। CPC की धारा 11 और आदेश 14 इस चरण को निर्देशित करती हैं। इस सुनवाई में न्यायालय मुद्दों का निर्धारण करता है, जिससे बाद की प्रक्रिया सटीक दिशा में आगे बढ़ सके। इसमें यह भी तय होता है कि पक्षों के बीच कौन से विवाद वास्तविक हैं और किन्हें साक्ष्य द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता है। प्राथमिक सुनवाई समय की बचत करती है और व्यर्थ के वादों को शीघ्र समाप्त करने में सहायक होती है। यह प्रक्रिया मुकदमे को प्रभावी और त्वरित न्याय प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
5. निर्णय और डिक्री (Decree) में क्या अंतर है?
“निर्णय” (Judgment) न्यायालय द्वारा किसी मामले में प्रस्तुत तथ्यों और तर्कों पर आधारित तर्कपूर्ण व्याख्या होती है, जिसमें न्यायाधीश द्वारा विवाद का निपटारा किया जाता है। वहीं, “डिक्री” (Decree) न्यायालय द्वारा पारित वह औपचारिक आदेश होता है जो निर्णय के परिणामस्वरूप जारी होता है। CPC की धारा 2(9) के अनुसार डिक्री वह औपचारिक अभिव्यक्ति है जो किसी अधिकार की स्थापना या अस्वीकार करती है। Judgment निर्णय का आधार होता है, जबकि Decree उसका परिणाम होता है। निर्णय में तर्क दिए जाते हैं जबकि डिक्री में आदेश दिए जाते हैं। दोनों की आवश्यकता होती है ताकि पक्षकारों को न्याय की स्पष्ट और वैधानिक पुष्टि मिल सके। निर्णय के बिना डिक्री नहीं बन सकती और डिक्री के बिना निर्णय निष्पादन योग्य नहीं होता।
6. डिक्री की तामील (Execution of Decree) क्या होती है?
जब न्यायालय कोई डिक्री पारित करता है, तो वह केवल आदेश नहीं होता बल्कि उस आदेश का पालन कराना भी आवश्यक होता है। डिक्री की तामील वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा वादी को निर्णय के अनुसार उसका अधिकार दिलवाया जाता है। CPC की धारा 36 से 74 तक और आदेश 21 इस प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। यदि प्रतिवादी डिक्री का पालन स्वेच्छा से नहीं करता, तो वादी निष्पादन याचिका दायर कर सकता है। इसमें संपत्ति कुर्क करना, वेतन की कटौती, गिरफ्तारी या अन्य विधिक उपाय शामिल हो सकते हैं। यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि न्याय केवल कागज पर न रहे, बल्कि व्यवहारिक रूप से भी लागू हो। डिक्री की तामील न्याय व्यवस्था का अंतिम लेकिन सबसे प्रभावशाली चरण है, जो न्याय की पूर्णता सुनिश्चित करता है।
7. अपील (Appeal) और पुनरीक्षण (Revision) में क्या अंतर है?
अपील और पुनरीक्षण दोनों ही न्यायिक निर्णयों की समीक्षा की विधियां हैं, लेकिन इनका उद्देश्य और प्रक्रिया भिन्न होती है। अपील का अर्थ है कि उच्च न्यायालय से अनुरोध किया जाए कि वह अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय की वैधानिकता, तथ्य और कानून के आधार पर दोबारा विचार करे। CPC की धारा 96 से 112 तक अपील का प्रावधान करती है। वहीं पुनरीक्षण (Revision) CPC की धारा 115 के तहत होता है, जिसमें उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय की कार्यवाही में त्रुटियों की जांच करता है। पुनरीक्षण केवल प्रक्रिया की वैधता तक सीमित होता है, न कि तथ्यात्मक पुनर्विचार तक। अपील में व्यापक अधिकार होते हैं, जबकि पुनरीक्षण सीमित न्यायिक नियंत्रण है। दोनों प्रक्रियाएं न्यायिक पारदर्शिता और त्रुटियों के सुधार के लिए आवश्यक हैं।
8. अंतरिम आदेश (Interim Order) क्या होता है?
अंतरिम आदेश वह अस्थायी निर्देश होता है जो न्यायालय द्वारा मुकदमे की अंतिम सुनवाई से पूर्व पारित किया जाता है, ताकि वादी या प्रतिवादी के हितों की रक्षा की जा सके। CPC के आदेश 39 और 40 में अंतरिम आदेशों जैसे अस्थायी निषेधाज्ञा (Temporary Injunction) और रिसीवर नियुक्ति का प्रावधान है। इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया के दौरान यथास्थिति बनाए रखना होता है ताकि अंतिम निर्णय निष्प्रभावी न हो जाए। उदाहरणस्वरूप, यदि वादी को यह डर है कि प्रतिवादी संपत्ति बेच देगा, तो अंतरिम आदेश से ऐसा रोका जा सकता है। ये आदेश न्यायालय के विवेक पर आधारित होते हैं और इनमें न्यायसंगतता, तात्कालिकता और क्षति का मूल्यांकन किया जाता है। अंतरिम आदेश अस्थायी होते हैं, लेकिन न्याय के संरक्षण में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
9. निषेधाज्ञा (Injunction) का क्या महत्व है?
