पुलिस के सामने किया गया इकबाल-ए-जुर्म (Confession) क्यों मान्य नहीं होता? एक कानूनी विश्लेषण

शीर्षक: पुलिस के सामने किया गया इकबाल-ए-जुर्म (Confession) क्यों मान्य नहीं होता? एक कानूनी विश्लेषण


परिचय:

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) में अभियुक्त के अधिकारों की सुरक्षा को सर्वोपरि माना गया है। इन्हीं अधिकारों की रक्षा के लिए यह स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया है कि पुलिस अधिकारी के सामने किया गया कोई भी इकबाल-ए-जुर्म (Confession) न्यायालय में मान्य साक्ष्य नहीं होता, जब तक वह मजिस्ट्रेट के सामने और उचित प्रक्रिया के तहत न दिया गया हो। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि ऐसा क्यों है, इसके पीछे का कानूनी आधार क्या है, और इसका न्यायिक महत्व क्या है।


1. इकबाल-ए-जुर्म (Confession) की परिभाषा:

इकबाल-ए-जुर्म का अर्थ होता है, अभियुक्त द्वारा स्वयं यह स्वीकार करना कि उसने अपराध किया है। यह स्वीकारोक्ति मौखिक या लिखित किसी भी रूप में हो सकती है, लेकिन इसकी वैधता इस बात पर निर्भर करती है कि यह कहाँ और किसके सामने दी गई है।


2. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26:

  • धारा 25: “किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष अभियुक्त द्वारा किया गया कोई भी इकबाल-ए-जुर्म साक्ष्य के रूप में ग्राह्य नहीं होगा।”
  • धारा 26: “जब तक अभियुक्त को किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत न किया गया हो, तब तक पुलिस हिरासत में किया गया कोई भी इकबाल-ए-जुर्म साक्ष्य के रूप में मान्य नहीं होगा।”

स्पष्ट निष्कर्ष: पुलिस के समक्ष अपराध कबूल करना अपने आप में न्यायिक साक्ष्य नहीं माना जा सकता।


3. ऐसा प्रावधान क्यों बनाया गया?

यह नियम अत्याचारों से बचाव के लिए बनाया गया है। इतिहास गवाह है कि कई बार पुलिस द्वारा यातना देकर अपराध स्वीकार करवाए जाते हैं। अगर ऐसे इकबाल-ए-जुर्म को अदालतों में मान्यता दी जाए, तो यह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा और न्याय प्रणाली पर से विश्वास उठ सकता है।


4. मजिस्ट्रेट के सामने इकबाल-ए-जुर्म (धारा 164 CrPC):

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अंतर्गत, अभियुक्त अगर न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव के अपना अपराध स्वीकार करता है, तो ही उस बयान को अदालत में मान्यता मिलती है।

मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना होता है कि:

  • आरोपी पर कोई दबाव नहीं है।
  • उसने यह इकबाल-ए-जुर्म स्वेच्छा से किया है।
  • उसे अपने अधिकारों की पूरी जानकारी है।

5. महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

i. State of Punjab v. Barkat Ram (AIR 1962 SC 276):
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस अधिकारी के सामने किया गया इकबाल-ए-जुर्म अस्वीकार्य है, चाहे वह स्वेच्छा से ही क्यों न किया गया हो।

ii. Dagdu v. State of Maharashtra (AIR 1977 SC 1579):
कोर्ट ने दोहराया कि मजिस्ट्रेट के समक्ष दिया गया बयान ही कानूनी रूप से स्वीकार्य है।

iii. Khatri v. State of Bihar (AIR 1981 SC 928):
कोर्ट ने कहा कि किसी आरोपी का बयान यदि पुलिस दबाव में लिया गया है, तो वह न्यायिक सिद्धांतों के विरुद्ध होगा।


6. पुलिस क्या कर सकती है?

पुलिस केवल तथ्यों की जांच कर सकती है, संदिग्धों से पूछताछ कर सकती है, लेकिन इकबाल-ए-जुर्म को कानूनन मान्य बनवाने के लिए उसे अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना ही होगा।


7. झूठे कबूलनामे का खतरा:

अगर पुलिस के सामने दिया गया इकबाल-ए-जुर्म मान्य हो जाए, तो:

  • निर्दोष व्यक्तियों को जबरन फंसाया जा सकता है।
  • न्याय प्रक्रिया पर भरोसा खत्म हो सकता है।
  • असली अपराधी बच सकता है।

निष्कर्ष:

भारतीय न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए यह अनिवार्य बना दिया गया है कि कोई भी इकबाल-ए-जुर्म केवल मजिस्ट्रेट के समक्ष, स्वेच्छा से और उचित प्रक्रिया के तहत ही मान्य होगा। यह प्रावधान केवल आरोपी की रक्षा नहीं करता, बल्कि न्याय प्रणाली की गरिमा और विश्वास को भी बनाए रखता है।