भारत में पारंपरिक ज्ञान (Traditional Knowledge) की सुरक्षा जैव विविधता कानून, विशेष रूप से “जैव विविधता अधिनियम, 2002” (Biological Diversity Act, 2002) के माध्यम से सुनिश्चित की जाती है। इस अधिनियम का उद्देश्य जैव संसाधनों के संरक्षण, सतत उपयोग और उनके लाभों के समान वितरण को सुनिश्चित करना है, जिसमें पारंपरिक ज्ञान की रक्षा एक प्रमुख पहलू है।
विधिक प्रावधानों की समीक्षा:
1. उद्देश्य के रूप में पारंपरिक ज्ञान की रक्षा:
अधिनियम के उद्देश्यों में पारंपरिक ज्ञान की रक्षा को स्पष्ट रूप से शामिल किया गया है, जिससे यह मान्यता मिलती है कि स्थानीय समुदायों और जनजातियों के पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण आवश्यक है।
2. अनुच्छेद 2 (f) – पारंपरिक ज्ञान की परिभाषा:
अधिनियम में “संपदा ज्ञान” (Traditional Knowledge) को उस ज्ञान के रूप में माना गया है जो किसी जैविक संसाधन के उपयोग, उपचारात्मक गुण या किसी अन्य विशेषता से जुड़ा होता है और जो पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक रूप से प्रयोग में लाया गया है।
3. अनुच्छेद 6 – जैव संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान के उपयोग पर नियंत्रण:
विदेशी नागरिक, कंपनियां या संस्थाएं भारत के जैव संसाधनों और संबंधित पारंपरिक ज्ञान का उपयोग केवल राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA) की पूर्व अनुमति से ही कर सकते हैं।
4. अनुच्छेद 7 – स्थानीय पंजीकरण की आवश्यकता:
भारतीय नागरिकों को भी, यदि वे अनुसूचित जनजातियों या स्थानीय समुदायों द्वारा संजोए गए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करना चाहते हैं, तो उन्हें संबंधित राज्य जैव विविधता बोर्ड से पंजीकरण कराना होता है।
5. अनुच्छेद 21 – लाभों का समान वितरण (Benefit Sharing):
यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि यदि किसी जैविक संसाधन या पारंपरिक ज्ञान का व्यावसायिक उपयोग होता है, तो उससे होने वाले लाभों को संबंधित समुदायों के साथ समान रूप से साझा किया जाए। इसके लिए बायो-पाइरेसी को रोकने की व्यवस्था की गई है।
6. PBRs (People’s Biodiversity Registers):
स्थानीय स्तर पर जैव संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान को दस्तावेजित करने हेतु जैव विविधता प्रबंधन समितियों (BMCs) द्वारा पीपल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाए जाते हैं, जो समुदाय आधारित पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा में सहायक होते हैं।
न्यायिक परिप्रेक्ष्य:
भारतीय न्यायपालिका ने भी पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा के समर्थन में निर्णय दिए हैं, जैसे कि हल्दी और नीम जैसे मामलों में भारतीय वैज्ञानिक ज्ञान की मान्यता की पुष्टि की गई।
निष्कर्ष:
भारत में जैव विविधता अधिनियम, 2002 के माध्यम से पारंपरिक ज्ञान की रक्षा की प्रभावी व्यवस्था की गई है। यह कानून न केवल जैव संसाधनों के संरक्षण को बढ़ावा देता है, बल्कि स्थानीय और आदिवासी समुदायों के अधिकारों को भी मान्यता देता है। इस प्रकार, यह एक सशक्त विधिक साधन है जो पारंपरिक ज्ञान को बायो-पाइरेसी से बचाने और इसके लाभों के न्यायपूर्ण वितरण को सुनिश्चित करता है।