लेख शीर्षक:
“चेक मामलों में देरी माफी आवेदन पर सुनवाई अनिवार्य: कर्नाटक उच्च न्यायालय की निगाह में मजिस्ट्रेट की कर्तव्यपरकता”
परिचय:
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विनिमेय लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत दायर मामलों में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि किसी शिकायतकर्ता ने चेक बाउंस मामले में देरी से शिकायत दर्ज की है, तो मजिस्ट्रेट का यह विधिक कर्तव्य है कि वह पहले देरी माफी (condonation of delay) के आवेदन पर पक्षकारों को नोटिस देकर विचार करे और उसके बाद एक स्पष्ट और कारणपूर्ण आदेश (speaking order) पारित करे। इसके पश्चात ही मजिस्ट्रेट को कथन (sworn statement) दर्ज करने या अपराध की संज्ञान (cognizance) लेने की प्रक्रिया प्रारंभ करनी चाहिए।
प्रकरण की पृष्ठभूमि:
इस मामले में शिकायतकर्ता ने धारा 138 के तहत चेक बाउंस की शिकायत निर्धारित अवधि के पश्चात दाखिल की थी, और साथ ही देरी माफी हेतु एक आवेदन भी संलग्न किया था। लेकिन ट्रायल कोर्ट (Judicial Magistrate) ने बिना उस आवेदन पर विचार किए और बिना प्रतिवादी को नोटिस दिए सीधे संज्ञान ले लिया और बयान दर्ज करना प्रारंभ कर दिया। इसके विरुद्ध याचिका कर्नाटक उच्च न्यायालय में दायर की गई।
न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ:
- प्रक्रियात्मक न्याय का पालन अनिवार्य:
न्यायालय ने कहा कि जब शिकायत निर्धारित समय सीमा (limitation period) के बाद दायर की जाती है, तब मजिस्ट्रेट को सबसे पहले यह जांचना होता है कि क्या देरी के लिए युक्तिसंगत कारण प्रस्तुत किया गया है। - न्यायसंगत आदेश का अभाव अवैधानिक:
बिना कारण दर्शाए और बिना प्रतिवादी को सुनवाई का अवसर दिए, सीधे संज्ञान लेना न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन है। - Speaking Order की आवश्यकता:
देरी माफी याचिका को खारिज या स्वीकार करने से पहले मजिस्ट्रेट को विवरणात्मक आदेश (speaking order) देना आवश्यक है, ताकि स्पष्ट हो सके कि निर्णय किस आधार पर लिया गया। - प्रतिवादी को नोटिस अनिवार्य:
अदालत ने दोहराया कि जब देरी माफी याचिका लंबित हो, तो प्रतिवादी को नोटिस देकर प्राथमिक सुनवाई करना संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप है।
कानूनी दृष्टिकोण:
- यह निर्णय मुख्यतः NI Act की धारा 138 से संबंधित है, लेकिन इसमें CrPC की धारा 142(b) भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि वह चेक बाउंस मामलों में सीमावधि को नियंत्रित करती है।
- यदि शिकायतकर्ता 30 दिनों की निर्धारित अवधि के बाद शिकायत दर्ज करता है, तो उसे उचित कारण बताते हुए देरी माफी याचिका देना आवश्यक होता है।
- मजिस्ट्रेट का यह न्यायिक दायित्व है कि वह इस याचिका पर पारदर्शिता और न्याय के सिद्धांतों के आधार पर कार्य करे।
न्यायालय का निष्कर्ष:
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट द्वारा देरी माफी याचिका पर विचार किए बिना संज्ञान लेना कानून के विपरीत है। न्यायालय ने ऐसे मामलों में आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि पहले देरी माफी याचिका पर पक्षकारों को सुनकर निर्णय लिया जाए।
निष्कर्ष:
यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया की मर्यादा को बनाए रखने और आरोपियों के प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के अधिकारों की रक्षा के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि अभियोजन की प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायसंगत और कानूनी प्रावधानों के अनुसार हो। कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह निर्णय देशभर की अधीनस्थ न्यायपालिका के लिए एक दिशा-निर्देश का कार्य करेगा।