IndianLawNotes.com

Constitutional Law – II (Center-State Relations, Judiciary, Emergency) संविधानिक विधि – द्वितीय (भाग-2) (केंद्र-राज्य संबंध, न्यायपालिका एवं आपातकाल) part-2

🔶 51. संविधान में अनुच्छेद 262 का उद्देश्य क्या है?

अनुच्छेद 262 भारत में जल विवादों के समाधान से संबंधित है। इसके तहत संसद को यह अधिकार है कि वह अंतर-राज्यीय नदी जल विवादों को लेकर कानून बना सकती है।
यह अनुच्छेद यह भी कहता है कि यदि संसद ऐसा कानून बनाए, तो कोई भी न्यायालय ऐसे विवाद में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
इसके अंतर्गत संसद ने अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 बनाया, जिसके तहत जल विवाद ट्रिब्यूनल गठित किया जाता है।
इसका उद्देश्य राज्यों के बीच जल विवादों को न्यायपूर्ण और शीघ्र समाधान प्रदान करना है।


🔶 52. संविधान में अंतर-राज्य परिषद की स्थापना क्यों की गई?

अनुच्छेद 263 के तहत अंतर-राज्य परिषद (Inter-State Council) की स्थापना की जाती है।
इसका उद्देश्य है –

  1. केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय स्थापित करना,
  2. नीति निर्माण में सहयोग,
  3. विवादों का समाधान,
  4. प्रशासनिक संबंधों को मजबूत बनाना।
    यह एक सांविधिक निकाय है, जो केंद्र-राज्य संबंधों में संवाद और समन्वय को बढ़ावा देता है।
    सरकार ने इसे 1990 में स्थायी रूप से स्थापित किया।

🔶 53. क्या न्यायपालिका को विधायी कार्यों की समीक्षा का अधिकार है?

हाँ, भारतीय न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिक वैधता की समीक्षा करे।
यदि कोई कानून संविधान के किसी प्रावधान या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो न्यायपालिका उसे अमान्य घोषित कर सकती है।
यह न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का हिस्सा है और यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अनिवार्य है।
केशवानंद भारती और गोलकनाथ जैसे मामलों में यह सिद्धांत स्पष्ट किया गया।


🔶 54. न्यायपालिका का संविधान संशोधन पर क्या अधिकार है?

भारतीय संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है (अनुच्छेद 368), लेकिन यह मूल संरचना को नहीं बदल सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती केस (1973) में यह निर्णय दिया कि संविधान की मूल संरचना (जैसे – लोकतंत्र, स्वतंत्र न्यायपालिका, संघवाद, मौलिक अधिकार) को संसद संशोधित नहीं कर सकती।
इस प्रकार, न्यायपालिका संशोधन की वैधता की समीक्षा कर सकती है और यदि वह संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध हो, तो उसे रद्द कर सकती है।


🔶 55. न्यायपालिका द्वारा मौलिक कर्तव्यों को लागू करने की स्थिति क्या है?

मौलिक कर्तव्य (अनुच्छेद 51A) बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन न्यायपालिका ने कुछ मामलों में उन्हें संवैधानिक व्याख्या का हिस्सा माना है।
उदाहरण के लिए –

  1. पर्यावरण संरक्षण के संबंध में अदालतों ने कहा कि यह हर नागरिक का कर्तव्य है।
  2. राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज के सम्मान से संबंधित मामलों में अदालतों ने इन्हें महत्वपूर्ण माना।
    इस प्रकार मौलिक कर्तव्यों को सीधे लागू तो नहीं किया जा सकता, लेकिन व्याख्या और नीति निर्देशन में इनकी भूमिका अहम है।

🔶 56. भारत में उच्च न्यायालयों की क्षेत्राधिकार की सीमाएँ क्या हैं?

उच्च न्यायालयों की क्षेत्राधिकार सीमित होती है और यह उन राज्यों या संघ राज्य क्षेत्रों तक सीमित होती है जहाँ वे स्थापित हैं।
उनके अधिकार में शामिल हैं –

  1. विधिक अधिकारों की रक्षा (अनुच्छेद 226),
  2. अपील और पुनरावलोकन,
  3. दंड और सिविल न्याय,
  4. अपने अधीनस्थ न्यायालयों का नियंत्रण (अनुच्छेद 227)
    हालाँकि अनुच्छेद 226 उन्हें व्यापक शक्ति देता है, पर वे केवल अपने क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

🔶 57. केंद्र-राज्य विवादों में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका क्या है?

अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को केंद्र और राज्य अथवा दो राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों में मूल अधिकारिता प्राप्त है।
यह अधिकार केवल कानूनी विवादों पर लागू होता है और व्यक्तिगत या राजनीतिक विवादों पर नहीं।
सुप्रीम कोर्ट यह सुनिश्चित करता है कि केंद्र और राज्य संवैधानिक सीमाओं में रहकर कार्य करें।
इस प्रकार यह संघीय ढाँचे को स्थायित्व प्रदान करता है।


🔶 58. न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक उत्तरदायित्व में संतुलन कैसे रखा जाता है?

न्यायिक स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है, परंतु उत्तरदायित्व भी आवश्यक है ताकि न्यायपालिका में पारदर्शिता बनी रहे।
संतुलन के उपाय:

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण में कोलेजियम प्रणाली,
  2. महाभियोग प्रक्रिया द्वारा उत्तरदायित्व तय करना,
  3. सार्वजनिक आलोचना और मीडिया की निगरानी,
  4. नैतिक आचार संहिता
    इस संतुलन से न्यायपालिका स्वतंत्र रहते हुए भी जवाबदेह रहती है।

🔶 59. क्या राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है?

हाँ, भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होता है और उनके प्रति उत्तरदायी भी होता है।
राज्यपाल की नियुक्ति, कार्यकाल और कार्यकलापों की निगरानी केंद्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति करते हैं।
हालाँकि राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, परंतु उसकी भूमिका राजनीतिक विवादों में महत्वपूर्ण होती है।
इस उत्तरदायित्व के चलते राज्यपाल की निष्पक्षता पर कई बार प्रश्न भी उठते हैं।


🔶 60. अनुच्छेद 136 के अंतर्गत विशेष अनुमति याचिका (SLP) क्या है?

अनुच्छेद 136 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी भी न्यायालय या ट्रिब्यूनल के निर्णय के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) स्वीकार कर सके।
यह न्यायिक विवेकाधिकार पर आधारित है और इसका प्रयोग तब किया जाता है जब –

  1. किसी पक्ष को न्याय नहीं मिला हो,
  2. कोई बड़ा विधिक प्रश्न उठा हो,
  3. विधि के सिद्धांत की व्याख्या आवश्यक हो।
    SLP भारतीय न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक विवेकाधिकार शक्ति को दर्शाती है।

🔶 61. अनुच्छेद 141 का क्या महत्व है?

अनुच्छेद 141 कहता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधि (law declared) भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होगी।
इसका उद्देश्य है –

  1. पूरे देश में न्याय की एकरूपता सुनिश्चित करना,
  2. सभी निचली अदालतों को एक दिशा देना,
  3. कानून की व्याख्या में स्थिरता लाना।
    यह न्यायपालिका की सर्वोच्चता का प्रमाण है और विधिक स्पष्टता को बढ़ावा देता है।

🔶 62. क्या संसद न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकती है?

संसद न्यायपालिका के कार्यों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं कर सकती क्योंकि न्यायपालिका स्वतंत्र अंग है।
हालाँकि संसद नए कानून बना सकती है, लेकिन न्यायालय की व्याख्या की शक्ति और निर्णयों को बदलना संसद के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
संसदीय कानून भी न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
इसलिए शक्तियों का पृथक्करण संविधान द्वारा सुनिश्चित किया गया है।


🔶 63. अनुच्छेद 32 और 226 में क्या अंतर है?

अनुच्छेद 32 केवल मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की अनुमति देता है।
अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को न केवल मौलिक अधिकारों बल्कि किसी अन्य विधिक अधिकारों की रक्षा हेतु भी रिट जारी करने की शक्ति देता है।
इस प्रकार अनुच्छेद 226 की सीमा विस्तृत है जबकि अनुच्छेद 32 की सीमित
हालाँकि अनुच्छेद 32 को डॉ. आंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा है।


🔶 64. न्यायपालिका और मीडिया की भूमिका में संतुलन क्यों आवश्यक है?

न्यायपालिका और मीडिया दोनों लोकतंत्र के स्तंभ हैं।
मीडिया न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने में सहायक है, वहीं न्यायपालिका मीडिया के अतिरेक को सीमित करती है।
ट्रायल बाय मीडिया जैसी प्रवृत्तियाँ न्याय प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं, इसलिए संतुलन आवश्यक है।
न्यायपालिका स्वतंत्र रहे और मीडिया जागरूकता फैलाए – यह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है।


🔶 65. अनुच्छेद 300A में संपत्ति के अधिकार की स्थिति क्या है?

