प्रश्न 16: शेयर सर्टिफिकेट और शेयर वारंट में क्या अंतर है?
🔷 परिचय (Introduction):
कंपनी द्वारा अपने शेयरधारकों को उनके शेयर स्वामित्व के प्रमाण के रूप में जो दस्तावेज़ दिए जाते हैं, उन्हें मुख्यतः शेयर सर्टिफिकेट (Share Certificate) या शेयर वारंट (Share Warrant) कहा जाता है।
हालाँकि दोनों दस्तावेज़ कंपनी के शेयरों से संबंधित होते हैं, लेकिन उनका स्वरूप, प्रकृति, वैधानिक प्रभाव और उपयोग में अनेक अंतर होते हैं।
🔶 1. शेयर सर्टिफिकेट (Share Certificate):
📌 परिभाषा:
शेयर सर्टिफिकेट वह दस्तावेज़ होता है जो यह प्रमाणित करता है कि संबंधित व्यक्ति, कंपनी के निर्दिष्ट संख्या के शेयरों का वैध स्वामी (owner) है।
➡ यह एक प्राथमिक और वैधानिक दस्तावेज़ है, जो किसी व्यक्ति के नाम पर जारी किया जाता है।
➡ इसे कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 46 के अंतर्गत नियंत्रित किया जाता है।
📌 मुख्य विशेषताएँ:
- नामांकित (Named) दस्तावेज होता है
- किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर जारी होता है
- शेयरों का स्वामित्व दर्शाता है
- हस्तांतरण के लिए ट्रांसफर डीड और बोर्ड की स्वीकृति आवश्यक
- डिमैट (Dematerialized) रूप में भी उपलब्ध
📌 कानूनी मान्यता:
कानून की दृष्टि में, शेयर सर्टिफिकेट Prima Facie Evidence होता है कि धारक वैध शेयरधारक है।
🔶 2. शेयर वारंट (Share Warrant):
📌 परिभाषा:
शेयर वारंट वह दस्तावेज़ होता है जो किसी व्यक्ति को उस पर लिखे गए संख्या के शेयरों का धारक (Bearer) माना जाता है, और यह स्वामित्व के हस्तांतरणीय अधिकार को दर्शाता है।
➡ इसे कंपनी अधिनियम, 1956 में अनुमति दी गई थी, परंतु
➡ कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत शेयर वारंट जारी करने की अनुमति नहीं है।
📌 मुख्य विशेषताएँ:
- यह Bearer Instrument होता है (जैसे – नकद चेक)
- स्वामित्व उसके पास होता है जिसके पास वारंट होता है
- नाम रहित होता है
- स्वतंत्र रूप से ट्रांसफर किया जा सकता है, किसी रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं
- बहुत कम कंपनियाँ ही इसे जारी कर सकती थीं (और वह भी पूर्व अनुमति से)
🔶 3. शेयर सर्टिफिकेट और शेयर वारंट में अंतर (Difference Table):
बिंदु | शेयर सर्टिफिकेट | शेयर वारंट |
---|---|---|
📌 प्रकृति | नामांकित दस्तावेज | बियरर दस्तावेज |
📌 स्वामित्व का प्रमाण | किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर | जिसके पास दस्तावेज़ हो |
📌 हस्तांतरण | ट्रांसफर डीड और रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता | स्वतः हस्तांतरणीय |
📌 कानूनी मान्यता | अधिनियम 2013 में मान्य | अधिनियम 2013 में अप्रचलित |
📌 रजिस्टर में प्रविष्टि | नाम दर्ज किया जाता है | कोई प्रविष्टि नहीं |
📌 सुरक्षा | अधिक सुरक्षित | कम सुरक्षित (खोने पर दावा कठिन) |
📌 उदाहरण | निवेशक को डिमैट फॉर्म में प्राप्त | अब भारत में अप्रचलित |
🔷 न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial View):
- Sundram Finance Ltd. v. State of Kerala (1966)
निर्णय में यह स्वीकार किया गया कि शेयर सर्टिफिकेट एक कानूनी दस्तावेज है और इसमें दर्ज व्यक्ति को ही स्वामित्व का अधिकार प्राप्त है।
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
शेयर सर्टिफिकेट और शेयर वारंट दोनों का उद्देश्य शेयर स्वामित्व को प्रमाणित करना होता है, परंतु इनकी प्रकृति, वैधता और ट्रांसफर की विधि में स्पष्ट अंतर होता है।
भारत में वर्तमान में केवल शेयर सर्टिफिकेट (या डिमैट फॉर्म) में ही मान्यता है, जबकि शेयर वारंट अब केवल ऐतिहासिक महत्व का दस्तावेज़ बन चुका है।
प्रश्न 17: शेयरों के हस्तांतरण (Transfer) और ट्रांसमिशन (Transmission) में क्या अंतर है
🔷 परिचय (Introduction):
किसी कंपनी के शेयर उसके धारक द्वारा अन्य व्यक्ति को सौंपे जा सकते हैं। यह सौंपना दो तरीकों से हो सकता है:
- हस्तांतरण (Transfer of Shares) — यह स्वेच्छिक प्रक्रिया है
- ट्रांसमिशन (Transmission of Shares) — यह अनिवार्य कानूनी प्रक्रिया है जो मृत्यु, दिवालियापन या असंवेदनशीलता की स्थिति में होती है।
दोनों प्रक्रियाओं का उद्देश्य शेयर के स्वामित्व को एक व्यक्ति से दूसरे तक पहुँचाना होता है, लेकिन इनकी प्रक्रिया, कारण और प्रभाव में स्पष्ट भिन्नताएँ होती हैं।
🔷 1. शेयरों का हस्तांतरण (Transfer of Shares):
📌 परिभाषा:
हस्तांतरण वह प्रक्रिया है जिसमें शेयरधारक अपनी मर्जी से अपने शेयरों को किसी अन्य व्यक्ति को बेचता, उपहार देता या अन्यथा स्थानांतरित करता है।
📌 मुख्य विशेषताएँ:
- यह एक स्वैच्छिक (Voluntary) प्रक्रिया है
- इसमें दो पक्षों की सहमति होती है (ट्रांसफरर और ट्रांसफरी)
- शेयर ट्रांसफर फॉर्म (SH-4) भरा जाता है
- स्टांप ड्यूटी देनी होती है
- कंपनी रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के बाद ट्रांसफर पूर्ण होता है
- कंपनी के बोर्ड की मंज़ूरी आवश्यक होती है (विशेषकर प्राइवेट कंपनी में)
🔷 2. शेयरों का ट्रांसमिशन (Transmission of Shares):
📌 परिभाषा:
ट्रांसमिशन वह प्रक्रिया है जिसमें कानूनी कारणों, जैसे — मृत्यु, दिवालियापन, पागलपन या उत्तराधिकार की स्थिति में, शेयर स्वचालित रूप से उत्तराधिकारी को स्थानांतरित हो जाते हैं।
📌 मुख्य विशेषताएँ:
- यह एक अनिवार्य कानूनी प्रक्रिया है
- इसमें कोई सौदा या भुगतान नहीं होता
- स्टांप ड्यूटी नहीं लगती
- मृत्यु प्रमाण पत्र, उत्तराधिकार प्रमाण पत्र, वसीयत आदि की आवश्यकता होती है
- कंपनी रजिस्टर में उत्तराधिकारी का नाम दर्ज कराया जाता है
- ट्रांसफरी को कंपनी द्वारा पुष्टि प्राप्त करनी होती है
🔷 3. अंतर सारणी (Difference Table):
आधार | हस्तांतरण (Transfer) | ट्रांसमिशन (Transmission) |
---|---|---|
📌 प्रक्रति | स्वैच्छिक (Voluntary) | कानूनी (Legal) |
📌 कारण | विक्रय, उपहार, सौदा आदि | मृत्यु, दिवालियापन, उत्तराधिकार |
📌 पक्ष | ट्रांसफरर और ट्रांसफरी | मृतक/दिवालिया का कानूनी उत्तराधिकारी |
📌 स्टांप ड्यूटी | देनी होती है | नहीं देनी होती |
📌 फॉर्म आवश्यक | फॉर्म SH-4 | मृत्यु प्रमाण पत्र, उत्तराधिकार प्रमाण पत्र |
📌 कंपनी की स्वीकृति | आवश्यक होती है | सामान्यतः नहीं होती, केवल दस्तावेज की पुष्टि |
📌 लेन-देन | मूल्य/विलय के आधार पर होता है | स्वाभाविक उत्तराधिकार प्रक्रिया है |
📌 उदाहरण | A ने B को 100 शेयर बेचे | A की मृत्यु पर उसके पुत्र B को शेयर मिले |
🔷 4. न्यायिक दृष्टांत (Judicial View):
🔹 Sundram Finance Ltd. v. State of Kerala (1966) —
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ट्रांसफर और ट्रांसमिशन में प्रक्रिया और कराधान में महत्वपूर्ण अंतर होता है।
🔷 5. व्यावहारिक दृष्टिकोण (Practical View):
- यदि शेयरधारक अपने जीवित रहते हुए शेयर किसी मित्र या निवेशक को बेचता है — यह हस्तांतरण है।
- यदि शेयरधारक की मृत्यु के बाद उसकी संतान को शेयर मिलते हैं — यह ट्रांसमिशन है।
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
हस्तांतरण और ट्रांसमिशन दोनों का उद्देश्य शेयर स्वामित्व को बदलना है, लेकिन इनकी प्रक्रिया, मंशा और कानूनी प्रभाव अलग होते हैं।
हस्तांतरण व्यापारिक निर्णय होता है, जबकि ट्रांसमिशन कानून द्वारा नियंत्रित प्राकृतिक प्रक्रिया है।
कंपनियों को दोनों ही स्थितियों में स्पष्ट दस्तावेज़ और रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया पूरी करनी होती है।
प्रश्न 18: निदेशकों की नियुक्ति, योग्यता और अधिकारों पर विस्तार से चर्चा कीजिए।
🔷 परिचय (Introduction):
कंपनी के सुचारु संचालन के लिए निदेशकों (Directors) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वे कंपनी की नीति निर्धारण, प्रबंधन और निर्णय प्रक्रिया के मुख्य केंद्र होते हैं। कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत निदेशकों की नियुक्ति, योग्यता और उनके अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
🔶 1. निदेशक की परिभाषा (Definition of Director):
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(34) के अनुसार:
“निदेशक वह व्यक्ति है जो कंपनी के बोर्ड का सदस्य है।”
निदेशक कंपनी का एजेंट, ट्रस्टी और प्रबंधक होता है और वह कंपनी की ओर से निर्णय लेता है।