निषेधाज्ञा एक ऐसा न्यायिक आदेश होता है जिसके द्वारा न्यायालय किसी व्यक्ति को कोई कार्य करने से रोकता है या किसी कार्य को करने का निर्देश देता है। यह दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 39 में वर्णित है और मुख्यतः अंतरिम राहत के रूप में दी जाती है। निषेधाज्ञा का उद्देश्य यह होता है कि वादी को ऐसे नुकसान से बचाया जाए जिसे भविष्य में मुआवज़े द्वारा ठीक नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति किसी की संपत्ति पर अवैध निर्माण कर रहा है, तो वादी निषेधाज्ञा प्राप्त कर उसे रोक सकता है। निषेधाज्ञा तीन प्रकार की होती है: अस्थायी, स्थायी और अनिवार्य। यह न्याय का एक प्रभावी साधन है जो कानून के उल्लंघन को तत्काल रोकने और स्थिति को नियंत्रित रखने में मदद करता है।
10. वाद की सीमाएं (Limitation) क्या होती हैं?
“Limitation” का तात्पर्य है किसी कानूनी कार्यवाही को शुरू करने के लिए निर्धारित समयसीमा। यदि यह अवधि समाप्त हो जाती है, तो व्यक्ति न्यायालय में वाद नहीं दाखिल कर सकता। यह सिद्धांत सीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act) द्वारा नियंत्रित होता है। यह अधिनियम विभिन्न प्रकार के वादों के लिए अलग-अलग समयसीमा निर्धारित करता है — जैसे कि संपत्ति संबंधी वादों के लिए 12 वर्ष, ऋण वसूली के लिए 3 वर्ष आदि। यह कानून सुनिश्चित करता है कि मुकदमे समय रहते दायर हों ताकि न्यायिक प्रणाली पर अनावश्यक दबाव न पड़े और प्रमाण भी ताजा हों। यदि कोई व्यक्ति समयसीमा के बाद वाद दाखिल करता है, तो उसे “देरी के लिए कारण” बताना होता है। यह अधिनियम न्यायिक अनुशासन और न्याय में तत्परता बनाए रखने का माध्यम है।
11. सीमा अधिनियम के अंतर्गत ‘समय की गणना’ कैसे होती है?
सीमा अधिनियम, 1963 की धारा 12 से 24 तक समय की गणना की विस्तृत प्रक्रिया दी गई है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि वाद दाखिल करने की अंतिम तिथि की गणना कैसे होगी। आमतौर पर समय की गणना वाद के कारण उत्पन्न होने वाले दिन के अगले दिन से प्रारंभ होती है। यदि अंतिम दिन सार्वजनिक अवकाश हो, तो वाद अगले कार्यदिवस पर दाखिल किया जा सकता है। अपील या पुनरीक्षण में उस अवधि को गणना से बाहर रखा जाता है जो प्रमाणपत्र प्राप्त करने, प्रतिलिपि बनवाने आदि में लगती है। यदि वादी उचित कारणों से विलंब से वाद दायर करता है, तो धारा 5 के तहत देरी को क्षमा किया जा सकता है। इस प्रकार, समय की गणना न्यायसंगत और व्यावहारिक रूप से की जाती है ताकि न्याय में बाधा न आए।
12. अपील का अधिकार किस आधार पर मिलता है?
अपील का अधिकार स्वाभाविक नहीं होता, बल्कि यह विशेष कानून या संहिता द्वारा प्रदत्त होता है। CPC की धारा 96 और 100 में प्रथम और द्वितीय अपील का प्रावधान है। सामान्यतः, जब कोई पक्ष न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट होता है, और उसे लगता है कि निर्णय में कानूनी या तथ्यात्मक त्रुटि है, तो वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। अपील का अधिकार उस डिक्री या आदेश की प्रकृति पर भी निर्भर करता है। सभी आदेश अपील योग्य नहीं होते, लेकिन यदि कोई आदेश अधिकारों को प्रभावित करता है या न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, तो अपील की जा सकती है। यह अधिकार न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।
13. ‘Cause of Action’ क्या होता है?
‘Cause of Action’ वह परिस्थिति या घटनाक्रम होता है जो किसी व्यक्ति को न्यायालय में वाद दायर करने का वैधानिक अधिकार देता है। जब किसी व्यक्ति का अधिकार उल्लंघित होता है और उसे नुकसान पहुँचता है, तब वह Cause of Action उत्पन्न होता है। उदाहरण के रूप में, यदि किसी व्यक्ति का वेतन न दिया जाए, तो उसके पास Cause of Action उत्पन्न होता है कि वह वेतन वसूली हेतु वाद दायर करे। CPC में यह अनिवार्य है कि Plaint में Cause of Action का स्पष्ट उल्लेख हो। यह निर्धारित करता है कि वाद किस न्यायालय में और किस प्रकार सुना जाएगा। बिना Cause of Action के वाद निरर्थक होता है। यह न्यायिक कार्यवाही की बुनियादी शर्त है।
14. किस न्यायालय में वाद दाखिल किया जा सकता है?