अनुच्छेद 300A के अनुसार – “कोई व्यक्ति विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।”
1978 में 44वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटाकर कानूनी अधिकार बना दिया गया।
अब यह मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन विधिसम्मत प्रक्रिया से ही संपत्ति छीनी जा सकती है।
यह राज्य को अधिक लचीलापन और नागरिकों को कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करता है।


🔶 66. अनुच्छेद 226 के अंतर्गत जारी की जाने वाली रिट्स क्या हैं?

अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय निम्नलिखित रिट्स जारी कर सकते हैं:

  1. Habeas Corpus – अवैध हिरासत से मुक्ति हेतु,
  2. Mandamus – कोई सार्वजनिक अधिकारी अपना कर्तव्य निभाए,
  3. Prohibition – निचली अदालत को कार्यवाही से रोकना,
  4. Certiorari – निचली अदालत का निर्णय रद्द करना,
  5. Quo Warranto – व्यक्ति को यह दिखाना कि वह किस अधिकार से पद पर है।
    ये रिट्स न्यायिक प्रणाली को प्रभावी और नागरिकों को सुरक्षित बनाती हैं।

🔶 67. न्यायपालिका द्वारा लोक नीति (Public Policy) के सिद्धांत का प्रयोग कैसे किया जाता है?

लोक नीति (Public Policy) एक ऐसा सिद्धांत है, जिसका प्रयोग न्यायपालिका तब करती है जब कोई अनुबंध, कार्य या कानून समाज के नैतिक मूल्यों, सार्वजनिक हित या न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध हो।
उदाहरण के लिए, यदि कोई अनुबंध भ्रष्टाचार, अनैतिकता या अपराध को बढ़ावा देता है, तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।
भारतीय न्यायपालिका ने लोक नीति को न्यायिक विवेक के साथ प्रयोग किया है ताकि नैतिक और सार्वजनिक हितों की रक्षा की जा सके।
हालांकि इस सिद्धांत की सीमा अस्पष्ट है, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण नियंत्रण माध्यम है।


🔶 68. क्या आपातकाल में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सीमित होती है?

हाँ, आपातकाल के दौरान विशेषकर 1975 के आपातकाल में देखा गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबाव डाला गया।
ADM जबलपुर केस (1976) में सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से पीछे हटते हुए सरकार के पक्ष में निर्णय दिया, जिसे बाद में गलत माना गया
हालाँकि 44वें संविधान संशोधन (1978) के बाद कई सुधार किए गए और अब न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बेहतर सुरक्षा मिली है।
फिर भी आपातकाल के समय न्यायपालिका को सतर्क और साहसी भूमिका निभाने की आवश्यकता होती है।


🔶 69. न्यायपालिका द्वारा पर्यावरण संरक्षण में निभाई गई भूमिका क्या है?

भारतीय न्यायपालिका ने पर्यावरण संरक्षण में अत्यंत सक्रिय और निर्णायक भूमिका निभाई है।
PIL (जनहित याचिकाओं) के माध्यम से अदालतों ने –

  1. उद्योगों को प्रदूषण नियंत्रित करने का आदेश,
  2. वन संरक्षण और जल स्रोतों की रक्षा,
  3. स्वच्छ हवा और जल का अधिकार मौलिक अधिकार घोषित किया।
    MC Mehta बनाम भारत संघ, गोदावरी मामला, ताज ट्रेपेजियम केस जैसे निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई।
    न्यायपालिका ने पर्यावरण को न्यायिक अधिकारों से जोड़कर जनहित की रक्षा की।

🔶 70. न्यायिक प्रक्रिया में “प्राकृतिक न्याय” के सिद्धांत का क्या महत्व है?

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का अर्थ है – निष्पक्षता, पक्षपात रहित निर्णय और न्याय का अवसर। इसके दो प्रमुख सिद्धांत हैं –

  1. Nemo judex in causa sua – कोई व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता।
  2. Audi alteram partem – सभी पक्षों को अपनी बात रखने का अवसर मिलना चाहिए।
    भारतीय न्यायपालिका ने इन सिद्धांतों को प्रशासनिक और न्यायिक निर्णयों की आधारशिला माना है।
    यदि किसी निर्णय में प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन हो, तो वह अमान्य ठहराया जा सकता है।
    यह सिद्धांत न्यायपालिका की नैतिक और कानूनी वैधता को बनाता है।

🔶 71. क्या राष्ट्रपति न्यायपालिका के निर्णयों को अस्वीकार कर सकता है?

