Constitutional Law-II Long Questions

-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-

प्रश्न 1. मौलिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं? इसकी न्यायोचितता को भी स्पष्ट करें। क्या मूल अधिकार एक निरपेक्ष अधिकार है? यह किसके विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है? What do you understand by Fundamental Rights? Explain its justifiability. Whether Fundamental Rights are absolute Right. Against whom these Fundamental Rights provide protections.

उत्तर- मूल अधिकार ऐसे आधारभूत अधिकार हैं जो व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं। इनके अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास सम्भव नहीं है।

      मूल अधिकारों की प्रकृति एवं महत्व का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती कहते हैं, “मूल अधिकारों का उद्गम स्वतन्त्रता का संघर्ष है। ये देश की जनता द्वारा वैदिक काल में संजोये गये आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये मानव अधिकारों के आधारभूत ढाँचे के आधार पर गारण्टी का एक ताना-बाना बुनते हैं और वैयक्तिक स्वाधीनता पर इसके विभिन्न आयामों में अतिक्रमण न करने की राज्य पर नकारात्मक बाध्यता अधिरोपित करते हैं।”

       न्यायमूर्ति बेग कहते हैं, मूल अधिकार ऐसे अधिकर हैं जो स्वयं संविधान में समाविष्ट हैं। इन अधिकारों को संविधान में समाविष्ट किये जाने का मुख्य उद्देश्य उन मूल्यों का संरक्षण करना है जो एक स्वतन्त्र समाज के लिए आवश्यक हैं।

       मूल अधिकार की न्यायोचितता के सन्दर्भ में ए० के० गोपालन बनाम स्टेट ऑफ मद्रास, ए० आई० आर० 1950 एस० सी० 27 के मामले में यह कहा गया है कि संविधान में मूल अधिकारों को समाविष्ट करने का एक कारण यह भी है कि विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होने पर भी सरकार इन अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकती है।

        इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मौलिक अधिकार सभ्य समाज के अस्तित्व का प्रतीक हैं। सभ्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ अधिकार अवश्य चाहता है, क्योंकि अधिकार उसकी गरिमा, उसके गौरव एवं विकास का द्योतक होता है। मौलिक अधिकारों से व्यक्ति का न केवल शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है अपितु इनसे व्यक्ति को समाज में एक विशिष्ट स्थान भी मिलता है।

        मौलिक अधिकारों का महत्व खास तौर से ऐसे देशों के लिए और भी अधिक होता है। जिन्होंने लम्बी दासता अथवा परतन्त्रता के बाद स्वतन्त्रता प्राप्त की हो।

        भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की कोई परिभाषा नहीं की गई है। संविधानों की परम्परा प्रारम्भ होने के पूर्व इन अधिकारों को प्राकृतिक और अप्रतिदेव अधिकार कहा जाता था। भारत में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० (1967) एस० सी० 1643 के मामले में न्यायधिपति सुब्बाराव ने इन अधिकारों को नैसर्गिक और अप्रतिदेव अधिका माना है।

       एम० नागराज बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० (2007) एस० सी० 71 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मूल अधिकारों के महत्व के विषय में यह कहा है कि मूल अधिकार नागरिकों को राज्य के द्वारा दान नहीं है। भाग 3 मूल अधिकार प्रदान नहीं करता है वरन् इस बात की पुष्टि करता है कि उनका अस्तित्व है और उन्हें संरक्षण प्रदान करता है। किसी संविधान के बिना भी व्यक्ति को मूल अधिकार प्राप्त है केवल इस कारण कि वे मनुष्य वर्ग (race) के सदस्य हैं।

      मूल अधिकारों का निलम्बन– मूल अधिकार आत्यन्तिक अधिकार नहीं हैं। इन अधिकारों के प्रयोग पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं। राज्य को यह अधिकार होगा। कि सार्वजनिक हित में नागरिकों के मूल अधिकारों को निलम्बित कर सके या उनके प्रयोग पर निर्बन्धन लगा सके। निम्न दशाओं में नागरिकों के मूल अधिकारों को निर्बन्धित अथवा निलम्बित किया जा सकता है-

(1) प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों के सम्बन्ध में (अनु० 33 )

(2) जब सेना-विधि लागू हो (अनु० 34 )

(3) संविधान में संशोधन द्वारा (अनु० 368)

(4) आपात् उद्घोषणा के अधीन (अनु० 352)

     मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध संरक्षण है- मूल अधिकारों का जन्म ही जनता और राज्य-शक्ति के बीच संघर्ष का परिणाम है। व्यक्ति अपने अधिकारों की सांविधानिक सुरक्षा राज्य-शक्ति के विरुद्ध ही आवश्यक समझता है। राज्य शक्ति के समक्ष वह कमजोर होता है। भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकार राज्य-शक्ति के विरुद्ध गारन्टी किये गये हैं न कि सामान्य व्यक्तियों के अवैध कृत्यों के विरुद्ध व्यक्तियों के अनुचित कृत्यों के विरुद्ध साधारण विधि में अनेक उपचार उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त वह दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उतना असहाय और अशक्त नहीं होता है जितना कि राज्य शक्ति के विरुद्ध ।

प्रश्न 2. मूल अधिकारों के प्रयोजन के लिए राज्य का क्या अर्थ है? क्या मूल अधिकार प्राइवेट व्यक्तियों, निगमों तथा सरकारी कम्पनियों के विरुद्ध उपलब्ध हैं? What is the meaning of state for the purpose of fundamental rights? Are fundamental rights available against private person, corporations and government companies?

उत्तर- भारतीय संविधान ने देश के प्रत्येक नागरिक को कुछ मूल (मौलिक अधिकार (fundamental rights) प्रदान किए हैं। ये अधिकार संविधान के भाग-3 में अन्तर्निहित हैं। ये अधिकार ऐसे आवश्यक अधिकार हैं जो व्यक्ति के सम्यक् बौद्धिक तथा व्यक्तिगत विकास के लिए अपरिहार्य हैं। जैसे समानता का अधिकार देश की परिसीमा में कहीं भी स्वतपूर्वक आवागमन का अधिकार, वामी तथा अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी पसन्द के धर्म पर विश्वास तथा आचरण का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, लोक नियोजन में बिना भेदभाव के चुने जाने का अधिकार संगठन बनाने का अधिकार, प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार संविधान में यह व्यवस्था है कि राज्य अपने कार्यकलापों द्वारा या विधि निर्माण के माध्यम से इन मूल अधिकारों का हरण नहीं कर सकता। ऐसा करने वाले राज्य के कार्य तथा विधियों असंवैधानिक घोषित की जा सकती है जिसके प्रभाव से इन कार्य तथा विधियों का प्रभाव शून्य हो जायेगा। मौलिक या मूल अधिकार प्रत्येक नागरिकों को राज्य के विरुद्ध प्राप्त है, मूल अधिकार राज्य के प्रति ऐसे दायित्व हैं जिनका राज्य द्वारा परिहरण नहीं किया जा सकता न ही राज्य इनका अतिलंघन कर सकता है।

       भूपेन्द्रनाथ हजारिका बनाम स्टेट ऑफ आसाम, ए० आई० आर० (2013) एस० to 234 के मामले में ‘राज्य’ के बारे में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि राज्य सी० एक आदर्श नियोजक है। उसे ऋजुता से कार्य करना चाहिये तथा अपने द्वारा बनाये गये नियमों का सम्मान करना चाहिये। उसे विश्वास का भाव सुनिश्चित करना चाहिये।

      संविधान का अनुच्छेद 12 यह स्पष्ट करता है कि मौलिक या मूल अधिकारों के सन्दर्भ में राज्य का क्या तात्पर्य है। अनुच्छेद 12 यह स्पष्ट करता है कि राज्य के अन्तर्गत कौन-सी इकाइयाँ सम्मिलित हैं। अनुच्छेद 12 राज्य शब्द की विस्तृत परिभाषा देता है। इस परिभाषा के अनुसार “राज्य के अन्तर्गत भारत की सरकार एवं संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार तथा विधान मण्डल तथा भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के अधीन (नियंत्रण) में सभी स्थानीय तथा अन्य प्राधिकारी हैं। इस प्रकार राज्य के अन्तर्गत निम्न को सम्मिलित किया गया है-

(1) भारत सरकार तथा भारत की संसद (Government of India and Indian Parliament);

(2) राज्य सरकार तथा राज्य को विधान सभाएँ (State Government and Legislature of State);

(3) स्थानीय प्राधिकारी (Local Authorities);

(4) अन्य प्राधिकारी (Other Authorities).

(1) भारत सरकार तथा भारत की संसद (Govt. of India and Indian Parliament) – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत दी गई परिभाषा में भारत सरकार तथा भारतीय संसद को सम्मिलित किया गया है अर्थात् मूल अधिकार भारत की सरकार तथा भारतीय संसद के विरुद्ध उपलब्ध है। इसका अर्थ है कि भारत की सरकार ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकती जिससे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का अपहरण हो। इसी प्रकार भारतीय संसद ऐसी कोई विधि नहीं बना सकती जिससे मौलिक अधिकार प्रतिहरित हो या कम हो।

(2) राज्य सरकार तथा विधान मण्डल (State Govt. and Legislative of State) – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12 राज्य सरकारों तथा राज्य विधान मण्डल को राज्य की परिभाषा में सम्मिलित करता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को राज्य सरकार तथा राज्य विधान मण्डल के विरुद्ध मौलिक अधिकार प्रत्याभूत (Guaranteed) किये गये हैं। इस प्रकार राज्य सरकार के कोई कार्य या राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित कोई विधि यदि मूल अधिकारों का अविलंघन या अतिक्रमण करती है, छीनती है या कम करती है तो यह असंवैधानिक होने के कारण शून्य होगी।

(3) स्थानीय प्राधिकारी – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 में स्थानीय प्राधिक शब्दावली को परिभाषित नहीं किया गया है। सिर्फ इस बात का उल्लेख है कि राज्य के अन्तर्गत स्थानीय प्राधिकारी सम्मिलित है। अतः स्थानीय प्राधिकारी कौन है यह विभिन्न न्यायिक विनिश्वयों द्वारा स्पष्ट किया गया है। विभिन्न न्यायिक निर्णयों में नगरपालिकाएँ जिला परिषद्, ग्राम पंचायत, इम्प्रूवमेण्ट ट्रस्ट, माइनिंग सेटलमेन्ट बोर्ड आदि संस्थाओं को स्थानीय प्राधिकारी (local authorities) के रूप में मान्यता दी गई है। मुहम्मद यासीन बनाम टाउन एरिया कमेटी, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 115 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका को अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य शब्द के अन्तर्गत स्थानीय प्राधिकारी के रूप में मान्यता दी।

(4) अन्य प्राधिकारी (Other Authorities)—भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12. राज्य में स्थानीय प्राधिकारी के अतिरिक्त अन्य प्राधिकारियों को सम्मिलित करता है। अन्य प्राधिकारी शब्दावली को अनुच्छेद 12 में परिभाषित नहीं किया गया है। अन्य प्राधिकारी की सूची लम्बी हो सकती है। यह स्मरणीय है कि अन्य प्राधिकारी इस अनुच्छेद के सन्दर्भ में भारत सरकार के नियन्त्रण में अथवा भारतीय राज्य क्षेत्र में स्थित हो। विद्युत परिषद् राजस्थान बनाम मदन लाल, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 542 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अन्य प्राधिकारी के अन्तर्गत वे सभी प्राधिकारी सम्मिलित हैं जो किसी विधि द्वारा सृजित हों तथा जिन्हें विधि द्वारा शक्तियाँ प्रदान की गई हों। यह आवश्यक नहीं है कि वे राजकीय अथवा सम्प्रभु से सम्बन्धित कार्यों का निष्पादन करते हों। इस बाद में उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान विद्युत परिषद् को अन्य प्राधिकारी मानते हुए इसे राज्य निर्णीत किया तथा कहा कि इसके विरुद्ध मौलिक अधिकार उपलब्ध है। इसी प्रकार रोहतास उद्योग लि० बनाम अध्यक्ष, बिहार विद्युत परिषद् (1984) सप्लीमेण्टरी एस० सी० सी० 161) नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने विद्युत परिषद् को अन्य प्राधिकारी निर्णीत करते. हुए राज्य माना दुक्खुराम बनाम कोऑपरेटिव एग्रीकल्चर एसोसिएशन, ए० आई० आर० 1961 एम० पी० 289 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कोऑपरेटिव सोसायटी एक्ट 1961 के अन्तर्गत सृजित कोऑपरेटिव सोसाइटी को अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य माना। परमात्मा शरन बनाम मुख्य न्यायाधीश, ए० आई० आर० 1964 राजस्थान 13 नामक वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य स्वीकार किया। अन्य प्राधिकारी भारतीय परिक्षेत्र के बाहर भी हो सकते हैं। परन्तु इन पर भारत सरकार का नियन्त्रण आवश्यक है। सोम प्रकाश रेखी बनाम भारत संघ, (1981) एस० सी० सी० 449 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय पेट्रोलियम लिमिटेड को राज्य माना।

      रमन्ना दयाराम शेट्टी बनाम अन्तर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (1979) सु० को० 1628 नामक बाद में यह निर्णय दिया गया कि एक विधिक व्यक्ति, जैसे विधिक निगम (legal corporation), सरकारी कम्पनी (Govt. Company) तथा पंजीकृत सोसाइटी सरकार की अभिकर्त्ता तथा अभिकरण हैं तथा अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत अन्य प्राधिकारी होने के कारण राज्य के इस बाद में निर्णय दिया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट अथारिटी, 1971 के अन्तर्गत स्थापित इन्टरनेशनल एयरपोर्ट अथारिटी संविधान के अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य है।

         उपरोक्त मामले में यह निर्धारण करने के लिए कि कोई निगम राज्य की परिभाषा में आता है या नहीं तथा वह निगम सरकारी अभिकरण है या नहीं उसे निम्न कसौटियाँ पूरी करनी होंगी-

(1) निगम या निकाय का स्रोत क्या है? इसका सृजन कैसे हुआ है? निगम की सम्पूर्ण पूँजी राज्य धारित किये हैं या नहीं?