वाद दाखिल करने हेतु उपयुक्त न्यायालय का निर्धारण तीन बातों पर आधारित होता है — (1) विषय का प्रकार (2) क्षेत्राधिकार (3) मूल्याधिकार। CPC की धारा 15 से 20 तक इस बारे में स्पष्ट प्रावधान हैं। सामान्यतः, वाद वहाँ दाखिल किया जाता है जहाँ प्रतिवादी निवास करता है या जहाँ विवादित कार्यवाही हुई हो। इसके अतिरिक्त, विषय की प्रकृति के आधार पर विशेष न्यायालयों का भी प्रावधान हो सकता है जैसे उपभोक्ता न्यायालय, पारिवारिक न्यायालय, वाणिज्यिक न्यायालय आदि। यदि वाद गलत न्यायालय में दाखिल किया गया हो, तो उसे खारिज किया जा सकता है। उचित न्यायालय का चयन न्यायसंगत न्याय की प्राथमिक शर्त है।
15. बहस और साक्ष्य का क्या महत्व है?
वाद की सुनवाई में बहस और साक्ष्य दोनों ही महत्वपूर्ण चरण होते हैं। बहस में पक्षकार अपने वकीलों के माध्यम से तर्क प्रस्तुत करते हैं और कानून की व्याख्या करते हैं। वहीं, साक्ष्य वह आधार होता है जिस पर वादी अपने दावे को साबित करता है। साक्ष्य मौखिक, दस्तावेजी, या परिस्थितिजन्य हो सकते हैं और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत स्वीकार्य होते हैं। बहस और साक्ष्य न्यायालय को यह निर्णय लेने में सहायक होते हैं कि कौन सा पक्ष अपने दावे में सच्चा है। निष्पक्ष बहस और विश्वसनीय साक्ष्य न्यायिक प्रक्रिया की आत्मा हैं। इनके बिना कोई भी निर्णय न्यायसंगत नहीं हो सकता।
16. पुनर्विचार याचिका (Review Petition) क्या है?
पुनर्विचार याचिका वह प्रक्रिया है जिसमें वही न्यायालय अपने पूर्ववर्ती निर्णय पर पुनर्विचार करता है। CPC की धारा 114 और आदेश 47 के तहत यदि किसी पक्ष को यह लगता है कि न्यायालय के निर्णय में स्पष्ट त्रुटि हुई है, या कोई महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में नहीं लाया गया, तो वह उसी न्यायालय में पुनर्विचार की अर्जी दे सकता है। यह एक असाधारण उपाय है, जो तभी उपलब्ध होता है जब नई परिस्थितियाँ सामने आई हों या स्पष्ट न्यायिक चूक हुई हो। पुनर्विचार का उद्देश्य न्यायालय को अपने ही निर्णय को संशोधित करने का अवसर देना है, जिससे न्याय की रक्षा हो सके। हालाँकि, इसे अंतिम उपाय के रूप में देखा जाता है और इसमें नए साक्ष्य स्वीकार नहीं किए जाते।
17. बहस पूर्व मुद्दा निर्धारण (Framing of Issues) क्या होता है?
CPC की आदेश 14 के तहत, जब वादी और प्रतिवादी के कथनों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि किन बातों पर विवाद है, तो न्यायालय ‘मुद्दे’ (Issues) निर्धारित करता है। यह वह प्रश्न होते हैं जिन पर न्यायालय को निर्णय देना होता है। उदाहरण के लिए – “क्या संपत्ति वादी की है?”, “क्या ऋण चुका दिया गया?” आदि। मुद्दों का निर्धारण मुकदमे की दिशा तय करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कौन से बिंदुओं पर साक्ष्य आवश्यक हैं और किन पर नहीं। यह न्यायिक समय की बचत करता है और मुकदमे को सुगठित बनाता है। स्पष्ट और सीमित मुद्दे ही निष्पक्ष और त्वरित न्याय सुनिश्चित करते हैं।
18. स्थगन (Adjournment) क्या है और इसकी सीमाएं क्या हैं?
स्थगन (Adjournment) का अर्थ है किसी सुनवाई या प्रक्रिया को अगली तिथि पर स्थगित करना। CPC की आदेश 17 के तहत न्यायालय विशेष परिस्थितियों में स्थगन की अनुमति देता है। हालांकि, अनावश्यक स्थगन मुकदमे की गति में बाधा बनता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई निर्णयों में कहा है कि पक्षकारों को अनावश्यक स्थगन मांगने से रोका जाए। कानून में अधिकतम तीन बार स्थगन की अनुमति दी गई है, वह भी जब वाजिब कारण हों। बार-बार की स्थगन याचिकाएं न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग मानी जाती हैं। स्थगन का उद्देश्य केवल न्यायसंगत परिस्थिति में ही मुकदमे को विराम देना है, ताकि किसी पक्ष को अनुचित नुकसान न हो।
19. अभ्यर्पण (Set-off) का क्या अर्थ है?
