शीर्षक:
वनवासियों के भूमि अधिकार और विस्थापन कानून: न्याय, संरक्षण और पुनर्वास की कानूनी पड़ताल
परिचय:
भारत की एक बड़ी आबादी ऐसे आदिवासी और वनवासी समुदायों की है, जिनका जीवन सदियों से जंगलों, पहाड़ों और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहा है। उनके लिए भूमि केवल संपत्ति नहीं, बल्कि जीवन, संस्कृति और अस्तित्व का आधार है। लेकिन औद्योगीकरण, खनन, जल परियोजनाएं, वन संरक्षण और अन्य विकास कार्यों के चलते लाखों वनवासियों को बेदखली और विस्थापन का सामना करना पड़ा है।
इस संदर्भ में यह लेख भारत में वनवासियों के भूमि अधिकार और विस्थापन से संबंधित प्रमुख कानूनों, चुनौतियों और सुधारों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
1. वनवासियों के भूमि अधिकार: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
- परंपरागत स्वामित्व:
वनवासी समुदाय पीढ़ियों से बिना किसी सरकारी दस्तावेज के भूमि पर रहते और खेती करते रहे हैं। - ब्रिटिश शासन में भूमि अधिग्रहण:
Indian Forest Act, 1927 के तहत जंगलों को “सरकारी संपत्ति” घोषित कर दिया गया और आदिवासी समुदायों को “अवैध अतिक्रमी” कहा जाने लगा। - आधुनिक भारत में सुधार:
वनवासियों को उनका भूमि अधिकार मान्यता दिलाने के लिए 2006 में वन अधिकार अधिनियम लागू किया गया।
2. वन अधिकार अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act – FRA)
उद्देश्य:
- वनवासियों और पारंपरिक वननिवासियों के भूमि और जंगलों पर परंपरागत अधिकारों की कानूनी मान्यता।
मुख्य अधिकार:
- व्यक्तिगत खेती भूमि पर स्वामित्व
- सामुदायिक भूमि उपयोग (जैसे चारागाह, जल स्रोत, लकड़ी-जड़ी बूटी संग्रह)
- धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों पर अधिकार
- ग्रामसभा को भूमि विवाद और संरक्षण का अधिकार
प्रभाव:
- लाखों वनवासियों को वैधानिक भूमि अधिकार मिला
- बेदखली की कानूनी प्रक्रिया जटिल और न्यायपूर्ण हुई
3. विस्थापन का कानूनी परिदृश्य
(i) भूमि अधिग्रहण कानून, 2013
पूर्ण नाम: The Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013
प्रमुख प्रावधान:
- प्रभावित परिवारों को मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन की गारंटी
- ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य (विशेषकर अनुसूचित क्षेत्रों में)
- सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (SIA)
- ज़मीन अधिग्रहण के बाद वापसी का प्रावधान (यदि उपयोग नहीं हुआ)
(ii) पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 – PESA Act
- अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण से पहले ग्रामसभा की पूर्व सहमति आवश्यक
- आदिवासी क्षेत्र में ग्रामसभा को स्थानीय संसाधनों पर निर्णायक अधिकार
(iii) अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वननिवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 – FRA
- ग्रामसभा की मंजूरी के बिना किसी भी वनवासी को बेदखल नहीं किया जा सकता
- दावा खारिज होने से पहले अपील की पूरी प्रक्रिया होनी चाहिए
4. विस्थापन के दुष्परिणाम
- संस्कृति और पहचान का ह्रास
- आजीविका का नुकसान और बेरोजगारी
- शहरी झुग्गियों में नारकीय जीवन
- शोषण, कुपोषण और सामाजिक हाशिए पर धकेलना
5. न्यायपालिका की भूमिका
(i) ओडिशा खनन मामला (Vedanta Case)
- सुप्रीम कोर्ट ने डोंगरिया कोंध जनजाति की ग्रामसभा को अंतिम निर्णय का अधिकार दिया।
(ii) सुप्रीम कोर्ट आदेश 2019 – बेदखली मामला
- 20 लाख से अधिक वनवासी परिवारों के दावों को खारिज कर बेदखली के आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाई, जब सरकार ने हस्तक्षेप किया।
(iii) नर्मदा बचाओ आंदोलन (NBA)
- सुप्रीम कोर्ट ने विस्थापितों के पुनर्वास को अनिवार्य शर्त माना
6. प्रशासनिक चुनौतियाँ
- भूमि अधिकार के दावों की अस्वीकृति दर बहुत अधिक
- बिना सहमति या सूचना के बेदखली
- पुनर्वास योजना का अमल अधूरा
- मुआवजा राशि का भ्रष्टाचार और भटकाव
7. सुधार हेतु सुझाव
- ग्रामसभा की राय को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाया जाए
- सभी भूमि अधिग्रहणों में वन अधिकार अधिनियम और PESA का अनुपालन अनिवार्य हो
- डिजिटल भूमि अभिलेखों में वनवासियों का नाम दर्ज हो
- स्थायी पुनर्वास और रोजगार योजना के बिना अधिग्रहण न हो
- आदिवासी और वनवासी समुदायों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता प्रकोष्ठ गठित किए जाएं
8. सकारात्मक उदाहरण
- छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में कई ग्रामसभाओं ने सामुदायिक वन अधिकार प्राप्त कर स्थानीय जंगलों का सफल प्रबंधन किया
- ओडिशा में ग्रामसभा द्वारा वेदांता कंपनी के खनन प्रस्ताव को अस्वीकार कर जनतांत्रिक मॉडल प्रस्तुत किया गया
निष्कर्ष:
वनवासियों के भूमि अधिकार और विस्थापन के कानून केवल विधिक दस्तावेज नहीं, बल्कि न्याय, आत्मसम्मान और अस्तित्व की गारंटी हैं। जब तक ग्रामसभा की सहमति को अनदेखा किया जाता रहेगा, तब तक आदिवासी हितों की रक्षा संभव नहीं। भारत को एक विकासशील राष्ट्र के साथ-साथ एक न्यायप्रिय समाज भी बनना होगा, जहाँ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो, लेकिन बिना उस धरती के बेटों को बेघर किए।