(2) क्या निगम की कार्य प्रकृति (nature of function) सार्वजनिक महत्व की है तथा निगम अभिन्न रूप से राज्य से सम्बन्धित है।

(3) क्या कोई राजकीय विभाग निगम को हस्तान्तरित किया गया है?

(4) क्या राज्य का निकाय या निगम पर व्यापक नियन्त्रण है?

(5) क्या निगम को एकाधिकार की स्थिति प्राप्त है जो राज्य प्रदत्त तथा राज्य संरक्षित है।

       यदि उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर किसी निगम के सन्दर्भ में सकारात्मक है तो वह निगम अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य की परिभाषा में आएगा। न्यायालय ने उपरोक्त बाद में स्पष्ट किया कि उपरोक्त कसौटियाँ अन्तिम नहीं हैं ये उदाहरणात्मक हैं।

      कुछ निकायों को विभिन्न निर्णयों में राज्य माना गया है। इसकी उदाहरणात्मक सूची निम्न हैं-

(1) उत्तर प्रदेश राज्य भण्डार निगम-उत्तर प्रदेश पेपर हाउसिंग कारपोरेशन बनाम विजय नारायण, ए० आई० आर० 1980 सु० को० 840.

(2) सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1898 के अधीन पंजीकृत सोसाइटी-सोम प्रकाश बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1981 सु० को ० 212.

(3) सहायता प्राप्त विद्यालय जो 95 प्रतिशत सरकारी सहायता प्राप्त करते हैं-मनोहर सिंह जेतला बनाम आयुक्त केन्द्रीय राज्य क्षेत्र चण्डीगढ़ ए० आई० आर० 1986 सु० को० 1571.

(4) भारतीय खाद्य निगम-कर्मकार बनाम भारतीय खाद्य निगम, ए० आई० आर० 1985 सु० को० 670.

(5) एन० सी० ई० आर० टी० राज्य नहीं है-चन्द्रमोहन खन्ना बनाम एन० सी० ई० आर० टी० ए० आई० आर० 1992 पटना।

(6) शिक्षण संस्थाएँ तथा विश्वविद्यालय राज्य है-उमेश चन्द्र बनाम बी० एन० सिंह, ए० आई० आर० 1968 पटना।

       क्या निगम राज्य हैं? उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि निगम राज्य हैं। यदि – (1) इनका सृजन संसद या विधान मण्डल द्वारा पारित किसी अधिनियम के अन्तर्गत हुआ है। (2) इनका नियन्त्रण सरकार के हाथ में है। (3) ये सरकार के अधिकरण के रूप में कार्य कर रहे हैं तथा सरकार इनकी पूँजी को धारण करती है।

     प्राइवेट व्यक्ति – प्राइवेट व्यक्ति अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य की परिभाषा में नहीं आएंगे जब तक उन्हें किसी विधि द्वारा कुछ विधिक अधिकार प्रदान न किया गया हो।

     सरकारी कम्पनियाँ – सरकारी कम्पनियाँ निश्चित ही अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत अन्य प्राधिकारी होने के कारण राज्य हैं। यदि इनकी पूँजी तथा कार्यकलाप केन्द्रीय या राज्य सरकारों के अधीन है।

       एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० (1987) 1 एस० सी० सी० 395 नामक बाद में यह प्रश्न था कि क्या प्राइवेट कम्पनी या निगम अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य है? उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर तो नहीं दिया परन्तु विचार व्यक्त किया कि प्राइवेट कम्पनियाँ तथा प्राइवेट निगमों को अनुच्छेद-12 के अन्तर्गत राज्य माना जाना चाहिए।

       जी बस्सी रेड्डी बनाम इण्टरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इन्स्टीट्यूट, ए० आई० आर० 2003 सु० को० 1764 नामक बाद में प्रश्न यह था कि भारत सरकार का CRISAT राज्य है अथवा नहीं उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नहीं क्योंकि इसमें सरकार का वित्तीय अंशदान सबसे कम धन का है और प्रशासन 3 सदस्यों तक ही सीमित है।

     डॉ० अक्षय टिक्कू बनाम श्री माता वैष्णों देवी यूनिवर्सिटी, ए० आई० आर० ((2015) जम्मू एण्ड कश्मीर 96 के मामले में जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा श्री माता वैष्णों देवी विश्वविद्यालय को ‘राज्य’ नहीं माना गया है लेकिन उसके विरुद्ध संस्थित रिट याचिका को संधारण योग्य ठहराया गया है। 1764 नामक वाद में

प्रश्न 3. निम्न संवैधानिक सिद्धान्तों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें-

(i) आच्छादन का सिद्धान्त।

(ii) छद्य विधायन का सिद्धान्त।

(iii) पृथक्करणीयता का सिद्धान्त।

(iv) सारतत्व का सिद्धान्त।

(v) अभित्यजन का सिद्धान्त।

Write short notes on the following Constitutional doctrines-

(i) Doctrine of eclipse.

(ii) Doctrine of colourable legislation.

(iii) Doctrine of separabllity.

(iv) Doctrine of pith and substance.

(v) Doctrine of Waiver.

उत्तर- (i) आच्छादन का सिद्धान्त (Doctrine of eclipse) – आच्छादन का सिद्धान्त संविधान के अनुच्छेद 13 खण्ड (1) से सम्बन्धित है। अनुच्छेद 13 खण्ड (1) के अनुसार, इस संविधान के लागू होने से ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में उस सीमा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग (भाग-3 मूलाधिकार) के उपबन्धों से असंगत प्रवृत्त सभी विधियों हैं। संविधान लागू होने से पूर्व भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकार (fundamental rights) उपलब्ध नहीं थे। संविधान का अनुच्छेद 13 खण्ड (1) संविधान से पूर्व निर्मित विधियों को शून्य नहीं बनाता। ये विधियाँ यथावत् बनी रहेंगी परन्तु उनका वह अंश अप्रभावी या शून्य होने से निरस्त समझा जायेगा जितना संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों से प्रभावित है। संविधान से पूर्व निर्मित विधियों उन पर मूल अधिकारों की छाया या ग्रहण की सीमा तक अप्रभावी होंगी। संविधान लागू होने के पश्चात् संविधान से पूर्व लागू विधियों पर मौलिक अधिकारों का ग्रहण (छाया) लग जाता है तथा ये विधियाँ इस ग्रहण (eclipse) या छाया की सीमा तक निष्प्रभावी समझी जायेंगी। अनुच्छेद 13 (1) संविधान पूर्व निर्मित विधियों को पूरी तरह निष्प्रभावी नहीं बनाता परन्तु उनके मूल अधिकारों से प्रभावी होने की सीमा तक निष्प्रभावी बना देता है। ऐसी विधियाँ प्रारम्भ से निष्प्रभावी या शून्य नहीं होतीं परन्तु संविधान पूर्व अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों के निमित्त जीवित रहते हैं। यदि संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान पूर्व प्रवृत्त विधियों पर से छाया या ग्रहण उठा लिया जाता है तो ये विधियाँ जीवित हो उठती हैं।

       उपरोक्त सिद्धान्त को भीखाजी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1955 सु० को० 781 के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है। इस मामले में एक संविधान पूर्व अधिनियम (बरार मोटर अधिनियम, 1947) राज्य को मोटर व्यापार को अधिग्रहीत करने की शक्ति प्रदान करता था। अधिनियम जब बना था, विधिमान्य था परन्तु संविधान लागू होने के पश्चात् वह इस आधार पर शून्य हो गया कि वह अनुच्छेद 19 (1) (घ) में प्रदत्त जीविका, पेशा या व्यापार या वाणिज्य करने के मूल अधिकार का अतिक्रमण करती थी, परन्तु सन् 1951 में संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 (1) में संशोधन कर राज्य को किसी व्यापार में एकाधिकार सृजित करने की शक्ति दी गई।

      उच्चतम न्यायालय के अनुसार इस संविधान पूर्व अधिनियम पर संविधान के अनुच्छेद- 19 (1) (घ) की छाया या ग्रहण लग गया तथा यह निष्प्रभावी हो गई थी। परन्तु ज्यों ही सन् 1951 में संविधान में संशोधन कर उस छाया को दूर कर दिया गया, वह विधि पुनर्जीवित हो उठी।

     यह सिद्धान्त संविधान प्रवृत्त होने के पश्चात् निर्मित असंवैधानिक विधि पर लागू नहीं होता। यह सिद्धान्त वहीं प्रयुक्त होता है जहाँ प्रश्नगत् विधि निर्माण के समय संवैधानिक थी परन्तु पश्चात्वर्ती परिस्थितियों में उत्पन्न अयोग्यताओं के कारण दूषित हो गई हो। यदि कोई विधि अपने निर्माण के समय हो असंवैधानिक हो तो उसे पश्चात्वर्ती संविधान संशोधन द्वारा वैधता प्रदान नहीं की जा सकती।

       सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1954 सु० को० 728 नामक मामले में उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन अधिनियम, 1951 को अनुच्छेद 19 (1) (घ), 31 (2) तथा 14 एवम् अनुच्छेद 301 के अतिक्रमण के आधार पर चुनौती दी गई थी। यह एक संविधान के पश्चात् निर्मित विधि थी। उच्चतम न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि इस असंवैधानिक विधि को किसी संविधान संशोधन द्वारा संवैधानिक नहीं बनाया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने कूली की प्रस्तुति Constitutional limitation को उद्धरित किया जो निम्न है – A statute void for unconstitutionality cannot be vitalised by subsequent amendment of the Constitution remaining constitutional objections but must be re-amended.

(ii) छद्य विधायन का सिद्धान्त (Doctrine of Colourable Legislation)— हमारा संविधान केन्द्र तथा राज्य विधान मण्डलों के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन करता है। प्रथम अनुसूची के अन्तर्गत उल्लिखित विषयों पर संसद को अधिनियम बनाने का अधिकार है तथा द्वितीय सूची में उल्लिखित विषयों पर राज्य विधान मण्डल विधि बना सकता है। किसी विधि की संवैधानिकता को इस आधार पर भी चुनौती दी जा सकती है कि क्या संसद या राज्य विधान मण्डल ने विधि बनाने में अपनी विधायी शक्तियों का अतिक्रमण तो नहीं किया है। विधायी शक्तियों का अतिक्रमण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से हो सकता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि यद्यपि विधान मण्डल किसी विधि को बनाने में ऊपरी तौर पर (प्रत्यक्षतः) अपनी शक्तियों के भीतर कार्य करता है तथापि यथार्थ में अप्रत्यक्षतः अपनी संवैधानिक विधायी शक्ति का अतिक्रमण करता है। इस प्रकार के परोक्ष या अप्रत्यक्ष विधायन को विधायन कहते हैं। ऐसे मामले में अधिनियम या विधि के ऊपरी प्ररूप का महत्व न होकर महत्व उस अधिनियम के सार (substance) का होता है। ऐसे विधायन से ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि विधान मण्डल ने अपनी विधायी शक्तियों के अन्तर्गत ही कार्य किया है परन्तु यदि विधायन का सार या विधायन के उद्देश्य तथा सार (substance) की जांच की जाय तो यह विदित होता है कि विधायिका ने उस विषय पर विधि का निर्माण किया है जिस पर विधि बनाने का उसे अधिकार नहीं था। इस प्रकार यदि विधायन की विषयवस्तु सारतः उस विधान मण्डल की शक्ति से बाहर है तो उसका बाह्य स्वरूप उसे न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने से नहीं बचा सकता क्योंकि विधान मण्डल कोई अप्रत्यक्ष या परोक्ष तरीका अपनाकर संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता।