CPC के आदेश 8, नियम 6 के अनुसार, Set-off का अर्थ है कि प्रतिवादी, वादी से अपने देय पैसे को वसूलने के लिए, वादी की मांग में से कटौती करने की याचना कर सकता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब वादी और प्रतिवादी दोनों एक-दूसरे के ऋणी होते हैं। उदाहरणतः, यदि वादी प्रतिवादी से ₹1,00,000 की मांग करता है, और प्रतिवादी यह कहे कि वादी उसे ₹40,000 का ऋणी है, तो वह Set-off मांग सकता है और उसकी देनदारी ₹60,000 मानी जा सकती है। यह प्रक्रिया न्यायिक दक्षता को बढ़ाती है और एक ही मुकदमे में दोनों पक्षों के दावे का निपटारा संभव बनाती है।
20. जवाबी दावा (Counter-Claim) क्या होता है?
Counter-Claim का अर्थ है कि प्रतिवादी स्वयं वादी के विरुद्ध एक स्वतंत्र दावा करता है, जिसे उसी वाद में प्रस्तुत किया जाता है। CPC के आदेश 8, नियम 6-A से 6-G में इसकी व्यवस्था दी गई है। यह दावा प्रतिवादी द्वारा उस वाद के भीतर ही किया जाता है, और इसे एक स्वतंत्र वाद की भांति समझा जाता है। उदाहरणतः, यदि वादी कहता है कि प्रतिवादी ने ऋण नहीं चुकाया, तो प्रतिवादी यह कह सकता है कि वादी ने उसे भी क्षति पहुँचाई है और मुआवज़ा देना चाहिए। इससे दोनों पक्षों के दावे एक ही कार्यवाही में निपट जाते हैं, जिससे समय और खर्च की बचत होती है।
21. अंतरिम निषेधाज्ञा के लिए आवश्यक तत्व क्या हैं?
CPC के आदेश 39 के अनुसार, अंतरिम निषेधाज्ञा (Temporary Injunction) तब दी जाती है जब:
- वादी की prima facie मजबूत स्थिति हो,
- यदि निषेधाज्ञा न दी जाए तो वादी को अपूरणीय क्षति हो सकती है,
- संतुलन वादी के पक्ष में हो।
उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति बिना स्वीकृति के वादी की संपत्ति पर निर्माण कर रहा है, तो वादी अंतरिम निषेधाज्ञा प्राप्त कर उसे रोक सकता है। न्यायालय इन तीन शर्तों के आधार पर तय करता है कि निषेधाज्ञा दी जाए या नहीं। यह एक अस्थायी उपाय होता है जिसका उद्देश्य यथास्थिति बनाए रखना है जब तक कि अंतिम निर्णय न आ जाए। इससे पक्षकारों के अधिकारों की रक्षा होती है।
22. निषेधाज्ञा और स्थगनादेश (Stay Order) में क्या अंतर है?
निषेधाज्ञा (Injunction) वह आदेश है जिसमें किसी व्यक्ति को कोई कार्य करने से रोका जाता है या करने का निर्देश दिया जाता है। यह आमतौर पर वादी या प्रतिवादी के बीच पारस्परिक अधिकारों के संदर्भ में होता है। दूसरी ओर, स्थगनादेश (Stay Order) न्यायालय का एक ऐसा निर्देश है जो किसी पूर्ववर्ती न्यायिक आदेश या कार्यवाही को अस्थायी रूप से रोक देता है। निषेधाज्ञा अधिकारों की रक्षा करती है, जबकि स्थगनादेश न्यायिक प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए दिया जाता है। दोनों आदेश अस्थायी हो सकते हैं लेकिन उनके प्रयोजन और प्रकृति अलग-अलग होते हैं।
23. अपील योग्य आदेश (Appealable Orders) कौन-कौन से होते हैं?
CPC की धारा 104 और आदेश 43 में अपील योग्य आदेशों की सूची दी गई है। सभी आदेश अपील योग्य नहीं होते, केवल वे ही जिनमें पक्षकारों के अधिकार प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए: निषेधाज्ञा की अस्वीकृति, न्यायालय का क्षेत्राधिकार तय करने वाला आदेश, या पक्षकारों को हटाने या जोड़ने का आदेश आदि। ऐसे आदेश जो मुकदमे की दिशा को प्रभावित करते हैं या पक्षकारों को हानि पहुँचाते हैं, वे अपील योग्य होते हैं। इस व्यवस्था का उद्देश्य न्यायालय पर अनावश्यक बोझ को कम करना है और केवल महत्वपूर्ण निर्णयों की समीक्षा की अनुमति देना है।
24. परिपक्व ऋण क्या होता है और इसका प्रभाव क्या है?
परिपक्व ऋण (Matured Debt) वह ऋण होता है जिसकी अदायगी की समय-सीमा समाप्त हो चुकी हो और जिसे तत्काल भुगतान किया जा सकता है। CPC में जब कोई व्यक्ति Set-off या Counter-claim करता है, तो वह केवल परिपक्व ऋण पर आधारित हो सकता है। यदि ऋण अभी परिपक्व नहीं हुआ है (जैसे कि भविष्य की देनदारी), तो उसे उस वाद में समायोजित नहीं किया जा सकता। परिपक्व ऋण पर कानूनी कार्यवाही करना भी तुरंत संभव होता है। न्यायालय केवल वैध और परिपक्व ऋण को ही कानूनी अधिकार के रूप में मान्यता देता है।
25. क्या सीमा अधिनियम वाद खारिज करने का आधार बन सकता है?
