“न्याय की पूर्णता के लिए वाद-पत्र संशोधन की अनुमति: महाबीर प्रसाद बनाम मुरारी लाल एवं अन्य मामला (Order 6 Rule 17 CPC)”

“न्याय की पूर्णता के लिए वाद-पत्र संशोधन की अनुमति: महाबीर प्रसाद बनाम मुरारी लाल एवं अन्य मामला (Order 6 Rule 17 CPC)”

परिचय:
Mahabir Prasad बनाम Murari Lal & Others, PbHr 2025 (CR-1065-2025, O&M) मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने Order 6 Rule 17 सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के तहत एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए वाद-पत्र (Plaint) में संशोधन की अनुमति प्रदान की, भले ही यह आवेदन वादी द्वारा पांच अवसरों के बाद दाखिल किया गया था। यह निर्णय भारतीय सिविल प्रक्रिया में “न्याय के हित में लचीलापन” के सिद्धांत की पुष्टि करता है।

मामले की पृष्ठभूमि:
वादी ने एक दीवानी वाद दायर किया और साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए उसे पाँच अवसर दिए गए। इसके उपरांत वादी ने वाद-पत्र में संशोधन की मांग करते हुए आवेदन (application for amendment) प्रस्तुत किया। प्रतिवादी पक्ष ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह बहुत विलंब से किया गया है और इससे न्यायिक प्रक्रिया बाधित होगी।

उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:
न्यायालय ने अपने निर्णय में निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया:

  1. न्यायपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक संशोधन:
    न्यायालय ने माना कि जो संशोधन मांगा गया है वह वाद के निष्पक्ष और न्यायोचित निर्णय के लिए आवश्यक है।
  2. तकनीकी आपत्तियों से न्याय बाधित नहीं हो सकता:
    केवल तकनीकी आधारों पर, जैसे कि देरी या अवसरों की संख्या, वाद के गुण-दोष पर असर नहीं पड़ना चाहिए।
  3. वादी को स्वयं अपने दावे को प्रमाणित करना होगा:
    न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संशोधन की अनुमति मात्र से वादी को कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होगा, क्योंकि उसे अपने संशोधित दावे को ठोस साक्ष्य द्वारा सिद्ध करना ही होगा।
  4. वाद की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं:
    न्यायालय ने पाया कि संशोधन से वाद की मूल प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होगा, अतः इसका प्रतिवादी को कोई अनुचित नुकसान नहीं होगा।

न्यायालय का निर्णय:
उक्त आधारों पर, न्यायालय ने वाद-पत्र में संशोधन की अनुमति दे दी। यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि न्यायालयों का दृष्टिकोण तकनीकीताओं के बजाय न्याय के वास्तविक उद्देश्य पर केंद्रित होना चाहिए।

महत्त्व और प्रभाव:
यह निर्णय Order 6 Rule 17 CPC की व्याख्या में एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करेगा। यह बताता है कि यदि कोई संशोधन वाद के न्यायिक निपटारे के लिए अनिवार्य हो और उससे किसी पक्ष के अधिकारों का गंभीर हनन न होता हो, तो संशोधन की अनुमति दी जानी चाहिए, भले ही उसे देर से ही क्यों न प्रस्तुत किया गया हो।


निष्कर्ष:
Mahabir Prasad v. Murari Lal मामला स्पष्ट रूप से यह स्थापित करता है कि न्याय की वास्तविकता तकनीकीताओं से ऊपर है, और सिविल प्रक्रिया संहिता में निहित लचीलापन न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए।