लेख शीर्षक:
“केवल साझेदार या गारंटर होने से नहीं बनती धारा 138 NI Act के तहत आपराधिक जिम्मेदारी — दिलीप हरिरामानी बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा (सुप्रीम कोर्ट, 2025)”
लेख:
सुप्रीम कोर्ट ने Dilip Hariramani v. Bank of Baroda [2025] मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि केवल किसी फर्म का साझेदार (partner) होने या ऋण के लिए गारंटी देने मात्र से नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत चेक बाउंस होने पर आपराधिक दायित्व (criminal liability) नहीं ठहराई जा सकती।
⚖️ मामले की पृष्ठभूमि:
- बैंक ऑफ बड़ौदा ने एक फर्म द्वारा लिए गए ऋण पर चेक के अनादान (dishonour) के लिए आपराधिक मामला दर्ज किया।
- याचिकाकर्ता दिलीप हरिरामानी उस फर्म का साझेदार थे और उन्होंने उस ऋण के लिए गारंटी (guarantee) भी दी थी।
- चेक पर हस्ताक्षर फर्म के अन्य साझेदार द्वारा किए गए थे।
- निचली अदालत ने उन्हें धारा 138 NI Act के अंतर्गत दोषी ठहराया, जिसे उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
🧾 सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 138 के तहत दोष सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि आरोपी ने स्वयं वह चेक जारी किया हो या उस पर हस्ताक्षर किए हों।
- केवल गारंटर या साझेदार होना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि यह सिद्ध न हो जाए कि आरोपी ने स्वयं चेक जारी किया या फर्म के कार्यों के लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार था।
- अदालत ने यह भी दोहराया कि आपराधिक दायित्व व्यक्तिगत होता है, केवल संस्थागत भूमिका के कारण नहीं लगाया जा सकता।
📌 महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत:
- धारा 138 NI Act में सज़ा के लिए आवश्यक है:
- चेक की निर्गमनता (issuance) आरोपी द्वारा होनी चाहिए।
- आरोपी ने जानबूझकर या दुर्भावना से चेक जारी किया हो, यह सिद्ध हो।
- फर्म के किसी चेक के लिए केवल साझेदार होने के नाते उत्तरदायित्व नहीं बनता।
🧠 न्यायालय की टिप्पणी:
“सिर्फ इसलिए कि व्यक्ति ने ऋण के लिए गारंटी दी या फर्म का साझेदार था, उसे धारा 138 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक यह साबित न हो कि उसने स्वयं चेक जारी किया था या फर्म की जिम्मेदारी संभाली थी।”
✅ निष्कर्ष:
यह निर्णय कारोबारी साझेदारों और गारंटरों को राहत देता है कि वे केवल अपनी पदात्मक भूमिका या औपचारिक जिम्मेदारी के कारण आपराधिक मामलों में नहीं फँसेंगे।
साथ ही, यह चेक बाउंस कानून की दंडात्मक प्रकृति को संतुलित करते हुए यह सुनिश्चित करता है कि दोष सिद्धि केवल ठोस साक्ष्यों के आधार पर हो।