लेख शीर्षक:
“शरिया व काजी अदालतों को कानूनी मान्यता नहीं: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय”
परिचय:
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि शरिया अदालतें (Darul Qaza) या काजी अदालतों के नाम से चलने वाले किसी भी गैर-सरकारी संस्थान को भारतीय कानून के अंतर्गत कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है। यह निर्णय न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ द्वारा एक महिला की अपील पर सुनाया गया, जिसमें पारिवारिक न्यायालय द्वारा काजी अदालत के समझौता विलेख के आधार पर भरण-पोषण की मांग को खारिज कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि:
यह मामला एक महिला की ओर से दाखिल की गई अपील से संबंधित है, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी गई थी जिसमें पारिवारिक न्यायालय के आदेश को सही ठहराया गया था। पारिवारिक अदालत ने अपने आदेश में काजी अदालत के एक कथित समझौते के आधार पर महिला के भरण-पोषण के दावे को खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि काजी अदालतें या शरिया अदालतें कोई संवैधानिक या वैधानिक न्यायिक संस्थाएं नहीं हैं। इन अदालतों का कोई भी निर्णय या आदेश कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होता और न ही उन्हें जबरन लागू किया जा सकता है।
न्यायमूर्ति अमानुल्लाह ने फैसले में यह भी कहा कि काजी अदालत या ऐसी संस्थाओं की घोषणाएं या निर्णय महज सलाह के रूप में हो सकते हैं, जिन्हें केवल स्वेच्छा से ही स्वीकार किया जा सकता है। प्रभावित पक्ष यदि चाहे तो इन निर्णयों को मान सकता है, किंतु उन्हें कानून के तहत बाध्यता नहीं दी जा सकती।
पूर्व निर्णयों का संदर्भ:
कोर्ट ने अपने इस निर्णय में पूर्व में दिए गए एक अन्य फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि शरीयत अदालतें और इनके द्वारा जारी किए गए फतवे भारतीय विधिक प्रणाली में लागू नहीं किए जा सकते और इन्हें किसी भी न्यायालय द्वारा कानूनी वैधता प्रदान नहीं की जा सकती।
महत्वपूर्ण टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने पारिवारिक अदालत के दृष्टिकोण की आलोचना की और कहा कि काजी अदालत के कथित समझौता विलेख को कोई कानूनी आधार नहीं दिया जा सकता और इस पर कोई न्यायिक निष्कर्ष निकालना विधिक दृष्टि से अनुचित है।
निष्कर्ष:
यह निर्णय भारतीय विधिक व्यवस्था में समानता, विधि की प्रधानता और न्यायिक प्रक्रिया की वैधानिकता को स्थापित करता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में केवल संवैधानिक और वैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त न्यायालयों के निर्णय ही बाध्यकारी हैं। धार्मिक या पारंपरिक निकायों द्वारा दिए गए निर्णयों की कोई कानूनी मान्यता नहीं है, जब तक कि वे विधिक मानदंडों के अंतर्गत न आएं या सभी पक्षों की सहमति से न हों।