हाँ, यदि कोई वाद निर्धारित सीमा अवधि के बाद दाखिल किया गया हो और वादी देरी के लिए कोई उचित कारण प्रस्तुत नहीं करता, तो न्यायालय उस वाद को सीमा अधिनियम के आधार पर खारिज कर सकता है। यह अधिनियम वाद की समयबद्धता सुनिश्चित करता है ताकि सबूत ताजा रहें और न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक देरी न हो। न्यायालय केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई करता है जो वैध समयसीमा में दाखिल किए गए हों। यदि देरी उचित कारणों से हुई हो, तो धारा 5 के तहत क्षमा याचिका देकर राहत मांगी जा सकती है, लेकिन यदि कारण असंतोषजनक हो, तो वाद खारिज हो सकता है।
26. निषेधाज्ञा कितने प्रकार की होती है?
निषेधाज्ञा मुख्यतः तीन प्रकार की होती है:
- अस्थायी निषेधाज्ञा (Temporary Injunction): यह वाद की सुनवाई के दौरान यथास्थिति बनाए रखने हेतु दी जाती है। CPC के आदेश 39 के तहत यह दी जाती है।
- स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction): यह न्यायालय द्वारा वाद के अंतिम निर्णय के रूप में दी जाती है, जब यह आवश्यक हो कि प्रतिवादी को हमेशा के लिए किसी कार्य से रोका जाए।
- अनिवार्य निषेधाज्ञा (Mandatory Injunction): इसमें न्यायालय प्रतिवादी को कोई कार्य करने का निर्देश देता है, जैसे किसी अतिक्रमण को हटाना।
इन तीनों निषेधाज्ञाओं का उद्देश्य वादी के अधिकारों की रक्षा करना और संभावित हानि से बचाव करना होता है। निषेधाज्ञा एक न्यायिक उपकरण है जो कानून के उल्लंघन को रोकता है।
27. CPC की धारा 10 (Stay of Suit) क्या है?
CPC की धारा 10 के तहत, यदि कोई वाद पहले से ही न्यायालय में लंबित है और उसमें वही पक्षकार तथा वही मुद्दे हैं, तो कोई अन्य न्यायालय दूसरा वाद सुनवाई में नहीं ले सकता। इसे “Stay of Suit” कहा जाता है। इसका उद्देश्य समान वादों की पुनरावृत्ति से बचाव करना, समय और संसाधनों की बचत करना तथा परस्पर विरोधी निर्णयों से न्यायिक व्यवस्था को बचाना है। इस प्रावधान के तहत, दूसरा वाद तब तक स्थगित रहता है जब तक कि पहला वाद निपट नहीं जाता। यह सिद्धांत न्याय की दक्षता और स्थिरता को बढ़ाता है।
28. सेवा दोष (Defective Service of Summons) का प्रभाव क्या होता है?
यदि समन की सेवा उचित रूप से नहीं होती है, तो प्रतिवादी को न्यायिक कार्यवाही की जानकारी नहीं मिलती, और वह अपनी बात रखने से वंचित हो सकता है। ऐसे में यदि न्यायालय अनुपस्थिति में निर्णय पारित करता है, तो वह निर्णय न्याय के विरुद्ध माना जा सकता है। CPC में सेवा दोष के कारण वाद की प्रक्रिया बाधित हो सकती है। प्रतिवादी इस आधार पर निर्णय को चुनौती दे सकता है और पुनः सुनवाई की मांग कर सकता है। इसलिए समन की तामील निष्पक्ष न्याय के लिए अत्यंत आवश्यक है।
29. न्यायालय किस आधार पर निषेधाज्ञा देने से इनकार कर सकता है?
न्यायालय तब निषेधाज्ञा देने से इनकार कर सकता है जब:
- वादी की स्थिति prima facie मज़बूत न हो,
- यथास्थिति में कोई अपूरणीय क्षति न हो,
- निषेधाज्ञा जनहित या सार्वजनिक व्यवस्था के विरुद्ध हो,
- वादी स्वयं दोषी हो या अनैतिक व्यवहार में लिप्त हो।
इसके अतिरिक्त, निषेधाज्ञा केवल संभावित या वास्तविक अधिकारों की रक्षा हेतु दी जाती है, न कि काल्पनिक या अटकलों पर। न्यायालय निषेधाज्ञा के प्रयोग में न्यायिक विवेक का प्रयोग करता है और यह सुनिश्चित करता है कि किसी पक्ष को अनुचित लाभ न मिले।
30. निषेधाज्ञा की अवहेलना पर क्या दंड है?
यदि कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा जारी निषेधाज्ञा का उल्लंघन करता है, तो उसे अवमानना (Contempt of Court) का दोषी ठहराया जा सकता है। यह सिविल या क्रिमिनल अवमानना दोनों हो सकती है। दंडस्वरूप न्यायालय दोषी व्यक्ति पर जुर्माना लगा सकता है या उसे कारावास की सजा दे सकता है। निषेधाज्ञा की अवहेलना से न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुँचती है और विधिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा होता है। इसलिए इसकी अनुपालना अनिवार्य है। यह CPC के साथ-साथ अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत नियंत्रित होता है।
31. निष्पादन योग्य डिक्री (Executable Decree) क्या है?
निष्पादन योग्य डिक्री वह होती है जिसे वादी न्यायालय के माध्यम से लागू करवा सकता है। यह वह आदेश होता है जो प्रतिवादी को कुछ करने या न करने का निर्देश देता है, जैसे – धनराशि की वसूली, संपत्ति का कब्जा दिलवाना, आदि। CPC की धारा 36 से 74 तक निष्पादन प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। यदि प्रतिवादी स्वेच्छा से आदेश का पालन नहीं करता, तो वादी निष्पादन याचिका दायर कर सकता है। निष्पादन योग्य डिक्री ही वादी को व्यावहारिक रूप से न्याय दिलवाती है।
32. निष्पादन याचिका (Execution Petition) क्या है?
निष्पादन याचिका वह आवेदन होती है जिसे वादी न्यायालय में दायर करता है, ताकि पारित डिक्री का पालन करवाया जा सके। यह CPC के आदेश 21 के अंतर्गत दायर की जाती है। यदि प्रतिवादी डिक्री के आदेशों का पालन नहीं करता, तो वादी इस याचिका के माध्यम से संपत्ति की कुर्की, वेतन की कटौती, कब्जा दिलवाने या गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई करवा सकता है। निष्पादन याचिका डिक्री पारित होने के 12 वर्ष के भीतर दायर की जानी चाहिए। यह याचिका न्याय की पूर्णता का अंतिम चरण होती है।
33. दंडात्मक व्यय (Punitive Costs) क्या होते हैं?
यदि कोई पक्ष जानबूझकर न्यायालय का समय नष्ट करता है या न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करता है, तो न्यायालय उस पर दंडात्मक व्यय थोप सकता है। इसका उद्देश्य न्यायालय की मर्यादा बनाए रखना और मुकदमों में अनुशासन स्थापित करना है। यह व्यय पक्षकार को सबक देने के लिए लगाया जाता है ताकि भविष्य में वह न्याय प्रक्रिया में रुकावट न डाले। CPC की धारा 35A के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है। दंडात्मक व्यय अनुचित मुकदमों और दुर्भावनापूर्ण वादों पर रोक लगाने का एक प्रभावी उपाय है।
34. निषेधाज्ञा प्राप्त करने की समय सीमा क्या है?
निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिए सीमा अधिनियम, 1963 के तहत कोई विशेष अवधि निर्धारित नहीं है, लेकिन इसे तत्काल और यथासंभव शीघ्रता से दायर करना आवश्यक होता है। यदि वादी देरी से निषेधाज्ञा की मांग करता है, और न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि देरी से प्रतिवादी को अनुचित लाभ मिला है, तो निषेधाज्ञा देने से इनकार किया जा सकता है। सामान्यतः निषेधाज्ञा उसी समय मांगी जाती है जब अधिकार का उल्लंघन प्रारंभ होता है। निषेधाज्ञा की मांग में देरी न्यायिक विवेक में बाधा बन सकती है।
35. सीमा अधिनियम की धारा 5 क्या है?
सीमा अधिनियम की धारा 5 न्यायालय को यह अधिकार देती है कि वह उपयुक्त कारणों के आधार पर अपील या आवेदन में हुई देरी को क्षमा कर सकता है। इसका उद्देश्य न्याय में लचीलापन लाना है। यदि वादी यह साबित कर सके कि देरी अनजाने में, असाधारण परिस्थितियों या वैध कारणों से हुई है, तो न्यायालय देरी को स्वीकार कर सकता है। यह प्रावधान न्याय को तकनीकीताओं से ऊपर उठाकर वास्तविक न्याय सुनिश्चित करता है, लेकिन इसका उपयोग सावधानीपूर्वक न्यायिक विवेक से किया जाता है।
36. क्या दीवानी वाद में पुनरावृत्ति (Res Judicata) लागू होती है?
हाँ, दीवानी वाद में Res Judicata का सिद्धांत लागू होता है। CPC की धारा 11 के तहत यदि कोई वाद पहले ही समान पक्षकारों और समान विषय पर निर्णयित हो चुका है, तो वही पक्ष दोबारा उसी विवाद पर वाद दायर नहीं कर सकते। इसका उद्देश्य दोहराव से बचाव, न्यायिक प्रक्रिया में स्थिरता और समय की बचत है। यह सिद्धांत “एक ही विषय पर एक से अधिक बार न्याय नहीं किया जाएगा” को लागू करता है। इससे न्याय व्यवस्था पर अनावश्यक दबाव नहीं पड़ता और निष्पक्षता बनी रहती है।
37. प्रतिनिधि वाद (Representative Suit) क्या होता है?
