“अनुचित देरी से दायर मध्यस्थता आवेदन अस्वीकार्य : गुजरात उच्च न्यायालय ने धारा 8 की सीमा और अनुच्छेद 227 की निगरानी शक्तियों को रेखांकित किया”

“अनुचित देरी से दायर मध्यस्थता आवेदन अस्वीकार्य : गुजरात उच्च न्यायालय ने धारा 8 की सीमा और अनुच्छेद 227 की निगरानी शक्तियों को रेखांकित किया”


परिचय:

गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 8 (Section 8) के तहत याचिका तब मान्य नहीं मानी जा सकती, जब वह मुकदमे की कार्यवाही में पहले से प्रस्तुत ‘प्रथम ठोस उत्तर’ (first substantial statement) के बहुत बाद दायर की गई हो। इस निर्णय में न्यायालय ने नागरिक न्यायालय द्वारा की गई मध्यस्थता के लिए अनियमित और विलंबित संदर्भ को न केवल अवैध माना, बल्कि अनुच्छेद 227 के तहत अपनी निगरानी शक्ति (supervisory jurisdiction) का उपयोग कर उस आदेश को निरस्त कर दिया।


मामले की पृष्ठभूमि:

यह मामला एक सिविल वाद से संबंधित था, जिसमें पॉवर ऑफ अटॉर्नी और उसके आधार पर निष्पादित बिक्री विलेख (sale deed) को रद्द करने की मांग की गई थी। प्रतिवादी (defendant) ने शुरुआत में बिना मध्यस्थता का हवाला दिए हुए एक लिखित कथन (written statement) दाखिल किया। इसके बाद उन्होंने एक प्रारंभिक मुद्दा तय करने के लिए आवेदन दायर किया। केवल तब, जब वादी (plaintiff) ने साझेदारी अनुबंध (partnership deed) प्रस्तुत किया जिसमें मध्यस्थता का प्रावधान था, तब प्रतिवादी ने धारा 8 के तहत मामला मध्यस्थता को सौंपने की मांग करते हुए आवेदन दाखिल किया।

गौरतलब है कि यह आवेदन प्रतिवादी द्वारा वाद की विषयवस्तु पर अपना पहला उत्तर दर्ज कराने के लगभग दस महीने बाद दायर किया गया था।


विधिक विश्लेषण:

A. धारा 8 के तहत विलंब से दायर आवेदन की वैधता:

  • मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 8 यह स्पष्ट करती है कि यदि वादी द्वारा न्यायालय में वाद दायर किया गया हो और विवाद मध्यस्थता से निपटने योग्य हो, तो प्रतिवादी को वाद की कार्यवाही में अपनी पहली ठोस प्रतिक्रिया दर्ज कराने से पहले ही मध्यस्थता की मांग करनी चाहिए।
  • इस प्रकरण में प्रतिवादी ने अपनी प्राथमिक प्रतिक्रिया दिए जाने के लगभग 10 महीने बाद यह आवेदन दाखिल किया, जो कानूनन स्वीकार्य नहीं है।
  • ट्रायल कोर्ट द्वारा इस देरी को नजरअंदाज करते हुए मामला मध्यस्थता को सौंपना एक गंभीर न्यायिक चूक (judicial error) माना गया।

B. अनुच्छेद 227 के तहत निगरानी अधिकारों का प्रयोग:

  • वादी ने Krishna Dairy Farm के फैसले पर भरोसा करते हुए ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी, जिसमें समान परिस्थितियों में मध्यस्थता के लिए देर से किया गया आवेदन अवैध ठहराया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने इस पूर्व निर्णय को बिना पर्याप्त कारण बताए खारिज कर दिया, जो उच्च न्यायालय द्वारा स्थापित binding precedent का स्पष्ट उल्लंघन था।
  • उच्च न्यायालय ने इसे न्यायिक विवेक का मनमाना प्रयोग (arbitrary exercise of discretion) और गंभीर त्रुटि (manifest error) बताया।
  • फलस्वरूप, गुजरात उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 227 के तहत हस्तक्षेप करते हुए, ट्रायल कोर्ट के आदेश को निरस्त किया और वादी की याचिका स्वीकार की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  1. “कानून की अनदेखी न्यायिक अधिकार का दुरुपयोग है।”
    — कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता कानून में जो समय-सीमा स्पष्ट की गई है, वह केवल औपचारिक नहीं बल्कि अनिवार्य (mandatory) प्रकृति की है।
  2. “न्यायिक विवेक अनुशासन से बंधा होना चाहिए।”
    — बिना वैध कारणों के पहले से तय न्यायिक दृष्टांतों (precedents) की अनदेखी न्याय में असमानता और अराजकता को जन्म देती है।

निष्कर्ष:

गुजरात उच्च न्यायालय का यह निर्णय न केवल मध्यस्थता कानून की प्रक्रिया संबंधी स्पष्टताओं को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि अनुच्छेद 227 के तहत उच्च न्यायालय की निगरानी शक्तियाँ न्यायपालिका के भीतर संतुलन बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।

यह फैसला उन पक्षों के लिए एक स्पष्ट संदेश है जो जानबूझकर प्रक्रिया में देरी कर मध्यस्थता का सहारा लेते हैं—कि न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन, समयबद्धता और विधिक अनिवार्यताओं का पालन करना अनिवार्य है।