न्याय की देवी बनी पीड़िता – महिला सिविल जज ने CJI से मांगी इच्छामृत्यु, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की दिल दहला देने वाली दास्तां

लेख शीर्षक: न्याय की देवी बनी पीड़िता – महिला सिविल जज ने CJI से मांगी इच्छामृत्यु, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की दिल दहला देने वाली दास्तां

       यह घटना उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की है। पीड़ित महिला जज लखनऊ की रहने वाली हैं। वह 2019 में सिविल जज बनीं। उनकी पहली पोस्टिंग बाराबंकी जिले में हुई थी। मई 2023 में उनका तबादला एक अन्य जिले में हुआ, जहाँ वह वर्तमान में कार्यरत हैं (उस जिले का नाम सार्वजनिक रूप से नहीं बताया गया है)।

       इस पूरे मामले में उन्होंने मुख्य न्यायाधीश (CJI) को पत्र लिखकर इच्छामृत्यु की अनुमति मांगी है, जिसमें उन्होंने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न और न्यायिक प्रणाली की अनसुनी का गंभीर आरोप लगाया है।

उत्तर प्रदेश की एक 31 वर्षीय महिला सिविल जज द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को भेजा गया पत्र देश की न्यायपालिका और समाज दोनों को झकझोरने वाला है। न्याय की गद्दी पर बैठी महिला न्यायाधीश खुद न्याय के लिए बिलखती रही, लेकिन संस्थानिक उदासीनता और भीतर फैले शोषण ने उसे इस हद तक तोड़ दिया कि उसने जीवन समाप्त करने की अनुमति की याचना कर डाली।

यह महिला जज 2019 बैच की न्यायिक अधिकारी हैं, जिनकी पहली पोस्टिंग बाराबंकी में हुई थी। मई 2023 में उनका तबादला एक अन्य जिले में हुआ, जहां वे वर्तमान में कार्यरत हैं।


पत्र की प्रमुख बातें:

महिला जज ने अपने पत्र में जिन बातों को सामने रखा है, वे केवल व्यक्तिगत पीड़ा नहीं, बल्कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था की आंतरिक कमियों की ओर भी इशारा करती हैं।
उन्होंने कहा:

  • मैं दूसरों को न्याय देती हूं, लेकिन खुद अन्याय की शिकार हूं।
  • भरी अदालत में मुझे गालियां दी गईं, मेरा शारीरिक शोषण किया गया।
  • 2022 में हाईकोर्ट से शिकायत की, लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।
  • हजारों ईमेल के बावजूद 6 महीने में भी कोई जांच शुरू नहीं हुई।
  • जिन लोगों को गवाह बनाया गया है, वे उसी जज के अधीन हैं जिन्होंने उत्पीड़न किया। ऐसे में निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
  • मेरी अपील सिर्फ 8 सेकंड में ‘डिसमिस’ कर दी गई। जैसे मेरी पूरी अस्मिता ही ‘डिसमिस’ कर दी गई हो।
  • अब मैं जीना नहीं चाहती, कृपया मुझे सम्मानजनक मृत्यु की अनुमति दी जाए।

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ मौजूदा व्यवस्था पर सवाल:

महिला जज ने POSH (Protection of Women from Sexual Harassment at Workplace) कानून को भी “सिर्फ दिखावा” बताया है। उन्होंने कहा कि:

“कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा केवल एक औपचारिकता बनकर रह गई है। कोई सुनने वाला नहीं, कोई एक्शन नहीं। यहां तक कि शीर्ष अदालतें भी चुप हैं।”


क्या कहती है न्यायिक व्यवस्था?

यह घटना न्यायपालिका के उस स्तंभ पर सीधा प्रहार करती है, जिसे न्याय का मंदिर कहा जाता है। यदि एक न्यायाधीश, जिसे कानून का ज्ञाता, समाज का रक्षक और संवेदनशील निर्णयकर्ता माना जाता है, वही खुद न्याय के लिए संघर्ष कर रही हो, तो आम नागरिकों की स्थिति की कल्पना की जा सकती है।


कहां है संवेदनशीलता, कहां है जवाबदेही?

यह केवल एक अधिकारी की पीड़ा नहीं है, यह उस पूरे सिस्टम की खामोशी का दस्तावेज़ है जिसमें पीड़िता को अपनी आवाज़ उठाने की कीमत अपनी गरिमा, मानसिक स्वास्थ्य और अंत में जीवन की आशा गंवाकर चुकानी पड़ती है।


निष्कर्ष:

31 वर्षीय महिला जज का यह पत्र न केवल न्यायपालिका को आत्ममंथन के लिए मजबूर करता है, बल्कि समाज को भी यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हम सच में महिलाओं के लिए एक सुरक्षित, न्यायपूर्ण और सम्मानजनक कार्यस्थल बना पाए हैं?

यदि एक महिला जज के लिए न्याय की राह इतनी कठिन और अपमानजनक हो सकती है, तो एक आम महिला कर्मचारी या वादी की हालत क्या होगी?

अब समय आ गया है कि न्यायपालिका इस मामले को महज एक पत्र या वायरल खबर न समझे, बल्कि इसे एक ‘संस्थागत चेतावनी’ माने।


(नोट: यह लेख पीड़ित महिला जज के भावनात्मक पत्र और उनके साथ हुई घटनाओं पर आधारित है। पाठक इसे संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ पढ़ें।)