CPC के आदेश 1, नियम 8 के अंतर्गत प्रतिनिधि वाद वह होता है जिसमें कोई व्यक्ति अपने साथ समान हित रखने वाले अन्य व्यक्तियों की ओर से भी वाद करता है। जैसे – उपभोक्ता समूह, निवासी समिति आदि। इसमें एक या कुछ लोग समूचे समूह के अधिकारों की रक्षा हेतु कार्यवाही करते हैं। यह न्यायिक संसाधनों की बचत करता है और समान रूप से प्रभावित लोगों को राहत प्रदान करता है। न्यायालय की अनुमति से ही ऐसा वाद दायर किया जाता है और सभी प्रभावित व्यक्तियों को इसकी सूचना देना आवश्यक होता है।
38. वादी अनुपस्थित हो तो क्या वाद खारिज हो सकता है?
हाँ, यदि वादी नियत तिथि पर न्यायालय में उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय वाद को विचारण के लिए अनुपस्थित मानते हुए CPC के आदेश 9, नियम 8 के तहत वाद खारिज कर सकता है। यह न्यायिक अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक है। हालांकि, वादी बाद में उचित कारण बताते हुए पुनः बहाली (Restoration) की याचिका दाखिल कर सकता है। यदि न्यायालय को लगता है कि वादी की अनुपस्थिति वैध कारणों से थी, तो वाद को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
39. क्या प्रतिवादी की अनुपस्थिति में निर्णय हो सकता है?
हाँ, यदि प्रतिवादी समन तामील के बावजूद न्यायालय में उपस्थित नहीं होता या उत्तर नहीं देता, तो न्यायालय एकपक्षीय निर्णय (Ex-parte Decree) पारित कर सकता है। CPC के आदेश 9, नियम 6 इस प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि समन विधिवत तामील हुआ हो और वादी ने अपना पक्ष उपयुक्त साक्ष्य से सिद्ध किया हो। प्रतिवादी बाद में Ex-parte डिक्री के विरुद्ध धारा 151 के तहत सेट-असाइड याचिका दाखिल कर सकता है, यदि वह अनुपस्थिति का उचित कारण साबित कर दे।
40. मुकदमे की बहाली (Restoration) क्या होती है?
यदि कोई वाद वादी की अनुपस्थिति, दस्तावेज़ की कमी या अन्य तकनीकी कारणों से खारिज हो गया हो, तो वादी न्यायालय में मुकदमा बहाल करने की याचिका दाखिल कर सकता है। CPC की धारा 151 और आदेश 9, नियम 9 के तहत यह याचिका दी जाती है। इसमें वादी को यह दिखाना होता है कि वाद की खारिजी उसके द्वारा जानबूझकर नहीं हुई थी और उसमें देरी के लिए पर्याप्त कारण मौजूद हैं। यदि न्यायालय संतुष्ट होता है, तो वह वाद को पुनः चालू कर देता है। यह सिद्धांत न्यायिक विवेक और निष्पक्षता को दर्शाता है।
41. न्यायालय किस आधार पर गवाहों को समन कर सकता है?
CPC की धारा 30 और आदेश 16 के अनुसार, न्यायालय आवश्यक समझने पर किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में बुलाने के लिए समन जारी कर सकता है। पक्षकार भी आवेदन करके गवाहों को बुलाने का अनुरोध कर सकते हैं। गवाहों की उपस्थिति से सत्य का उद्घाटन होता है, इसलिए उनकी उपस्थिति न्यायिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यदि कोई गवाह समन के बावजूद उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय उसके विरुद्ध जमानती/गैर-जमानती वारंट जारी कर सकता है।
42. गवाह का प्रतिपरीक्षण (Cross Examination) क्यों जरूरी होता है?
गवाह का प्रतिपरीक्षण भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 137 के तहत एक आवश्यक चरण है। इसमें विपक्षी पक्ष उस गवाह से प्रश्न पूछकर उसकी साक्ष्य की विश्वसनीयता की जांच करता है। यह प्रक्रिया यह स्पष्ट करती है कि गवाह सच्चाई बोल रहा है या नहीं। प्रतिपरीक्षण न्याय का एक आवश्यक अंग है जिससे पक्षपातपूर्ण या झूठे गवाहों को उजागर किया जा सके। इससे न्यायालय को गवाही की सच्चाई पर विचार करने का अवसर मिलता है।
43. सीमा अधिनियम में ‘चालू दिन’ (Exclusion of Day) का क्या अर्थ है?
सीमा अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, जब किसी कार्यवाही की समयसीमा की गणना की जाती है, तो उस दिन को जिसमें वाद का कारण उत्पन्न हुआ या आदेश की प्रति प्राप्त हुई, गणना में शामिल नहीं किया जाता। इसे चालू दिन को बाहर करना (Exclusion of First Day) कहते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि व्यक्ति को पूरा समय उपलब्ध हो और गणना निष्पक्ष रूप से हो सके।
44. लोक सेवकों के विरुद्ध वाद हेतु पूर्व स्वीकृति कब आवश्यक होती है?
