बिलासपुर हाईकोर्ट का अहम आदेश: पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से मुकदमा लड़ा जा सकता है — ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द कर नई सुनवाई के निर्देश

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बिलासपुर हाईकोर्ट का अहम आदेश: पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से मुकदमा लड़ा जा सकता है — ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द कर नई सुनवाई के निर्देश


परिचय

मुकदमे में पक्षकारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए पावर ऑफ अटॉर्नी का उपयोग कानूनी प्रथाओं में सामान्य होता जा रहा है। इसी संदर्भ में बिलासपुर हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश दिया है, जिसने स्पष्ट किया है कि पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से भी मुकदमा लड़ा जा सकता है। इस फैसले ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया है, जिसमें पावर ऑफ अटॉर्नी से प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं दी गई थी। इस आदेश का व्यापक प्रभाव भविष्य के मुकदमों में प्रतिनिधित्व के अधिकारों और प्रक्रिया की सरलता को बढ़ावा देने के लिए माना जा रहा है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला यशोदा ए देवी जायसवाल द्वारा दायर याचिका से जुड़ा है, जिनके खिलाफ अग्निश्वर डे, अभिजीत डे एवं उनकी मां हेना डे ने खसरा नंबर 17/31 एवं 17/32 की भूमि के संबंध में स्वामित्व की घोषणा और स्थायी निषेधाज्ञा की मांग करते हुए सिविल मुकदमा दायर किया था। इन भूमि खसरों का कुल क्षेत्रफल लगभग 0.106 और 0.016 हेक्टेयर था।

अग्निश्वर डे ने मुकदमे में अपने पक्ष से पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से प्रतिनिधित्व करने का प्रयास किया। इसके तहत उन्होंने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 151 और आदेश 8 नियम 1ए (3) के तहत आवेदन दिया, जिसमें पावर ऑफ अटॉर्नी को रिकॉर्ड में लेने की अनुमति मांगी गई।

ट्रायल कोर्ट का फैसला

हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया। कोर्ट ने यह तर्क दिया कि पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से प्रतिनिधित्व करने की अनुमति देने से मुकदमे की प्रकृति में बदलाव आ सकता है या इससे प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। ऐसे में कोर्ट ने पावर ऑफ अटॉर्नी को रिकॉर्ड में लेने की अनुमति देने से इंकार कर दिया।

हाईकोर्ट की सुनवाई और आदेश

ट्रायल कोर्ट के इस आदेश को चुनौती देते हुए यशोदा जायसवाल ने बिलासपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने मामले की गहराई से जांच की और पाया कि पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से मुकदमा लड़ने से मामले की मूल प्रकृति में कोई बदलाव नहीं होता।

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि सीपीसी के आदेश 8 नियम 1ए (3) और धारा 151 के तहत यह अनुमति दी जानी चाहिए ताकि मुकदमे की न्यायिक प्रक्रिया बाधित न हो। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता से नए सिरे से शपथ पत्र लिया जाए और मामले की सुनवाई गुण-दोष के आधार पर निष्पक्षता से की जाए।

कानूनी दृष्टिकोण

पावर ऑफ अटॉर्नी एक ऐसा अधिकार है, जिसके तहत किसी व्यक्ति (मूल धारक) द्वारा दूसरे व्यक्ति (अटॉर्नी धारक) को अपने नाम पर कानूनी कार्यवाही करने का अधिकार दिया जाता है। यह अधिकार भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त है और इसके माध्यम से कोई भी मुकदमा या कानूनी कार्यवाही लड़ी जा सकती है।

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 नियम 1ए (3) में भी पक्षकारों को अपने प्रतिनिधि के माध्यम से मुकदमा चलाने का प्रावधान है, जिससे न्यायालयों में मामलों की सुनवाई प्रक्रिया सुगम होती है।

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया कि पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से मुकदमा लड़ने से केवल प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व होता है, न कि मुकदमे के विषय में कोई परिवर्तन। इसलिए, इस अधिकार का प्रयोग करने से मुकदमे की वस्तु या उसके परिणाम प्रभावित नहीं होते।

न्यायालयों पर प्रभाव और भविष्य की संभावनाएं

यह आदेश न्यायिक प्रणाली में प्रतिनिधित्व के अधिकार को मजबूती देता है। इससे पक्षकार अपने विश्वासपात्रों को मुकदमे में प्रतिनिधि बनाने के लिए पावर ऑफ अटॉर्नी दे सकते हैं, जो अदालत में उनके पक्ष को मजबूती से प्रस्तुत कर सकेंगे।

यह फैसला खासकर उन मामलों में उपयोगी होगा जहां पक्षकार स्वयं उपस्थित नहीं हो सकते या उन्हें बार-बार अदालत में उपस्थित होना कठिन हो। इससे न्याय प्रक्रिया में लचीलापन और न्यायालयों पर बोझ कम होगा।

निष्कर्ष

बिलासपुर हाईकोर्ट के इस आदेश से यह स्पष्ट हो गया है कि पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से मुकदमा लड़ने की अनुमति कानूनन मान्य और उचित है। यह निर्णय न्यायिक प्रक्रियाओं को सरल बनाने और पक्षकारों के प्रतिनिधित्व के अधिकारों को सुनिश्चित करने में एक मील का पत्थर साबित होगा।

इस प्रकार के आदेश न्यायपालिका की प्रक्रिया को तेज और न्यायसंगत बनाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम हैं। भविष्य में भी ऐसे मामलों में इस फैसले का व्यापक संदर्भ लिया जाएगा, जो न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और प्रभावशीलता लाने में सहायक होगा।