“साझा आवास की कानूनी व्याख्या: Smt. Seema Bansal बनाम Sh. Durga Dass Bansal केस का विश्लेषण”
प्रस्तावना:
भारतीय पारिवारिक विवादों में “साझा आवास” की परिभाषा व अधिकारों को लेकर अनेक विवाद उत्पन्न होते हैं। विशेष रूप से जब बहू को ससुराल के घर से निकाला जाता है, तब घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) का सहारा लिया जाता है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण मामला “Smt. Seema Bansal v. Sh. Durga Dass Bansal and Ors.” में सामने आया, जिसमें कोर्ट को यह तय करना था कि क्या बहू को उस घर से निकाला जा सकता है जो उसके ससुर द्वारा स्व-अर्जित संपत्ति है।
मामले की पृष्ठभूमि:
इस मामले में वादकर्ता सास-ससुर थे जिन्होंने अपने बेटे और बहू के विरुद्ध कब्जा वापसी (Suit for Possession) की याचिका दायर की थी। उनका दावा था कि मकान उनके द्वारा स्व-अर्जित किया गया है और बहू को वहां रहने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रमुख प्रश्न:
क्या बहू को उस घर से निकाला जा सकता है जो कि स्व-अर्जित संपत्ति है और न कि संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति?
न्यायालय का निर्णय:
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2(s) के तहत ‘Shared Household’ का अर्थ यह नहीं कि वह संपत्ति संयुक्त परिवार की होनी चाहिए या बहू का उस पर मालिकाना हक हो। यदि वह विवाह के पश्चात उस घर में रहती है, तो वह Shared Household की श्रेणी में आती है।
कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि बहू को केवल विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही उस घर से निकाला जा सकता है। वह स्व-अर्जित संपत्ति में भी तब तक रहने की हकदार है जब तक कि वैधानिक रूप से उसे वहां से हटाया न जाए।
कानूनी महत्व:
यह निर्णय उन कई मामलों में मार्गदर्शक है, जहाँ परिवार के बड़े सदस्य बहू को उनके घर से निकालने का प्रयास करते हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत बहू को न केवल संरक्षण मिलता है बल्कि सम्मानपूर्वक आवास का अधिकार भी मिलता है, चाहे वह संपत्ति पति या ससुर की ही क्यों न हो।
निष्कर्ष:
“Smt. Seema Bansal” केस ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि भारत में महिलाओं के आवासीय अधिकारों को लेकर न्यायपालिका सजग है। यह निर्णय घरेलू हिंसा अधिनियम के दायरे और प्रभाव को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है।