      इस सिद्धान्त का आधार यह है कि जो कार्य विधानमण्डल प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता है वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कर सकता। यह सम्पूर्ण सिद्धान्त सम्बन्धित विधान निर्माता को सक्षमता के इस प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या वह विधान मण्डल उस विधान निर्माण हेतु सक्षम था।

       कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 252 नामक वाद इस बिन्दु पर महत्वपूर्ण है। इस मामले में बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 द्वारा जमींदारों की भूमि अधिग्रहीत कर ली गई थी। इस अधिनियम के अन्तर्गत जमींदारों को अधिग्रहण के बदले में प्रतिकर देने की व्यवस्था थी। इस अधिनियम की धारा 4 (ख) राज्य को अधिकृत करती थी कि वह जमींदारों को उनकी जमींदारी के अभिग्रहण के पूर्व मिलने वाले लगान का आधा हिस्सा बिना क्षतिपूर्ति के स्वयं अवाप्त कर ले। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया क्योंकि इसमें ऊपरी तौर पर यह लगता था कि जमींदारों को प्रतिकर मिल रहा है परन्तु वास्तव में जमींदारों को किसी प्रकार का प्रतिकर प्राप्त नहीं होता था तथा प्रतिकर के अभाव में जमींदारों की भूमि का अधिग्रहण असंवैधानिक था। इस अधिनियम के अनुसार, जमीन अधिग्रहण से पूर्व जमींदारों का बकाया लगान पूरा का पूरा राज्य में निहित होना था तथा इसी धनराशि में से आधा जमींदारों को प्रतिकर के रूप में दिया जाना था। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पूरा लेकर उसमें से आधा वापस करने का अर्थ है कि कुछ नहीं दिया गया। (Taking of full and giving of half is giving of none)

       आर० एस० जोशी बनाम अजित मिल्स लिमिटेड, ए० आई० आर० 1977 सु० को० 1279 नामक बाद में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा, “उद्यता का तात्पर्य असमता से है। कोई वस्तु छद्यमय तब कही जाती है जब उसे उस रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिस रूप में वह वास्तव में नहीं होती। भारतीय शब्दों में इसे माया कहते हैं। शक्ति विपणन विधिशास्त्र में छद्म क्रियान्वयन अथवा विधायी शक्तियों के साथ छल या संविधान के साथ छल का तात्पर्य यह है कि अक्षमतापूर्ण स्थिति में रहते हुए भी ऐसी विधि का निर्माण करना मानो उसे निर्मित करने की शक्ति उसे थी। यह छद्य विधायन है।

(iii) पृथक्करणीयता का सिद्धान्त (Doctrine of Separability) – जब किसी अधिनियम का कोई अंश असंवैधानिक होता है तब यह प्रश्न उठता है कि क्या उस पूरे अधिनिमय को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया जाय या केवल उसके उसी भाग को अवैध घोषित किया जाय जो संविधान के उपबन्धों से असंगत (inconsistence) है। ऐसे मामलों को निपटाने के लिए न्यायालय ने पृथक्करणीयता का सिद्धान्त (doctrine of separability) प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, यदि किसी अधिनियम का अवैध या असंवैधानिक भाग उसके शेष भाग से बिना विधान मण्डल के आशय अर्थात् अधिनियम के मूल उद्देश्य को समाप्त किये बिना पृथक् किया जा सकता है तो वही भाग जो मूल अधिकारों से असंगत है, अवैध घोषित किया जायेगा तथा पूरे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित नहीं किया जायेगा। दूसरे अर्थों में यदि किसी अधिनियम का अवैध या असंवैधानिक अंश पूरे अधिनियम से इस अधिनियम के उद्देश्य या आशय को प्रभावित किये बिना पृथक्करणीय (separable) है तो उस अधिनियम के असंवैधानिक अंश को ही अवैध घोषित किया जायेगा तथा प्रश्नगत अधिनियम का शेष भाग अप्रभावित रहते हुए संवैधानिक माना जायेगा। संविधान के अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त ‘असंगति या विरोध की सीमा तक’ (to the extent of inconsistency and contravention) वाक्यांश से यह स्पष्ट है कि किसी अधिनियम के केवल वे भाग ही अवैध घोषित किये जायें जो मूल अधिकारों से असंगत हैं या विरोध में है, सम्पूर्ण अधिनियम नहीं।

        ए० के० गोपालन बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1950 सु० को० 27 नामक वाद में निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 14 द्वारा किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की वैधता की जाँच की शक्ति न्यायालय से ले ली गई थी। उच्चतम न्यायालय ने उक्त अधिनियम की धारा 14 को अवैध घोषित किया तथा कहा कि अधिनियम की धारा 14 निकाल दी जाय (पृथक् कर दी जाय तो अधिनियम के उद्देश्य या आशय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः अधिनियम की धारा 14 को अवैध घोषित कर देने से अधिनियम की विधिमान्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अधिनियम में से धारा 14 पृथक्करणीय है। अतः उसको असंवैधानिक घोषित कर दिये जाने से अधिनियम की विधिमान्यता अप्रभावी रहेगी तथा अवशिष्ट अधिनियम वैध होगा।

        परन्तु यदि अधिनियम का वैध भाग, अवैध भाग से इस प्रकार जुड़ा है कि अवैध भाग निकाल देने से अधिनियम का पूरा उद्देश्य विफल हो जायेगा अर्थात् शेष भाग का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रह जाता तो न्यायालय पूरे अधिनियम को अवैध घोषित कर देगा। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1950 सु० को० 124 नामक बाद में न्यायालय ने कहा कि जहाँ वैध तथा अवैध भाग को पृथक करना सम्भव नहीं है, वहाँ पूरे अधिनियम को अवैध घोषित कर दिया जायेगा।

(iv) सारतत्व का सिद्धान्त (Doctrine of Pith and Substance)- जहाँ एक राज्य विधान मण्डल द्वारा निर्मित विधि दूसरे विधान मण्डल के क्षेत्र में अतिक्रमण करती है। तो यह प्रश्न उठता है कि यदि विधि, उसे निर्मित करने वाले विधान मण्डल की विधायी शक्ति के अन्तर्गत है या नहीं। ऐसी परिस्थिति में विधायी शक्ति का निर्धारण करने के सम्बन्ध में न्यायालयों द्वारा सारतत्व के सिद्धान्त (doctrine of pith and substance) का विकास किया गया। प्रायः अधिनियमों में ऐसे उपबन्ध होते हैं जो आनुषंगिक रूप से (incidentally) दूसरे विधान मण्डल के विधान विषयों का अतिक्रमण करते हैं। यदि शाब्दिक व्याख्या की जाय तो ऐसे विधायन अवैध हो जायेंगे किन्तु यदि विधान (अधिनियम) सारवान रूप से (substantially) या यदि विधान का वास्तविक उद्देश्य ऐसे विषय से सम्बन्धित है जिस पर वह विधान मण्डल विधि बनाने में सक्षम है तो ऐसे विधायन या अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया जायेगा। भले ही वह दूसरे विधान मण्डल के. अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय पर आनुषंगिक रूप से अतिक्रमण करता है। उस विधान या अधिनियम की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप का पता लगाने के लिए पूरे अधिनियम पर विचार किया जायेगा तथा उसके उद्देश्य और विस्तार तथा उसके उपबन्ध के प्रभाव की जाँच की जायेगी।

      इस बिन्दु पर बम्बई राज्य बनाम बलसारा, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 318 नामक वाद उल्लेखनीय है। इस मामले में बम्बई राज्य ने बाम्बे मादक द्रव्य निषेध अधिनियम अधिनियमित किया जिसके द्वारा राज्य में मादक द्रव्यों को खरीदने तथा रखने का निषेध किया गया था। इस अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह संघ सूची में उल्लिखित विषय “मादक द्रव्यों” के आयात-निर्यात पर था अतः यह विधायी क्षेत्र का अतिक्रमण कर बनाया गया अधिनियम होने के कारण असंवैधानिक था। उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि चूँकि अधिनियम का सारतत्व राज्य सूची के विषय से सम्बन्धित था; अतः अधिनियम पूर्ण रूप से संवैधानिक था।

       इस प्रकार यदि कोई विधि अधिकार क्षेत्र के बाहर बनाई गई तो यदि अधिनियम का सार तत्व विधान (अधिनियम) निर्माण करने वाले विधान मण्डल के अधिकार क्षेत्र में है तो ऐसे विधायन को असंवैधानिक नहीं माना जा सकता।

         इस प्रकार न्यायालय सारतत्व के सिद्धान्त उस समय प्रयुक्त करता है जब यह देखता है। कि कोई विधि जो किसी सूची के किसी एक विषय से सम्बन्धित है, किसी दूसरी सूची के किसी विषय का अतिक्रमण कर रही है। इस स्थिति में न्यायालय उस विषय की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप अथवा उसके सारतत्व को जान कर उसकी वैधानिकता का निर्धारण करता है। यदि न्यायालय अपने परीक्षण में पाता है कि विधि अपने सारतत्व में उसी विषय से सम्बन्धित है, जिस पर वह निर्मित की गई है मात्र आनुषंगिक ढंग से वह दूसरी सूची के विषय के किसी विषय का अतिक्रमण कर रही है तो उस विधि को संवैधानिक उद्घोषित करता है।

(v) अभित्यजन का सिद्धान्त (Doctrine of Waiver)- भारतीय संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कोई नागरिक उन अधिकारों का अभित्यजन (waiver) कर सकता है? कोई भी नागरिक संविधान द्वारा प्रदत्त अपने मौलिक अधिकारों का अभित्यजन नहीं कर सकता।

        विवेश्वरनाथ बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स, ए० आई० आर० 1955 सु० को० 123 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति पी० एम० भगवती ने कहा कि किसी भी स्थिति में भारत में ऐसा नियम लागू नहीं किया जा सकता जो भाग-3 में प्रदत्त मूल अधिकारों को नष्ट कर दे। न्यायमूर्ति के० सुब्बाराव ने भी अभित्यजन के सिद्धान्त के विपरीत यह अभिमत व्यक्त किया कि संविधान के भाग-3 में प्रदत्त मूल अधिकारों के अभित्यजन को किसी भी नागरिक को छूट नहीं है। परन्तु उसके विपरीत न्यायमूर्ति एस० के० दास का मत था कि यदि संविधान किसी व्यक्ति को अधिकार या सुविधा उसी के लाभ के लिए देता है तो वह व्यक्ति अपने उस अधिकार या सुविधा का अभित्याग कर सकता है। परन्तु अभित्याग तभी स्वीकार होगा जब ऐसे अभित्याग से किसी अन्य व्यक्ति का अधिकार प्रभावित न हो तथा उसका अभित्याग न तो किसी विधि द्वारा वर्जित हो न ही लोक नीति व लोक नैतिकता के विपरीत हो।

प्रश्न 4. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 ‘समता के अधिकार’ (Rights of Equality) को स्पष्ट कीजिए। क्या वर्गीकरण समता के अधिकार के विरुद्ध हैं? क्या संसद ऐसी विधि निर्मित कर सकती है जो व्यक्ति विशेष पर लागू होती है? उचित उदाहरण देकर समझायें। Explain the Rights of Equality guaranteed under Article 14 of the Constitution. Is classification against Rights of Equality? Can Parliament enact a law which is applicable for a particular person i.e. can a single individual be regarded as class? Explain with the help of appropriate example.