🔶 2. निदेशकों की नियुक्ति (Appointment of Directors):
निदेशकों की नियुक्ति विभिन्न प्रकार से की जा सकती है, जो कि कंपनी अधिनियम की धारा 149 से 172 के अंतर्गत विनियमित है।
📌 नियुक्ति की विधियाँ:
प्रकार | विवरण |
---|---|
✅ प्रथम निदेशक (First Directors) | कंपनी के गठन के समय MOA/AOA में नामित व्यक्ति या बोर्ड द्वारा नियुक्त |
✅ साधारण निदेशक (Ordinary Directors) | AGM (Annual General Meeting) में शेयरधारकों द्वारा नियुक्त |
✅ नामित निदेशक (Nominee Director) | संस्थान/बैंक द्वारा नियुक्त, जो ऋण या निवेश देता है |
✅ स्वतंत्र निदेशक (Independent Director) | सार्वजनिक कंपनियों में स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले निदेशक (Sec. 149(6)) |
✅ महिला निदेशक | कुछ श्रेणियों की कंपनियों में अनिवार्य (Sec. 149(1)) |
✅ अतिरिक्त निदेशक (Additional Director) | Board द्वारा नियुक्त, AGM तक पद पर रहते हैं |
✅ बैकल निदेशक (Alternate Director) | किसी अनुपस्थित निदेशक की जगह |
✅ छिद्र पूर्ति निदेशक (Casual Vacancy Director) | अचानक उत्पन्न रिक्ति को भरने हेतु नियुक्त |
🔶 3. निदेशकों की योग्यता (Qualification of Directors):
निदेशक बनने के लिए कुछ आवश्यक योग्यताएँ होती हैं:
📌 आवश्यक योग्यताएँ:
- प्राकृतिक व्यक्ति होना चाहिए (कृत्रिम संस्था नहीं)
- 18 वर्ष से अधिक आयु
- निर्दिष्ट अयोग्यता न हो (जैसे दिवालिया, अपराध सिद्ध, मानसिक रूप से अयोग्य)
- DIN (Director Identification Number) अनिवार्य
- फॉर्म DIR-2 (स्वीकृति पत्र) जमा करना होता है
- कुछ कंपनियों में शेयरधारक होना आवश्यक (यदि AOA में उल्लेख हो)
🔶 4. निदेशकों की अयोग्यता (Disqualification):
धारा 164 के अंतर्गत, निम्नलिखित व्यक्ति निदेशक नहीं बन सकते:
- अस्वस्थ मानसिक स्थिति
- दिवालिया घोषित व्यक्ति
- भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी या नैतिक अपराधों में दोषी
- कंपनी के वित्तीय दस्तावेज़ फाइल न करने वाले
- तीन वर्षों तक AGM न करने वाली कंपनी का निदेशक
🔶 5. निदेशकों के अधिकार (Powers of Directors):
निदेशक कंपनी की नीतियों और गतिविधियों पर नियंत्रण रखते हैं। उनके पास निम्नलिखित अधिकार होते हैं:
📌 A. सामान्य अधिकार (General Powers):
- कंपनी की गतिविधियों का प्रबंधन करना
- बजट, निवेश और खर्च का निर्णय लेना
- कर्मचारियों की नियुक्ति और वेतन निर्धारण
- बैंक खाता खोलना और संचालन
- कानूनी कार्रवाई करना या उसका बचाव करना
- संपत्ति की खरीद-फरोख्त
📌 B. विशेष अधिकार (Special Powers):
(धारा 180 के अंतर्गत, केवल बोर्ड की मंजूरी से)
- बड़ी राशि में ऋण लेना
- कंपनी की संपत्ति गिरवी रखना
- अन्य कंपनी में निवेश करना
- पूंजी व्यय की सीमा पार करना
🔶 6. निदेशकों की जिम्मेदारियाँ (Duties of Directors):
धारा 166 के अनुसार निदेशकों की प्रमुख जिम्मेदारियाँ:
- कंपनी के हित में कार्य करना
- धोखाधड़ी न करना
- हितों का टकराव न होने देना
- कंपनी की गोपनीय जानकारी का दुरुपयोग न करना
- शेयरधारकों और कर्मचारियों के हितों की रक्षा करना
🔶 7. स्वतंत्र निदेशक का विशेष महत्व (Independent Director):
- स्वतंत्र निदेशक कंपनी के कार्यों की निरपेक्ष जांच और समीक्षा करता है
- बोर्ड में पारदर्शिता बनाए रखने हेतु नियुक्त
- सार्वजनिक कंपनियों में न्यूनतम 1/3 निदेशक स्वतंत्र होने चाहिए
🔶 8. निदेशक और कंपनी के संबंध:
भूमिका | विवरण |
---|---|
📌 एजेंट | कंपनी की ओर से कार्य करता है |
📌 ट्रस्टी | कंपनी की संपत्ति और हितों की रक्षा करता है |
📌 न्यासी (Fiduciary) | कंपनी और शेयरधारकों के प्रति ईमानदारी से कार्य करता है |
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
निदेशक कंपनी के प्रबंधन की रीढ़ की हड्डी होते हैं। उनकी नियुक्ति, योग्यता और अधिकार कंपनी की स्थिरता, पारदर्शिता और लाभप्रदता को प्रभावित करते हैं।
कंपनी अधिनियम, 2013 ने निदेशकों की भूमिका को और अधिक उत्तरदायी, व्यावसायिक और पारदर्शी बनाने की दिशा में कई महत्वपूर्ण प्रावधान जोड़े हैं।
एक सक्षम और ईमानदार निदेशक मंडल कंपनी की सफलता का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ होता है।
प्रश्न 19: स्वतंत्र निदेशक (Independent Director) की भूमिका और योग्यता को स्पष्ट कीजिए।
(Long Answer)
🔷 परिचय (Introduction):
कॉरपोरेट प्रशासन (Corporate Governance) में पारदर्शिता, निष्पक्षता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत स्वतंत्र निदेशकों (Independent Directors) की अवधारणा को लागू किया गया। स्वतंत्र निदेशक वह होता है जो कंपनी के प्रबंधन या प्रमोटर समूह से स्वतंत्र होता है और कंपनी के हित में कार्य करता है।
🔶 1. परिभाषा (Definition):
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 149(6) के अनुसार:
स्वतंत्र निदेशक वह व्यक्ति होता है:
- जो कंपनी, उसके प्रवर्तक (Promoter) या निदेशक से आर्थिक, व्यावसायिक या अन्य प्रकार से जुड़ा नहीं होता जिससे उसकी स्वतंत्रता प्रभावित हो।
🔶 2. स्वतंत्र निदेशक की नियुक्ति (Appointment):
- केवल सूचीबद्ध सार्वजनिक कंपनियों (Listed Public Companies) में अनिवार्य है।
- अन्य सार्वजनिक कंपनियों में भी यदि:
- पूंजी ≥ ₹10 करोड़
- टर्नओवर ≥ ₹100 करोड़
- ऋण, जमा या उधार ≥ ₹50 करोड़ — तो स्वतंत्र निदेशक अनिवार्य है।
- इनका कार्यकाल अधिकतम 5 वर्ष होता है और एक निदेशक अधिकतम 2 लगातार कार्यकाल पूरा कर सकता है।
🔶 3. स्वतंत्र निदेशक की योग्यता (Qualifications):
स्वतंत्र निदेशक बनने के लिए निम्न योग्यताएँ आवश्यक हैं:
📌 (a) गैर-कार्यकारी निदेशक होना चाहिए
कार्यकारी निदेशक या कर्मचारी नहीं हो सकता।
📌 (b) कंपनी या उसकी संबद्ध कंपनियों से कोई आर्थिक संबंध नहीं होना चाहिए:
- पिछले 2 वर्षों में कंपनी से कोई लाभ नहीं लिया हो (वेतन, शुल्क, लाभांश आदि छोड़कर)।
- प्रवर्तक, निदेशक, प्रमोटर समूह या प्रमुख शेयरधारक का संबंधी नहीं हो।
📌 (c) किसी अन्य कंपनी में प्रमोटर/निदेशक नहीं होना चाहिए
जहाँ प्रमोटर की भागीदारी हो।
📌 (d) न्यायालय द्वारा दोषी न ठहराया गया हो
किसी नैतिक अपराध, धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार में दोषी नहीं होना चाहिए।
📌 (e) उच्च स्तर की ईमानदारी, निष्पक्षता और ज्ञान होना चाहिए
विशेष रूप से वित्त, कानून, कॉरपोरेट प्रशासन, या प्रशासन में अनुभव।
🔶 4. स्वतंत्र निदेशक की भूमिका (Role of Independent Director):
स्वतंत्र निदेशक कंपनी की नैतिक निगरानी समिति की भूमिका निभाता है। उसका मुख्य उद्देश्य कंपनी प्रबंधन की गतिविधियों पर नियंत्रण और संतुलन बनाए रखना है।
📌 मुख्य भूमिकाएँ:
भूमिका | विवरण |
---|---|
✅ पारदर्शिता सुनिश्चित करना | वित्तीय निर्णयों और नीतियों में निष्पक्षता लाना |
✅ हितों का टकराव रोकना | प्रमोटर और कंपनी के हितों में संतुलन बनाए रखना |
✅ अंकेक्षण समिति का हिस्सा | आंतरिक और वैधानिक ऑडिट की निगरानी करना |
✅ कॉरपोरेट गवर्नेंस को बढ़ावा देना | नैतिकता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना |
✅ प्रबंधन का स्वतंत्र मूल्यांकन | निदेशकों और वरिष्ठ अधिकारियों के कार्य की समीक्षा |
✅ अल्पसंख्यक शेयरधारकों की सुरक्षा | उनके हितों की रक्षा करना और उनके सवालों को उठाना |
✅ जोखिम प्रबंधन में योगदान | संभावित व्यावसायिक खतरों की पहचान और सलाह |
🔶 5. स्वतंत्र निदेशक की सीमाएँ और प्रतिबंध:
- स्वतंत्र निदेशक को कंपनी से कोई वेतन या लाभ नहीं मिल सकता, सिवाय बैठक शुल्क (Sitting Fees) और राशनल रिफंड्स के।
- वह कंपनी के कार्यकारी निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
- उन्हें कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हित नहीं रखना चाहिए कंपनी के लेन-देन में।
🔶 6. स्वतंत्र निदेशक की जिम्मेदारियाँ (Duties):
धारा 166 के तहत निर्दिष्ट:
- कंपनी के हितों के अनुरूप कार्य करना
- गोपनीयता बनाए रखना
- बोर्ड की बैठकों में सक्रिय भागीदारी
- नैतिकता और सत्यनिष्ठा बनाए रखना
- अनियमितताओं की सूचना देना
🔶 7. न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial View):
Tata Consultancy Services Ltd. v. Cyrus Mistry (2020)
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्वतंत्र निदेशक कंपनी के प्रबंधन में संतुलन बनाने वाले आवश्यक अंग हैं।
