लेख शीर्षक:
“महिलाएं राफेल उड़ा सकती हैं, तो विधिक शाखा में क्यों नहीं? : सुप्रीम कोर्ट का सेना की लैंगिक नीति पर सवाल”
परिचय:
भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में सेना की विधिक शाखा — जज एडवोकेट जनरल (JAG) — में महिलाओं की कम भागीदारी पर गंभीर सवाल उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब महिलाएं वायुसेना में राफेल जैसे आधुनिक लड़ाकू विमान उड़ा सकती हैं, तो उन्हें सेना की विधिक शाखा जैसे बौद्धिक और विश्लेषणात्मक पदों पर भी समान अवसर क्यों नहीं मिल रहा है?
मामले की पृष्ठभूमि:
यह मामला दो महिला अधिकारियों — अर्शनूर कौर और आस्था त्यागी — की याचिकाओं से जुड़ा है। दोनों ने विधिक शाखा (JAG) में चयन प्रक्रिया में लैंगिक भेदभाव का आरोप लगाया है। याचिकाकर्ताओं को क्रमशः चौथी और पांचवीं रैंक मिली थी, फिर भी उनका चयन नहीं हुआ क्योंकि महिलाओं के लिए केवल तीन पद आरक्षित थे। कुल छह रिक्तियों में से आधे पर ही महिलाओं को मौका दिया गया, जिसे याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक पदों पर समान अवसर) का उल्लंघन बताया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ:
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की खंडपीठ ने आठ मई को इस मामले की सुनवाई के दौरान सरकार की 50:50 चयन नीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि लैंगिक तटस्थता का अर्थ यह नहीं कि पुरुषों और महिलाओं के लिए बराबर सीटें आरक्षित हों, बल्कि इसका अर्थ यह है कि चयन केवल योग्यता के आधार पर हो, न कि लिंग के आधार पर।
पीठ ने पूछा कि अगर 10 महिलाएं JAG में चयन के लिए पूरी तरह योग्य हैं, तो उन्हें केवल आरक्षित सीटों तक क्यों सीमित किया जा रहा है? क्यों नहीं सभी को नियुक्त किया जाए?
सरकार की दलीलें:
सरकार की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (ASG) ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि महिलाओं की भर्ती एक “प्रगतिशील प्रक्रिया” है, और सेना में चयन नीति मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करती। उन्होंने न्यायपालिका से कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप से बचने की भी अपील की।
न्यायिक दृष्टिकोण और सामाजिक संकेत:
सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी का अर्थ केवल सैन्य व्यवस्था तक सीमित नहीं है, यह समाज में महिलाओं की भूमिका और उनके अवसरों को लेकर एक व्यापक विमर्श को जन्म देती है। यह निर्णय लैंगिक समानता की दिशा में मील का पत्थर हो सकता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह सवाल — “जब महिलाएं राफेल उड़ा सकती हैं तो विधिक शाखा में संख्या कम क्यों?” — न केवल सेना के भीतर लैंगिक न्याय की आवश्यकता को रेखांकित करता है, बल्कि देश की समूची प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था में महिलाओं को समान अवसर देने की मांग को मजबूती देता है। यह समय है कि हम केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे बढ़ें और महिलाओं की वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित करें — वह भी योग्यता के आधार पर, न कि कोटे के सहारे।