CPC की धारा 80 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी अधिकारी या सरकारी संस्था के विरुद्ध वाद करना चाहता है, तो उसे पहले दो महीने का पूर्व सूचना (Notice) देना अनिवार्य है। इसका उद्देश्य यह है कि सरकार या अधिकारी को दावा समझने और समाधान का अवसर मिल सके। यदि आपात स्थिति हो तो न्यायालय अनुमति से बिना नोटिस के वाद स्वीकार कर सकता है। यह व्यवस्था लोक सेवकों को अनावश्यक वादों से सुरक्षा देती है।
45. एकपक्षीय डिक्री को कैसे चुनौती दी जा सकती है?
एकपक्षीय डिक्री (Ex-parte Decree) को CPC के आदेश 9, नियम 13 के तहत चुनौती दी जा सकती है। प्रतिवादी को यह सिद्ध करना होगा कि उसे समन की विधिवत जानकारी नहीं मिली या वह वैध कारणों से उपस्थित नहीं हो पाया। यदि न्यायालय संतुष्ट होता है कि अनुपस्थिति जानबूझकर नहीं थी, तो वह एकपक्षीय डिक्री को रद्द कर सकता है और वाद को पुनः सुनवाई हेतु बहाल कर सकता है। यह प्रक्रिया निष्पक्ष न्याय को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
46. क्या न्यायालय अपने आदेश को स्वयं संशोधित कर सकता है?
हाँ, CPC की धारा 152 और 153 के तहत न्यायालय को यह अधिकार है कि वह अपने आदेश, डिक्री या निर्णय में हुई स्पष्ट त्रुटियों (clerical या arithmetical mistakes) को संशोधित कर सके। यह त्रुटियाँ आकस्मिक होती हैं और जानबूझकर नहीं की जातीं। उदाहरणतः यदि किसी आदेश में तारीख, राशि या नाम में गलती हो जाए, तो न्यायालय उसे सुधार सकता है। यह अधिकार न्यायालय को सीमित रूप में प्राप्त है — इसमें तथ्यों या कानून की दोबारा समीक्षा नहीं की जाती, केवल तकनीकी या टाइपो जैसी त्रुटियाँ ही सुधारी जाती हैं।
47. वाद की संयुक्त सुनवाई (Joint Trial) कब होती है?
CPC के आदेश 1 और 2 के प्रावधानों के अनुसार, जब दो या अधिक वादों के तथ्य, पक्षकार या प्रश्न एक जैसे हों, तो न्यायालय उनकी संयुक्त सुनवाई का आदेश दे सकता है। इससे दोहराव से बचाव होता है, साक्ष्य साझा किया जा सकता है और समय की बचत होती है। उदाहरणतः, यदि एक ही दुर्घटना में कई व्यक्ति घायल हुए हों और सभी ने अलग-अलग वाद दायर किए हों, तो न्यायालय सभी वादों को एक साथ सुन सकता है। यह न्यायिक प्रशासन को दक्ष और निष्पक्ष बनाता है।
48. सीमा अधिनियम में ‘निरंतर उल्लंघन’ (Continuous Wrong) का क्या अर्थ है?
सीमा अधिनियम की धारा 22 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति के अधिकार का निरंतर उल्लंघन हो रहा है, जैसे – किसी की संपत्ति पर बार-बार अतिक्रमण, तो हर दिन एक नया उल्लंघन माना जाएगा और समयसीमा की गणना हर बार नए से शुरू होगी। इसे “Continuous Wrong” कहते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि यदि किसी का अधिकार बार-बार हनन हो रहा है, तो वह केवल एक बार के उल्लंघन तक सीमित न रहे, बल्कि हर बार कानूनी उपाय लेने का अवसर बना रहे।
49. क्या CPC केवल मूल वादों (Original Suits) पर ही लागू होती है?
नहीं, CPC केवल मूल वादों (Original Suits) पर ही नहीं, बल्कि अपील, पुनरीक्षण, निष्पादन याचिकाओं, अंतरिम याचिकाओं, आदि सभी दीवानी कार्यवाहियों पर भी लागू होती है। यह भारत की दीवानी न्याय प्रणाली का आधार है और इसका उद्देश्य सभी दीवानी विवादों में एकसमान प्रक्रिया सुनिश्चित करना है। हालाँकि, कुछ विशेष अधिनियमों जैसे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम या परिवार न्यायालय अधिनियम में CPC के कुछ प्रावधानों को संशोधित रूप में अपनाया गया है।
50. CPC की धारा 151 का क्या महत्व है?
CPC की धारा 151 न्यायालय को न्याय के हित में अंतर्निहित शक्तियाँ (Inherent Powers) प्रदान करती है। जब कोई परिस्थिति CPC के किसी विशेष प्रावधान में शामिल न हो, तब भी न्यायालय इस धारा के माध्यम से आवश्यक आदेश पारित कर सकता है, बशर्ते कि वह न्याय और प्रक्रिया की निष्पक्षता को बनाए रखे। यह धारा न्यायालय को लचीलापन देती है कि वह असाधारण परिस्थितियों में न्याय प्रदान कर सके। इसका प्रयोग बहुत सतर्कता और विवेक से किया जाता है ताकि कोई पक्ष न्याय से वंचित न हो।