🔶 8. व्यावहारिक उदाहरण (Practical Example):
यदि एक सूचीबद्ध कंपनी में प्रमोटर परिवार का नियंत्रण है, तो स्वतंत्र निदेशक कंपनी के फैसलों की निष्पक्ष समीक्षा करता है ताकि आम निवेशकों और समाज के हितों की रक्षा हो सके।
🔶 9. कंपनियों के लिए लाभ (Advantages to Companies):
- निवेशकों का विश्वास बढ़ता है
- नियामक अनुपालन आसान होता है
- जोखिम प्रबंधन बेहतर होता है
- नैतिक कॉर्पोरेट छवि बनती है
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
स्वतंत्र निदेशक कंपनी के नैतिक प्रहरी होते हैं। उनकी नियुक्ति कंपनियों को विश्वसनीय, उत्तरदायी और पारदर्शी बनाती है। कंपनी अधिनियम, 2013 और सेबी (SEBI) ने स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति को अनिवार्य और संरचित बनाकर कॉरपोरेट गवर्नेंस में एक नई दिशा दी है।
इसलिए स्वतंत्र निदेशक कंपनी के हितों की रक्षा में एक आवश्यक स्तंभ के रूप में कार्य करते हैं।
प्रश्न 20: निदेशकों के कर्तव्य और उत्तरदायित्व (Duties and Liabilities of Directors) की व्याख्या कीजिए।
🔷 परिचय (Introduction):
कंपनी के निदेशक (Director) उसके नीति निर्माता, संरक्षक और प्रतिनिधि होते हैं। निदेशक कंपनी के हितों की रक्षा करता है और कंपनी की सफलता हेतु रणनीतिक दिशा देता है। इसलिए निदेशकों के कर्तव्य (Duties) और उत्तरदायित्व (Liabilities) को कंपनी अधिनियम, 2013 में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
🔶 1. निदेशकों के कर्तव्य (Duties of Directors):
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 166 में निदेशकों के वैधानिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है:
📌 (1) कंपनी के हित में कार्य करना
निदेशक को कंपनी के उद्देश्यों के अनुरूप ईमानदारी से कार्य करना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने चाहिए जो कंपनी के दीर्घकालिक विकास में सहायक हों।
📌 (2) अच्छे विश्वास और नैतिकता से कार्य करना (Fiduciary Duty)
उन्हें कंपनी, उसके कर्मचारियों और शेयरधारकों के प्रति सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से कार्य करना चाहिए।
📌 (3) हितों का टकराव (Conflict of Interest) से बचना
निदेशक को ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे कंपनी के और उसके व्यक्तिगत हितों में टकराव उत्पन्न हो।
📌 (4) गोपनीयता बनाए रखना
कंपनी की अंदरूनी और गोपनीय जानकारी को निजी लाभ के लिए इस्तेमाल करना निदेशक के कर्तव्य के विरुद्ध है।
📌 (5) अविवेकपूर्ण लाभ का परित्याग
निदेशक को कंपनी से केवल वही लाभ लेना चाहिए जो उसे कंपनी अधिनियम अथवा अनुबंध द्वारा अधिकृत है।
📌 (6) निदेशक मंडल की बैठकों में सक्रिय भागीदारी
उन्हें नियमित रूप से बोर्ड की बैठकों में भाग लेकर कंपनी के मामलों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
📌 (7) कानूनों का पालन
निदेशकों को कंपनी अधिनियम, SEBI विनियमों और अन्य लागू कानूनों का पालन करना अनिवार्य है।
🔶 2. निदेशकों की उत्तरदायित्व (Liabilities of Directors):
निदेशकों की उत्तरदायित्व दो प्रकार की होती है:
🔸 (A) वैधानिक उत्तरदायित्व (Statutory Liabilities):
👉 (i) कंपनी अधिनियम के उल्लंघन पर दंड:
यदि निदेशक कंपनी अधिनियम का उल्लंघन करते हैं, तो उन्हें जुर्माना या कारावास का सामना करना पड़ सकता है।
उदाहरण:
- कंपनी के खाते समय पर न भरने पर धारा 137 के तहत दंड।
- धारा 92 के तहत वार्षिक रिटर्न न भरने पर दंड।
👉 (ii) पर्यावरण, श्रम, कर आदि कानूनों के उल्लंघन की जिम्मेदारी:
अगर कंपनी द्वारा पर्यावरण या श्रम कानूनों का उल्लंघन होता है, तो निदेशक जिम्मेदार हो सकते हैं।
👉 (iii) गलत बयानी के लिए जिम्मेदारी:
कंपनी द्वारा निवेशकों या शेयरधारकों को झूठी जानकारी देने पर निदेशक व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार हो सकते हैं।
🔸 (B) सिविल उत्तरदायित्व (Civil Liabilities):
👉 (i) धोखाधड़ी पर व्यक्तिगत जिम्मेदारी:
यदि निदेशक ने धोखे से किसी लेन-देन को अंजाम दिया, तो वह व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी हो सकता है।
👉 (ii) कॉन्ट्रैक्ट या कर्तव्यों का उल्लंघन:
अगर निदेशक अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, जिससे कंपनी को नुकसान होता है, तो वह सिविल कोर्ट में उत्तरदायी हो सकता है।
👉 (iii) लाभ की वसूली:
यदि निदेशक ने अपने पद का दुरुपयोग कर निजी लाभ कमाया, तो कंपनी वह लाभ वापस मांग सकती है।
🔸 (C) आपराधिक उत्तरदायित्व (Criminal Liabilities):
- धोखाधड़ी (Fraud) करने पर धारा 447 के अंतर्गत 10 वर्ष तक की सजा और जुर्माना हो सकता है।
- SEBI अधिनियम या अन्य वित्तीय विनियमों का उल्लंघन करने पर जेल और आर्थिक दंड।
🔶 3. व्यक्तिगत उत्तरदायित्व बनाम सामूहिक उत्तरदायित्व:
कई बार निदेशक मंडल सामूहिक निर्णय लेता है। यदि वह निर्णय गलत होता है, तो सभी निदेशक सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं। लेकिन यदि कोई निदेशक विशेष रूप से धोखाधड़ी या लापरवाही करता है, तो वह व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है।
🔶 4. न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial View):
Official Liquidator v. P.A. Tendolkar (1973)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“निदेशक कंपनी की संपत्ति के संरक्षक होते हैं और उन्हें उस संपत्ति का प्रबंधन पूरी निष्ठा और सावधानी से करना चाहिए।”
🔶 5. निदेशकों के लिए दायित्व से सुरक्षा (Protection from Liability):
कुछ मामलों में निदेशक को उत्तरदायित्व से सुरक्षा मिल सकती है:
- यदि उसने ईमानदारी से और नियमों के अनुसार कार्य किया हो।
- डी एंड ओ (D&O) बीमा पॉलिसी निदेशक को वित्तीय जोखिम से सुरक्षा प्रदान करती है।
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
निदेशक कंपनी के सर्वोच्च प्रबंधनकर्ता होते हैं, इसलिए उनके कर्तव्य और उत्तरदायित्व अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं। निदेशक को सदैव कंपनी के हित, ईमानदारी, सावधानी और पारदर्शिता के साथ कार्य करना चाहिए।
कानून ऐसे निदेशकों को दंडित करता है जो अपने पद का दुरुपयोग कर कंपनी या समाज को नुकसान पहुँचाते हैं। इसलिए एक जिम्मेदार और सजग निदेशक कंपनी की नींव को मजबूत बनाता है।
प्रश्न 21: कंपनी की वार्षिक आम सभा (AGM) और विशेष सभा (EGM) में क्या अंतर है?
🔷 परिचय (Introduction):
किसी कंपनी में निदेशकों और शेयरधारकों के बीच संवाद और निर्णय लेने के लिए समय-समय पर बैठकों (Meetings) का आयोजन किया जाता है। इनमें दो प्रमुख प्रकार की बैठकें होती हैं:
- वार्षिक आम सभा (Annual General Meeting – AGM)
- विशेष सभा (Extraordinary General Meeting – EGM)
ये दोनों बैठकें कंपनी के सुचारु संचालन, पारदर्शिता और निर्णय प्रक्रिया के लिए आवश्यक होती हैं, परंतु इनकी प्रकृति, उद्देश्य और समय-सीमा भिन्न होती है।
🔶 1. वार्षिक आम सभा (AGM) क्या है?
📌 परिभाषा:
AGM वह बैठक होती है जो कंपनी हर वर्ष अपने सदस्यों (शेयरधारकों) के साथ आयोजित करती है, जिसमें कंपनी के वित्तीय प्रदर्शन, लेखा विवरण, निदेशकों की नियुक्ति, और डिविडेंड की घोषणा जैसे मुद्दों पर चर्चा की जाती है।
📌 कानूनी आधार:
- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 96 के तहत अनिवार्य।
- यह केवल प्राइवेट कंपनियों (जिनमें 2 सदस्यों से अधिक नहीं हैं) को छोड़कर अन्य सभी कंपनियों के लिए अनिवार्य है।
📌 AGM का आयोजन कब होता है?
- पहली AGM: कंपनी के पंजीकरण की तिथि से 9 माह के भीतर।
- इसके बाद प्रत्येक वित्तीय वर्ष में एक AGM आवश्यक है, दो AGMs के बीच का अंतर 15 माह से अधिक नहीं होना चाहिए।
✅ AGM के मुख्य उद्देश्य:
- वार्षिक खातों को मंजूरी देना
- ऑडिटर की नियुक्ति और रिपोर्ट की समीक्षा
- निदेशकों की नियुक्ति या पुनर्नियुक्ति
- लाभांश की घोषणा
- शेयरधारकों को कंपनी के प्रदर्शन की जानकारी देना
🔶 2. विशेष सभा (EGM) क्या है?
📌 परिभाषा:
EGM ऐसी बैठक होती है जो AGM के अलावा किसी विशेष और आपातकालीन उद्देश्य से बुलाई जाती है, जब कोई तत्काल और विशेष विषय पर निर्णय लेने की आवश्यकता होती है।
📌 कानूनी आधार:
- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 100 के अंतर्गत।
📌 EGM कौन बुला सकता है?
- बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स
- निदेशकों की मांग पर
- कंपनी के कम-से-कम 1/10वां भागीदार (वोटिंग अधिकार के आधार पर)
- ट्रिब्यूनल (कुछ मामलों में)
✅ EGM के मुख्य उद्देश्य:
- निदेशक या ऑडिटर को हटाना
- कंपनी के नाम, उद्देश्य या पूंजी में परिवर्तन
- एसेट्स की बिक्री या विलय
- कर्ज या गारंटी पर विशेष प्रस्ताव पारित करना
- कोई भी ऐसा निर्णय जो AGM में नहीं लिया जा सकता
🔶 3. AGM और EGM में अंतर (Difference between AGM and EGM):
बिंदु | AGM (Annual General Meeting) | EGM (Extraordinary General Meeting) |
---|---|---|
📆 आवृत्ति (Frequency) | साल में एक बार अनिवार्य | जब भी विशेष आवश्यकता हो |
📜 कानूनी अनिवार्यता | अधिकांश कंपनियों के लिए अनिवार्य | केवल आवश्यकतानुसार |
🎯 उद्देश्य | नियमित विषय जैसे खातों की स्वीकृति, निदेशक की नियुक्ति | विशेष/आपात विषय जैसे पूंजी परिवर्तन, निदेशक निष्कासन |
📅 समयसीमा | 6 माह के भीतर वित्तीय वर्ष समाप्त होने के बाद | कोई निश्चित समय नहीं, आवश्यकता पर निर्भर |
👥 बुलाने वाला | निदेशक मंडल द्वारा निर्धारित दिनांक | निदेशक, सदस्य या ट्रिब्यूनल |
🏛️ कवर किए जाने वाले विषय | नियमित और अनिवार्य विषय | विशेष प्रस्ताव और असामान्य मुद्दे |
🔶 4. न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial View):
Needle Industries v. Needle Industries Newey (India) Ltd. (1981)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि निदेशक मंडल AGM या EGM बुलाने से इनकार करता है, तो अल्पसंख्यक शेयरधारकों को अधिकार है कि वे न्यायालय से सभा बुलाने की अनुमति प्राप्त करें।
🔶 5. व्यावहारिक उदाहरण:
✔️ AGM का उदाहरण:
XYZ Ltd. अपनी पहली AGM 30 सितंबर 2024 को आयोजित करती है जिसमें 2023-24 के खातों की स्वीकृति, निदेशक की पुनर्नियुक्ति और लाभांश घोषणा की जाती है।
✔️ EGM का उदाहरण:
XYZ Ltd. को 20% हिस्सेदारी बेचनी है और इसके लिए शेयरधारकों की मंजूरी आवश्यक है, इसलिए कंपनी 10 जनवरी 2025 को EGM बुलाती है।
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
AGM और EGM दोनों ही कंपनी के प्रशासन में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। AGM जहां नियमित, वार्षिक और अनिवार्य बैठक होती है, वहीं EGM विशिष्ट और आपातकालीन परिस्थितियों के लिए बुलाई जाती है। इन बैठकों के माध्यम से शेयरधारक कंपनी के निर्णयों में भाग लेते हैं, और कंपनी की पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।
इसलिए, एक कुशल कॉरपोरेट प्रशासन में दोनों सभाओं का उचित आयोजन आवश्यक है।
प्रश्न 22: बोर्ड मीटिंग की प्रक्रिया और उसमें पारित प्रस्तावों का महत्व समझाइए।
🔷 परिचय (Introduction):
किसी कंपनी का संचालन और नियंत्रण उसके निदेशक मंडल (Board of Directors) के माध्यम से होता है। निदेशक मंडल अपनी शक्तियों का प्रयोग बोर्ड मीटिंग (Board Meeting) के माध्यम से करता है। यह कंपनी प्रशासन का केंद्रीय मंच है, जहां रणनीतिक निर्णय लिए जाते हैं। कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत बोर्ड मीटिंग की प्रक्रिया और उसमें पारित प्रस्तावों का विशेष महत्व है।
🔶 1. बोर्ड मीटिंग का अर्थ (Meaning of Board Meeting):
बोर्ड मीटिंग एक औपचारिक बैठक है जिसमें कंपनी के निदेशक मिलकर कंपनी के प्रशासन, नीति निर्माण और संचालन से जुड़े निर्णय लेते हैं। यह कंपनी के कार्यों की योजना, निरीक्षण और दिशा-निर्देश तय करने का माध्यम है।
🔶 2. बोर्ड मीटिंग की प्रक्रिया (Procedure of Board Meeting):
📌 (1) नोटिस देना (Notice of Meeting):
- कंपनी अधिनियम की धारा 173 के अनुसार, प्रत्येक निदेशक को बोर्ड मीटिंग की कम से कम 7 दिन पूर्व लिखित नोटिस (ईमेल द्वारा भी) भेजा जाना अनिवार्य है।
- नोटिस में बैठक की तिथि, समय, स्थान और एजेंडा का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए।
📌 (2) कोरम (Quorum):
- बैठक का संचालन करने के लिए न्यूनतम निदेशकों की उपस्थिति आवश्यक होती है।
- कोरम: 2 निदेशक या कुल निदेशकों का 1/3 (जो भी अधिक हो)
📌 (3) अध्यक्ष (Chairman):
- बोर्ड मीटिंग की अध्यक्षता चेयरमैन द्वारा की जाती है। यदि चेयरमैन उपस्थित नहीं है, तो उपस्थित निदेशक आपस में किसी एक को अध्यक्ष नियुक्त कर सकते हैं।
📌 (4) एजेंडा (Agenda):
- बोर्ड मीटिंग का एजेंडा पूर्व-निर्धारित होता है, जिसमें वित्तीय निर्णय, नियुक्तियां, नीतिगत परिवर्तन आदि शामिल होते हैं।
📌 (5) प्रस्ताव पारित करना (Passing of Resolution):
- एजेंडा में दिए गए मुद्दों पर चर्चा के बाद प्रस्ताव पारित किए जाते हैं।
- प्रस्ताव को पारित करने के लिए सरल बहुमत आवश्यक होता है।
📌 (6) मिनट्स (Minutes):
- बैठक में हुई चर्चा और पारित प्रस्तावों का रिकॉर्ड मिनट बुक में संधारित किया जाता है, जिसे 30 दिन के भीतर तैयार करना अनिवार्य है।
🔶 3. बोर्ड मीटिंग में पारित प्रस्तावों का महत्व (Importance of Resolutions Passed in Board Meetings):
बोर्ड मीटिंग में पारित प्रस्ताव कंपनी की नीतियों और दिशा को निर्धारित करते हैं। इनका कानूनी, व्यावसायिक और नैतिक महत्व होता है:
✅ (i) कंपनी के निर्णयों का आधिकारिक स्वरूप:
प्रस्तावों के माध्यम से कंपनी के निर्णय को औपचारिक मान्यता मिलती है।
✅ (ii) कानूनी वैधता:
प्रस्तावों के बिना कोई भी बड़ा निर्णय (जैसे लोन लेना, ऑडिटर नियुक्त करना, शेयर जारी करना) कानूनन वैध नहीं होता।
✅ (iii) रिकॉर्ड और साक्ष्य:
पारित प्रस्ताव कंपनी के निर्णयों का प्रमाण (Evidence) होते हैं, जो भविष्य में विवाद या जांच की स्थिति में सहायक होते हैं।
✅ (iv) संचालन में पारदर्शिता:
बोर्ड मीटिंग और उसमें पारित प्रस्ताव कंपनी के संचालन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व स्थापित करते हैं।
✅ (v) निवेशक और नियामकों का विश्वास:
संगठित और विधिपूर्वक पारित प्रस्ताव कंपनी की गंभीरता और अनुशासन को दर्शाते हैं, जिससे निवेशकों और नियामक संस्थाओं का विश्वास बढ़ता है।
🔶 4. बोर्ड मीटिंग में पारित होने वाले प्रमुख प्रस्ताव (Common Resolutions in Board Meetings):
प्रस्ताव का विषय | उद्देश्य |
---|---|
निदेशकों की नियुक्ति या हटाना | प्रबंधन को नियंत्रित करने के लिए |
बैंक खाते खोलना | संचालन के लिए आवश्यक |
ऋण लेना | वित्तीय जरूरतों को पूरा करने हेतु |
शेयर जारी करना | पूंजी बढ़ाने के लिए |
बजट स्वीकृति | वार्षिक योजनाओं को लागू करने हेतु |
निवेश या संयुक्त उद्यम | व्यावसायिक विस्तार |
🔶 5. संबंधित कानूनी प्रावधान (Legal Provisions):
प्रावधान | विवरण |
---|---|
धारा 173 | निदेशक मंडल की बैठकें |
धारा 179 | बोर्ड की शक्तियाँ |
धारा 118 | मिनट्स बुक बनाए रखना |
नियम 3 और 4 (Companies Rules) | बैठक की सूचना, एजेंडा और संचालन से संबंधित प्रावधान |
🔶 6. केस स्टडी उदाहरण:
Tata Sons Ltd. v. Cyrus Mistry (2017)
इस विवाद में बोर्ड मीटिंग में लिए गए निर्णयों की वैधता, पारदर्शिता और प्रक्रिया का विशेष महत्व था। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सभी प्रस्ताव उचित प्रक्रिया से पारित होने चाहिए।
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
बोर्ड मीटिंग किसी कंपनी का मस्तिष्क और निर्णय केंद्र होती है। इसमें पारित प्रस्ताव कंपनी की नीति, रणनीति और संचालन की नींव होते हैं। इन बैठकों की विधिपूर्वक योजना, संचालन और निर्णय पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और कंपनी प्रशासन की गुणवत्ता सुनिश्चित करते हैं। इसीलिए, हर कंपनी के लिए नियमित, सुव्यवस्थित और विधिसम्मत बोर्ड मीटिंग अत्यंत आवश्यक है।
प्रश्न 23: कंपनी सचिव (Company Secretary) की भूमिका, योग्यता और कर्तव्यों पर चर्चा कीजिए।
🔷 परिचय (Introduction):
कंपनी सचिव (Company Secretary – CS) एक महत्वपूर्ण अधिकारी होता है जो कंपनी के प्रशासनिक, विधिक और सचिवीय कार्यों को सुचारू रूप से संपन्न करता है। वह कंपनी, निदेशक मंडल और नियामक संस्थाओं के बीच एक संज्ञापक (communicator) की भूमिका निभाता है।
कंपनी अधिनियम, 2013 के अनुसार, कुछ कंपनियों के लिए कंपनी सचिव की नियुक्ति अनिवार्य है।
🔶 1. कंपनी सचिव की परिभाषा (Definition of Company Secretary):
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(24) के अनुसार:
“Company Secretary” means a company secretary as defined in Company Secretaries Act, 1980, who is member of the Institute of Company Secretaries of India (ICSI).
