लेख शीर्षक:
“एमपी हाईकोर्ट ने खारिज की पिता की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका: बच्चे की कस्टडी को लेकर संवेदनशील निर्णय की विवेचना”
भूमिका:
बच्चे की कस्टडी (हिफाज़त) से जुड़े मामलों में अदालतें केवल कानूनी अधिकारों के आधार पर नहीं, बल्कि बच्चे के सर्वोत्तम हित (welfare of the child) के सिद्धांत को सर्वोपरि मानती हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (MP High Court) ने एक पिता द्वारा दायर हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बच्चा अपनी मां के साथ सुरक्षित है, और उसे जबरन कोर्ट में पेश कराने या कस्टडी देने का कोई औचित्य नहीं बनता।
🔹 मामले की पृष्ठभूमि
एक पिता ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) याचिका दायर कर कहा कि उसकी नाबालिग संतान को उसकी पूर्व पत्नी या जीवनसाथी ने ग़ैरकानूनी रूप से अपने पास रखा है, और वह उसे वापस पाना चाहता है।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि:
- वह बच्चे का वैध संरक्षक (lawful guardian) है।
- मां ने बिना अनुमति के बच्चे को अपने पास रखा है।
- यह अवैध हिरासत (illegal detention) है, जो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के दायरे में आता है।
🔹 अदालत की टिप्पणी व निर्णय
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की खंडपीठ ने याचिका को खारिज करते हुए कहा:
“बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का उद्देश्य केवल तब होता है जब किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में रखा गया हो।”
“लेकिन यदि बच्चा अपनी मां के साथ है, और वहां उसकी देखभाल हो रही है, तो यह ‘अवैध हिरासत’ की श्रेणी में नहीं आता।”
कोर्ट ने विशेष रूप से यह कहा कि:
- बच्चे की मां प्राकृतिक अभिभावक है।
- बच्चा सुरक्षित और स्थिर वातावरण में रह रहा है।
- अगर याचिकाकर्ता को कस्टडी प्राप्त करनी है तो सिविल कोर्ट में उचित प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जैसे कि गार्जियनशिप एक्ट के अंतर्गत आवेदन करना।
🔹 कानूनी विश्लेषण: क्या है ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण’?
हैबियस कॉर्पस एक मौलिक अधिकार है जो अनुच्छेद 32 और 226 के तहत दायर किया जा सकता है। इसका उद्देश्य:
- किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत से मुक्त कराना है।
- यह तब लागू होता है जब कोई व्यक्ति बिना वैध कानूनी अधिकार के किसी की आज़ादी छीन ले।
लेकिन बच्चे की कस्टडी के मामले में, जब बच्चा अपने प्राकृतिक संरक्षक (जैसे मां) के पास है और कोई शोषण या खतरा नहीं है, तो कोर्ट इसे अवैध हिरासत नहीं मानती।
🔹 पूर्ववर्ती निर्णयों से समर्थन
- Tejaswini Gaud v. Shekhar Jagdish Prasad Tewari (2019, SC)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बच्चा किसके पास रहेगा, इसका निर्णय केवल कानूनी संरक्षकता पर नहीं, बल्कि बच्चे के हित को देखकर किया जाएगा। - Roxann Sharma v. Arun Sharma (2015, SC)
मातृत्व को विशेष दर्जा देते हुए कहा गया कि कम उम्र के बच्चे का मां के पास रहना अधिक उचित होता है, जब तक कि कोई स्पष्ट कारण न हो।
🔹 इस निर्णय का प्रभाव और महत्व
- बच्चे के कल्याण को सर्वोच्च मान्यता:
अदालतें अब यह देख रही हैं कि बच्चा मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से कहां अधिक सुरक्षित है, न कि केवल किसके पास कानूनी अधिकार है। - ग़लत मंच पर याचिका से बचाव:
कस्टडी के लिए Guardian & Wards Act या सिविल कोर्ट में याचिका दायर करना अधिक उपयुक्त है, न कि सीधे हैबियस कॉर्पस की याचिका। - मां को नैसर्गिक अभिभावक का दर्जा:
जब तक मां की ओर से किसी प्रकार की लापरवाही या हिंसा सिद्ध न हो, कोर्ट मां को बच्चे की देखभाल के लिए प्राथमिक विकल्प मानती है।
🔹 निष्कर्ष:
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का यह निर्णय एक बार फिर स्पष्ट करता है कि बच्चे की कस्टडी से जुड़े मामले केवल वैधानिक नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी देखे जाने चाहिए। बंदी प्रत्यक्षीकरण का प्रयोग तब तक नहीं होना चाहिए जब तक कोई स्पष्ट रूप से अवैध हिरासत या खतरे का मामला न हो।
यह फैसला न केवल न्यायिक विवेक का प्रतीक है, बल्कि माता-पिता के बीच कस्टडी संघर्ष के मामलों में बच्चे के हितों की सर्वोपरिता को सर्वोच्च न्यायिक मूल्य के रूप में स्थापित करता है।