शीर्षक: “क्या धारा 156(3) CrPC के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा जांच के आदेश के बाद भी PC Act की धारा 17A के तहत पूर्व स्वीकृति आवश्यक है? : B.S. Yediyurappa बनाम आलम पशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विधिक प्रश्न”
परिचय:
भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) के अंतर्गत सार्वजनिक पदधारियों के विरुद्ध कार्यवाही में धारा 17A एक महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच प्रदान करती है। यह प्रावधान सरकारी अधिकारियों की दायित्वपूर्ण कार्यवाही को अनावश्यक जांच से सुरक्षा देता है, जिससे प्रशासनिक निर्णयों पर भय के बिना कार्रवाई हो सके। हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में B.S. Yediyurappa बनाम Alam Pasha & Ors मामले में यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि क्या यदि मजिस्ट्रेट धारा 156(3) CrPC के तहत जांच का आदेश दे देता है, तब भी PC Act की धारा 17A के तहत राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति आवश्यक होगी या नहीं?
मामले की पृष्ठभूमि:
पूर्व कर्नाटक मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों में एक याचिका CrPC की धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत की गई थी, जिसमें मजिस्ट्रेट ने जांच के आदेश दिए। इसके विरुद्ध श्री येदियुरप्पा ने सुप्रीम कोर्ट में यह मुद्दा उठाया कि ऐसी स्थिति में भी क्या धारा 17A के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारी से पूर्व स्वीकृति लेना अनिवार्य है, क्योंकि बिना स्वीकृति के जांच आरंभ करना स्वयं कानून का उल्लंघन हो सकता है।
विवाद का मूल प्रश्न:
सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में एक महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न पर विचार किया:
क्या एक मजिस्ट्रेट द्वारा CrPC की धारा 156(3) के तहत जांच का आदेश देने के पश्चात भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारी (जैसे सरकार) से पूर्व स्वीकृति आवश्यक है या नहीं?
धारा 156(3) CrPC और धारा 17A PC Act का विश्लेषण:
- CrPC की धारा 156(3): मजिस्ट्रेट को किसी संज्ञेय अपराध की पुलिस जांच का आदेश देने का अधिकार देती है।
- PC Act की धारा 17A (2018 में संशोधित): किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध “अपने कार्यों को करते समय” की गई किसी कार्यवाही की जांच प्रारंभ करने से पूर्व सक्षम प्राधिकारी (सामान्यतः सरकार) से पूर्व स्वीकृति अनिवार्य बनाती है।
यह संशोधन लोक सेवकों को दुर्भावनापूर्ण आपराधिक जांच से बचाने हेतु लाया गया था।
सुप्रीम कोर्ट की प्रक्रिया और विचार:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह स्पष्ट किया कि इस विवादास्पद मुद्दे पर विस्तृत कानूनी परीक्षण की आवश्यकता है, और निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाएगा:
- क्या मजिस्ट्रेट द्वारा 156(3) CrPC के अंतर्गत जांच का आदेश देने से धारा 17A की बाध्यता समाप्त हो जाती है?
- क्या मजिस्ट्रेट भी एक “अन्वेषण अधिकारी” की भूमिका में आता है, जिससे वह धारा 17A के “initiation of inquiry/investigation” की सीमा से बाहर हो जाता है?
- क्या धारा 17A की स्वीकृति मजिस्ट्रेट द्वारा जांच का आदेश दिए जाने से पहले ली जानी चाहिए या पुलिस जांच शुरू करने से पहले?
पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ:
यह मामला P. Krishnamurthy v. State of Karnataka और Subramanian Swamy v. Manmohan Singh जैसे निर्णयों से संबंधित है, जहाँ कोर्ट ने सरकारी स्वीकृति के महत्व को रेखांकित किया है। यह भी देखा गया कि बिना स्वीकृति के अन्वेषण या FIR दर्ज करना सार्वजनिक पदधारी के अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।
संभावित प्रभाव:
इस मामले का निर्णय अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण होगा:
- यह तय करेगा कि भ्रष्टाचार के मामलों में मजिस्ट्रेट की शक्तियों और सरकारी स्वीकृति के बीच क्या संतुलन होगा।
- यदि कोर्ट कहता है कि धारा 17A की पूर्व स्वीकृति मजिस्ट्रेट के आदेश के बाद भी आवश्यक है, तो कई लंबित भ्रष्टाचार जांचों पर इसका प्रभाव पड़ेगा।
- यह प्रशासनिक कार्यों की स्वतंत्रता और लोक सेवकों की जवाबदेही के बीच संतुलन तय करेगा।
निष्कर्ष:
B.S. Yediyurappa बनाम Alam Pasha & Ors. मामला केवल एक राजनीतिक नेता के विरुद्ध कार्यवाही का मामला नहीं, बल्कि यह पूरे देश में भ्रष्टाचार निरोधक प्रणाली की प्रकृति और प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मुद्दे पर आने वाला निर्णय निश्चित रूप से एक विधिक दृष्टांत (legal precedent) के रूप में उभरेगा, जो जांच एजेंसियों, न्यायपालिका और लोक सेवकों की कार्यपद्धति को दिशा प्रदान करेगा।