अर्थात, केवल वही व्यक्ति कंपनी सचिव कहलाता है जो ICSI का सदस्य हो और कंपनी में सचिव के रूप में नियुक्त हो।
🔶 2. नियुक्ति और योग्यता (Appointment and Qualification):
📌 (A) नियुक्ति (Appointment):
- धारा 203 के तहत, सभी सूचीबद्ध कंपनियों (Listed Companies) और 10 करोड़ या अधिक पूंजी वाली कंपनियों में कंपनी सचिव की नियुक्ति अनिवार्य है।
- कंपनी का बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स एक प्रस्ताव (Board Resolution) के माध्यम से कंपनी सचिव की नियुक्ति करता है।
📌 (B) योग्यता (Qualification):
- उम्मीदवार को ICSI (Institute of Company Secretaries of India) से CS की डिग्री प्राप्त होनी चाहिए।
- वह ICSI का सदस्य (Associate or Fellow Member) होना चाहिए।
- उसे कंपनी कानून, कॉर्पोरेट गवर्नेंस और अनुपालन का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।
🔶 3. कंपनी सचिव की भूमिका (Role of Company Secretary):
कंपनी सचिव एक कानूनी सलाहकार, अनुपालन अधिकारी, नियामक संपर्ककर्ता और गवर्नेंस विशेषज्ञ के रूप में कार्य करता है। उसकी भूमिका तीन प्रमुख क्षेत्रों में विभाजित की जा सकती है:
✅ (A) निदेशक मंडल का सलाहकार:
- बोर्ड मीटिंग और जनरल मीटिंग आयोजित करने में सहायता।
- एजेंडा, नोटिस, मिनट्स तैयार करना।
- कानूनी सलाह और अनुपालन रिपोर्टिंग।
✅ (B) कंपनी का कानूनी प्रतिनिधि:
- कंपनी अधिनियम, SEBI कानून, FEMA आदि के तहत अनुपालन सुनिश्चित करना।
- वैधानिक पंजीकरण, रिटर्न फाइलिंग और रिपोर्टिंग करना।
- कंपनी का कॉर्पोरेट गवर्नेंस बनाए रखना।
✅ (C) शेयरधारकों और नियामकों से संवाद:
- शेयरधारकों को AGM/EGM की सूचना देना।
- ROC, SEBI, स्टॉक एक्सचेंज के साथ संवाद।
- निवेशकों की शिकायतों का समाधान।
🔶 4. कंपनी सचिव के प्रमुख कर्तव्य (Duties of Company Secretary):
कर्तव्य | विवरण |
---|---|
📜 विधिक अनुपालन | कंपनी अधिनियम, SEBI, FEMA, GST आदि के नियमों का पालन |
📝 रिकॉर्ड रखना | रजिस्टर ऑफ मेंबर, डायरेक्टर, शेयर ट्रांसफर, आदि |
🗓️ बैठकों का आयोजन | AGM, EGM, बोर्ड बैठकें आयोजित करना |
📢 रिपोर्ट और फाइलिंग | ROC को रिटर्न्स और रिपोर्ट प्रस्तुत करना |
👥 निदेशकों को मार्गदर्शन | कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर सलाह देना |
📩 निवेशक सेवाएं | शिकायत समाधान, डिविडेंड वितरण |
🔶 5. कंपनी सचिव की कानूनी जिम्मेदारियाँ (Statutory Responsibilities):
- बोर्ड मीटिंग और जनरल मीटिंग के लिए नोटिस देना – धारा 173, 101
- वित्तीय विवरणों पर हस्ताक्षर – धारा 134
- वार्षिक रिटर्न दाखिल करना – धारा 92
- Books of Accounts की देखरेख – धारा 128
- कंपनी की सील और दस्तावेज़ों का प्रबंधन
- FEMA और SEBI कानूनों के अंतर्गत अनुपालन
🔶 6. कंपनी सचिव की जवाबदेही और दायित्व (Liability of Company Secretary):
कंपनी सचिव यदि अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही ढंग से नहीं करता, तो उसे कानूनी दंड भुगतना पड़ सकता है:
- झूठी रिपोर्ट या रिटर्न फाइल करने पर जुर्माना और कारावास
- कॉर्पोरेट धोखाधड़ी में संलिप्तता पर SEBI और MCA द्वारा कार्रवाई
- कंपनी और निदेशकों को गुमराह करने पर व्यक्तिगत उत्तरदायित्व
🔶 7. कंपनी सचिव की व्यावसायिक नैतिकता (Professional Ethics):
- गोपनीयता बनाए रखना
- निष्पक्षता और ईमानदारी से कार्य करना
- हितों का टकराव न होने देना
- प्रामाणिक रिपोर्टिंग और पारदर्शिता
🔶 8. उदाहरण (Example):
मान लीजिए, ABC Ltd. एक सूचीबद्ध कंपनी है। कंपनी सचिव AGM की सूचना, नोटिस, एजेंडा और मिनट्स तैयार करता है। वह ROC को वार्षिक रिटर्न और वित्तीय विवरण समय पर फाइल करता है। यदि कंपनी कोई विदेशी निवेश स्वीकार कर रही है, तो वह FEMA के नियमों के अनुसार फाइलिंग करता है।
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
कंपनी सचिव एक ऐसा पद है जो कंपनी की कानूनी रीढ़ (Legal Backbone) माना जाता है। उसकी योग्यता, विशेषज्ञता और निष्पक्षता कंपनी की सफलता, कानूनी सुरक्षा और कॉर्पोरेट गवर्नेंस सुनिश्चित करती है। आज के प्रतिस्पर्धी और विनियमित कारोबारी माहौल में कंपनी सचिव की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है। वह न केवल एक सलाहकार है, बल्कि कंपनी के विश्वास का संरक्षक भी है।
प्रश्न 24: कंपनी की पुस्तकों और अभिलेखों के संधारण की विधि समझाइए।
🔷 परिचय (Introduction):
किसी कंपनी के लिए उसकी लेखांकन पुस्तकों (Books of Account) और अभिलेखों (Registers & Records) का उचित संधारण न केवल विधिक अनिवार्यता है, बल्कि संगठन की पारदर्शिता, जवाबदेही और कुशल संचालन का भी मूल आधार है। कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत कंपनियों को विभिन्न प्रकार की किताबें, रजिस्टर और दस्तावेज़ रखने होते हैं, जो कंपनी के वित्तीय, प्रशासनिक और कानूनी कार्यों से संबंधित होते हैं।
🔶 1. कंपनी अधिनियम के तहत प्रावधान (Statutory Provisions under Companies Act, 2013):
📘 धारा 128:
प्रत्येक कंपनी को Books of Account तथा अन्य वित्तीय अभिलेखों को संधारित करना आवश्यक है, जिससे उसकी वित्तीय स्थिति स्पष्ट हो।
📘 धारा 92, 88, 170, 73 आदि:
इन धाराओं के तहत स्टैट्यूटरी रजिस्टर और अन्य अभिलेखों का संधारण अनिवार्य किया गया है।
🔶 2. आवश्यक पुस्तकें और अभिलेख (Essential Books and Records):
कंपनी को निम्नलिखित प्रमुख पुस्तकें और अभिलेख रखने होते हैं:
✅ (A) लेखांकन पुस्तकें (Books of Account):
पुस्तक | विवरण |
---|---|
कैश बुक (Cash Book) | नकद लेनदेन का रिकॉर्ड |
जनरल लेज़र (General Ledger) | समस्त खातों का समेकित रिकॉर्ड |
सेल्स बुक और परचेज बुक | बिक्री और खरीद का विवरण |
जर्नल बुक | प्रारंभिक प्रविष्टियाँ (Journal Entries) |
बैंक स्टेटमेंट रजिस्टर | बैंक से संबंधित विवरण |
इन्वेंटरी रिकॉर्ड | स्टॉक और माल का ब्यौरा |
✅ (B) वैधानिक रजिस्टर (Statutory Registers):
रजिस्टर | कंपनी अधिनियम की धारा |
---|---|
सदस्य रजिस्टर | धारा 88 |
शेयर ट्रांसफर रजिस्टर | धारा 56 |
निदेशक रजिस्टर | धारा 170 |
चार्ज रजिस्टर (Charges) | धारा 85 |
ऋण और जमाराशियों का रजिस्टर | धारा 73 |
अनुबंधों का रजिस्टर (Contracts) | धारा 189 |
✅ (C) मिनट्स बुक (Minutes Book):
- बोर्ड मीटिंग (Board Meeting), AGM और EGM की कार्यवाहियों का रिकॉर्ड
- मिनट्स को 30 दिनों के अंदर तैयार करना आवश्यक है
✅ (D) अन्य अभिलेख (Other Records):
- ज्ञापन एवं उपनियम (MOA & AOA)
- प्रमाणपत्र (शामिल होने का, शेयर का, PAN आदि)
- ऑडिट रिपोर्ट और वार्षिक रिपोर्ट
- रिटर्न्स (ROC में दाखिल की गई सभी फाइलिंग)
🔶 3. पुस्तकों की संधारण की विधि (Method of Maintaining Books):
📌 (1) स्थान (Place):
- कंपनी के मुख्य कार्यालय (Registered Office) में रखनी चाहिए
- बोर्ड की अनुमति से अन्य स्थान पर रखी जा सकती है (ROC को सूचित करना आवश्यक)
📌 (2) माध्यम (Medium):
- इलेक्ट्रॉनिक रूप में भी संधारण की अनुमति है (Companies Act & IT Act के अनुसार)
- डिजिटल रिकॉर्ड सुरक्षित और प्रमाणीकरण युक्त होना चाहिए
📌 (3) अवधि (Period of Retention):
दस्तावेज़ | रखने की अवधि |
---|---|
लेखांकन पुस्तकें | कम से कम 8 वर्ष |
स्टैट्यूटरी रजिस्टर | कंपनी की अस्तित्व अवधि तक |
मिनट्स बुक | स्थायी (Permanent Record) |
🔶 4. लेखा पुस्तकों और अभिलेखों का निरीक्षण (Inspection of Books and Records):
निरीक्षक | अधिकार |
---|---|
निदेशक | किसी भी समय निरीक्षण कर सकते हैं |
सदस्य (Members) | कुछ अभिलेखों का निरीक्षण AGM में कर सकते हैं |
रजिस्ट्रार (ROC) | निरीक्षण और जांच हेतु प्रवेश कर सकते हैं |
ऑडिटर | पूर्ण लेखा पुस्तकों की जांच हेतु अधिकृत |
🔶 5. दंड और दायित्व (Penalties and Liabilities):
यदि कोई कंपनी निर्धारित पुस्तकों और अभिलेखों को नहीं रखती है, तो उस पर दंड लगाया जा सकता है:
- ₹50,000 तक जुर्माना + ₹1,000 प्रतिदिन के हिसाब से (अधिकतम ₹5 लाख तक)
- कंपनी के निदेशकों और CFO/CEO की भी व्यक्तिगत जवाबदेही
🔶 6. केस उदाहरण (Case Example):
ROC vs. XYZ Pvt. Ltd. (2021):
इस मामले में कंपनी ने Books of Account और Minutes Book उचित रूप से संधारित नहीं की थी। ROC ने जांच के बाद ₹2 लाख का जुर्माना लगाया।
🔶 7. अनुपालन हेतु सुझाव (Best Practices):
- नियमित रूप से बहीखाता अपडेट करें
- डिजिटल और क्लाउड स्टोरेज का सुरक्षित उपयोग करें
- रिटर्न और रिपोर्ट समय पर ROC को फाइल करें
- प्रत्येक मीटिंग के मिनट्स को समय से लिखें और साइन करें
- स्टैट्यूटरी रजिस्टरों को क्रमवार और दिनांक सहित संधारित करें
🔷 निष्कर्ष (Conclusion):
कंपनी की पुस्तकों और अभिलेखों का विधिपूर्वक संधारण न केवल एक कानूनी आवश्यकता है, बल्कि कंपनी के विश्वसनीय और पारदर्शी संचालन के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह कंपनी के वित्तीय, प्रशासनिक और कानूनी मामलों का प्रमाण होता है तथा कंपनी के हितधारकों (निवेशक, सरकार, कर प्राधिकारी आदि) के विश्वास को बनाए रखने में सहायक होता है। उचित संधारण कंपनी को कानूनी विवादों, दंड और प्रशासनिक कठिनाइयों से बचाता है।
प्रश्न 25: ऑडिटर की नियुक्ति, कर्तव्य और उत्तरदायित्व की व्याख्या कीजिए।
(Explain the appointment, duties, and responsibilities of an Auditor in detail.)
