शीर्षक: “HC न्यायाधीश के विरुद्ध शिकायत पर लोकपाल के अधिकार क्षेत्र को लेकर स्वतः संज्ञान मामला: निर्णय हेतु भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत”
परिचय:
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में लोकपाल संस्था को भ्रष्टाचार के विरुद्ध उच्चस्तरीय जांच एवं अनुशासनात्मक प्रक्रिया के लिए सशक्त माध्यम के रूप में स्थापित किया गया है। किंतु जब बात उच्च न्यायपालिका — विशेषकर उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों — से संबंधित शिकायतों की आती है, तो यह एक संवैधानिक संतुलन एवं अधिकार क्षेत्र के टकराव का प्रश्न बन जाता है। ऐसी ही एक स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने एक स्वतः संज्ञान (Suo Motu) मामला दर्ज किया, जिसका संबंध लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आने वाली एक शिकायत से है, जो एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध दर्ज की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि:
- एक उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश के विरुद्ध भ्रष्टाचार से संबंधित शिकायत दर्ज की गई थी।
- शिकायत लोकपाल संस्था के समक्ष प्रस्तुत की गई, जिसमें मांग की गई थी कि वह मामले की जांच करे।
- यह विवाद उठा कि क्या लोकपाल को संविधान के तहत कार्यरत उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध शिकायत की जांच करने का अधिकार है?
- यह विषय संविधान के अनुच्छेद 124 और 217, और लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के प्रावधानों के बीच टकराव को जन्म देता है।
- इस संवेदनशील प्रश्न पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया।
प्रमुख प्रश्न:
- क्या लोकपाल के पास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जांच करने का अधिकार है?
- क्या इस प्रकार की शिकायतें न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करती हैं?
- क्या लोकपाल अधिनियम न्यायिक अधिकारियों पर भी लागू होता है या केवल कार्यपालिका पर सीमित है?
सुप्रीम कोर्ट की प्रक्रिया:
- स्वतः संज्ञान मामला (Suo Motu Case) CJI (मुख्य न्यायाधीश) के समक्ष रखा गया है ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि:
- क्या मामला संविधान पीठ को सौंपा जाए?
- क्या न्यायिक नैतिकता और जवाबदेही के वर्तमान तंत्र में परिवर्तन की आवश्यकता है?
- लोकपाल के क्षेत्राधिकार की सीमाओं की पुनः व्याख्या की जाए।
विधिक विवाद और महत्व:
- संवैधानिक अनुच्छेद 124(4) एवं 217(1) के अनुसार, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को केवल महाभियोग प्रक्रिया (Impeachment) के माध्यम से हटाया जा सकता है।
- लोकपाल अधिनियम, 2013 की व्याख्या यह स्पष्ट नहीं करती कि क्या न्यायिक अधिकारियों को भी ‘Public Servants’ की श्रेणी में गिना जाएगा।
- यदि लोकपाल को इस क्षेत्र में कार्य करने की अनुमति मिलती है, तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Judicial Independence) और संविधान की बुनियादी संरचना (Basic Structure Doctrine) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
संभावित प्रभाव:
- न्यायिक जवाबदेही की सीमा तय होगी।
- लोकपाल की शक्ति और दायित्वों की संवैधानिक व्याख्या संभव होगी।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाम पारदर्शिता और जवाबदेही का संतुलन स्थापित होगा।
निष्कर्ष:
यह स्वतः संज्ञान मामला केवल एक व्यक्तिगत शिकायत से अधिक है। यह भारत के लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक ताने-बाने में न्यायपालिका की स्थिति और लोकपाल जैसी निगरानी संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र को परिभाषित करने वाला एक ऐतिहासिक मोड़ हो सकता है। जब यह मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया गया है, तो यह संकेत करता है कि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय की गंभीर संवैधानिक व्याख्या के लिए तैयार है, जो भविष्य की न्यायिक स्वतंत्रता और संस्थागत जवाबदेही को गहराई से प्रभावित करेगा।