“बलपूर्वक नार्को-एनालिसिस परीक्षण असंवैधानिक: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा”
परिचय:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट कर दिया है कि बलपूर्वक (Involuntary) नार्को-एनालिसिस परीक्षण की रिपोर्ट न्यायालय में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है। यह निर्णय न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करता है, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) और 21 के संरक्षण को पुनः रेखांकित करता है।
मामले की पृष्ठभूमि:
इस केस में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराएं 341, 342, 323, 363, 364, 498A, 504, 506, और 34 के अंतर्गत आरोपित अभियुक्तों पर बलपूर्वक नार्को-एनालिसिस परीक्षण कराने का आदेश पटना उच्च न्यायालय ने दिया था। इस आदेश को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को रद्द (Set Aside) करते हुए कहा कि:
- नार्को-एनालिसिस परीक्षण में शामिल होना आरोपी का कोई अपरिहार्य (indefeasible) अधिकार नहीं है।
- यदि कोई आरोपी स्वेच्छा से (Voluntarily) परीक्षण के लिए आवेदन करता है, तो अदालत को पूरे मामले की परिस्थितियों और आरोपी की स्वतंत्र सहमति पर विचार करना चाहिए।
- परीक्षण के दौरान पर्याप्त कानूनी सुरक्षा उपाय (safeguards) आवश्यक हैं।
- बलपूर्वक नार्को-एनालिसिस परीक्षण अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है, जैसा कि पूर्व निर्णय Selvi v. State of Karnataka (2010) में स्पष्ट किया गया था।
- कोई भी नार्को रिपोर्ट अगर स्वैच्छिक भी हो, तो भी वह एकमात्र आधार बनकर दोष सिद्ध करने योग्य नहीं हो सकती।
- आधुनिक जांच तकनीकों को अपनाने की स्वतंत्रता है, परंतु वह संवैधानिक अधिकारों की कीमत पर नहीं हो सकती।
संविधानिक विश्लेषण:
- अनुच्छेद 20(3): किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। नार्को-एनालिसिस, जबरन लिया जाए, तो यह अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है।
- अनुच्छेद 21: यह जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित करता है। बिना स्वैच्छिक सहमति के मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप (जैसे नार्को-टेस्ट) अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माने जाते हैं।
प्रक्रियात्मक दृष्टिकोण:
- CrPC की धारा 233 के तहत जब आरोपी साक्ष्य प्रस्तुत करने की इच्छा जाहिर करता है, तभी वह ऐसी जांच या परीक्षण की अनुमति मांग सकता है।
- कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मूल अधिकारों और प्रक्रिया के सिद्धांत को दरकिनार करके कोई परीक्षण नहीं कराया जा सकता।
राज्य का तर्क खारिज:
राज्य सरकार की यह दलील कि सभी आरोपियों पर नार्को-टेस्ट अनिवार्य किया जाए, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए अस्वीकार कर दी कि नार्को-एनालिसिस की वैज्ञानिक विश्वसनीयता संदेहास्पद है, और यह न तो विश्वसनीय साक्ष्य है, न ही यह विवेचना का आवश्यक अंग।
निष्कर्ष:
यह निर्णय न केवल भारतीय दंड प्रक्रिया और मानवाधिकारों की दृष्टि से ऐतिहासिक है, बल्कि यह आधुनिक तकनीकों की सीमाएं भी निर्धारित करता है। न्याय की प्रक्रिया में अधिकारों की रक्षा सर्वोपरि है, और यह निर्णय इसी सिद्धांत को मजबूती प्रदान करता है।