I. ऑडिटर की परिभाषा (Definition of Auditor)
ऑडिटर वह व्यक्ति होता है जो किसी संस्था, कंपनी या संगठन के वित्तीय अभिलेखों और खातों की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच करता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे सभी कानूनी और लेखा मानकों के अनुरूप हैं।
II. ऑडिटर की नियुक्ति (Appointment of Auditor)
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 139 से 148 तक ऑडिटर की नियुक्ति से संबंधित प्रावधान किए गए हैं।
1. प्रथम ऑडिटर की नियुक्ति:
- किसी कंपनी के पंजीकरण के बाद 30 दिनों के भीतर निदेशक मंडल (Board of Directors) द्वारा प्रथम ऑडिटर की नियुक्ति की जाती है।
- यदि बोर्ड ऐसा करने में असफल रहता है, तो सदस्यों द्वारा एक साधारण बैठक में 90 दिनों के भीतर नियुक्त किया जाता है।
2. नियमित ऑडिटर की नियुक्ति:
- पहले एजीएम (Annual General Meeting) में नियुक्त किया जाता है।
- कार्यकाल: 5 वर्षों तक (Company Act, 2013 के अनुसार), परंतु प्रत्येक एजीएम में नियुक्ति की पुष्टि आवश्यक होती है।
3. फर्म या चार्टर्ड अकाउंटेंट:
- केवल एक चार्टर्ड अकाउंटेंट या एक सीए फर्म ही कंपनी का ऑडिटर बन सकता है।
4. लेखापरीक्षक की अर्हता और अपात्रता (Section 141):
- जो व्यक्ति मानसिक दिवालिया है, धोखाधड़ी में दोषी पाया गया हो, या कंपनी में पूर्णकालिक कर्मचारी हो, वह ऑडिटर नहीं बन सकता।
III. ऑडिटर के कर्तव्य (Duties of Auditor)
ऑडिटर के कर्तव्य मुख्यतः लेखापरीक्षा करने, रिपोर्ट तैयार करने और विसंगतियों को उजागर करने से संबंधित होते हैं।
1. खातों का परीक्षण (Examination of Accounts):
- कंपनी के वित्तीय विवरण, बैलेंस शीट, लाभ-हानि खाते आदि का सत्यापन करना।
2. रिपोर्टिंग (Audit Report):
- शेयरधारकों को एक स्वतंत्र ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
- रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया जाता है कि कंपनी के खाते सत्य एवं न्यायपूर्ण हैं या नहीं।
3. आंतरिक नियंत्रण की जांच:
- यह सुनिश्चित करना कि कंपनी में उचित आंतरिक नियंत्रण प्रणाली लागू है।
4. धोखाधड़ी और अनियमितताओं की पहचान:
- यदि कोई धोखाधड़ी या अपवंचना पाई जाती है, तो उसकी सूचना बोर्ड और नियामक प्राधिकरण को दी जानी चाहिए (धारा 143(12))।
5. नोटों की जाँच:
- वित्तीय विवरणों के साथ जुड़े नोट्स की सत्यता की जांच।
6. सत्यापन और मूल्यांकन:
- परिसंपत्तियों और दायित्वों का भौतिक सत्यापन।
IV. ऑडिटर की उत्तरदायित्व (Responsibilities of Auditor)
1. नैतिक उत्तरदायित्व (Ethical Responsibility):
- निष्पक्षता, गोपनीयता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी बनाए रखना।
2. विधिक उत्तरदायित्व (Legal Responsibility):
- कंपनी अधिनियम, 2013 और ICAI के नियामों का पालन करना।
- वित्तीय अनियमितताओं की जानकारी देना अनिवार्य।
3. उत्तरदायित्व जब धोखाधड़ी को न रोका जाए:
- यदि ऑडिटर धोखाधड़ी को जानबूझकर नजरअंदाज करता है या लापरवाही करता है, तो उसे दंडित किया जा सकता है।
उदाहरण: सत्यं घोटाला।
4. देयता (Liability):
- सिविल और आपराधिक उत्तरदायित्व हो सकता है।
- धारा 147 के तहत, यदि ऑडिटर जानबूझकर झूठी रिपोर्ट देता है, तो उस पर जुर्माना और कारावास का प्रावधान है।
V. निष्कर्ष (Conclusion):
ऑडिटर की भूमिका कंपनी के वित्तीय स्वास्थ्य की सत्यता को सुनिश्चित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी नियुक्ति एक सुनियोजित प्रक्रिया के तहत होती है और उन्हें उच्च नैतिक और विधिक मानकों का पालन करना होता है। ऑडिटर की निष्पक्ष रिपोर्ट से ही निवेशक, शेयरधारक और सरकार को कंपनी की सच्ची वित्तीय स्थिति का पता चलता है।
प्रश्न 26: लाभ का वितरण (Dividend) और उससे संबंधित विधिक प्रावधान समझाइए।
(Explain the Distribution of Profit (Dividend) and the Legal Provisions Related to It.)
I. परिचय (Introduction):
किसी कंपनी का मुख्य उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। जब कंपनी को शुद्ध लाभ प्राप्त होता है, तो वह लाभ का कुछ हिस्सा अपने शेयरधारकों को लाभांश (Dividend) के रूप में वितरित कर सकती है। लाभांश का भुगतान कंपनी की नीतियों, लाभ की मात्रा, भविष्य की योजनाओं, और कानूनी प्रावधानों पर आधारित होता है।
II. लाभांश की परिभाषा (Definition of Dividend):
“लाभांश वह हिस्सा है जो कंपनी अपने शुद्ध लाभ से अपने अंशधारकों (शेयरधारकों) को भुगतान करती है।”
इसे कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(35) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है।
III. लाभांश के प्रकार (Types of Dividend):
प्रकार | विवरण |
---|---|
1. अंतिम लाभांश (Final Dividend) | वित्तीय वर्ष के अंत में वार्षिक आम सभा (AGM) में निदेशक मंडल द्वारा सिफारिश और सदस्यों द्वारा अनुमोदन के बाद घोषित किया जाता है। |
2. अंतरिम लाभांश (Interim Dividend) | वित्तीय वर्ष के मध्य में निदेशक मंडल द्वारा घोषित किया जाता है, AGM से पहले। |
3. विशेष लाभांश (Special Dividend) | जब कंपनी को असाधारण लाभ होता है (जैसे, परिसंपत्ति की बिक्री), तब विशेष रूप से दिया जाता है। |
4. शेयर लाभांश (Bonus Shares) | नकद के बजाय कंपनी के शेयरों के रूप में दिया गया लाभांश। |
IV. लाभांश से संबंधित विधिक प्रावधान (Legal Provisions related to Dividend):
1. कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत प्रमुख धाराएं:
(i) धारा 123 – लाभांश की घोषणा (Declaration of Dividend):
- लाभांश केवल तभी दिया जा सकता है जब:
- कंपनी को वर्तमान वर्ष में पर्याप्त लाभ हुआ हो; या
- पिछले वर्षों के संचयी लाभ से भुगतान किया जा रहा हो;
- मुफ्त भंडार (Free Reserves) से लाभांश दिया जा सकता है।
- कंपनी को लाभांश का भुगतान करने से पहले:
- अवशिष्ट लाभ का एक भाग आरक्षित निधि (Reserve Fund) में स्थानांतरित करना होता है (यदि बोर्ड ऐसा निर्णय ले)।
(ii) धारा 124 – अवितरित लाभांश (Unpaid Dividend):
- यदि किसी अंशधारक ने लाभांश प्राप्त नहीं किया हो, तो कंपनी को वह राशि Unpaid Dividend Account में 7 दिनों के भीतर स्थानांतरित करनी होती है।
- यदि 7 वर्षों तक वह राशि अछूती रहती है, तो उसे Investor Education and Protection Fund (IEPF) में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
(iii) धारा 127 – लाभांश न चुकाने पर दंड (Penalty for Failure to Pay Dividend):
- यदि कंपनी लाभांश घोषित करने के बाद 30 दिनों के भीतर भुगतान नहीं करती है, तो:
- कंपनी के प्रत्येक दोषी अधिकारी को ₹1,000 प्रति दिन जुर्माना, अधिकतम ₹1 लाख।
- 18% वार्षिक ब्याज लाभांश पर देय होगा।
(iv) नियम 3 और 4, Companies (Declaration and Payment of Dividend) Rules, 2014:
- इन नियमों में लाभांश की दर, शर्तें और भुगतान प्रक्रिया की विस्तृत व्यवस्था दी गई है।
V. लाभांश भुगतान की प्रक्रिया (Procedure for Payment of Dividend):
- लेखांकन वर्ष की समाप्ति पर लाभ की गणना।
- निदेशक मंडल द्वारा लाभांश की दर का निर्णय।
- AGM में शेयरधारकों से अनुमोदन (Final Dividend के लिए)।
- लाभांश की घोषणा और भुगतान की तिथि तय करना।
- लाभांश वारंट / ECS द्वारा भुगतान करना।
- अवितरित लाभांश को उचित खातों में स्थानांतरित करना।
VI. लाभांश भुगतान के स्रोत (Sources of Dividend Payment):
- चालू वर्ष के शुद्ध लाभ से।
- पिछले वर्षों के अधिशेष लाभ से।
- सरकार की अनुमति से आरक्षित निधि से (कुछ परिस्थितियों में)।
VII. लाभांश पर कर प्रावधान (Tax Provisions):
- वित्त अधिनियम, 2020 के अनुसार अब:
- लाभांश पर TDS (Tax Deducted at Source) लागू होता है।
- लाभांश प्राप्त करने वाले अंशधारकों को अपनी आय में लाभांश शामिल कर टैक्स देना होता है।
VIII. निष्कर्ष (Conclusion):
लाभांश का वितरण एक वित्तीय और कानूनी प्रक्रिया है जो कंपनी और अंशधारकों के बीच लाभ के न्यायसंगत बंटवारे को सुनिश्चित करता है। कंपनी अधिनियम, 2013 और संबंधित नियमों में लाभांश वितरण के लिए विस्तृत प्रावधान निर्धारित किए गए हैं। यह कंपनी की पारदर्शिता, लाभप्रदता और शेयरधारकों की संतुष्टि का महत्वपूर्ण संकेतक भी है।
प्रश्न 27: कंपनी के विघटन (Winding Up) की प्रक्रिया और प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
🔷 प्रस्तावना:
कंपनी का विघटन (Winding Up) वह विधिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक कंपनी का अस्तित्व समाप्त किया जाता है और उसकी संपत्ति को बेचकर उससे प्राप्त धनराशि से उसके ऋणों और दायित्वों का भुगतान किया जाता है। इसके पश्चात यदि कोई अधिशेष (surplus) शेष रहता है, तो उसे शेयरधारकों में वितरित कर दिया जाता है। कंपनी का विघटन उसके अस्तित्व के अंत का संकेत देता है।
🔷 विघटन का उद्देश्य:
- कंपनी के कारोबार को समाप्त करना
- कंपनी की संपत्तियों का न्यायोचित निपटान करना
