लेख शीर्षक:
“क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक वैध: वैवाहिक सहजीवन की पुनर्स्थापना न मानने पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का निर्णय पलटा”
लेख:
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि यदि कोई पक्ष वैवाहिक सहजीवन की पुनर्स्थापना (Restitution of Conjugal Rights) के आदेश का पालन नहीं करता और परित्याग (Desertion) तथा क्रूरता (Cruelty) के आधार लगातार बने रहते हैं, तो ऐसे मामलों में तलाक का आदेश विधिसम्मत होता है।
यह निर्णय हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 और धारा 13 के आलोक में पारित किया गया।
मामले की पृष्ठभूमि:
- अपीलकर्ता (पति/पत्नी) ने धारा 9 के तहत वैवाहिक सहजीवन की पुनर्स्थापना का वाद दायर किया था, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और आदेश दिया कि दोनों पक्षों को साथ रहना चाहिए।
- परंतु, प्रतिवादी (पति/पत्नी) ने इस आदेश का पालन नहीं किया और वैवाहिक जीवन में लौटने से इनकार किया।
- इसके पश्चात अपीलकर्ता ने धारा 13 के अंतर्गत तलाक की याचिका दायर की, जिसमें क्रूरता और परित्याग को आधार बनाया गया।
- परिवार न्यायालय (Family Court) ने युक्तियुक्त आधार मानते हुए विवाह को विघटित (dissolve) कर दिया और तलाक की डिक्री जारी की।
- किंतु हाईकोर्ट ने इस तलाक डिक्री को रद्द कर दिया, जिसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय:
- सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब एक पक्ष ने वैवाहिक पुनर्स्थापना के आदेश का पालन नहीं किया, और लगातार परित्याग की स्थिति बनी रही, तो यह तलाक का वैध आधार बनता है।
- अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि प्रतिवादी ने बिना किसी ठोस कारण के सहजीवन से इनकार किया, जो कि स्पष्ट परित्याग है।
- अपीलकर्ता द्वारा प्रतिवादी को एकमुश्त गुज़ारा भत्ते (lump-sum alimony) की उचित पेशकश भी की गई थी, जिसे न्यायालय ने न्यायसंगत और स्वीकार्य माना।
- इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए तलाक डिक्री को बहाल कर दिया।
प्रमुख कानूनी बिंदु:
- धारा 9 के आदेश का पालन न करना, अगर लंबी अवधि तक जारी रहे, तो वह धारा 13 के अंतर्गत परित्याग के रूप में गिना जा सकता है।
- वैवाहिक संबंधों में न्यायिक हस्तक्षेप का उद्देश्य केवल अनावश्यक विवाह को बनाए रखना नहीं, बल्कि न्याय और गरिमा की रक्षा करना है।
- यदि एक पक्ष संपूर्ण प्रयासों के बावजूद भी वैवाहिक सहजीवन के लिए तैयार नहीं है, तो दूसरा पक्ष तलाक पाने का हकदार है।
निष्कर्ष:
यह निर्णय भारतीय विवाह कानून के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण दृष्टांत (precedent) के रूप में उभरता है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि वैवाहिक दायित्वों से जानबूझकर विमुख होना, न्यायालय द्वारा पारित आदेशों की अनदेखी करना, और दूसरे पक्ष को मानसिक कष्ट देना, तलाक के लिए पर्याप्त आधार हो सकता है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण व्यावहारिक न्याय, समानता, और नैतिक संतुलन पर आधारित था, जिससे उन दंपतियों को राहत मिल सकती है जो असहनीय वैवाहिक स्थितियों में फँसे हुए हैं।