“क्या दहेज के मामलों में कोर्ट Arnesh Kumar के दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज़ कर सकती है? अग्रिम ज़मानत से इनकार पर न्यायिक समीक्षा”

लेख शीर्षक:
“क्या दहेज के मामलों में कोर्ट Arnesh Kumar के दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज़ कर सकती है? अग्रिम ज़मानत से इनकार पर न्यायिक समीक्षा”


भूमिका:
भारतीय दंड संहिता की धारा 498A (पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के अंतर्गत महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई सख्त प्रावधान बनाए गए हैं। हालांकि, इन कानूनों के दुरुपयोग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में “Arnesh Kumar बनाम राज्य बिहार” मामले में महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए। इन निर्देशों का उद्देश्य यह था कि दहेज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी न हो और आरोपी पक्ष को उचित न्यायिक संरक्षण मिले। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या इन दिशा-निर्देशों के बावजूद कोर्ट अग्रिम ज़मानत (Anticipatory Bail) से इनकार कर सकती है?


Arnesh Kumar केस: पृष्ठभूमि और मुख्य निर्देश

निर्णय वर्ष: 2014
पीठ: न्यायमूर्ति चेलमेश्वर व न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ

मुख्य बिंदु:

  1. धारा 498A गैर-जमानती अपराध होते हुए भी इसका अत्यधिक दुरुपयोग हो रहा है।
  2. गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है, पुलिस को जांच करनी चाहिए और धारा 41 CrPC का पालन करना चाहिए।
  3. मजिस्ट्रेट को भी पुलिस के गिरफ्तार करने के कारणों की समीक्षा करनी चाहिए।
  4. गैर-जमानती मामलों में भी गिरफ्तारी अंतिम उपाय होनी चाहिए, न कि पहले से तय रणनीति।

अग्रिम ज़मानत का अधिकार और न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत एक विवेकाधीन अधिकार है, जिसे अदालत मामले की तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर तय करती है।

हालांकि Arnesh Kumar निर्णय पुलिस और मजिस्ट्रेट के लिए निर्देशात्मक है, लेकिन अग्रिम जमानत की स्वीकृति या अस्वीकृति पर यह बाध्यकारी नहीं माना गया।

यानी, अदालत इन निर्देशों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती, लेकिन पूर्णतः केवल इन्हीं के आधार पर अग्रिम ज़मानत देना जरूरी नहीं है।


क्या कोर्ट अग्रिम ज़मानत से इनकार कर सकती है?

हां, यदि निम्नलिखित परिस्थितियां हों:

  1. गंभीर आरोप हों – जैसे मृत्यु, आत्महत्या, या बार-बार क्रूरता का आरोप।
  2. गवाहों को प्रभावित करने की आशंका हो।
  3. आरोपी के भागने या साक्ष्य मिटाने की संभावना हो।
  4. पहले से लंबित कोई आपराधिक इतिहास हो।

नहीं, यदि:

  1. केवल एकतरफा आरोप हो और सबूत कमजोर हों।
  2. शिकायत में देरी हो और प्राथमिकी में अस्पष्टता हो।
  3. आरोपी स्थायी निवास वाला हो और जांच में सहयोग करने को तैयार हो।

हाल के न्यायिक दृष्टांत:

  1. सुप्रीम कोर्ट – Satender Kumar Antil बनाम CBI (2021):
    अदालत ने दोहराया कि गिरफ्तारी अंतिम उपाय है, लेकिन जमानत का निर्णय तथ्यों के आधार पर होगा।
  2. दिल्ली हाईकोर्ट (2022):
    न्यायालय ने कहा कि Arnesh Kumar के दिशा-निर्देश पुलिस की कार्यवाही से जुड़े हैं, न कि अदालत के विवेकाधिकार को सीमित करने के लिए।

निष्कर्ष:

Arnesh Kumar बनाम बिहार राज्य का निर्णय पुलिस को अनुचित गिरफ्तारी से रोकने के लिए था, और यह अदालतों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत प्रदान करता है। लेकिन अग्रिम ज़मानत देना या न देना कोर्ट की विवेकाधीन शक्ति है, जो मामले की गंभीरता, साक्ष्य, परिस्थितियों और अभियुक्त के आचरण पर निर्भर करती है।

इसलिए, यदि कोर्ट पाती है कि आरोपी की अग्रिम ज़मानत से न्याय प्रक्रिया बाधित हो सकती है, तो वह उचित कारणों के साथ अग्रिम ज़मानत से इनकार कर सकती है — लेकिन यह इनकार Arnesh Kumar के निर्देशों की अवहेलना नहीं माना जाएगा, यदि विवेकपूर्वक किया गया हो।