- देनदारों को उनकी राशि चुकाना
- शेष धनराशि को शेयरधारकों में वितरित करना
- कंपनी के नाम को रजिस्टर से हटाना
🔷 कंपनी के विघटन के प्रकार (Types of Winding Up):
कंपनी के विघटन को मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है:
1. विवाद रहित विघटन (Voluntary Winding Up)
जब कंपनी स्वयं अपने निर्णय से विघटित होती है, तो इसे स्वैच्छिक (voluntary) विघटन कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है:
(i) सदस्यों द्वारा स्वैच्छिक विघटन (Members’ Voluntary Winding Up):
- यह तब होता है जब कंपनी पूर्ण रूप से सॉल्वेंट (solvent) हो।
- निदेशक यह घोषणा करते हैं कि कंपनी अपने सभी ऋण एक निश्चित अवधि में चुका सकती है।
- आम सभा (General Meeting) में विशेष प्रस्ताव (Special Resolution) पारित करके विघटन प्रारंभ किया जाता है।
(ii) देनदारों द्वारा स्वैच्छिक विघटन (Creditors’ Voluntary Winding Up):
- यह तब होता है जब कंपनी दिवालिया (insolvent) हो।
- निदेशक ऋण न चुका पाने की स्थिति में देनदारों की बैठक बुलाते हैं।
- देनदार कंपनी के परिसमापक (liquidator) की नियुक्ति में भूमिका निभाते हैं।
2. न्यायालय द्वारा विघटन (Compulsory Winding Up by Tribunal)
यह विघटन कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271 के तहत ट्रिब्यूनल (NCLT) द्वारा किया जाता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में यह विघटन किया जा सकता है:
प्रमुख आधार:
- कंपनी अपने कर्ज नहीं चुका पा रही हो।
- कंपनी ने विशेष प्रस्ताव पारित करके ट्रिब्यूनल से विघटन की प्रार्थना की हो।
- कंपनी की गतिविधियाँ कानून या सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हो।
- ट्रिब्यूनल यह माने कि कंपनी का संचालन न्याय व औचित्य के विरुद्ध हो रहा है।
- कंपनी ने ROC के साथ 5 वर्षों तक कोई व्यापारिक गतिविधि न दर्शाई हो।
- कंपनी ने वित्तीय धोखाधड़ी की हो।
🔷 विघटन की प्रक्रिया (Procedure of Winding Up):
✅ (A) स्वैच्छिक विघटन की प्रक्रिया:
- निदेशकों द्वारा घोषणा पत्र देना कि कंपनी ऋण चुका सकती है।
- विशेष प्रस्ताव (Special Resolution) पारित करना।
- परिसमापक (Liquidator) की नियुक्ति।
- परिसमापक द्वारा संपत्तियों की बिक्री और ऋण चुकाना।
- अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
- रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज (ROC) के पास रिपोर्ट दाखिल करना।
- कंपनी का नाम रजिस्टर से हटाना।
✅ (B) न्यायालय द्वारा विघटन की प्रक्रिया:
- विघटन के लिए आवेदन करना (कंपनी, सदस्य, कर्जदाता या रजिस्ट्रार)।
- ट्रिब्यूनल द्वारा प्रारंभिक सुनवाई और आदेश।
- आधिकारिक परिसमापक (Official Liquidator) की नियुक्ति।
- परिसमापक द्वारा संपत्तियों का मूल्यांकन, बिक्री और दायित्वों का भुगतान।
- शेष राशि का वितरण।
- ट्रिब्यूनल द्वारा विघटन का अंतिम आदेश और रजिस्ट्रार को सूचना।
- कंपनी का नाम हटाना।
🔷 परिसमापक (Liquidator) की भूमिका:
- संपत्तियों को इकठ्ठा करना और बेचकर धन प्राप्त करना।
- देनदारों को भुगतान करना।
- कानूनी मुकदमों का निपटारा करना।
- विघटन की रिपोर्ट तैयार करना।
🔷 उपसंहार (Conclusion):
कंपनी का विघटन कंपनी जीवन के अंत का सूचक है। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि सभी ऋणदाताओं और हितधारकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए कंपनी को न्यायसंगत ढंग से समाप्त किया जाए। भारतीय कंपनी अधिनियम, 2013 ने इस प्रक्रिया को सुनियोजित और न्यायिक निगरानी में रखा है जिससे पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बना रहे।
प्रश्न 28: कोर्ट द्वारा कंपनी के विघटन के आधारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर (Long Answer):
🔷 प्रस्तावना:
किसी कंपनी का विघटन (Winding Up) केवल स्वैच्छिक रूप से नहीं, बल्कि न्यायिक आदेश के माध्यम से भी किया जा सकता है। जब कंपनी स्वयं अपने कार्यों को नियंत्रित करने या अपने दायित्वों को निभाने में असमर्थ हो जाती है, तब राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (National Company Law Tribunal – NCLT) को कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271 के अंतर्गत इसे विघटित करने का अधिकार प्राप्त होता है।
🔷 कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271 – कोर्ट द्वारा विघटन के आधार (Grounds for Compulsory Winding Up by Tribunal):
न्यायालय (ट्रिब्यूनल) द्वारा कंपनी का विघटन निम्नलिखित आधारों पर किया जा सकता है:
✅ 1. कंपनी द्वारा विशेष प्रस्ताव पारित किया गया हो (Section 271(a))
यदि कंपनी स्वयं विघटन चाहती है और उसने अपने सदस्यों की आम सभा में विशेष प्रस्ताव (Special Resolution) पारित कर ट्रिब्यूनल से विघटन की याचना की हो, तो ट्रिब्यूनल कंपनी को विघटित कर सकता है।
🔹 Case Law: Re: German Date Coffee Company – कंपनी ने स्वयं विघटन का प्रस्ताव पारित किया था।
✅ 2. कंपनी अपने ऋण चुकाने में असमर्थ हो (Section 271(b))
यदि कंपनी Insolvent हो गई हो और अपने देनदारों का भुगतान करने में असमर्थ हो, तो देनदार ट्रिब्यूनल में याचिका दायर कर सकते हैं।
इसका निर्धारण ट्रिब्यूनल द्वारा व्यावसायिक परीक्षण (commercial test) और नकदी प्रवाह परीक्षण (cash flow test) के आधार पर किया जाता है।
🔹 Case Law: Madhusudan Gordhandas & Co. v. Madhu Woollen Industries Pvt. Ltd. – कंपनी के भुगतान न करने को पर्याप्त आधार माना गया।
✅ 3. कंपनी की गतिविधियाँ कानून या राष्ट्रीय हित के विरुद्ध हो (Section 271(c))
यदि कंपनी ने अपने कार्य संचालन में कोई अवैध, धोखाधड़ी पूर्ण या प्रतिकूल राष्ट्रहित वाली गतिविधियाँ की हों, तो ट्रिब्यूनल उसे विघटित कर सकता है।
यह आधार विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, या विदेशी संबंधों से संबंधित मामलों में प्रयोग किया जाता है।
✅ 4. विभिन्न क्षेत्रों के रेगुलेटरी प्राधिकरण की सिफारिश पर (Section 271(d))
यदि सरकारी प्राधिकरण (जैसे RBI, SEBI, IRDAI आदि) यह अनुशंसा करे कि कंपनी को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, तो ट्रिब्यूनल इस पर कार्यवाही कर सकता है।
यह स्थिति विशेष रूप से वित्तीय, बैंकिंग और बीमा कंपनियों पर लागू होती है।
✅ 5. यदि ट्रिब्यूनल माने कि कंपनी का अस्तित्व न्याय और औचित्य के विपरीत है (Section 271(e))
यह सबसे व्यापक और लचीला आधार है।
यदि ट्रिब्यूनल यह पाता है कि कंपनी:
- शेयरधारकों के बीच गंभीर मतभेदों के कारण संचालन योग्य नहीं रही,
- लगातार घाटे में चल रही है,
- व्यावसायिक उद्देश्य समाप्त हो गए हैं,
- या कंपनी के संचालन में धोखाधड़ी, कदाचार या अनुचित व्यवहार हुआ है,
तो ट्रिब्यूनल “just and equitable” आधार पर कंपनी को विघटित कर सकता है।
🔹 Case Law: Loch v. John Blackwood Ltd. – शेयरधारकों के बीच अविश्वास और कंपनी संचालन में गंभीर गतिरोध के कारण कोर्ट ने विघटन आदेश दिया।
🔷 ट्रिब्यूनल द्वारा निर्णय के अन्य पहलू:
- ट्रिब्यूनल विघटन की याचिका को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है।
- यदि याचिका में पर्याप्त कारण न हो तो ट्रिब्यूनल उसे खारिज कर सकता है।
- ट्रिब्यूनल परिसमापक (Liquidator) नियुक्त करता है जो कंपनी की संपत्तियों को समेटता और वितरित करता है।
🔷 उपसंहार (Conclusion):
कोर्ट (ट्रिब्यूनल) द्वारा कंपनी के विघटन का निर्णय तब लिया जाता है जब कंपनी का संचालन कानूनी, वित्तीय या नैतिक दृष्टिकोण से अव्यवहारिक हो जाए। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271 के अंतर्गत न्यायिक हस्तक्षेप का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी कंपनी का अंत न्यायपूर्ण, पारदर्शी और सभी हितधारकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए हो। यह प्रक्रिया व्यावसायिक पारदर्शिता और विधिक व्यवस्था के संतुलन को बनाए रखने में सहायक है।
प्रश्न 29: राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (NCLT) की संरचना, शक्तियाँ और कार्यों को समझाइए।
🔷 प्रस्तावना:
राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (National Company Law Tribunal – NCLT) एक विशिष्ट न्यायिक निकाय है जिसकी स्थापना भारत सरकार द्वारा कंपनी से जुड़े मामलों के शीघ्र, प्रभावी और विशेषज्ञ समाधान के उद्देश्य से की गई है। इसकी स्थापना कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत की गई, तथा यह 1 जून 2016 से प्रभावी हुआ।
NCLT कंपनी मामलों का न्यायिक निपटारा करता है, जो पहले उच्च न्यायालय, कंपनी लॉ बोर्ड, BIFR, और अन्य संस्थाओं के अधीन थे।
🔷 NCLT की स्थापना का उद्देश्य:
- कंपनी कानून से जुड़े मामलों के न्यायिक समाधान में गति लाना।
- विशेषज्ञता आधारित निर्णय प्रक्रिया प्रदान करना।
- विभिन्न कंपनी कानून संस्थाओं को एकीकृत करना।
