“एन.आई. एक्ट की धारा 138 व 142 के तहत देरी की स्वीकृति में न्यायिक विवेक अनिवार्य: तेलंगाना हाईकोर्ट का निर्देश”

लेख शीर्षक:

“एन.आई. एक्ट की धारा 138 व 142 के तहत देरी की स्वीकृति में न्यायिक विवेक अनिवार्य: तेलंगाना हाईकोर्ट का निर्देश”


भूमिका:

तेलंगाना उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 और 142(b) के तहत दायर शिकायत में देरी की माफी (condonation of delay) केवल न्यायिक विवेक (judicial discretion) के आधार पर ही दी जा सकती है। अदालत ने कहा कि यदि शिकायतकर्ता ने शिकायत दर्ज करने में देरी की है, तो यह देरी केवल तभी माफ की जा सकती है जब आरोपी को अपनी बात रखने का उचित अवसर दिया गया हो।

इस निर्णय में, 242 दिनों की देरी को बिना आरोपी को सुनवाई का अवसर दिए माफ कर देना न्यायिक प्रक्रिया में गंभीर चूक माना गया।


मामले की पृष्ठभूमि:

इस मामले में शिकायतकर्ता ने एन.आई. एक्ट की धारा 138 के अंतर्गत एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप था कि आरोपी द्वारा जारी चेक का भुगतान बाउंस हो गया। लेकिन शिकायत 242 दिनों की देरी से दायर की गई थी।

हालाँकि, मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता की देरी माफ कर ली और संज्ञान (cognizance) ले लिया। लेकिन मजिस्ट्रेट ने यह कार्यवाही बिना आरोपी को सुने की, जिससे आरोपी को अपनी बात रखने का अवसर नहीं मिला।


हाईकोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ:

  1. विधिक प्रक्रिया का पालन अनिवार्य:
    एन.आई. एक्ट की धाराएँ 138 और 142(b) सख्त समय-सीमा और प्रक्रिया को निर्धारित करती हैं। इनका पालन सूक्ष्मता से (meticulously) किया जाना अनिवार्य है।
  2. न्यायिक विवेक का संतुलन:
    मजिस्ट्रेट के पास देरी माफ करने का अधिकार है, लेकिन वह केवल तब ही प्रयोग किया जाना चाहिए जब दोनों पक्षों को सुनने का अवसर मिला हो।
  3. आरोपी के अधिकारों की अनदेखी:
    इस मामले में मजिस्ट्रेट ने आरोपी को जवाब देने का अवसर नहीं दिया, जो प्राकृतिक न्याय (principles of natural justice) के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
  4. निर्णय की त्रुटिपूर्णता:
    मजिस्ट्रेट द्वारा देरी माफ कर संज्ञान लेना त्रुटिपूर्ण माना गया और उच्च न्यायालय ने उस आदेश को निरस्त (set aside) कर दिया।

अदालत का निर्देश:

उच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि:

“मजिस्ट्रेट अब देरी माफ करने की याचिका पर पुनः विचार करें और यह सुनिश्चित करें कि आरोपी को उचित अवसर प्रदान किया जाए। उसके बाद ही संज्ञान लेने का निर्णय किया जाए।”


कानूनी और सामाजिक महत्व:

  • सुनवाई का अधिकार (Right to be heard) एक मौलिक न्याय सिद्धांत है।
  • यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
  • देरी माफी जैसे महत्वपूर्ण विषयों में एकतरफा आदेश न केवल प्रक्रिया को दोषपूर्ण बनाते हैं, बल्कि पक्षों के अधिकारों का हनन भी करते हैं।

निष्कर्ष:

तेलंगाना उच्च न्यायालय का यह निर्णय इस बात की स्पष्ट मिसाल है कि अदालतों को केवल निष्क्रिय रूप से आदेश पारित करने के बजाय, प्रक्रियागत न्याय और संतुलित विवेक का प्रयोग करना चाहिए। यह फैसला एक चेतावनी है कि एन.आई. एक्ट के मामलों में समय-सीमा और कानूनी प्रक्रिया का कठोर पालन अनिवार्य है, ताकि दोनों पक्षों को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिल सके।