नहीं, भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का पालन करना अनिवार्य है (अनुच्छेद 144)।
राष्ट्रपति को कोई न्यायिक विवेकाधिकार नहीं दिया गया है जिससे वह निर्णय को अस्वीकार कर सके।
हालाँकि राष्ट्रपति दया याचिका (Mercy Petition) पर निर्णय ले सकते हैं (अनुच्छेद 72), लेकिन यह न्यायिक आदेश को अस्वीकार करना नहीं है।
इस प्रकार संविधान न्यायपालिका की सर्वोच्चता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।


🔶 72. अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर न्यायपालिका का दृष्टिकोण क्या है?

अनुच्छेद 356 राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल होने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति देता है।
हालाँकि अतीत में इसका राजनीतिक दुरुपयोग हुआ, जिसे न्यायपालिका ने S.R. Bommai बनाम भारत संघ (1994) केस में रोका।
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा –

  • राष्ट्रपति की रिपोर्ट न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
  • राज्य सरकार को बर्खास्त करने से पहले मूल्यांकन आवश्यक है।
    यह निर्णय संघवाद और लोकतंत्र की रक्षा के लिए ऐतिहासिक माना जाता है।

🔶 73. संविधान में न्यायपालिका का वित्तीय स्वतंत्रता से क्या संबंध है?

न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि वित्तीय स्वतंत्रता पर भी निर्भर करती है।
संविधान में उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के वेतन, भत्ते और व्यय को संविधान व्यय माना गया है, जो संसद की इच्छा पर निर्भर नहीं होते।
यह प्रावधान न्यायपालिका को राजनीतिक दबावों से मुक्त रखता है और इसे स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम बनाता है।
वित्तीय स्वतंत्रता से न्यायपालिका की निष्पक्षता और न्याय के अधिकार की रक्षा होती है।


🔶 74. क्या न्यायपालिका को मौलिक कर्तव्यों को लागू करने का अधिकार है?

हालाँकि मौलिक कर्तव्य अनुपालन योग्य नहीं हैं, लेकिन न्यायपालिका ने उनके महत्व को रेखांकित किया है।
AIIMS Students Union केस, सुरेश चंद्र बनाम भारत संघ, आदि मामलों में अदालत ने कहा कि मौलिक कर्तव्यों का पालन नैतिक दायित्व है।
न्यायपालिका ने शिक्षा, पर्यावरण, राष्ट्रीय एकता, और विरासत संरक्षण जैसे विषयों में मौलिक कर्तव्यों के पालन हेतु निर्देश दिए।
इस प्रकार न्यायपालिका ने इन्हें संविधान के मूल मूल्यों से जोड़कर व्यावहारिक बनाया है।


🔶 75. भारत में न्यायपालिका द्वारा सामाजिक न्याय की स्थापना कैसे होती है?

सामाजिक न्याय का अर्थ है – समाज के कमजोर, पिछड़े, दलित, महिलाओं, और वंचित वर्गों को न्याय देना।
भारतीय न्यायपालिका ने –

  1. आरक्षण संबंधी मामलों,
  2. मजदूरों और किसानों के अधिकार,
  3. शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार,
    में सकारात्मक हस्तक्षेप किया है।
    PIL के माध्यम से न्यायपालिका ने सामाजिक असमानता को कम करने और समाज में समान अवसर प्रदान करने की दिशा में कार्य किया है।
    इस प्रकार यह वास्तविक लोकतंत्र को सशक्त बनाती है।

🔶 76. अनुच्छेद 245 के अंतर्गत संसद और राज्य विधानमंडलों की विधायी शक्तियों की सीमा क्या है?

अनुच्छेद 245 कहता है कि –

  • संसद पूरे भारत में और
  • राज्य विधानमंडल अपने राज्य क्षेत्र में
    कानून बना सकते हैं।
    लेकिन यह शक्तियाँ संविधान और सूची व्यवस्था से सीमित हैं।
    यदि कोई कानून संविधान के विरुद्ध हो या संसद किसी ऐसे क्षेत्र में कानून बनाए जहाँ उसका अधिकार न हो, तो वह अमान्य हो सकता है।
    इस प्रकार यह अनुच्छेद विधायी शक्तियों को सीमित और अनुशासित करता है।

🔶 77. न्यायपालिका द्वारा मानवाधिकारों की रक्षा किस प्रकार की जाती है?