- न्यायिक बोझ को कम करना।
🔷 NCLT की संरचना (Structure of NCLT):
✅ 1. अध्यक्ष (President):
- भारत सरकार द्वारा नियुक्त।
- सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश या कम से कम 5 वर्षों का हाईकोर्ट न्यायाधीश रह चुका व्यक्ति।
- अध्यक्ष NCLT की समस्त पीठों का नेतृत्व करता है।
✅ 2. न्यायिक सदस्य (Judicial Members):
- ऐसे व्यक्ति जो हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहे हों या 10 वर्षों तक वकील के रूप में अभ्यास किया हो।
- कानूनी मुद्दों की व्याख्या और निर्णय में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
✅ 3. तकनीकी सदस्य (Technical Members):
- चार्टर्ड अकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी, कॉस्ट अकाउंटेंट या सरकारी सेवा में कंपनी या लॉ से संबंधित अनुभव रखने वाले अधिकारी।
- व्यावसायिक और तकनीकी पहलुओं का विश्लेषण करते हैं।
✅ 4. पीठों (Benches):
- NCLT की कई क्षेत्रीय पीठें होती हैं जैसे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद आदि।
- प्रत्येक पीठ में एक न्यायिक और एक तकनीकी सदस्य अनिवार्य होता है।
🔷 NCLT की शक्तियाँ (Powers of NCLT):
NCLT को कंपनी अधिनियम, 2013 और दिवालियापन एवं ऋण शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (Insolvency and Bankruptcy Code – IBC) के तहत निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं:
✅ 1. कंपनी का विघटन (Winding up):
- कंपनी अधिनियम की धारा 271 के अंतर्गत विघटन के मामलों में निर्णय लेने की शक्ति।
- परिसमापक की नियुक्ति और नियंत्रण।
✅ 2. शेयरधारकों और निदेशकों के विवाद:
- सदस्यों के बीच विवादों जैसे उत्पीड़न (oppression) और कदाचार (mismanagement) पर निर्णय लेना (Sec 241-244)।
✅ 3. कंपनी पंजीकरण की प्रक्रिया से जुड़े मामले:
- कंपनी का पंजीकरण रद्द करना, नाम में परिवर्तन करना आदि।
- फर्जी कंपनियों को समाप्त करने की शक्ति।
✅ 4. निदेशकों की अयोग्यता और अयोग्य घोषित करना:
- गलत कार्यों में लिप्त निदेशकों को अयोग्य घोषित करना।
✅ 5. ऑडिटर और लेखा परीक्षा संबंधित विवाद:
- ऑडिट रिपोर्ट में धोखाधड़ी पाए जाने पर कार्रवाई करना।
✅ 6. दिवालियापन और ऋण शोधन अक्षमता से जुड़े मामले (IBC के अंतर्गत):
- कंपनियों और LLP के कॉर्पोरेट इन्सॉल्वेंसी रिजॉल्यूशन प्रोसेस (CIRP) में निर्णय देना।
- रिजॉल्यूशन प्रोफेशनल की नियुक्ति/हटाना।
✅ 7. कंपनी के विलय, समामेलन और पुनर्गठन के मामलों पर निर्णय (Section 230-232):
- स्कीम ऑफ अरेंजमेंट या मर्जर-एक्विजिशन को स्वीकृति देना।
✅ 8. कंपनी की जांच और जांचकर्ताओं की नियुक्ति:
- धोखाधड़ी या गड़बड़ी के संदेह पर जांच का आदेश देना।
🔷 NCLT के कार्य (Functions of NCLT):
क्र. | कार्य का विवरण |
---|---|
1 | कंपनी कानून से संबंधित विवादों का समाधान। |
2 | कंपनियों के पंजीकरण, विघटन, पुनर्गठन आदि मामलों पर निर्णय। |
3 | निदेशकों व प्रबंधकों की जांच और कार्रवाई। |
4 | वित्तीय धोखाधड़ी से संबंधित मामलों में न्यायिक नियंत्रण। |
5 | सदस्यों और कर्जदाताओं की शिकायतों की सुनवाई। |
6 | Insolvency प्रक्रिया की निगरानी। |
🔷 अपील की व्यवस्था:
- यदि किसी पक्ष को NCLT के निर्णय से असहमति हो, तो वह राष्ट्रीय कंपनी विधि अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) में अपील कर सकता है।
- इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा सकता है, लेकिन केवल कानून के प्रश्न (Question of Law) पर।
🔷 उपसंहार (Conclusion):
राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (NCLT) का गठन कंपनी कानून प्रणाली में एक महत्वपूर्ण सुधार था। इसने न्यायिक प्रक्रिया को तेज, विशेषज्ञतापूर्ण और केंद्रीकृत किया है। आज यह संस्था कंपनी विवादों, निदेशकों के दायित्व, दिवालियापन मामलों और वित्तीय पारदर्शिता बनाए रखने में अत्यंत प्रभावी भूमिका निभा रही है। NCLT आधुनिक कॉर्पोरेट गवर्नेंस का एक मजबूत स्तंभ बन चुका है।
प्रश्न 30: फॉरेंसिक ऑडिट और कंपनी में धोखाधड़ी की रोकथाम हेतु कंपनी कानून के प्रावधानों की चर्चा कीजिए।
🔷 प्रस्तावना:
वर्तमान कॉर्पोरेट वातावरण में, धोखाधड़ी, गबन, वित्तीय अनियमितताओं और कॉर्पोरेट गवर्नेंस की विफलताएं कंपनियों की छवि और निवेशकों के विश्वास को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं। ऐसे में फॉरेंसिक ऑडिट (Forensic Audit) एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है जो कंपनी के वित्तीय रिकॉर्ड में संभावित धोखाधड़ी और अनियमितताओं का गहन विश्लेषण करता है।
इसके साथ ही, कंपनी अधिनियम, 2013 में भी कई सख्त प्रावधान शामिल किए गए हैं जो कंपनियों में धोखाधड़ी की रोकथाम और दंड हेतु बनाए गए हैं।
🔷 भाग 1: फॉरेंसिक ऑडिट क्या है? (What is Forensic Audit?)
फॉरेंसिक ऑडिट एक विशेष प्रकार की ऑडिट प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य किसी वित्तीय रिकॉर्ड, ट्रांजेक्शन या दस्तावेज़ की गहराई से जांच करना है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या कोई धोखाधड़ी, गबन, वित्तीय अनुशासनहीनता या आपराधिक गतिविधि हुई है या नहीं।
✅ फॉरेंसिक ऑडिट की विशेषताएँ:
- यह सामान्य वैधानिक ऑडिट से अधिक गहन और उद्देश्यपूर्ण होता है।
- कानूनी प्रमाण एकत्र करना इसका एक प्रमुख उद्देश्य होता है।
- इसका उपयोग अदालतों, प्रवर्तन निदेशालय (ED), SEBI, और SFIO द्वारा किया जाता है।
- इसे आमतौर पर धोखाधड़ी, गबन, मनी लॉन्ड्रिंग, भ्रष्टाचार, बेनामी संपत्ति जैसे मामलों में किया जाता है।
✅ उदाहरण:
- IL&FS घोटाला
- Yes Bank और PMC बैंक धोखाधड़ी मामले
- Satyam Scam (2009) – जिसमें SFIO और फॉरेंसिक विशेषज्ञों ने मिलकर धोखाधड़ी का खुलासा किया।
🔷 भाग 2: कंपनी कानून, 2013 में धोखाधड़ी की रोकथाम हेतु प्रावधान:
✅ (1) धारा 447 – धोखाधड़ी की परिभाषा और दंड:
- किसी व्यक्ति द्वारा कपटपूर्ण तरीके से लाभ कमाना, कंपनी की संपत्ति का दुरुपयोग करना या वित्तीय रिपोर्ट में गलत जानकारी देना “धोखाधड़ी” माना जाता है।
- दंड: न्यूनतम 6 माह से लेकर अधिकतम 10 वर्ष तक की सजा तथा राशि का तीन गुना जुर्माना।
🔹 Example: यदि निदेशक ने जानबूझकर लाभांश की झूठी घोषणा की तो उस पर धारा 447 लागू होगी।
✅ (2) धारा 143(12) – ऑडिटर का दायित्व:
- यदि कोई ऑडिटर अपने ऑडिट के दौरान कंपनी में धोखाधड़ी पाता है तो उसे अनिवार्य रूप से सरकार को इसकी सूचना देनी होती है।
- यदि ऑडिटर ऐसा नहीं करता, तो उस पर जुर्माना और कार्यवाही हो सकती है।
✅ (3) धारा 212 – SFIO (Serious Fraud Investigation Office) की जांच:
- यदि केंद्र सरकार को किसी कंपनी में गंभीर धोखाधड़ी की आशंका हो, तो वह SFIO को जांच सौंप सकती है।
- SFIO के पास गिरफ्तारी, पूछताछ और दस्तावेज जब्त करने का विशेष अधिकार होता है।
✅ (4) धारा 447 के साथ अन्य संबंधित धाराएँ:
धारा | उद्देश्य |
---|---|
448 | जानबूझकर गलत स्टेटमेंट देना – गलत जानकारी देना दंडनीय अपराध है। |
449 | झूठी गवाही – यदि कोई व्यक्ति कोर्ट या ट्रिब्यूनल में झूठी गवाही देता है। |
450 | दंड जहाँ अन्य दंड निर्दिष्ट नहीं है – यदि किसी उल्लंघन के लिए अलग से दंड निर्दिष्ट नहीं है तो सामान्य दंड लगेगा। |
✅ (5) कंपनी में आंतरिक नियंत्रण और सतर्कता तंत्र:
- धारा 177 के अंतर्गत ऑडिट कमेटी का गठन किया जाता है जो कंपनी के लेखा और वित्तीय प्रबंधन की निगरानी करती है।
- विजिल मैकेनिज्म (Vigil Mechanism) – कर्मचारियों और निदेशकों को अनियमितता की सूचना देने का माध्यम।
✅ (6) फॉरेंसिक ऑडिट की भूमिका कंपनी कानून में:
- ट्रिब्यूनल या SFIO द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ फॉरेंसिक ऑडिट करते हैं।
- Insolvency and Bankruptcy Code (IBC) के अंतर्गत NCLT फॉरेंसिक रिपोर्ट को प्रमाणिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर सकता है।
🔷 भाग 3: धोखाधड़ी की रोकथाम के लिए सुझाव:
- स्वतंत्र लेखा परीक्षा और नियमित ऑडिट कराना।
- आंतरिक नियंत्रण प्रणाली (Internal Control System) को मजबूत बनाना।
- नैतिकता आधारित प्रशिक्षण (Ethics Training) देना।
- टेक्नोलॉजी आधारित निगरानी तंत्र अपनाना।
- विजिलेंस एवं शिकायत निवारण प्रणाली को प्रभावशाली बनाना।
- बोर्ड और निदेशकों द्वारा गवर्नेंस की जिम्मेदारी को गंभीरता से निभाना।
🔷 उपसंहार (Conclusion):
फॉरेंसिक ऑडिट और कंपनी अधिनियम, 2013 के सख्त प्रावधान, दोनों मिलकर कॉर्पोरेट धोखाधड़ी की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
धारा 447 और संबंधित धाराएँ उन व्यक्तियों पर कठोर कार्रवाई का प्रावधान करती हैं जो कंपनी हित के विरुद्ध कार्य करते हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, कंपनी की पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु फॉरेंसिक ऑडिट और मजबूत कानूनी तंत्र अत्यंत आवश्यक है।