🔷 गोवा में बंबई हाईकोर्ट का अहम फैसला: “वादपत्र में संशोधन कर न्यायालय को अधिकार क्षेत्र नहीं दिया जा सकता”
— अनुच्छेद 227 के तहत याचिका खारिज, अदालत का विधिक अधिकार क्षेत्र को लेकर सख्त रुख
⚖️ प्रसंग:
गोवा स्थित बंबई उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि किसी पक्ष द्वारा वादपत्र (Pleadings) में संशोधन करके न्यायालय को अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) नहीं सौंपा जा सकता, यदि प्रारंभिक विवाद उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता हो।
अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत दायर लिखित याचिका (Writ Petition) को खारिज करते हुए, ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें उसने अधिकार क्षेत्र की कमी के आधार पर वादपत्र वापस करने का निर्देश दिया था और वादी को वादपत्र में संशोधन की अनुमति नहीं दी।
🧑⚖️ मामले की पृष्ठभूमि:
मूल विवाद एक संपत्ति के अधिकार को लेकर था, जहां वादी ने दीवानी न्यायालय (Civil Court) में एक वाद दायर किया। प्रतिवादी ने प्रारंभिक आपत्ति उठाते हुए कहा कि यह वाद दीवानी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, और वादपत्र की वापसी (Return of Plaint under Order 7 Rule 10 CPC) की मांग की।
वादी ने वादपत्र में संशोधन (Amendment of Pleadings) का आवेदन किया ताकि विवाद की प्रकृति को इस प्रकार बदल दिया जाए कि वह दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आ जाए।
हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने संशोधन की अनुमति देने से इंकार कर दिया, और यह पाया कि यह संशोधन मूल विवाद की प्रकृति को मूल रूप से बदल देगा, जो कानून की दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है।
वादी ने इस आदेश के खिलाफ अनुच्छेद 227 के तहत उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
🧾 हाईकोर्ट का निर्णय:
न्यायमूर्ति एम.एस. जवलीकर की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि:
“पक्षकार वादपत्र में संशोधन के माध्यम से न्यायालय को अधिकार क्षेत्र नहीं दे सकता, जब प्रारंभिक वाद ही उस अधिकार क्षेत्र में नहीं आता हो।”
“न्यायालय का क्षेत्राधिकार कानून द्वारा निर्धारित किया जाता है, न कि वादी की इच्छा या उसके संशोधन द्वारा।”
अदालत ने कहा कि अगर किसी वाद में प्रारंभ से ही क्षेत्राधिकार का अभाव है, तो उसमें संशोधन करके उस अभाव को legal fiction से समाप्त नहीं किया जा सकता।
📚 प्रमुख सिद्धांत जो सामने आए:
- Jurisdiction cannot be conferred by consent or pleading modification.
- Amendment should not fundamentally alter the cause of action.
- Return of plaint is appropriate when jurisdiction is absent from inception.
- Writ jurisdiction under Article 227 is supervisory, not appellate – interference only in case of perversity or illegality.
❌ अनुच्छेद 227 के तहत याचिका क्यों खारिज हुई?
उच्च न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने न्यायिक विवेक का सही उपयोग किया है और उसके आदेश में कोई गंभीर त्रुटि या विधिक गलती नहीं है, जिससे हस्तक्षेप किया जाए। अनुच्छेद 227 केवल तभी लागू होता है जब प्रक्रियागत अन्याय या न्यायिक स्वेच्छाचारिता सिद्ध हो।
🔍 इस फैसले का महत्व:
✅ यह निर्णय स्पष्ट करता है कि वादपत्र में संशोधन करने का अधिकार असीमित नहीं है।
✅ यह सिद्धांत स्थापित करता है कि न्यायालय की सीमाएं वादी या प्रतिवादी के अनुरूप नहीं बदल सकतीं।
✅ यह फैसला भविष्य में ऐसी याचिकाओं पर न्यायिक अनुशासन और अधिकार क्षेत्र की सीमाओं को बनाए रखने में सहायक होगा।
🖊️ निष्कर्ष:
गोवा में बंबई हाईकोर्ट का यह फैसला एक बार फिर यह स्थापित करता है कि न्यायालय का क्षेत्राधिकार एक सख्त वैधानिक मुद्दा है, जिसे वाद में संशोधन द्वारा बदला नहीं जा सकता। वादी को विधिक प्रक्रिया और न्यायालय की सीमा का आदर करना चाहिए, अन्यथा न्यायिक प्रक्रिया दुरुपयोग का शिकार हो सकती है।