उत्तर- भारत के संविधान की प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति को समता का अधिकार प्रतिभूत किया गया है। भारतीय संविधान में समाजवादी शासन व्यवस्था को मान्यता दी गई है। स्वतन्त्रता के पूर्व विद्यमान सामन्ती व्यवस्था का, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान के लागू होते ही; अन्त हो गया। अब यह सुनिश्चित किया गया कि विधि के समक्ष सभी व्यक्ति समान होंगे। लिंग, जाति, वंश, धर्म तथा जन्म-स्थान के आधार पर विभेद करने की बात अब अतीत की हो गई है। भारतीय संविधान में समता के अधिकार अनुच्छेद 14 से 18 तक में निहित हैं। परन्तु अनुच्छेद 14 में ही समता के अधिकार को देखा जा सकता है। अनुच्छेद 15, 16, 17 तथा 18 में निहित प्रावधान अनुच्छेद 14 में निहित समता के अधिकार के सामान्य नियम के विशिष्ट उदाहरण हैं।

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को किसी विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा। मानवाधिकार घोषणा-पत्र का अनुच्छेद यह कहता है कि विधि के समक्ष सभी समान हैं तथा बिना किसी विभेद के सभी विधि के संरक्षण के अधिकारी हैं। अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत दो शब्दावलियों का उल्लेख है-

(1) विधि के समक्ष समता (equality before law); तथा (2) विधियों का समान संरक्षण (equal protection of law)।

       पहली शब्दावली विधि के समक्ष समता ब्रिटिश संविधान से लिया गया है जबकि दूसरा वाक्यांश विधियों का समान संरक्षण (equal protection of law) अमेरिका के संविधान से लिया गया है।

          इस व्यवस्था को न केवल नागरिकों पर अपितु सभी प्रकार के व्यक्तियों पर लागू किया गया है, चाहे वह निगम आदि विधिक व्यक्ति ही क्यों न हो। डॉ० सुब्रहमन्यम् स्वामी बनाम डायरेक्टर, सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन, ए० आई० आर० (2014) एस० सी० 2140 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि विधि के शासन का उल्लंघन किसी विधायन की अविधिमान्यता का आधार हो सकता है। विधि के शासन का उल्लंघन संविधान के अनुच्छेद 14 में विहित समता के मूल अधिकार को नकारने के तुल्य है।

         विधि के समक्ष समता (Equality before Law) – विधि के समक्ष समता जो कि ब्रिटिश संविधान से लिया गया है। प्रसिद्ध विधिशास्त्री प्रो० ए० वी० डायसी के अनुसार इंग्लैण्ड में विधि का शासन है व्यक्ति या व्यक्तियों का नहीं। विधि का शासन (rule of law) का अर्थ है कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे उसकी अवस्था या पद कुछ भी हो देश की समान विधियों के अधीन है तथा साधारण न्यायालयों के भीतर हैं। राष्ट्रपति से लेकर निर्धन से निर्धन, सामान्य व्यक्ति समान विधि के अधीन है तथा पद, योग्यता, लिंग, जाति, धर्म तथा वंश के आधार के मध्य विभेद (discrimination) नहीं किया जायेगा। विधि की दृष्टि में सभी व्यक्तियों की समान स्थिति है। राज्य यदि व्यक्तियों में उनके पद, स्थिति, लिंग, धर्म, जाति या वंश के आधार पर विभेद करती है, असमान व्यवहार करती है तो इससे प्रत्येक व्यक्ति को संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है।

      विधि के समक्ष समता (equality before law) का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच पूर्ण समानता से नहीं है क्योंकि ऐसा व्यवहारतः सम्भव भी नहीं है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्तियों को लाभ देने में विभेद नहीं किया जा सकता। इसका तात्पर्य है समान परिस्थिति वाले प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करना अर्थात् समान परिस्थितियों में समान विधि को लागू करना। प्रसिद्ध विधिशास्त्री आइवर जेनिंग्स के अनुसार “विधि के समक्ष समता का तात्पर्य यह है कि समान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों के बीच समान विधि होनी चाहिए और समान रूप से लागू होनी चाहिए तथा एक तरह के व्यक्तियों के साथ एक तरह का व्यवहार होना चाहिए। समान अवस्था (स्थिति) के व्यक्तियों पर समान परिस्थितियों में अभियोजन चलाते समय समानता का व्यवहार होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो विधि के समक्ष समानता का अर्थ है विभेदकारी आचरण व्यवहार (पर प्रतिबन्ध) का अन्त।”

      विधि के समान संरक्षण का सिद्धान्त (Principle of Equal Protection of Law)- ‘विधियों के समान संरक्षण’ की अवधारणा से तात्पर्य है समान परिस्थितियों के लिए समान विधि हो तथा उसे सब पर एक समान लागू किया जाय। किसी विधि को किसी व्यक्ति या व्यक्तियों पर लागू करते समय विभेद या असमान व्यवहार न किया जाय। विधियों के प्रवर्तन ने वंश, धर्म, जाति तथा सामाजिक प्रतिष्ठा को आधार मानकर भेदभाव न किया जाय। यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, लिंग या अवस्था (status) का व्यक्ति हो, चाहे वह जिस भी पद को धारण करता हो उस पर भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों के अन्तर्गत कार्य करते समय भेदभाव किए बिना समान व्यवहार किए जायें।

        विधि के समान संरक्षण की अवधारणा अमेरिकन संविधान से ली गई है। अनुच्छेद 14 में उल्लिखित विधि के समान संरक्षण का अधिकार अमेरिकन संविधान के 14वें संशोधन द्वारा प्रदत्त अधिकार के समान है। इसका यही अर्थ है कि समानों के साथ समान विधि लागू की जाय न कि असमानों के साथ समान विधि लागू करनी चाहिए।

       अनुच्छेद 14 में निहित समानता का अधिकार भारतीय संविधान का आधारभूत ढाँचा है तथा उसे अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संसद द्वारा संशोधन करके नष्ट नहीं किया जा सकता।

        अनुच्छेद 14 मनमानेपन ( arbitrariness) के विरुद्ध संरक्षण है अर्थात् यदि राज्य का कार्य मनमाना (arbitrary) है तो यह समता का अतिक्रमण होगा। विधियों का समान संरक्षण का तात्पर्य है यदि कोई विधि नागरिकों को संरक्षण प्रदान करती है तो इसका लाभ सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होना चाहिए। किसी विधि के संरक्षण से किसी व्यक्ति को लिंग, जाति, वंश, अवस्था तथा धर्म के आधार पर मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जा संकता ।

        भारत जनरल एण्ड टैक्सटाइल इण्डस्ट्रीज लि० बनाम चीफ ऑफिसर म्युनिसिपल कौंसिल, मल्कपुर, ए० आई० आर० (2015) एन० ओ० सी० 1274 बम्बई के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ किसी औद्योगिक उपक्रम को आक्ट्राय ड्यूटी से मुक्ति या रियासत प्रदान की गई हो, वहाँ सम्बन्धित उपक्रमों को सुनवाई का अवसर दिये बिना अचानक ऐसी आक्ट्राय ड्यूटी से मुक्ति या रिसायत के आदेश को वापस नहीं लिया जा सकता है।

       समानता के सिद्धान्त का अपवाद – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता का नियम आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। इसके भी कई अपवाद हैं, जो विभिन्न श्रेणियों के विशिष्ट व्यक्ति को प्राप्त उन्मुक्तियों तथा विशेषाधिकारों के रूप में विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए विदेशी कूटनीतिज्ञों को भारतीय न्यायालय की अधिकारिता से उन्मुक्ति (immunity) प्राप्त हैं। संविधान के अनुच्छेद 361 के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति, प्रदेशों के राज्यपालों, लोक अधिकारियों, न्यायालयों के न्यायाधीशों तथा भूतपूर्व राज्यों के नरेशों को कुछ विशेषाधिकार तथा उन्मुक्ति प्राप्त हैं। ऐसा उनकी विशेष स्थिति, विशेष पद तथा विशेष उत्तरदायित्व के कारण किया गया है। परन्तु समान अवस्था (status) के व्यक्तियों में किसी विधि को लागू करने का भेदभाव नहीं किया जा सकता है।

       ‘संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत प्रतिभूत (guaranteed) समानता का अधिकार नागरिक तथा अनागरिक दोनों को प्राप्त है। चूँकि अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत नागरिक शब्द के स्थान पर व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः इस अनुच्छेद में प्रदत्त अधिकार भारत के भू-क्षेत्र में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त है। व्यक्ति शब्द में प्राकृतिक तथा विधिक दोनों सम्मिलित हैं। मनुष्य एक प्राकृतिक व्यक्ति (natural person) है परन्तु ऐसा व्यक्तित्व जो किसी विधि की देन है, विधिक व्यक्ति (legal person) कहा जाता है। एक निगम (Corporation) या कम्पनी जिसका जन्म किसी विधि के अन्तर्गत होता है, विधिक व्यक्ति माने जाते हैं। अतः निगम या कम्पनी जैसे विधिक व्यक्ति भी संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समता के अधिकार का दावा कर सकते हैं।

         अनुच्छेद 14 वर्गीकरण की अनुमति देता है परन्तु वर्ग विधान का निषेध करता है (Article 14 permits classification but prohibits class legislations) – सिरवई महोदय के अनुसार चूँकि मनुष्य जन्म तथा कर्म से भिन्न है। अतः उनके मध्य विधियों को लागू करने के लिए वर्गीकरण (classification) आवश्यक है। समानता का तात्पर्य यह नहीं है कि प्रत्येक विधि सार्वभौमिक (universal) हो तथा उनका प्रयोग व्यक्ति की प्रकृति, योग्यता तथा परिस्थितियों को ध्यान में लिए बिना किया जाय। व्यक्तियों को उनकी योग्यता, अवस्था (status), धर्म, जाति के अनुसार कई वर्गों में बाँटा जा सकता है तथा समानता की अवधारणा के अनुसार इन वर्गों में विभेद या भेदभाव नहीं होना चाहिए। असमान परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्तियों पर एक ही प्रकार की विधि लागू करना उचित नहीं होगा। इस प्रकार व्यक्तियों का वर्गीकरण अपेक्षित ही नहीं आवश्यक भी है। अनेक न्यायिक निर्णयों में यह स्वीकार किया गया कि सामाजिक व्यवस्था को समुचित ढंग से चलाने के लिए अनुच्छेद 14 में राज्य को वर्गीकरण की शक्ति प्राप्त है। अमरुन्निसा बनाम महबूब, ए. आई० आर० 1953 सु० को० 97 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि विधान मण्डल को मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों से उत्पन्न विभिन्न समस्याओं का हल करना पड़ता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि उसे व्यक्तियों तथा वस्तुओं के वर्गीकरण की शक्ति प्राप्त हो, परन्तु शर्त यह है कि वर्गीकरण मनमाना (arbitrary) एवम् भ्रामक (artificial) न हो तथा युक्तियुक्त (reasonable) आधारों पर हो। आर० के० गर्ग बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1981 सुं० [को० 2138.

     युक्तियुक्त वर्गीकरण की कसौटी (Test of Reasonable Classification)- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 जिस समता तथा विधियों के समान संरक्षण के अधिकार को प्रतिभूत करता है, उसका तात्पर्य यह है कि एक ही तरह के लोगों, एक ही अवस्था के लोगों तथा एक ही परिस्थिति में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा। इस प्रकार यदि एक ही अवस्था (स्थिति) के लोगों का परिस्थिति के अनुसार कई वर्ग बनाकर उनमें कई तरह का व्यवहार करने की अनुमति अनुच्छेद 14 में है, परन्तु इन वर्ग या वर्गों (class or classes) में रखे गये लोगों में भेदभाव (discrimination) नहीं किया जा सकता। परन्तु एक तरह के कई लोगों से बनाये गये एक वर्ग में तथा दूसरे तरह के लोगों से निर्मित दूसरे वर्ग में भिन्न प्रकार की विधि लागू की जा सकती है तथा उनमें असमानता का व्यवहार असंवैधानिक नहीं होगा। जैसे एक वर्ग को यदि किसी विधि द्वारा कोई विशेषाधिकार या उन्मुक्ति एक प्रकार की अवस्था में स्थित एक वर्ग के लोगों द्वारा प्रदान की गई है तो अनुच्छेद 14 का आशय यह है कि इस वर्ग में स्थित लोगों के साथ समान रूप से वह विधि लागू की जाय तथा इनमें भेदभाव करने की अनुमति अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत नहीं है। जैसे यदि एक विधि के अन्तर्गत उन सभी लोगों को जिनकी आय 15 सौ रुपया मासिक है, एक सुविधा प्रदान की गई है तो यहाँ 15 सौ रुपये प्रतिमाह आय वाले व्यक्तियों का एक वर्ग बन गया तथा अधिनियम में प्रदत्त सुविधा 15 सौ रुपया मासिक आय प्राप्त करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बिना भेदभाव समान रूप से प्राप्त हो यही अवधारणा अनुच्छेद 14 में है। गुजरात राज्य बनाम अम्बिका मिल, ए० आई० आर० 1974 सु० को ० 1300 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि एक वर्ग के सभी व्यक्तियों में कोई विभेद नहीं किया गया है तो ऐसी विधि संवैधानिक होगी।

       वर्गीकरण करते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि यह वर्गीकरण युक्तियुक्त (उचित : reasonable) आधार पर हो। यदि कोई वर्ग मनमाने आधार पर निर्मित किया जाय तो उसे अनुच्छेद 14 को मान्यता नहीं मिलेगी। यह सच है कि वर्गीकरण से समाज के सदस्यों में एक असमानता उत्पन्न होती है परन्तु यह स्मरणीय है कि यह असमानता परिस्थिति की माँग होने के कारण उतनी बुरी नहीं है जितनी इस वर्ग को निर्मित करने में अपनाई गई स्वेच्छाचारिता तथा उस वर्ग को बनाने में अपनाए गए अयुक्तियुक्त (unreasonable) आधार। संक्षेप में कहें तो अनुच्छेद 14 राज्य द्वारा व्यक्तियों तथा वस्तुओं में वर्गीकरण की शक्ति पर केवल एक ही प्रतिबन्ध लगाता है। वह यह कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त तथा मनमाना नहीं होना चाहिए।

      कब वर्गीकरण युक्तियुक्त (Reasonable) माना जायेगा (When Classi- fication is Reasonable) – वर्गीकरण युक्तियुक्त (Reasonable) होने के लिए निम्न शर्तें आवश्यक हैं-