भारतीय न्यायपालिका मानवाधिकारों की रक्षा में एक मजबूत स्तंभ रही है।
यह अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों, PIL, और रिट्स के माध्यम से संरक्षित होते हैं।
न्यायपालिका ने –

  1. पुलिस अत्याचार,
  2. मजदूर शोषण,
  3. महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा,
  4. पर्यावरण और जीवन के अधिकार,
    जैसे मामलों में महत्त्वपूर्ण निर्णय दिए हैं।
    विश्वनाथ बनाम भारत संघ, बंदुआ मुक्त मोर्चा, शेल्टर होम केस आदि उदाहरण हैं जहाँ कोर्ट ने मानवाधिकारों को प्राथमिकता दी।
    यह नागरिकों को न्याय, समानता और गरिमा का जीवन जीने का आश्वासन देता है।

🔶 78. भारतीय संविधान में अनुच्छेद 352 का क्या महत्व है?

अनुच्छेद 352 के अंतर्गत भारत में राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की घोषणा की जाती है।
जब भारत की सुरक्षा को बाहरी आक्रमण, युद्ध या सशस्त्र विद्रोह से खतरा हो, तो राष्ट्रपति आपातकाल घोषित कर सकते हैं।
आपातकाल लागू होने पर:

  • संसद को राज्यों के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
  • मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लग सकता है (अनुच्छेद 19 स्वतः निलंबित)।
  • केंद्र सरकार को अत्यधिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
    हालाँकि 44वें संशोधन के बाद यह व्यवस्था की गई कि प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की लिखित सलाह से ही राष्ट्रपति आपातकाल घोषित कर सकते हैं।
    यह अनुच्छेद आपात स्थिति में शासन संचालन का मार्ग प्रशस्त करता है।

🔶 79. अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कैसे हुआ और न्यायालय की क्या भूमिका रही?

अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि यदि किसी राज्य में संविधान के अनुसार शासन नहीं चल रहा हो, तो वह राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) लागू कर सकते हैं।
अतीत में इसका राजनीतिक हितों के लिए दुरुपयोग हुआ – जैसे 1977, 1980, और 1989 में।
इस दुरुपयोग पर S.R. Bommai केस (1994) में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय दिया:

  • राष्ट्रपति की सिफारिश न्यायिक समीक्षा के अधीन होगी।
  • विधानसभा में बहुमत परीक्षण अनिवार्य होगा।
  • अनुच्छेद 356 का मनमाना प्रयोग असंवैधानिक होगा।
    इस निर्णय से अनुच्छेद 356 पर संवैधानिक नियंत्रण स्थापित हुआ।

🔶 80. संविधान में अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल का क्या प्रभाव होता है?

अनुच्छेद 360 भारत में वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency) की घोषणा से संबंधित है।
यदि राष्ट्रपति को लगता है कि भारत या किसी भाग की वित्तीय स्थिरता को खतरा है, तो वे इस अनुच्छेद के तहत आपातकाल लागू कर सकते हैं।
प्रभाव:

  • केंद्र को राज्यों के वित्तीय मामलों में पूर्ण नियंत्रण मिल जाता है।
  • राष्ट्रपति वेतन, भत्तों और सेवाओं में कटौती कर सकते हैं।
  • संसद को राज्यों के खर्च को नियंत्रित करने का अधिकार मिल जाता है।
    हालांकि अब तक भारत में कभी वित्तीय आपातकाल लागू नहीं किया गया, लेकिन यह एक सुरक्षात्मक प्रावधान के रूप में मौजूद है।

🔶 81. संविधान में आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों की स्थिति क्या होती है?

आपातकाल की स्थिति में मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

  • अनुच्छेद 19 के अधिकार केवल राष्ट्रीय आपातकाल (युद्ध या बाह्य आक्रमण) में निलंबित होते हैं।
  • अनुच्छेद 359 के तहत राष्ट्रपति अन्य मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को स्थगित कर सकते हैं।
    हालाँकि 44वें संविधान संशोधन (1978) के बाद यह व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 20 और 21 के अधिकार (जीवन और दंड प्रक्रिया) निलंबित नहीं किए जा सकते
    यह संशोधन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की बेहतर सुरक्षा प्रदान करता है।

🔶 82. क्या न्यायपालिका आपातकाल की वैधता की समीक्षा कर सकती है?

