“किशोरावस्था की दलील मुकदमे के किसी भी चरण पर दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शक निर्णय – मुकर्रब व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य”

शीर्षक:
“किशोरावस्था की दलील मुकदमे के किसी भी चरण पर दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शक निर्णय – मुकर्रब व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

विस्तृत विश्लेषणात्मक लेख:

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने अपने ऐतिहासिक निर्णय मुकर्रब व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, रिपोर्टेड इन 2017 (2) SCC 210, 2017 (1) CCSC 106, और 2016 (4) Crim 310 में किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अंतर्गत अभियुक्त की आयु निर्धारण और किशोर होने की दलील (Plea of Juvenility) से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यावहारिक निर्देश दिए हैं। यह निर्णय भारतीय दंड न्याय प्रणाली में किशोर अधिकारों की व्याख्या को और स्पष्ट करता है।


मामले की पृष्ठभूमि:

मूल अभियुक्त मुकर्रब सहित अन्य व्यक्तियों पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं 302 (हत्या), 148 (हिंसक हथियार से दंगा) और 149 (गैरकानूनी जमाव) के तहत मुकदमा चलाया गया। मुकदमे के दौरान, एक अभियुक्त ने यह दलील दी कि अपराध करते समय वह किशोर था, अतः उसके विरुद्ध किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए।


प्रमुख कानूनी प्रश्न:

  1. क्या अस्थि परीक्षण (Ossification Test) के आधार पर आयु की निश्चितता की जा सकती है?
  2. क्या किशोरावस्था की दलील (Plea of Juvenility) मुकदमे के किसी भी चरण पर दी जा सकती है?
  3. क्या चिकित्सीय साक्ष्य (Medical Evidence) अंतिम और निर्णायक माने जा सकते हैं?

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:

माननीय न्यायालय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले:

🔹 1. चिकित्सीय साक्ष्य की सीमा:

  • चिकित्सीय परीक्षण, विशेषकर अस्थि परीक्षण (Ossification Test), आयु निर्धारण में मददगार और मार्गदर्शी (Guiding Factor) हो सकता है, परंतु यह निश्चायक (Conclusive) नहीं है।
  • यदि अभियुक्त की आयु 30 वर्ष से अधिक हो चुकी हो, तो अस्थि परीक्षण से सटीक और स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि मानव शरीर की हड्डियाँ उस अवस्था में पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं।

🔹 2. दस्तावेजी साक्ष्य की प्राथमिकता:

  • यदि स्कूल के रजिस्टर, जन्म प्रमाणपत्र, अथवा माता-पिता के बयान जैसे दस्तावेज उपलब्ध हों, तो वे चिकित्सीय परीक्षण की तुलना में अधिक विश्वसनीय माने जाएंगे।

🔹 3. किशोरावस्था की दलील का समय:

  • किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 7 (क) (Section 7A) स्पष्ट करती है कि किशोर होने की दलील मुकदमे के किसी भी चरण पर दी जा सकती है, चाहे वह जांच, सुनवाई, अपील, पुनर्विचार, या पुनरीक्षण ही क्यों न हो।
  • न्यायालय ने कहा कि न्यायालय इस दलील की सत्यता की जांच कर सकता है, भले ही फैसला सुनाया जा चुका हो।

न्यायिक दृष्टिकोण और निष्कर्ष:

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:

  • न्याय की अवधारणा के अनुरूप, किशोर को उसकी सही उम्र के अनुसार विशेष सुरक्षा और प्रक्रिया का लाभ मिलना चाहिए।
  • एक बार अगर किसी अभियुक्त के किशोर होने की संभावना सामने आती है, तो न्यायालय को उस दलील को तकनीकी आधार पर खारिज नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके परीक्षण हेतु उपयुक्त जांच करनी चाहिए।
  • यह निर्णय न्यायालयों को सतर्कता और संवेदनशीलता के साथ मामलों की समीक्षा करने की प्रेरणा देता है, जिससे किशोर अधिकारों का संरक्षण हो सके।

प्रभाव और महत्व:

  • यह फैसला किशोर न्याय प्रणाली के संविधानिक उद्देश्यों को मज़बूती प्रदान करता है।
  • यह विशेष रूप से उन मामलों में प्रासंगिक है जहाँ किशोरावस्था का दावा मुकदमे के बाद या देर से किया गया हो
  • इससे यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी किशोर अभियुक्त केवल प्रक्रिया की तकनीकीताओं के कारण किशोर न्याय अधिनियम के संरक्षण से वंचित न हो।

निष्कर्ष:

“मुकर्रब व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य” का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में किशोर अधिकारों के संरक्षण की नींव को और मजबूत करता है। यह स्पष्ट करता है कि न्यायालयों को आयु निर्धारण में सभी उपलब्ध साक्ष्यों और परिस्थितियों का सम्यक परीक्षण करना चाहिए, न कि केवल चिकित्सीय रिपोर्ट पर निर्भर रहना।

इस ऐतिहासिक फैसले से यह सिद्ध होता है कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट सिर्फ कानून नहीं, बल्कि न्याय की भावना के अनुरूप निर्णय देता है।