(1) वर्गीकरण बोधगम्य (intelligible) आधारों पर होना चाहिए अर्थात् ऐसे आधार जिन पर वर्गीकरण किया गया है, भ्रामक तथा कमजोर आधारों पर नहीं होने चाहिए।

(2) जिन आधारों पर वर्गीकरण किया गया है तथा जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वर्गीकरण किया गया है, उनमें तर्कसंगत (logical) सम्बन्ध होना चाहिए। जैसे यदि झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करने वाले लोगों का एक वर्ग बनाकर उन्हें विशेष सुविधा दी जाती है, तो इसका आधार, जिसे विधिक भाषा में अन्तरक ( differentia) कहा गया है, बोधगम्य होना चाहिए तथा इस वर्गीकरण के उद्देश्य तथा इसके आधार में एक तार्किक सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह आवश्यक है कि वर्गीकरण के आधार तथा उनके उद्देश्य में निकट का सम्बन्ध (proximal relation) होना चाहिए।

        वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 75 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वर्गीकरण किसी वास्तविक तथा तात्विक भेद पर आधारित होना चाहिए। जैसे विधायिका संविदा की सक्षमता की आयु निर्धारित कर सकती है। परन्तु इस आयु निर्धारण के अन्तर्गत सृजित होने वाले वर्गीकरण का आधार संविदा की प्रकृति को समझने की क्षमता होनी चाहिए न कि सक्षमता व्यक्तियों के शरीर की बनावट तथा उनके बालों का रंग इत्यादि ।

        जावेद बनाम हरियाणा राज्य, ए० आई० आर० 2003 सु० को० 3057 के बाद में दो से अधिक सन्तान के माता-पिता को सरपंच के पद के लिए अयोग्य घोषित किया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई कि यह अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करता है किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना और कहा कि वर्गीकरण बोधगम्य अन्तरक पर आधारित है और इसका उद्देश्य परिवार नियोजन को बढ़ावा देना है।

       समता का नया आयाम (New Dimension of Equality)- इ० पी० रोयाप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य, ए० आई० आरव 1974 सु० को० 597 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने समता की पारम्परिक धारणा (traditional concept) को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा नवीन दृष्टिकोण अपनाया है। न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती ने कहा-

       “समता एक गतिशील धारणा है जिसके अनेक रूप और आयाम हैं। इसे परम्परागत और सिद्धान्तवाद की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। अनुच्छेद 14 राज्य की कार्यवाहियों में मनमानेपन (Arbitrariness) को वर्जित करता है तथा समान व्यवहार की अपेक्षा करता है। युक्तियुक्ता का सिद्धान्त समता के सिद्धान्त का आवश्यक तत्व है जो अनुच्छेद 14 में सर्वथा विद्यमान रहता है। वस्तुतः समता तथा मनमानापन एक-दूसरे के शत्रु हैं। जहाँ कोई कार्य मनमाना किया जायेगा, वहाँ असमानता अवश्य होगी तथा अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण होगा।”

      उच्चतम न्यायालय ने उक्त वाद में आगे कहा कि अनुच्छेद 14 का क्रियाशील विस्तार (activities magnitude) है और मनमानेपन के विरुद्ध संरक्षण है। यदि कोई कार्य मनमाना है तो वह समता का अतिक्रमण होगा तथा उसे युक्तियुक्त वर्गीकरण के सिद्धान्त पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

         क्या एक व्यक्ति भी एक वर्ग का निर्माण कर सकता है ? (Can a single person constitute a Class) अनुच्छेद 14 वर्गीकरण की अनुमति देता है परन्तु वर्ग विभेद की अनुमति नहीं देता। यह वर्गीकरण अयुक्तियुक्त तथा भ्रामक आधार पर नहीं होना चाहिए तथा वर्गीकरण के आधार तथा वर्गीकरण से प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य में प्रत्यक्षतया निकटता होनी चाहिए। यहाँ तक कि एक व्यक्ति भी एक वर्ग का निर्माण कर सकता है। कुछ विशिष्ट कारणों से यदि अकेले एक व्यक्ति को एक वर्ग मान लिया जाय तो अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण मात्र इसलिए नहीं माना जायेगा कि वर्ग में सिर्फ एक ही व्यक्ति सम्मिलित किया गया है।

       चिरंजी लाल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1951 सु० को० 41 नामक बाद इस बिन्दु पर प्रमुख है। इस वाद में शोलापुर स्पिनिंग एण्ड वीविंग कम्पनी के प्रबन्धकों ने मिल को बन्द करने का निर्णय लिया। संसद ने एक अधिनियम पारित कर केन्द्रीय सरकार को कम्पनी के प्रबन्ध एवम् सम्पत्ति को अपने नियन्त्रण में लेने का अधिकार दिया। कम्पनी के अंशधारी ने उस अधिनियम को इस आधार पर चुनौती दी कि इस अधिनियम को सिर्फ उसकी कम्पनी पर ही लागू किया गया है जबकि अन्य कम्पनियों में भी ऐसी व्यवस्था विद्यमान थी। यह विभेदकारी था तथा अनुच्छेद 14 का उल्लंघन था। उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से शोलापुर स्पिनिंग एण्ड विविंग अधिनियम को विधिमान्य तथा संवैधानिक घोषित किया। न्यायालय के अनुसार, कोई अधिनियम जो युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है, सिर्फ इस आधार पर असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता कि उस वर्ग में सिर्फ एक ही व्यक्ति सम्मिलित है। यहाँ उस एक व्यक्ति को भी वर्ग माना जा सकता है। मिल एक विधिक व्यक्ति है तथा अनुच्छेद 14 विधिक व्यक्तियों को भी समता का संवैधानिक संरक्षण देता है।

        अजीज बाशा बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1964 सु० को० 662 नामक बाद में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी (एमेण्डमेण्ट) एक्ट, 1975 को संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी कि यह अधिनियम सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर ही लागू होता है अन्य विश्वविद्यालयों पर नहीं। अतः इससे अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन होता है। उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि सिर्फ एक विश्वविद्यालय, एक वर्ग का निर्माण करता है। यदि विधि द्वारा किसी विश्वविद्यालय के निमित्त ऐसी संरचना या कोई ऐसी कार्य प्रणाली प्रस्तुत की जाती है जो अन्य विश्वविद्यालयों पर लागू नहीं होती तो मात्र इसलिए अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं होगा।

          इस प्रकार यदि अनुच्छेद 14 के अधीन, परिस्थितियों के अधीन अथवा विशेष कारणों पर किसी एक मात्र व्यक्ति, संस्थान, निगम या कम्पनी को एक वर्ग मानकर वर्गीकृत किया जाता है तो यह अनुच्छेद 14 के अधीन विधिमान्य होगा। ऐसे वर्गीकरण को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता कि इस वर्ग में सिर्फ एक व्यक्ति को ही सम्मिलित किया गया है।

        इस सम्बन्ध में आर० सी० कपूर बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 364 तथा ख्वाजा अहमद अब्बास बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 481 नामक वाद भी उल्लेखनीय है।

प्रश्न 5. ‘राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी आधार पर कोई भी भेद नहीं करेगा।’ व्याख्या कीजिए। क्या इस मूल अधिकार के कोई अपवाद हैं? विवेचना कीजिए।

“The state shall not discriminate against any citizen on ground only of religion, race, caste, sex, place of birth or any of them.” Explain. Are there any exception to this Fundamental Right? Discuss.

उत्तर-धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध – यह मूल अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही संविधान के अनुच्छेद 15 (1) द्वारा प्रदत्त और गारण्टी किया गया है और अनुच्छेद 14 में प्रतिपादित विधि शासन के सामान्य नियम का ही एक विशिष्ट उदाहरण है।

        विधि शासन के रूप में विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण का मूल अधिकार नागरिक और अनागरिक, सभी व्यक्तियों को प्राप्त है, किन्तु यदि किसी स्थान अथवा उनमें से किसी भी एक आधार पर कोई भेदभाव बरता जाता है तो वह अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत ऐसे भेदभाव के विरुद्ध कोई आपत्ति नहीं कर सकता है। इसके विपरीत, यदि कोई विधि अनुच्छेद 15 (1) में दिये गये किन्हीं आधारों पर किसी नागरिक के साथ भेद-भाव बरतने के कारण अवैध है, तो उसे अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत युक्तियुक्त वर्गीकरण के आधार पर भी वैध नहीं ठहराया जा सकता है।

        स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम राम सजीवन, ए० आई० आर० (2010) एस० सी० 1738 के मामले में तो उच्चतम न्यायालय द्वारा यहाँ तक कहा गया है कि लोकतन्त्र एवं विधि के शासन के आसान क्रियान्वयन के लिए जाति व्यवस्था का उन्मूलन अपेक्षित है।

       भेद-भाव का आधार – अनुच्छेद 15 (1) केवल निम्नलिखित पाँच आधारों पर भेद- भाव बरतने के लिए राज्य को वर्जित करता है-

(1) धर्म (Religion);

(2) मूल वंश (Race);

(3) जाति (Caste);

(4) लिंग (Sex); तथा

(5) जन्म स्थान (Place of Birth)1

        इन पाँचों आधारों के अतिरिक्त नागरिकों के विरुद्ध किसी प्रकार का भेद-भाव बरतता है तो भेदभाव के विरुद्ध अनुच्छेद 15 (1) के अधीन आपत्ति नहीं की जा सकेगी।

        उत्तर प्रदेश राज्य बनाम प्रदीप टण्डन, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 563 के मामले में उत्तराखण्ड मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए उत्तर प्रदेश के निवासियों के लिए प्रवेश शुल्क से मुक्त किया गया था किन्तु प्रदेश के बाहर छात्रों को अतिरिक्त प्रवेश शुल्क देना पड़‌ता था। इस नियम को अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत चुनौती दिये जाने पर न्यायालय ने उसे इस आधार पर वैध ठहराया कि भेदभाव जन्म स्थान के आधार पर नहीं बल्कि निवास स्थान के आधार पर किया गया था। इन दोनों आधारों के अर्थों में अन्तर है। अनुच्छेद 15 (1) केवल जन्म स्थान के आधार पर न कि निवास स्थान के आधार पर भेदभाव बरतना वर्जित करता है।

        राज्य एवं नागरिकों दोनों के द्वारा विभेद का वर्जन– अनुच्छेद 15 का खण्ड (2) का खण्ड (1) के सामान्य नियम का ही एक विशिष्ट उदाहरण है जिनके अनुसार कोई भी नागरिक बिना किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तरदायित्व या अयोग्यता के (1) दुकानों, सार्वजनिक रेस्तराओं, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश करने का; अथवा (2) ऐसे कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़‌कों एवं अन्य सार्वजनिक समागम के स्थान का उपयोग करने का, जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं, या जो राज्य निधि द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से पोषित है, अधिकारी होगा और उसके साथ केवल धर्म या मूल वंश या जाति या लिंग या जन्म स्थान के किसी आधार पर भेदभाव नहीं बरता जायेगा।

        अनुच्छेद 15 (2) के अधीन प्रदत्त मूल अधिकार निजी व्यक्तियों के विरुद्ध भी प्राप्त है जबकि अनुच्छेद 15 (1) द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध ही प्राप्त है। इसलिए अनुच्छेद 15 (2), अनुच्छेद 15 (1) से अधिक विस्तृत है और हिन्दू समाज में व्याप्त धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन करने के उद्देश्य से प्रेरित है।

         अपवाद (1) स्त्री एवं बच्चों के लिए विशेष उपबन्ध अनुच्छेद 15 (3) के अनुसार, इस अनुच्छेद की कोई भी बात, राज्य की स्त्रियों एवं बालकों के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से नहीं रोकेगी अर्थात् राज्य स्त्रियों और बालकों के लिए कोई भी विशेष उपबन्ध कर सकता है। स्त्रियों और बालकों को यह विशेष संरक्षण, उनकी स्वाभाविक कमजोर स्थिति के कारण प्रदान किया गया है।

         युसूफ अब्दुल अजीज बनाम बम्बई राज्य, ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 321 के मामले में याचिकाकर्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 के अन्तर्गत जारकर्म के अपराध के लिए दण्डित किया गया था। उसकी आपत्ति यह थी कि धारा 497 के अन्तर्गत केवल पुरूष हो मुख्य अभियुक्त के रूप में दण्डित किया जाता है, व्यभिचारिणी स्त्री को दुष्प्रेरक के रूप में भी दण्डित नहीं किया जाता है। यह भेदभाव लिंग के आधार पर अनुचित है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 497 वैध है, क्योंकि वर्गीकरण केवल लिंग के आधार पर ही नहीं है, बल्कि समाज में स्त्रियों की विशेष स्थिति के आधार पर भी किया गया है।

(2) सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष- उपबन्ध- अनुच्छेद 15 (4) के अनुसार, इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 (2) की कोई बात राज्यों को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए नागरिकों के वर्गों की उन्नति के लिए, या अनुसूचित जातियों (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजातियों (Schedule Tribes) के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से नहीं रोकेगी।

         सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग कौन है? इसका निर्धारण करने की शक्ति राज्य की है, किन्तु राज्य का निर्णय अन्तिम नहीं है, उपर्युक्त मामलों में न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।

        बालाजी बनाम मैसूर राज्य, ए० आई० आर० 1963 एस० सी० 649 के मामले में राज्य सरकार ने राज्य के मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश हेतु अनुच्छेद 15 (4) के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों के लिए निम्न प्रकार से स्थानों का आरक्षण किया था-

(1) पिछड़े वर्गों के लिए                28%

(2) अति पिछड़े वर्गों के लिए          22%

(3) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए   18%

कुल =  68%

         तब कुछ योग्यतम प्रत्याशियों ने इस राजाज्ञा को चुनौती दी, क्योंकि इसके कारण कम से कम अंक पाने वाले पिछड़े वर्गों के प्रत्याशियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था जबकि अधिकतम अंक पाने वाले प्रत्याशियों को स्वतः प्रवेश नहीं मिल पाता था।

          उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘पिछड़े वर्गों और अधिक पिछड़े वर्गों के बीच किया गया उपवर्गीकरण अनुच्छेद 15 (4) के अन्तर्गत न्यायोचित नहीं है। अनुच्छेद 15 (4) सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से पिछड़ेपन की परिकल्पना करता है, न कि केवल सामाजिक या केवल आर्थिक दृष्टिकोण से। कोई विशेष वर्ग पिछड़ा वर्ग है या नहीं, इस बात के निर्धारण के लिए व्यक्ति की जाति ही एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती है। गरीबी, पेशा और निवास-स्थान आदि बातों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

         संविधान (93 वाँ संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 15 में एक नया खण्ड (5) जोड़कर यह व्यवस्था की गई है कि अनुच्छेद 15 (1) या अनुच्छेद 19 (1) (छ) में की कोई बात राज्य को शैक्षिक या सामाजिक रूप से पिछड़े किसी वर्ग के नागरिकों को या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की प्रगति के लिए सरकारी सहायता प्राप्त या गैर-सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में (अनुच्छेद 30 (1) में वर्जित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर) प्रवेश के सम्बन्ध में विधि बनाकर विशिष्ट उपबंध करने से नहीं रोकेगी।

        यह संशोधन अधिनियम निजी शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के प्रवेश के लिए स्थानों के आरक्षण के लिए पारित किया गया है।

        इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ (मण्डल आयोग का मामला), ए० आई० आर० 1993 सु० को० 477 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने बालाजी वाले केस में दिये गये निर्णय को उलट दिया और कहा कि पिछड़े वर्ग तथा अधिक पिछड़े वर्ग में वर्गीकरण किया जा सकता है। पिछड़े वर्ग में अधिक सम्पन्न वर्ग (क्रिमी लेयर) के निर्धारण के लिए यह आवश्यक है तथा यह भी कहा कि ‘जाति’ इस बात के निर्धारण की कसौटी हो सकती है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक भी हो सकता है।

       बलसम्मा पाल बनाम कोचीन विश्वविद्यालय, (1996) 3 एस० सी० सी० 545 के मामले में यह निर्धारित किया गया कि उच्च जाति की महिला यदि पिछड़ी जाति के सदस्य से विवाह कर लेती है तो उसे अनुच्छेद 15 (4) तथा 16 (4) का लाभ नहीं मिलेगा।

प्रश्न 6. लोक नियोजन में अवसर की समानता से आप क्या समझते हैं? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।

What do you understand by equality of opportunity in matters of public employment? Explain with the help of decided cases.

उत्तर- लोक नियोजन में अवसर की समानता – आजीविका के विभिन्न साधनों में नियोजन भी एक है। सामाजिक व्यवस्था के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति आजीविका के लिए कोई न कोई पेशा, वृत्ति, नियोजन आदि अंगीकृत करता है। इन सभी में सफलता उसके कौशल, परिश्रम, ईमानदारी, निष्ठा, कर्तव्य परायणता आदि पर निर्भर करती है। व्यापार, वाणिज्य में तो ये तत्व अनिवार्य रूप से कार्य तो करते ही हैं लेकिन जहाँ तक नियोजन का प्रश्न है इन तत्वों के अस्तित्व के पीछे भी एक प्रमुख तत्व काम करता है। नियोजन में अवसर की समता अर्थात् समान स्थिति वाला व्यक्ति समान नियोजन की अपेक्षा रखता है और यदि ऐसा अवसर नहीं मिलता है तो वह कुण्ठित होने लगता है। अनुच्छेद 16 की व्यवस्था इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है-

(1) भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 (1) यह उपबन्धित करता है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।

(2) अनुच्छेद 16 (2) यह कहता है कि राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के सम्बन्ध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी के आधार पर कोई भी नागरिक अपात्र नहीं होगा और न उससे विभेद किया जायेगा।

(3) अनुच्छेद 16 (3) संसद को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह विधि बनाकर सरकारी सेवाओं में नियुक्ति के लिए उस राज्य में “निवास” की अर्हता विहित कर सकती है।

(4) अनुच्छेद 16 (4) राज्य को सरकारी सेवाओं में “पिछड़े वर्गों” के लिए पदों के आरक्षण करने की शक्ति प्रदान करता है।

(5) अनुच्छेद 16 (4-क) अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के वर्गों के लिए सरकारी सेवाओं में “प्रोन्नति” में “आरक्षण” करने की शक्ति प्रदान करता है। (77 वाँ संविधान संशोधन द्वारा)

(6) अनुच्छेद 16 (4-ख) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को इन रिक्तियों को जो अनुच्छेद 16 (4) या 16 (4-क) के उपबन्धों के अनुसार किसी वर्ष में भरे जाने के लिए आरक्षित है, उन्हें अगले वर्ष या वर्षों में भरे जाने से नहीं रोकेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ग की रिक्तियों के साथ, जिनमें उन्हें भरा जाना है, आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा के निर्धारण के प्रयोजन के लिए नहीं विचार किया जाएगा।

(7) अनुच्छेद 16 (5) ऐसी विधियों के लागू होने को अनुच्छेद 16 (1) और (2) के प्रभाव से बचाता है जो किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्था के किसी पद पर नियुक्ति के लिए किसी व्यक्ति के लिए किसी विशिष्ट धर्म की जानकारी रखने की अर्हता निहित करता है।

       अनुच्छेद 16 केवल राज्य के अधीन नौकरियों में अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है। गैर-सरकारी (प्राइवेट) नौकरियों में यह अधिकार नहीं प्राप्त है तथा साथ ही साथ संविदा-सम्बन्धी सेवाओं के मामले में लागू नहीं होता है।

         एस० के० अच्युतन बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 490 के मामले में पिटिशनर को सरकारी अस्पतालों में दूध-आपूर्ति करने का ठेका सरकार ने दिया था, किन्तु बाद में यह रद्द कर दिया गया और दूसरों को दे दिया गया जो सरकार की सहकारी दुग्ध संस्था थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि सरकार उत्तरदायी नहीं थी, क्योंकि ठेकेदार को ठेका संविदा अधिनियम के अन्तर्गत दिया गया और वह कोई लोक सेवक नहीं था। किसी व्यक्ति को ठेका देना अनुच्छेद 6 के अन्तर्गत नियोजन नहीं माना जाता है।

        पाण्डुरंग बनाम आन्ध्र प्रदेश लोक सेवा आयोग, ए० आई० आर० 1963 एस० सी० 268 नामक वाद में आन्ध्र प्रदेश लोक सेवा आयोग ने मुंन्सिफ के पदों पर भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला था। मुन्सिफ पद के लिए विभिन्न योग्यताओं के साथ-साथ निम्नांकित दो योग्यतायें भी अपेक्षित मानी गयी थीं-

(1) क्षेत्रीय विधि का ज्ञान होना; तथा आवेदनकर्ता का उच्च न्यायालय में वकालत करना। याचिकाकर्ता ने भी आवेदन

(2) किया था। वह अन्य सभी योग्यतायें तो रखता था, लेकिन उच्च न्यायालय में वकालत नहीं करता था, इसलिए आयोग द्वारा उसका आवेदन निरस्त कर दिया गया। उसने इसे चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय ने आयोग की इस शर्त को कि आवेदक उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा हो, असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि इसका क्षेत्रीय विधि के ज्ञान से कोई युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं था। एअर इण्डिया बनाम नरगिस मिर्जा, ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 1829 के मामले में भारतीय विमान सेवा परिचारिकाओं ने एअर इण्डिया द्वारा बनाये गये एक नियम की वैधता को चुनौती दिया था जिसके अधीन परिचारिकाओं को 35 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर अथवा यदि वे प्रथम बार गर्भवती हो जाएँ तो उन्हें सेवा-निवृत करने का उपबन्ध था। उनका तर्क था कि उक्त सेवा शर्तें विभेदकारी र्थी क्योंकि वे पुरुषों पर लागू नहीं होती थीं अतः अनुच्छेद 14, 15 (4), 16 का अतिक्रमण करने के कारण अवैध थीं। न्यायालय ने प्रथम गर्भ धारण करने और प्रबन्ध निदेशक की इच्छा पर सेवा निवृत्ति की शर्त को अवैध घोषित कर दिया किन्तु सेवा के 4 वर्ष के भीतर विवाह न करने के प्रावधान को इस आधार पर वैध घोषित किया कि वह युक्तियुक्त था, मनमाना नहीं था। यह परिचारिकाओं के हित में है क्योंकि इससे उनके स्वास्थ्य में सुधार होता है और परिवार नियोजन को भी बढावा मिलता है।

         कविराज बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर, ए० आई० आर० (2013) एस० सी० 767 के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि किसी कर्मचारी का पदस्थापन, उसकी अभिव्यक्त या विवक्षित सहमति से उसके केडर से बाहर किया जा सकता है।

प्रश्न 7. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए –

(i) अस्पृश्यता का अन्त;

(ii) उपाधियों का अन्त;

Write short notes on the followings-

(1) Abolition of untouchability;

(ii) Abolition of titles.

उत्तर- (i) अस्पृश्यता का अन्त (Abolition of untouchabiltiy)’ अस्पृश्यता’ एक सामाजिक बुराई है जो जन-मानस में जातिगत रूप में घर कर गयी है अर्थात् एक सवर्ण, किसी अनुसूचित जाति को इसलिए नहीं छूता है, क्योंकि वह निम्न जाति अथवा वर्ण का है तो यह अस्पृश्यता है। इसी सामाजिक कुरीति एवं बुराई को दूर करना अनुच्छेद 17 का लक्ष्य है।

        पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइटस बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1473. –

        इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अस्पृश्यता से सम्बन्धित मूल अधिकार प्रत्येक व्यक्ति के विरुद्ध उपलब्ध है। कोई भी व्यक्ति किसी व्यक्ति के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार नहीं कर सकता है। यदि करता है तो वह दण्डनीय अपराध होगा।

       अस्पृश्यता के निवारण के लिए संसद ने समय-समय पर विधियाँ बनायी हैं। सन् 1955 में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम पारित किया गया। वर्तमान में इसे ‘सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम’ नाम दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यता बरतने वाले व्यक्ति को दण्डित करना तथा अस्पृश्यता से उद्भूत का निवारण करना है।

       अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए अनेक विधियों का निर्माण किया गया फिर भी जड़ से यह बुराई रूपी अपराध अभी समाप्त नहीं हुआ है क्योंकि भारतीय नागरिकों के मन में अस्पृश्यता की जड़ें इतनी गहराई तक चली गई हैं कि मात्र विधि के बल पर उसे नष्ट किया जाना सम्भव नहीं है। इसके लिए आवश्यकता है हृदय परिवर्तन की अर्थात् हम सभी को बराबरी का स्थान दें, सम्मान दें और किसी को अछूत न मानें।

(ii) उपाधियों का अन्त (Abolition of titles) – उपाधियाँ व्यक्तियों का विशेषीकरण एवं विशिष्टीकरण करती हैं। जब किसी व्यक्ति के साथ कोई उपाधि अथवा खिताब लगा होता है तो उसकी पहचान अलग ही हो जाती है। वह साधारण व्यक्ति से विशिष्ट लगने लगते हैं। इससे साधारण व्यक्ति में थोड़ी हीनता की भावना आ जाती है। वह अपने आपकों उसके समान समझने में संकोच करता है। यही कारण है कि उपाधियों से उत्पन्न होने वाली असमानता को भी संविधान ने दूर करने का प्रयास किया है।

         फिर इन उपाधियों एवं खिताबों में सामन्तवाद की भी बू आती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व हमारे यहाँ विशिष्ट व्यक्तियों को ‘सर’, राय बहादुर, राय साहब आदि के खिताब प्रदान किये जाते थे। इन खिताबों को पाने वाले व्यक्ति समाज में अपने-आपकों आम आदमी से उच्च समझते थे। अतः स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात अब इन खिताबों को भी बन्द कर दिया गया है। अब तो व्यवस्था यहाँ तक कर दी गई है कि संविधान के अनुच्छेद 18 के अन्तर्गत –

(i) राज्य भी सेना अथवा शिक्षा सम्बन्धी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।

(ii) कोई भी नागरिक विदेशी राज्य से किसी प्रकार की उपाधि स्वीकार नहीं कर सकेगा।

(iii) राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला विदेशी व्यक्ति भी राष्ट्रपति की सहमति के बिना विदेशी राज्य से कोई उपाधि, पद, भेंट या उपलब्धि स्वीकार नहीं कर सकेगा।

       अनुच्छेद 18 के उपबन्ध सेना एवं शिक्षा सम्बन्धी सम्मान तथा उपाधियों पर लागू नहीं होते हैं। सेना में विशिष्ट शौर्य का प्रदर्शन करने वाले व्यक्तियों तथा शिक्षा, समाज-विज्ञान, संस्कृति, साहित्य, कला आदि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों को भी राज्य द्वारा कतिपय अलंकरण प्रदान किये जाते हैं। जैसे- (ⅰ) भारत रत्न; (ii) पद्यद्म विभूषण; (iii) पद्म भूषण; (iv) परमवीर चक्र आदि इसी प्रकार की शैक्षणिक उपाधियाँ जैसे-बी० ए०, एम० ए०, पी०-एच० डी०, एल० एल० बी० एल० एल० एम० इत्यादि।

प्रश्न 8. भारतीय संविधान में प्रत्याभूत (Guaranteed) वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का क्या विस्तार है? इस अधिकार को किन आधारों पर निर्बन्धित (restricted) किया जा सकता है व्याख्या करें। क्या प्रेस की स्वतन्त्रता इस श्रेणी में आएगी? अपने उत्तर को न्याय निर्णय से समर्थित करें।

What is the limit of right to speech and expression guaranteed under Indian Constitution? On what ground restriction can be placed on this right? Explain. Will freedom of press come in this category? Support your answer with judicial decision.

उतर – अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत प्रदत्त सम्मृता का अधिकार भारत के नागरिकों के साथ- साथ ऐसे व्यक्तियों को भी प्रतिभूत है जो भारत के नागरिक नहीं हैं। परन्तु अनुच्छेद 15, 16, 17, 19 से 22 तक अनुच्छेदों में प्रदत्त अधिकार सिर्फ भारत के नागरिकों के लिए ही उपलब्ध हैं। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है। जनता की तार्किक एवम् आलोचनात्मक शक्ति को वाक् एवम् अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अभाव में विकसित करना सम्भव नहीं है। इस स्वतन्त्रता के अभाव में शासन अपनी कमजोरियों से विज्ञ (अवगत) नहीं हो पाएगा। अमेरिका का संविधान अपने प्रथम संशोधन द्वारा वाक् या प्रेस की स्वतन्त्रता से प्रत्याभूत है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के अन्तर्गत यह घोषणा की गई है कि भारत के सभी नागरिकों को वाकू स्वातंत्र्य तथा अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार होगा।

        वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ एवम् विस्तार – वाक् तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ है- शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चिह्नों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से व्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक अपने विचारों को पहुँचा सके। इसके अन्तर्गत अपनी राय या विचारों के प्रसार तथा प्रकाशन का अधिकार सम्मिलित है। अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति शब्द इस अधिकार के परिक्षेत्र को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों की अभिवृद्धि (व्यक्त-प्रसार) के जितने भी माध्यम हैं, उसके अन्तर्गत आते हैं: विचारों का स्वतन्त्र प्रसारण ही इस स्वतन्त्रता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा या समाचार पत्रों द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार इसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषण, चलचित्र, चित्रांकन, लेख तथा मुद्रण हैं। इस स्वतन्त्रता में सूचना या जानने की स्वतन्त्रता (right to know) भी सम्मिलित है। परन्तु इस अधिकार का प्रयोग समुदाय और राष्ट्र के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 19 (2) में उल्लिखित युक्तियुक्त निर्बन्धनों के अधीन रहते हुए ही किया जा सकता है। एस० रंगराजन बनाम जगजीवन राम, (1989) 2 एस० सी० सी० 574 में अभिनिर्धारित किया गया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तात्पर्य स्वतन्त्रतापूर्वक उस माध्यम का चुनाव करना है, जिनके द्वारा मनुष्य अपनी भावनाओं अथवा विचारों को दूसरों तक पहुँचाता है। वाक् एवं अभिव्यक्ति का संयुक्त तात्पर्य यह है कि हर नागरिक अपने विचारों, भावनाओं तथा अभिमत (राय) को दूसरों के समक्ष शब्द द्वारा चाहे बोलकर अथवा लिखकर अथवा संकेत द्वारा प्रकट कर सकता है। इसके अन्तर्गत सन्देश, विचारों का प्रसारण, लेख, छपाई आदि सभी साधन सम्मिलित हैं।

        वाक तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता केवल अपने विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता तक सीमित नहीं है। उसमें दूसरों के विचारों के प्रसार एवं प्रकाशन की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है जो प्रेस की स्वतंत्रता द्वारा ही सम्भव है।

          स्टेट ऑफ कर्नाटक बनाम एसोसियेटेड मैनेजमेन्ट ऑफ प्राइमरी एण्ड सेकेण्डरी स्कूल्स, ए० आई० आर० (2014) एस० सी० 2094 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।

       इण्डियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ (1885) 1 एस० सी० सी० 641 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता चार विशेष उद्देश्यों को पूर्ति करती है-

(1) यह व्यक्ति के आत्मोन्नति में सहायक होती है।

(2) यह सत्य की खोज में सहायक होती है।

(3) यह व्यक्ति के निर्णय लेने की क्षमता को मजबूत करती है।

(4) यह स्थिरता तथा सामाजिक परिवर्तन में युक्तियुक्त सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती है।

       इमैनुअल बनाम केरल राज्य, (1986) 1 एस० सी० सी० 615 नामक मामले में जिसे राष्ट्रगान मामले के नाम से जाना जाता है, उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय किया कि किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रगान गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यदि उसका धार्मिक विश्वास उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं देता। यह निर्णय वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब देश की सीमा पर संकट हो तथा राष्ट्रीय भावना अपरिहार्य हो, देश की अखण्डता के लिए संकट उत्पन्न करने वाला निर्णय है। इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि वाक् तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत चुप रहने की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है।

        प्रेस की स्वतन्त्रता (Freedom of Press) समाचार पत्र एक व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्त करने का सशक्त तथा महत्वपूर्ण माध्यम है। राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए प्रेस की स्वतन्त्रता अपरिहार्य है। अमेरिका के प्रेस आयोग के अनुसार “प्रेस को स्वतन्त्रता राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है। जिस समाज में मनुष्य को अपने विचारों को एक-दूसरे तक पहुँचाने की स्वतन्त्रता नहीं है उस समाज में अन्य स्वतन्त्रताएं भी सुरक्षित नहीं रह सकतीं। वस्तुतः जहाँ वाक् स्वातंत्र्य है, वहीं स्वतन्त्र समाज में प्रारम्भ होता है तथा स्वतन्त्रता को बनाये रखने के साधन भी उपलब्ध रहते हैं। इसलिए वाक् स्वातंत्र्य को सभी स्वतन्त्रताओं में अनोखा स्थान प्राप्त है।” भारतीय प्रेस आयोग के अनुसार, “प्रजातन्त्र केवल विधान मण्डल की सचेत देख-रेख में ही नहीं वरन लोकमत की देखभाल तथा मार्गदर्शन के अन्तर्गत भी फलता-फूलता है।” प्रेस की यह सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उसके भी माध्यम से लोकमत स्पष्ट होता है।

        अमेरिकन संविधान की भाँति भारतीय संविधान में भी प्रेस की स्वतन्त्रता का उल्लेख किसी उपबन्ध में नहीं किया गया है। प्रेस या समाचार-पत्र या पुस्तक लेखन में लेखक, सम्पादक तथा प्रबन्धक अपने लेखन तथा प्रकाशन द्वारा ही वाक् तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रयोग करते हैं। उच्चतम न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों के द्वारा यह स्पष्ट तथा सुव्यस्थित कर दिया है कि वाक् तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है। प्रेस की स्वतन्त्रता में परिचालन (circulation) की स्वतन्त्रता, सम्पादकीय कर्मचारियों की नियुक्ति की स्वतन्त्रता तथा सेंसर के बिना तथा किसी प्रतिबन्ध के बिना लिखने तथा प्रकाशित करने की स्वतन्त्रता सम्मिलित है।

        सकल पेपर्स प्रा० लि० बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 305 नामक वाद में दी न्यूज पेपर (प्राइज एण्ड पेज) अधिनियम, 1956 द्वारा केन्द्रीय सरकार को अधिकृत किया गया था कि वह समाचार पत्रों की पृष्ठ संख्या व उनके आकार के अनुपात में मूल्य को निश्चित करने के लिए उनका नियन्त्रण करें एवं उनमें विज्ञापनों के निमित्त स्थान का निर्धारण करें। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि वाक् तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता शामिल है क्योंकि समाचार पत्र अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है।

        लार्ड मेन्सफिल्ड के अनुसार प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है बिना सरकारी अनुमति के अपने विचारों को प्रकट करना बशर्ते कि उससे किसी साधारण विधि का उल्लंघन न किया गया हो। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के प्रकाशन सम्मिलित हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को दूसरे तक पहुँचा सके।

       बेनेट कोलमैन एण्ड कम्पनी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 106 नामक वाद में भी उपरोक्त वाद के समान तथ्य थे तथा उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि न्यूजप्रिण्ट पालिसी द्वारा समाचार पत्रों की संख्या, पृष्ठों का आकार, प्रकाशन की परिसीमा व प्रसारण पर प्रतिबन्ध लगाकर वाक् तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर आघात पहुँचाया गया है।

        क्या प्रेस की स्वतन्त्रता में जानने का अधिकार (Right to Know), सम्मिलित है- श्रीमती प्रभादत्त बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० (1982) सु० को० 6 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि प्रेस की स्वतन्त्रता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार भी सम्मिलित है। प्रेस को व्यक्तियों के साक्षात्कार के माध्यम से सूचनाएँ जानने का अधिकार प्राप्त है। परन्तु जानने की स्वतन्त्रता आत्यन्तिक (पूर्ण : absolute) नहीं है। उसके ऊपर युक्तियुक्त निर्बन्धन (restrictions) लगाए जा सकते हैं। इस मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता ने इन्दिरा गाँधी के हत्यारे के साक्षात्कार की अनुमति मांगी थी। अनुमति देने से जेल अधिकारियों ने इन्कार कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कहा, प्रेस की जानने की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति पर प्रेस को सूचना देने अथवा समाचार देने की कोई विधिक स्वतन्त्रता अधिरोपित नहीं कर सकता।

       दूरदर्शन पर फिल्म प्रदर्शन- ओ० डी० सी० कम्यूनिकेशन्स प्रा० लि० बनाम लोक विदायन संगठन (1988) 3 एस० एस० सी० 410 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दूरदर्शन पर फिल्मों का प्रदर्शन अनुच्छेद 19 (1) (क) के अधीन मूल अधिकार है। परन्तु इस अधिकार का प्रयोग अनुच्छेद 19 (2) में उल्लिखित निर्बन्धनों के अधीन हो किया जा सकता है।

      पूर्व सेंसरशिप की विधिमान्यता (Legality of presensorship)- के० एस० अब्बास बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1971 सु० को० 481 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि चलचित्रों पर पूर्व सेंसरशिप भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के अन्तर्गत संवैधानिक है। चलचित्रों के निर्माण एवं प्रदर्शन पर पूर्व सेंसरशिप लोकहित में है। इस मामले में चलचित्र अधिनियम, 1952 की धारा 5 (2) (ब) को संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इस अधिनियम के अन्तर्गत, चलचित्रों को प्रदर्शन से पूर्व सेंसर बोर्ड के समक्ष अनुमति प्राप्त करने के लिए भेजना पड़ता है।

        प्रदर्शन व हड़ताल – प्रदर्शन के माध्यम से राजनैतिक अथवा किन्हीं प्रश्नों को जनता के मध्य उठाया जाता है। यह किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की भावनाओं तथा उनकी भावुकता का प्रकट स्वरूप है। यह भी वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत आ सकता है। बहरे तथा गूँगे मनुष्य के लिए प्रदर्शन ही अभिव्यक्ति के माध्यम है। कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 1166 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि प्रदर्शन इतना प्रबल है कि उससे लोक शान्ति, सुरक्षा तथा अमनचैन व्यवधानित होता है तो वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अन्तर्गत प्रतिबन्धित किया जा सकता है। राधेश्याम बनाम पी० एम० जी० नागपुर, ए० आई० आर० 1965 सु० को० 311 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहाँ तक हड़ताल का सम्बन्ध है, हड़ताल एक मूल अधिकार नहीं है। अतः धरना देना (Picketing) अथवा अशान्ति उत्पन्न करना संविधान द्वारा अधिकृत नहीं किया जा सकता।

