सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: “बच्चे को गवाह मानने से इनकार नहीं किया जा सकता”

शीर्षक: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: “बच्चे को गवाह मानने से इनकार नहीं किया जा सकता”

परिचय:

साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act, 1872) भारतीय न्याय प्रणाली का एक आधारभूत स्तंभ है। इस अधिनियम के तहत यह तय किया गया है कि कौन व्यक्ति न्यायालय में गवाही दे सकता है और कौन नहीं। इसी संदर्भ में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि गवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं की गई है, और इस आधार पर किसी बच्चे को गवाह के रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यह निर्णय भारतीय विधिक दृष्टिकोण में बच्चों की भूमिका और उनके अधिकारों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।


मामले की पृष्ठभूमि:

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत एक याचिका में यह प्रश्न उठा था कि क्या एक छोटे बच्चे की गवाही को न्यायालय में मान्यता दी जा सकती है या नहीं। याचिकाकर्ता की दलील थी कि बच्चा बहुत छोटा था और उसकी गवाही को विश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिए। इस पर विचार करते हुए न्यायालय ने साक्ष्य अधिनियम की धाराओं का अवलोकन किया और महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं।


कोर्ट का निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया:

“भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत, गवाही देने के लिए किसी भी व्यक्ति की न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं है। यदि बच्चा यह समझने की क्षमता रखता है कि वह क्या कह रहा है और सत्य बोलने का महत्व जानता है, तो उसकी गवाही को नकारा नहीं जा सकता।”

कोर्ट ने आगे कहा कि:

  • गवाही की विश्वसनीयता की परीक्षा उसकी उम्र के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी बुद्धिमत्ता, समझदारी और सत्य के प्रति सजगता के आधार पर की जाती है।
  • बच्चा अगर सुस्पष्ट रूप से घटना का विवरण देने में सक्षम है, तो उसकी गवाही वैधानिक रूप से मान्य होगी।

साक्ष्य अधिनियम की प्रासंगिक धारा:

  • धारा 118 (Section 118): इस धारा में कहा गया है कि हर व्यक्ति, जिसे न्यायालय गवाही देने के योग्य समझता है, वह साक्ष्य देने के लिए सक्षम है। इसमें आयु की कोई सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है।
  • इसका तात्पर्य है कि चाहे बच्चा हो, विकलांग हो या बूढ़ा व्यक्ति—यदि वह अपनी बात ठीक से समझा सकता है और झूठ-सच का भेद समझता है, तो उसकी गवाही मान्य होगी।

न्यायपालिका की पुरानी दृष्टांत:

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया कि पूर्व में कई मामलों में बच्चों की गवाही के आधार पर अपराध सिद्ध हुए हैं। निम्नलिखित उदाहरण महत्वपूर्ण हैं:

  1. Ratan Singh v. State of Himachal Pradesh (1997) – इस मामले में 6 साल की बच्ची की गवाही के आधार पर आरोपी को सजा दी गई थी।
  2. State of Madhya Pradesh v. Ramesh (2011) – सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यदि बच्चा मानसिक रूप से साक्ष्य देने में सक्षम है, तो उसकी गवाही पर विश्वास किया जा सकता है।

इस निर्णय का महत्व:

  1. न्याय में समावेशन: यह आदेश स्पष्ट करता है कि बच्चे भी न्याय प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा हैं और उन्हें केवल आयु के आधार पर न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता।
  2. बाल अधिकारों की रक्षा: यह निर्णय बच्चों को न्याय प्रणाली में सक्रिय प्रतिभागी मानता है, जिससे उनके अधिकार और आवाज को मान्यता मिलती है।
  3. मिथक का खंडन: समाज में प्रचलित यह भ्रांति कि बच्चे भरोसेमंद गवाह नहीं हो सकते, इस आदेश से दूर होती है।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में बाल साक्ष्य की भूमिका को मजबूती प्रदान करता है। यह न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक रूप से भी यह संदेश देता है कि न्याय की प्रक्रिया में कोई वंचित नहीं रहेगा, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो। बच्चों की साक्ष्य देने की क्षमता को नकारना, उनके अधिकारों का हनन होगा और न्याय की आत्मा के विपरीत भी।

यह निर्णय न्याय को व्यापक, समावेशी और सुलभ बनाने की दिशा में एक प्रभावी कदम है।