“सीमावधि संबंधी विवाद पर विशेष मुद्दा तय किए बिना भी निर्णय संभव: सुप्रीम कोर्ट की धारा 3, लिमिटेशन एक्ट पर महत्वपूर्ण व्याख्या”

शीर्षक: “सीमावधि संबंधी विवाद पर विशेष मुद्दा तय किए बिना भी निर्णय संभव: सुप्रीम कोर्ट की धारा 3, लिमिटेशन एक्ट पर महत्वपूर्ण व्याख्या”


परिचय:

न्यायिक प्रक्रिया में समय की सीमा (Limitation) का अनुपालन न्यायिक अनुशासन और विवादों की त्वरित समाप्ति सुनिश्चित करता है। Limitation Act, 1963 की धारा 3 न्यायालयों को यह बाध्यता देती है कि वे समय-सीमा से बाहर दायर वादों को स्वतः निरस्त करें, भले ही पक्षकारों द्वारा सीमावधि संबंधी कोई आपत्ति न उठाई गई हो। इस सिद्धांत को और स्पष्ट करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि सीमावधि संबंधी प्रश्न पर न्यायालय विशेष मुद्दा (Issue) तय किए बिना भी निर्णय ले सकता है, यदि तथ्य और साक्ष्य रिकॉर्ड पर उपलब्ध हैं।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • वाद एक दीवानी वाद था जिसमें Limitation Act की धारा 3, अनुच्छेद 59 और अनुच्छेद 65, तथा CPC के आदेश 6 नियम 4 एवं 10, आदेश 14 नियम 1, आदेश 23A एवं आदेश 25 की प्रासंगिकता प्रमुख थी।
  • ट्रायल कोर्ट और अपीलीय न्यायालय दोनों ने वाद को सीमावधि में नहीं पाए जाने के आधार पर खारिज कर दिया था।
  • हाईकोर्ट ने इस आधार पर वाद को पुनः ट्रायल हेतु भेज दिया (Remand कर दिया) कि ट्रायल कोर्ट ने सीमावधि से संबंधित कोई पृथक मुद्दा तय नहीं किया था।
  • सुप्रीम कोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी गई।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:

माननीय पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा:

  1. सीमावधि न्याय की अधिकारिता से जुड़ा प्रश्न है:
    • धारा 3, लिमिटेशन एक्ट के तहत यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह समय-सीमा से बाहर दायर वाद को स्वतः निरस्त करे, चाहे पक्षकारों ने सीमावधि की आपत्ति उठाई हो या नहीं
  2. मुद्दा तय न होने से अधिकार समाप्त नहीं होता:
    • मुद्दे तय करना (Framing of Issues) केवल एक प्रक्रियात्मक औजार (procedural mechanism) है जो विवादों की प्रकृति और सीमा को स्पष्ट करता है।
    • यदि रिकॉर्ड पर तथ्य उपलब्ध हैं और अदालत ने अपने विवेक का उपयोग करते हुए सीमावधि पर विचार किया है, तो यह न्यायसंगत निर्णय माना जाएगा।
  3. High Court का पुनः परीक्षण हेतु आदेश (Remand) त्रुटिपूर्ण:
    • चूंकि ट्रायल और अपीलीय अदालत दोनों ने रिकॉर्ड में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि वाद सीमावधि से बाहर है, ऐसे में केवल मुद्दा तय न होने के आधार पर पुनः ट्रायल का आदेश देना अवांछनीय और अनावश्यक है।
  4. प्रक्रियात्मक विधियां न्याय में सहायक हैं, बाधक नहीं:
    • CPC और Limitation Act जैसे विधि उपकरण न्याय को सुगम बनाने के लिए हैं, न कि बाधा उत्पन्न करने के लिए।
    • जब कोई पक्ष यह नहीं दिखा पाता कि उसे इस प्रक्रिया से कोई वास्तविक हानि (prejudice) हुई है, तो निर्णय को केवल प्रक्रिया के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।

विधिक महत्व:

  • यह निर्णय पुनः पुष्टि करता है कि Limitation एक ‘jurisdictional bar’ है और न्यायालय इसे स्वयं संज्ञान में लेकर निर्णय कर सकता है
  • यह व्याख्या भविष्य के मुकदमों के लिए एक स्पष्ट दिशा प्रदान करती है कि सीमावधि के प्रश्न को प्रक्रियात्मक चूक के आधार पर अनदेखा नहीं किया जा सकता

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया की मूल भावना — न्याय, शीघ्रता, और निष्पक्षता — को बनाए रखने वाला है। यह स्पष्ट करता है कि यद्यपि प्रक्रिया (procedure) न्यायिक प्रणाली का आधार है, परंतु वह न्याय की प्राप्ति में बाधक नहीं बन सकती। सीमावधि संबंधी निर्णय के लिए पृथक मुद्दे का अभाव न्यायालय की विवेकाधिकार शक्ति को नहीं रोकता। यह निर्णय दीवानी वादों में समय-सीमा की प्रासंगिकता और न्यायालय की भूमिका को पुनः परिभाषित करता है।