हाँ, न्यायपालिका आपातकाल की वैधता की समीक्षा कर सकती है, लेकिन उसकी सीमा सीमित है।
Minerva Mills बनाम भारत संघ और S.R. Bommai केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि –

  • आपातकाल की घोषणा पूर्णत: राजनीतिक निर्णय नहीं है।
  • यदि यह संविधान के उल्लंघन या दुरुपयोग के आधार पर किया गया है, तो न्यायिक समीक्षा संभव है।
    इस प्रकार न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि आपातकाल संवैधानिक प्रक्रियाओं के अनुसार ही लागू हो।

🔶 83. न्यायपालिका के सामने आपातकालीन मामलों में क्या चुनौतियाँ होती हैं?

आपातकालीन मामलों में न्यायपालिका के सामने कई चुनौतियाँ होती हैं:

  1. सरकार के दबाव में स्वतंत्र निर्णय लेना कठिन हो सकता है।
  2. जनभावनाओं और राजनीतिक तनाव से प्रभावित निर्णय हो सकते हैं।
  3. मौलिक अधिकारों के निलंबन के दौरान न्यायिक भूमिका सीमित हो जाती है।
  4. जनता को न्याय दिलाने की सीमित विधिक गुंजाइश होती है।
    फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने ADM जबलपुर मामले के बाद से आपातकालीन मामलों में जवाबदेही और संवैधानिकता पर ज़ोर दिया है।

🔶 84. आपातकाल के दौरान संविधान की संघीय प्रकृति कैसे प्रभावित होती है?

आपातकाल के दौरान संविधान की संघीय संरचना केंद्र की ओर झुक जाती है

  • केंद्र को राज्यों के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
  • राज्य सरकारों के कार्यों पर केंद्र का नियंत्रण बढ़ जाता है।
  • राष्ट्रपति को राज्य के कार्यपालिका और विधायिका को निलंबित करने का अधिकार होता है (अनुच्छेद 356)।
    इससे संघीय ढाँचा एकात्मक (unitary) स्वरूप ले लेता है।
    हालाँकि आपातकाल समाप्त होते ही संघीय ढाँचे को पुनः स्थापित कर दिया जाता है।

🔶 85. न्यायपालिका द्वारा आपातकाल के दुष्परिणामों की समीक्षा कैसे की गई?

आपातकाल (1975–77) के बाद न्यायपालिका ने ADM जबलपुर केस में अपने निर्णय को खेदजनक बताया और उसे लोकतंत्र विरोधी माना।
44वें संविधान संशोधन के माध्यम से संसद ने आपातकाल के कुछ दुष्परिणामों को सुधारा –

  • अनुच्छेद 21 की रक्षा सुनिश्चित की गई।
  • आपातकाल लगाने की प्रक्रिया को कठिन बनाया गया।
    इसके बाद न्यायपालिका ने अपने निर्णयों में स्पष्ट किया कि लोकतंत्र, मौलिक अधिकार और संविधान की मूल संरचना की रक्षा करना उसका कर्तव्य है।

🔶 86. आपातकाल के बाद किए गए 44वें संविधान संशोधन का महत्व क्या है?

44वां संविधान संशोधन (1978) आपातकाल के बाद किया गया एक महत्वपूर्ण संशोधन है, जिसका उद्देश्य था –

  1. अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता) को आपातकाल में भी सुरक्षित रखना।
  2. आपातकाल घोषित करने के लिए कैबिनेट की लिखित सिफारिश अनिवार्य बनाना।
  3. राष्ट्रपति शासन की अवधि और सीमा को निर्धारित करना।
  4. संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार से हटाकर वैधानिक अधिकार बनाना।
    यह संशोधन लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए ऐतिहासिक माना जाता है।

🔶 87. संविधान में आपातकाल से संबंधित कौन-कौन से अनुच्छेद हैं?

भारत में आपातकालीन प्रावधान निम्नलिखित अनुच्छेदों में दिए गए हैं:

  1. अनुच्छेद 352 – राष्ट्रीय आपातकाल (युद्ध, बाह्य आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह)।
  2. अनुच्छेद 356 – राष्ट्रपति शासन (राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता)।
  3. अनुच्छेद 360 – वित्तीय आपातकाल।
    इन अनुच्छेदों के अंतर्गत आपातकालीन शक्तियाँ केंद्र सरकार को प्रदान की जाती हैं।
    हालाँकि संविधान में इन्हें संवैधानिक नियंत्रण और न्यायिक समीक्षा के अधीन रखा गया है ताकि दुरुपयोग से बचा जा सके।

🔶 88. संविधान में “सहमति का सिद्धांत” (Doctrine of Consent) क्या है?

