“चेक बाउंस मामलों में उधार देने वाले के वैधानिक अधिकारों की जांच अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट का फैसला – राजेन्द्र अनंत वारिक बनाम गोविंद बी. प्रभुगांवकर (06 मई 2025)”

लेख शीर्षक:
“चेक बाउंस मामलों में उधार देने वाले के वैधानिक अधिकारों की जांच अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट का फैसला – राजेन्द्र अनंत वारिक बनाम गोविंद बी. प्रभुगांवकर (06 मई 2025)


भूमिका:
भारतीय न्यायपालिका ने चेक अनादर (Dishonour of Cheque) मामलों में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि यदि वादी (Complainant) राज्य के मनी-लेंडिंग कानून के अंतर्गत कानूनी रूप से ऋण वसूलने का पात्र नहीं है, तो धारा 138, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के तहत आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजेन्द्र अनंत वारिक बनाम गोविंद बी. प्रभुगांवकर मामले में 6 मई 2025 को सुनाया गया।


प्रकरण की पृष्ठभूमि:
राजेन्द्र अनंत वारिक ने गोविंद बी. प्रभुगांवकर के खिलाफ धारा 138, एन.आई. एक्ट के तहत आपराधिक मामला दर्ज कराया था, जिसमें यह आरोप था कि गोविंद ने उन्हें कुछ पैसे उधार लिए थे और फिर चुकाने के लिए जो चेक दिया, वह बाउंस हो गया।

हालाँकि, प्रतिवादी ने अपने बचाव में यह कहा कि वादी एक लाइसेंस रहित साहूकार (unlicensed money-lender) है और वह महाराष्ट्र मनी लेंडर्स एक्ट के अंतर्गत अधिकृत नहीं है, अतः वह कानूनी रूप से यह राशि वसूलने का अधिकार नहीं रखता।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को गंभीरता से लेते हुए यह निर्णय दिया कि:

“Failure to consider the defence under state money-lending law may vitiate a conviction under Section 138 of the Negotiable Instruments Act if the complainant is not legally entitled to recover the loan amount.”

अर्थात् यदि राज्य के मनी-लेंडिंग कानून के तहत वादी ऋण वसूलने के लिए कानूनी रूप से पात्र नहीं है, तो धारा 138 के अंतर्गत अभियोजन असंवैधानिक माना जाएगा।


महत्वपूर्ण बिंदु:

  1. धारा 138 एन.आई. एक्ट की आवश्यकता:
    • एक वैध ऋण या देनदारी का अस्तित्व
    • चेक का भुगतान न होना
    • विधिक नोटिस के बावजूद भुगतान न किया जाना
    • कानूनी रूप से राशि वसूलने का अधिकार होना अनिवार्य है।
  2. राज्य के मनी-लेंडिंग कानून का प्रभाव:
    • महाराष्ट्र मनी लेंडर्स एक्ट, जैसे राज्य कानूनों के अंतर्गत यदि वादी के पास ऋण देने और वसूली का लाइसेंस नहीं है, तो उसका दावा अवैध माना जाएगा।
    • इसलिए धारा 138 की कार्यवाही तब तक टिकाऊ नहीं रह सकती जब तक ऋण देने वाला कानूनी रूप से पात्र न हो।
  3. पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ:
    सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में भी इस सिद्धांत को समर्थन दिया है, जैसे:

    • Shantaben v. State of Gujarat (2008)
    • Krishna P. Morajkar v. Joe Ferrao (2013)
    • M.S. Narayana Menon v. State of Kerala (2006)

न्यायिक तर्क:
न्यायालय ने यह दोहराया कि भारतीय दंड प्रक्रिया का उद्देश्य केवल अभियोजन नहीं, बल्कि न्याय है। यदि वादी ने कानून का उल्लंघन कर उधारी दी है, तो उसे उस उधारी को वसूलने का कानूनी अधिकार नहीं होना चाहिए। इस आधार पर यदि धारा 138 के तहत किसी को दंडित किया जाए, तो यह न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।


निष्कर्ष:
इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्थापित किया कि चेक बाउंस के मामलों में केवल चेक का अनादर ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि ऋणदाता का वैधानिक पात्रता होना भी उतना ही आवश्यक है। यह निर्णय न केवल कानून के दुरुपयोग को रोकता है बल्कि ऐसे व्यक्तियों को संरक्षण देता है जिन्हें गैरकानूनी तरीके से उधार देने वाले दबाव में लाते हैं।


प्रभाव और महत्व:

  • यह फैसला धारा 138 एन.आई. एक्ट के दायरे में एक महत्वपूर्ण सीमांकन करता है।
  • गैरकानूनी तरीके से ऋण देने वालों के खिलाफ चेतावनी है।
  • अभियुक्तों को एक सशक्त बचाव का आधार प्रदान करता है यदि वादी मनी-लेंडिंग कानून का उल्लंघन कर रहा हो।