प्रश्न : भारत में संपत्ति के अधिकार का संवैधानिक विकास और वर्तमान कानूनी स्थिति का वर्णन कीजिए। क्या संपत्ति का अधिकार अब मूल अधिकार है? स्पष्ट कीजिए।
परिचय:
संपत्ति का अधिकार (Right to Property) भारतीय संविधान में प्रारंभ से ही एक महत्वपूर्ण अधिकार के रूप में स्थापित था। यह मूल अधिकारों में सम्मिलित था और नागरिकों को उनकी संपत्ति के संरक्षण का अधिकार प्रदान करता था। परंतु सामाजिक न्याय और भूमि सुधार की आवश्यकता ने इस अधिकार की प्रकृति में समय के साथ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। आज संपत्ति का अधिकार एक कानूनी अधिकार है, न कि मूल अधिकार।
संपत्ति के अधिकार का संवैधानिक विकास:
1. प्रारंभिक स्थिति (मूल अधिकार के रूप में):
- संविधान के भाग III में अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के अंतर्गत संपत्ति का अधिकार मूल अधिकार के रूप में सम्मिलित था।
- अनुच्छेद 19(1)(f): प्रत्येक नागरिक को संपत्ति अर्जित करने, रखने और उसका उपभोग करने का अधिकार देता था।
- अनुच्छेद 31: राज्य द्वारा किसी व्यक्ति की संपत्ति के अधिग्रहण या कब्जे के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता था, जब तक उचित मुआवजा न दिया जाए।
2. भूमि सुधार और टकराव:
- स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने भूमि सुधार की प्रक्रिया शुरू की, जैसे – जमींदारी उन्मूलन, भूसीमा कानून, आदि।
- परंतु संपत्ति का मूल अधिकार होने के कारण ये सुधार न्यायालयों में चुनौती के घेरे में आ गए।
- न्यायपालिका ने कई मामलों में भूमि सुधार कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि ये अनुच्छेद 31 का उल्लंघन करते थे।
3. संविधान संशोधन और संपत्ति के अधिकार में परिवर्तन:
(i) प्रथम संविधान संशोधन (1951):
- नवीन अनुसूची – 9वीं अनुसूची की स्थापना की गई जिसमें भूमि सुधार कानूनों को रखा गया ताकि वे न्यायिक समीक्षा से मुक्त रहें।
(ii) चौबीसवां, पच्चीसवां, और बयालीसवां संशोधन:
- 25वां संशोधन (1971): अनुच्छेद 31(2) में “मुआवजा” शब्द को “राशि” से बदला गया, जिससे न्यायालयों के अधिकार को सीमित किया गया।
(iii) चालीसवां संशोधन (1976):
- और अधिक कानूनों को 9वीं अनुसूची में शामिल किया गया।
4. संपत्ति के अधिकार का अपसारण – 44वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1978:
- यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था।
- अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 को संविधान से हटा दिया गया।
- एक नया अनुच्छेद 300-A संविधान के भाग XII में जोड़ा गया:
“कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा अधिकार प्रदान किए बिना अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।”
- परिणामस्वरूप, संपत्ति का अधिकार अब केवल एक संवैधानिक कानूनी अधिकार (Constitutional Legal Right) बन गया है, मूल अधिकार नहीं।
वर्तमान कानूनी स्थिति (Present Legal Status):
1. कानूनी अधिकार (Legal Right):
- अनुच्छेद 300-A के अंतर्गत व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह केवल कानून द्वारा अपनी संपत्ति से वंचित किया जा सकता है।
- यह अधिकार अब न्यायिक संरक्षण के तहत मूल अधिकार के रूप में नहीं आता।
2. न्यायिक उपचार की सीमा:
- चूंकि यह अब मूल अधिकार नहीं है, अतः कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32 के अंतर्गत) नहीं जा सकता।
- उसे उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226 के तहत) जाना होता है, और वह भी केवल यदि कानून की प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ हो।
3. भूमि अधिग्रहण कानून:
- वर्तमान में संपत्ति के अधिग्रहण के लिए “2013 का भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्था में उचित प्रतिकर का अधिकार अधिनियम” (Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013) लागू है।
प्रमुख न्यायिक निर्णय:
1. केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संपत्ति का अधिकार संविधान का मूल ढांचा (basic structure) नहीं है।
2. अचिन्त्य कुमार बनाम भारत संघ (1995):
- न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 300-A एक संवैधानिक संरक्षण है, लेकिन यह अनुच्छेद 14 और 21 की तरह न्यायिक प्रवर्तन योग्य मूल अधिकार नहीं है।
निष्कर्ष (Conclusion):
भारत में संपत्ति के अधिकार का सफर मूल अधिकार से एक साधारण कानूनी अधिकार बनने तक का रहा है। स्वतंत्र भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में भूमि सुधार और गरीबी उन्मूलन को प्राथमिकता देने हेतु इसे मूल अधिकार की श्रेणी से हटाया गया। आज यह एक संविधान प्रदत्त कानूनी अधिकार है जिसे अनुच्छेद 300-A के तहत संरक्षित किया गया है।
इसलिए, यह स्पष्ट है कि संपत्ति का अधिकार अब मूल अधिकार नहीं है, बल्कि यह केवल एक कानूनी अधिकार है जो न्यायालय में तभी लागू किया जा सकता है जब राज्य कानून द्वारा संपत्ति को जब्त करने की उचित प्रक्रिया का पालन न करे।