“धारा 377 आईपीसी के तहत पत्नी के साथ गुदा या मुख मैथुन पर पति को दंडित नहीं किया जा सकता: दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय”

लेख शीर्षक:
“धारा 377 आईपीसी के तहत पत्नी के साथ गुदा या मुख मैथुन पर पति को दंडित नहीं किया जा सकता: दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय”

परिचय:

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत पति को अपनी पत्नी के साथ गुदा (anal) या मुख मैथुन (oral sex) करने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह सहमति से किया गया हो। यह निर्णय वैवाहिक संबंधों के भीतर यौन गतिविधियों की प्रकृति और कानून की सीमाओं पर एक नई बहस को जन्म देता है।

धारा 377 आईपीसी का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 एक उपनिवेशकालीन कानून है, जिसे “अप्राकृतिक यौन संबंधों” को अपराध की श्रेणी में रखने के लिए लागू किया गया था। यह धारा विशेष रूप से “पुरुष, महिला या जानवर के साथ स्वाभाविक नहीं माने जाने वाले यौन संबंध” को दंडनीय बनाती थी।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2018 के ऐतिहासिक फैसले (नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार) में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया और सहमति से वयस्कों के बीच यौन संबंध को वैध ठहराया गया। किंतु, धारा 377 अब भी पशुओं के साथ या गैर-सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंधों पर लागू होती है।

दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय:

एक महिला ने याचिका दायर कर अपने पति के खिलाफ आरोप लगाया था कि उसने उसके साथ गुदा और मुख मैथुन किया है, जिसे वह “अप्राकृतिक यौन क्रिया” मानती है और पति को धारा 377 के अंतर्गत दंडित करने की मांग की।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि:

  1. धारा 375 आईपीसी (बलात्कार) में वैवाहिक बलात्कार को अब भी अपराध नहीं माना गया है, सिवाय जब पत्नी की उम्र 18 वर्ष से कम हो।
  2. अगर पति-पत्नी के बीच सहमति से यौन संबंध होते हैं, चाहे वे किसी भी रूप में हों (गुदा या मुख मैथुन), तो उन्हें धारा 377 के तहत दंडित नहीं किया जा सकता।
  3. नवतेज सिंह जौहर मामले के बाद भी धारा 377 विवाह के भीतर सहमति से किए गए यौन संबंधों पर लागू नहीं होती।

न्यायालय की टिप्पणी:

न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि “यौन संबंधों की प्रकृति चाहे जो भी हो, यदि वे पति-पत्नी के बीच सहमति से हैं, तो उन्हें अपराध नहीं माना जा सकता।” उन्होंने यह भी कहा कि “न्यायालय की जिम्मेदारी केवल कानूनी पहलुओं का मूल्यांकन करना है, न कि नैतिकता या सामाजिक मान्यताओं का।”

महत्वपूर्ण बिंदु:

  • यह निर्णय उस वैवाहिक विशेषाधिकार को दोहराता है जो पति को अब भी कानून के तहत प्राप्त है।
  • हालांकि सामाजिक दृष्टिकोण से यह विवादास्पद हो सकता है, परंतु न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब तक संसद वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं मानती, तब तक अदालतें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं।
  • यह मामला महिलाओं के यौन अधिकारों और वैवाहिक संबंधों में सहमति की भूमिका को लेकर गंभीर बहस को जन्म देता है।

निष्कर्ष:

दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड संहिता की व्याख्या और वैवाहिक संबंधों में यौन स्वतंत्रता की सीमाओं को रेखांकित करता है। यह एक बार फिर वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की आवश्यकता को उजागर करता है। जब तक कानून में परिवर्तन नहीं होता, तब तक ऐसे मामलों में न्यायालयों के हाथ बंधे रहते हैं।

सुझाव:

  • विधायिका को चाहिए कि वह वैवाहिक बलात्कार, सहमति की अवधारणा और पति-पत्नी के बीच यौन अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करे।
  • महिलाओं को यौन उत्पीड़न से सुरक्षा देने हेतु व्यक्तिगत कानूनों और आपराधिक कानूनों में समन्वय स्थापित किया जाना आवश्यक है।