शीर्षक:
अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन का अधिकार और डिजिटल पहुंच: असुलभ डिजिटल KYC प्रक्रियाएं मौलिक अधिकारों का उल्लंघन
परिचय:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि “किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है।” समय के साथ, भारतीय न्यायपालिका ने इस अधिकार की व्याख्या कर इसे न केवल “जीवित रहने” तक सीमित रखा है, बल्कि एक “गरिमामय जीवन” जीने के अधिकार के रूप में विस्तृत किया है। हाल के वर्षों में डिजिटल युग के आगमन के साथ, यह आवश्यकता महसूस की गई है कि डिजिटल सेवाओं तक पहुंच भी जीवन के अधिकार का एक अनिवार्य भाग होनी चाहिए।
1. डिजिटल पहुंच: मौलिक अधिकार के रूप में
आज के युग में बैंकिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, सरकारी योजनाएं, पहचान सत्यापन (KYC) आदि अधिकांश सेवाएं डिजिटल रूप में संचालित होती हैं। ऐसे में यदि किसी व्यक्ति को तकनीकी असुविधाओं, अक्षमता, या संसाधनों की कमी के कारण इन सेवाओं से वंचित किया जाता है, तो यह अभिगम्यता में असमानता (Inequality in Access) को जन्म देता है।
2. डिजिटल KYC प्रक्रिया और समस्याएँ:
डिजिटल KYC (Know Your Customer) प्रक्रिया अब अनेक संस्थानों द्वारा अनिवार्य कर दी गई है – जैसे बैंक, मोबाइल सेवाएं, बीमा कंपनियाँ इत्यादि। परंतु इस प्रक्रिया से जुड़े कुछ प्रमुख मुद्दे हैं:
- तकनीकी ज्ञान या डिजिटल साक्षरता की कमी।
- रिमोट या ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट या मोबाइल नेटवर्क की असुविधा।
- बुजुर्ग या दिव्यांग व्यक्तियों को बायोमेट्रिक सत्यापन में कठिनाई।
- कोई विकल्प (offline KYC) न होने पर सेवा से वंचित होना।
3. सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की टिप्पणियाँ:
- K.S. Puttaswamy v. Union of India (2017) (न्यायमूर्ति पुट्टस्वामी मामला):
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “Privacy is a part of Right to Life under Article 21” और इसमें डेटा संरक्षण तथा डिजिटल प्रक्रियाओं में व्यक्ति की गरिमा का ध्यान रखना आवश्यक है। - Internet and Mobile Association of India v. Reserve Bank of India (2020):
यह निर्णय डिजिटल लेन-देन और तकनीकी अधिकारों को लेकर था, जहां न्यायालय ने यह संकेत दिया कि डिजिटल अर्थव्यवस्था में नागरिकों को समान और न्यायसंगत पहुंच देना सरकार का कर्तव्य है।
4. असुलभ KYC प्रक्रिया = जीवन के अधिकार का हनन
जब डिजिटल KYC प्रक्रिया किसी नागरिक को अनिवार्य सेवा से वंचित कर देती है — केवल इसलिए कि वह तकनीकी रूप से सक्षम नहीं है या उसे उचित सहायता नहीं मिल पा रही — तो यह सीधे तौर पर अनुच्छेद 21 के “जीवन की गरिमा” और “न्यायसंगत प्रक्रिया” के सिद्धांत का उल्लंघन है।
विशेषकर कमजोर वर्ग जैसे वरिष्ठ नागरिक, ग्रामीण निवासी, विकलांग लोग, तकनीकी साक्षरता से वंचित लोग — ये सभी डिजिटल बहिष्करण (Digital Exclusion) के शिकार हो सकते हैं।
5. समाधान और अनुशंसाएँ:
- ऑफ़लाइन KYC विकल्प को अनिवार्य रूप से बनाए रखना चाहिए।
- डिजिटल साक्षरता अभियान का विस्तार।
- सरकार और निजी संस्थानों को Inclusive Design अपनाना चाहिए — जिससे हर कोई, चाहे किसी भी वर्ग या परिस्थिति से हो, समान रूप से डिजिटल सेवा का उपयोग कर सके।
- डिजिटल सेवाओं के लिए शिकायत निवारण प्रणाली सरल और प्रभावी होनी चाहिए।
निष्कर्ष:
डिजिटल सेवाओं तक पहुँच अब केवल सुविधा नहीं, बल्कि एक मौलिक आवश्यकता बन चुकी है। यदि कोई व्यक्ति केवल इस कारण से सेवाओं से वंचित हो रहा है कि डिजिटल KYC प्रक्रिया उसके लिए सुगम नहीं है, तो यह न केवल डिजिटल भेदभाव है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन के अधिकार का भी उल्लंघन है। यह आवश्यक है कि भारत में डिजिटल समावेशन (Digital Inclusion) को संवैधानिक दृष्टि से गंभीरता से लिया जाए और नीति निर्माताओं तथा न्यायालयों द्वारा इसे आवश्यक मूल अधिकार के रूप में मान्यता दी जाए।