सहमति का सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि सरकार की वैधता नागरिकों की सहमति से उत्पन्न होती है।
भारतीय संविधान में यह सिद्धांत अप्रत्यक्ष रूप से लोकतंत्र, चुनावों, और जनप्रतिनिधियों के माध्यम से प्रतिबिंबित होता है।
केंद्र और राज्य सरकारों को संविधान ने जो शक्ति दी है, वह जनता की इच्छा और सहमति पर आधारित है।
इस सिद्धांत से यह स्पष्ट होता है कि सरकार को मनमाने तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि संविधान और जनता के हित में कार्य करना चाहिए।
यह लोकतंत्र और उत्तरदायी शासन की नींव है।


🔶 89. अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की विशेष अधिकारिता क्या है?

अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को मूल अधिकारिता (Original Jurisdiction) प्राप्त है, जहाँ वह सीधे उन मामलों की सुनवाई करता है जिनमें पक्षकार –

  1. केंद्र सरकार बनाम एक या एक से अधिक राज्य,
  2. राज्य बनाम केंद्र,
  3. राज्य बनाम राज्य –
    होते हैं।
    यह प्रावधान संघीय विवादों को हल करने हेतु बनाया गया है।
    इसमें निजी पक्षकारों को शामिल करने की अनुमति नहीं होती।
    यह न्यायपालिका को संघीय ढांचे की रक्षा का अधिकार देता है।

🔶 90. न्यायपालिका द्वारा “लोकतंत्र के प्रहरी” की भूमिका किस प्रकार निभाई जाती है?

भारतीय न्यायपालिका को अक्सर “लोकतंत्र का प्रहरी” (Guardian of Democracy) कहा जाता है क्योंकि वह –

  1. मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है,
  2. न्यायिक समीक्षा के माध्यम से विधायी और कार्यकारी निर्णयों को नियंत्रित करती है,
  3. PIL के माध्यम से गरीब और वंचितों को न्याय दिलाती है,
  4. संविधान की व्याख्या करती है और उसके मूल ढांचे को बनाए रखती है।
    न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है।
    इस प्रकार वह लोकतंत्र को संविधान सम्मत और न्यायोचित बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाती है।

🔶 91. अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना से संबंधित क्या प्रावधान हैं?

अनुच्छेद 124 में भारत के सुप्रीम कोर्ट की स्थापना से संबंधित प्रावधान हैं।
इसमें उल्लेख किया गया है:

  • भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा,
  • इसमें एक मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होंगे,
  • उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी,
  • उनकी योग्यता, कार्यकाल, वेतन और पद से हटाने की प्रक्रिया को भी इसी अनुच्छेद में वर्णित किया गया है।
    यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को संविधान की व्याख्या और रक्षा करने का अधिकार देता है।

🔶 92. न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत क्या है?

शक्तियों का पृथक्करण एक ऐसा सिद्धांत है जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य अलग-अलग होते हैं और वे एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते
भारतीय संविधान में यह सिद्धांत पूरी तरह स्पष्ट रूप में लागू नहीं है, लेकिन इसकी आधारभूत अवधारणा अपनाई गई है।
न्यायपालिका कानून नहीं बनाती, लेकिन उनकी संवैधानिकता की समीक्षा कर सकती है।
विधायिका न्याय नहीं कर सकती, परंतु कानून बना सकती है।
यह सिद्धांत लोकतंत्र और संतुलित शासन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।


🔶 93. क्या भारत में न्यायपालिका “लोकतांत्रिक जवाबदेही” के सिद्धांत से जुड़ी है?

हाँ, भारतीय न्यायपालिका भी लोकतांत्रिक जवाबदेही से जुड़ी है, भले ही न्यायाधीश जनता द्वारा सीधे निर्वाचित नहीं होते।
न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपाय:

  • नैतिक आचरण संहिता,
  • मामलों की पारदर्शिता,
  • जनता के प्रति संवेदनशीलता,
  • महाभियोग की प्रक्रिया
    हालाँकि न्यायिक स्वतंत्रता सर्वोपरि है, फिर भी न्यायपालिका को जवाबदेह और संवेदनशील होना चाहिए ताकि जनता का विश्वास बना रहे।

🔶 94. न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता में क्या अंतर है?

न्यायिक समीक्षा (Judicial Review):
यह वह प्रक्रिया है जिसमें न्यायालय यह जांचता है कि कोई कानून या कार्य संविधान के अनुरूप है या नहीं।
यह एक संवैधानिक कर्तव्य है।
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism):
यह तब होती है जब न्यायपालिका सामाजिक, राजनीतिक या प्रशासनिक मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप करती है, विशेषकर जनहित याचिकाओं (PIL) के माध्यम से।
न्यायिक समीक्षा संविधान की रक्षा है, जबकि न्यायिक सक्रियता समाज सुधार का प्रयास है।
दोनों का प्रयोग संतुलित ढंग से होना आवश्यक है।


🔶 95. अनुच्छेद 145 में सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली से संबंधित क्या प्रावधान हैं?

अनुच्छेद 145 सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली और नियमों से संबंधित है।
इसके अंतर्गत:

  • सुप्रीम कोर्ट अपने प्रक्रियात्मक नियम स्वयं बना सकता है।
  • पीठ की संख्या और गठन,
  • याचिकाओं की स्वीकृति,
  • निर्णयों का प्रारूप, आदि इसी अनुच्छेद के अंतर्गत निर्धारित होते हैं।
    यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को प्रशासनिक स्वतंत्रता प्रदान करता है ताकि वह स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके।

🔶 96. न्यायिक निर्णयों की बाध्यता किस प्रकार निर्धारित होती है?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधि भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होती है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय प्रेसिडेंट (precedent) के रूप में कार्य करते हैं और उन्हें बाध्यता प्राप्त होती है।
हालाँकि, हाई कोर्ट के निर्णय अन्य हाई कोर्टों पर बाध्यकारी नहीं होते, परंतु वे प्रेरणास्रोत (persuasive) हो सकते हैं।
यह बाध्यता कानूनी एकरूपता और स्थिरता सुनिश्चित करती है।


🔶 97. भारतीय न्यायपालिका में “जनहित याचिका” (PIL) का क्या महत्व है?

जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL) एक ऐसी याचिका होती है जिसे कोई भी नागरिक जनता के व्यापक हित में दाखिल कर सकता है।
इसकी शुरुआत 1980 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने की।
इसका उद्देश्य –

  1. गरीब और असहाय वर्ग को न्याय देना,
  2. पर्यावरण संरक्षण,
  3. मानवाधिकारों की रक्षा,
  4. सरकारी लापरवाही पर नियंत्रण।
    PIL ने भारतीय न्यायपालिका को सामाजिक न्याय का माध्यम बनाया और न्याय को अधिक सुलभ व उत्तरदायी बना दिया।

🔶 98. अनुच्छेद 50 का उद्देश्य क्या है?

अनुच्छेद 50 संविधान के नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा है, जो कहता है कि राज्य कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग करेगा
इसका उद्देश्य –

  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना,
  • निर्णय प्रक्रिया को पक्षपात रहित बनाना,
  • न्याय प्रणाली में नैतिकता और पारदर्शिता बनाए रखना।
    हालाँकि यह बाध्यकारी नहीं है, फिर भी संवैधानिक आदर्श के रूप में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

🔶 99. क्या सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार राय (Advisory Opinion) बाध्यकारी होती है?

अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से किसी विधिक प्रश्न पर परामर्श मांग सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट जो सलाह देता है, वह बाध्यकारी नहीं होती, बल्कि केवल परामर्शात्मक (advisory) होती है।
हालाँकि राष्ट्रपति या सरकार अक्सर इसे मानते हैं, लेकिन वे इसे अनदेखा भी कर सकते हैं।
यह प्रक्रिया कार्यपालिका और न्यायपालिका के समन्वय को दर्शाती है।


🔶 100. न्यायपालिका द्वारा संघवाद की रक्षा किस प्रकार की जाती है?

भारतीय न्यायपालिका ने संघवाद की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

  • अनुच्छेद 131 के अंतर्गत संघीय विवादों का समाधान,
  • अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकना (S.R. Bommai केस),
  • अनुच्छेद 370, 371 जैसे विशेष प्रावधानों की व्याख्या,
  • राज्यों के अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णय देना –
    जैसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ कोर्ट ने संघीय ढाँचे को संतुलित और संरक्षित रखा।
    न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि राज्यों की स्वायत्तता और केंद्र की शक्ति में संतुलन बना रहे।