      रजिस्ट्रार जनरल, हाईकोर्ट ऑफ मेघालय बनाम स्टेट ऑफ मेघालय, ए० आई० आर० 2015 मेघालय 23 के मामले में मेघालय उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ‘बन्द’ सामान्य नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण है क्योंकि इससे जनसाधारण का शान्तिपूर्ण जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, उन्हें दैनिक आवश्यकता की चीजें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। ‘बन्द’ का आह्वान करने वाले व्यक्ति एवं संगठन जन-जीवन को कारित क्षति की पूर्ति के लिए उत्तरदायी हैं।

       लाउडस्पीकर आदि का प्रयोग- लाउडस्पीकर इत्यादि का उपयोग केवल मनुष्य के स्वर को तेज करने के लिए होता है। अतः इनका प्रयोग वाक् एवं अभिव्यक्ति को स्वतन्त्रता की श्रेणी में नहीं आता। लोकहित में इनके प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है या रुकावट डाली जा सकती है।

       वाक् एवं अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार एवं निर्बन्धन (प्रतिबन्ध) के आधार – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अन्तर्गत निम्नलिखित आधारों का उल्लेख है जिनके आधार पर वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन या प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।

(1) राज्य की सुरक्षा (Security of State) – बाह्य आंक्रमण तथा आन्तरिक अशान्ति की स्थिति में अथवा गम्भीर अपराधों के उत्प्रेरण से राज्य की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। इन स्थितियों में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक लगायी जा सकती है। परन्तु रोमेश थापर बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1950 एस० सी० 124 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि लोक व्यवस्था का बिगड़ जाना मात्र अथवा लोक शान्ति में सामान्य खलल पड़ना राज्य की सुरक्षा के लिए खतरनाक स्थिति नहीं मानी जा सकती है।

      मधुलिमये बनाम एस० डी० एम० मुंगेर, ए० आई० आर० 1971 एस० रु.०. 2486 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि निर्बन्धन या प्रतिबन्ध स्थापित करने के लिए राज्य उस तिथि की प्रतीक्षा करने के लिए बाध्य नहीं है जिस दिन राष्ट्र की सुरक्षा वास्तव में खतरे में पड़ जाय। किसी को ऐसा भाषण देने की स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती जिससे राज्य की सुरक्षा खतरे में पड़ने की आशंका हो।

(2) विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध (Friendly Relations with Foreign Country) निर्बन्धन का यह आधार अनुच्छेद 19 (2) में सन् 1951 में प्रथम संशोधन द्वारा जोड़ा गया। इस खण्ड का आशय किसी व्यक्ति को ऐसी मिथ्या या झूठी अफवाहें फैलाने से रोकना है जिससे किसी विदेशी राज्य के साथ, हमारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को अनात पहुँचता हो।

(3) लोक व्यवस्था (Public Order) – लोक व्यवस्था एक विस्तृत पदावली है। इसका तात्पर्य शान्ति व्यवस्था है। कोई भी बात जिससे समाज में अशान्ति या क्षोभ उत्पन्न होता है, लोक व्यवस्था के विरुद्ध होती है। इस प्रकार समाज में साम्प्रदायिक विक्षोभ पैदा करना, इस उद्देश्य से हड़ताल करवाना कि श्रमिकों में विक्षोभ उत्पन्न हो जाय आदि ऐसे अपराध हैं जो लोक व्यवस्था के विरुद्ध हैं। लोक व्यवस्था में लोक सुरक्षा भी सम्मिलित है। लोक व्यवस्था का तात्पर्य समाज की बाह्य तथा आन्तरिक खतरों से सुरक्षा करना किन्तु सरकार की आलोचना लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा को खतरा उत्पन्न करने वाली नहीं मानी जायेगी।

        राधेश्याम शर्मा बनाम पी० एम० जी०, ए० आई० आर० 1999 केरल 262 के वाद में केरल उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि जहाँ लोक स्थानों पर लाउडस्पीकर आदि लगाकर मीटिंग करने से जनसाधारण को असुविधा होती हो वहाँ ऐसी मीटिंग पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(4) शिष्टाचार तथा सदाचार (Decency and Morality)- रंजीत डी० उदेशी बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1965 सु० को० 881 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता व लोक शिष्टाचार तथा सदाचार के मध्य सन्तुलन स्थापित करने की बात कही गयी है। शिष्टाचार अथवा सदाचार का विस्तार अश्लीलता की सीमा तक किया गया है। वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से यदि पवित्रता या शिष्टाचार प्रभावित होता है तो वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है। ऐसे कथन या प्रकाशन सामान्यतया अश्लील माने जाते हैं जो उन व्यक्तियों के मन में जिनके हाथ में वे पड़ जाते हैं अनैतिक तथा भ्रष्ट विचारों को उत्पन्न करते हैं।

(5) न्यायालय अवमानI (Contempt of Court)- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत न्यायालय का अवमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती तथा इस आधार पर इस स्वतन्त्रता पर रोक लगाई जा सकती है। जी० के० दफ्तरी बनाम ओ० पी० गुप्ता, ए० आई० आर० 1971 सु० को० 1132, इन रि अरुंधती राय, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 1575 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ में किसी भी व्यक्ति को न्यायालय की गरिमा को कम करने या समाप्त करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

(6) अपमान (Defamation) कोई ऐसा कथन या प्रकाशन जिससे किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है, अपमान कहलाता है। इस प्रकार के कथन या प्रकाशन पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(7) अपराध उ‌द्दीपन (Incitement to an Offence)- यह आधार सन् 1951 के प्रथम संशोधन द्वारा जोड़ा गया। यदि कोई व्यक्ति अपने किसी कथन द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को अपराध करने के लिए उकसाता है तो उसकी वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। बिहार राज्य बनाम शैलबाला देवी, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 329 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी भी अपराध के उ‌द्दीपन के आधार पर वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक लगाई जा सकती है।

(8) भारत की संप्रभुता तथा अखण्डता (Sovereignty and Integrity of India)- प्रतिबन्ध का यह आधार 16वें संशोधन 1963 द्वारा अनुच्छेद 19 (2) में जोड़ा गया। भारत की प्रभुता तथा अखण्डता के प्रतिकूल किसी वाक् एवं अभिव्यक्ति पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। किसी को भी ऐसा कथन या प्रकाशन करने की अनुमति नहीं होगी जिससे भारत की सम्प्रभुता तथा अखण्डता पर संकट उत्पन्न हो।

प्रश्न 9. (i) “किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं।”. प्रमुख वादों की सहायता से उपर्युक्त स्वतन्त्रता का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

“Nobody can be deprieved of life and personal liberty except by procedure established by law.” With the help of decided cases critically examine this freedom.

अथवा (Or)

अनुच्छेद 21 में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया में नैसर्गिक न्याय निहित है। विवेचना कीजिए।

Procedure established by law under Article 21 includes natural justice. Discuss.

अथवा (Or)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्रदान किये गये अधिकार की विवेचना कीजिए। Explain the right provided under Article 21 of the Indian Constitution.

(ii) क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में ‘मरने का अधिकार’ भी शामिल है? निर्णीत वादों का हवाला दीजिए।

State whether under Article 21 of the Constitution the ‘Right to life’ includes the ‘Right of die’? Refer to decided cases.

उत्तर- (i) प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण (Protection of Life and Personal Liberty) – प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ अधिकार है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 इस अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है। अनुच्छेद निम्न है-

            “किसी व्यक्ति को उसके प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं।”

        उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को उसकी प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया से ही वंचित किया जा सकता है अर्थात् कोई विधि या विधिक प्रक्रिया यदि अनुमति देती है तो किसी व्यक्ति को उसके प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है अन्यथा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि यह संरक्षण कार्यपालिका के विरुद्ध है विधान मण्डल के विरुद्ध नहीं- यानि विधान मण्डल कोई विधि पारित करके किसी व्यक्ति को उसके प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार से वंचित कर सकता है।

        सिद्धार्थ वशिष्ठ बनाम स्टेट, ए० आई० आर० (2010) एस० सी० 2382 के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया अभिव्यक्ति में ‘ऋजु विचारण’ भी सम्मिलित है।

           व्यक्ति- इस अनुच्छेद में नागरिक शब्द का प्रयोग न कर व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का यह अधिकार सिर्फ नागरिकों को ही प्राप्त नहीं है अपितु अनुच्छेद 21 का यह संरक्षण भारतीय नागरिकों तथा विदेशियों को साथ-साथ प्राप्त है।

         अमेरिकन संविधान के पाँचवें तथा चौदहवें संशोधन के अधीन इसी प्रकार का संरक्षण प्रदान किया गया है। अमेरिकन संविधान के पाँचवें संशोधन के अनुसार “कोई भी व्यक्ति उचित प्रक्रिया (Due process) के बिना अपनी दैहिक स्वतन्त्रता (personal liberty) से वंचित नहीं किया जायेगा। अमेरिकन न्यायालयों ने उचित विधिक प्रक्रिया का अर्थ व्यापक रूप से लगाकर इसे नैसर्गिक न्याय (Natural justice) के समान कर दिया है। भारत में मेनका गाँधी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 597 नामक वाद में पूर्व विधिक प्रक्रिया का अर्थ संकुचित था तथा उसके विधायिका द्वारा निर्धारित प्रक्रिया किसी भी प्रकार की हो सकती थी। परन्तु प्रस्तुत वाद में उच्चतम न्यायालय ने विधिक प्रक्रिया को अमेरिकन संविधान की उचित प्रक्रिया (due process) के समान स्तर पर ला दिया तथा कहा कि यदि विधायिका द्वारा निर्धारित प्रक्रिया में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का समावेश नहीं होगा तो यह प्रक्रिया असंवैधानिक होगी। [ओलगा तेलिस बनाम म्युनिसिपल कार्पोरेशन बाम्बे, ए० आई० आर० 1986 सु० को० 180]

       अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की अभिव्यक्ति जापानी संविधान के अनुच्छेद 31 से ग्रहण की गई है। जापान में इसकी व्याख्या राज्य द्वारा अधिनियमित विधि की स्थापित प्रक्रिया के रूप में की गई है।

       प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता (Life and Personal Liberty) का अर्थ एवं विस्तार – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत भारत के नागरिकों के साथ-साथ विदेशियों को भी प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता प्रतिभूत है जिन्हें बिना उचित प्रक्रिया द्वारा स्थापित विधि के वंचित नहीं किया जा सकता। इस अनुच्छेद द्वारा दो प्रकार की स्वतन्त्रता की गारण्टी दी गई है- (1) प्राण, और (2) दैहिक स्वतन्त्रता।

(1) प्राण- प्राण शब्द जीवन शब्द का द्योतक है। प्राण शब्द में किसी व्यक्ति की ख्याति (reputation) तथा आजीविका (Livelyhood) सम्मिलित है। बोर्ड ऑफ ट्रस्टी बनाम दिलीप कुमार (1983) 1 एस० सी० सी० 124 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना सेवामुक्त कर दिया जाता है यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। ओलगा तेलिस बनाम बाम्बे म्युनिसिपल कार्पोरेशन (1985) 3 एस० सी० सी० 545 नामक वाद में याची मुम्बई नगर की सड़कों की पटरियों के मलिन अथवा गन्दी बस्तियों में निवास करने वाले थे। ये लोग आधी शताब्दी से पटरियों पर जीवन यापन करते थे। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि याचियों को उनके निर्वास स्थान से वंचित कर दिया जाय तो वे अपनी जीविका (livelyhood) से वंचित हो जायेंगे। अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्रत्याभूत प्राण के अधिकार में जीविका का अधिकार भी सम्मिलित है। अतः यदि जीविका से वंचित किया जाना विधि द्वारा स्थापित युक्तियुक्त प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न नहीं किया जाता तो उससे अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इन फुटपाथ निवासियों के आवास की वैकल्पिक व्यवस्था कर उन्हें हटाया जा सकता है।

         ओलगा तेलिस के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्राण का तात्पर्य केवल प्राणी की विद्यमानता से नहीं है। इसका तात्पर्य केवल यह नहीं है कि प्राण को समाप्त न किया जाय या उसे ले न लिया जाय। यह तो प्राण के अधिकार का केवल एक पक्ष है। प्राण के अधिकार का दूसरा अर्थ है कि उसके अस्तित्व को बनाये रखा जाय तथा किसी प्राणी का जीवन उसकी जीविका बिना सम्भव नहीं है। यदि प्राण के अधिकार में जीविका के अधिकार को सम्मिलित न किया गया तो उसे जीविका के अधिकार से वंचित कर प्राण विलोप बिन्दु तक पहुँचा दिया जाना सम्भव होगा। जीविका के साधन से किसी को वंचित कर देने का तात्पर्य यह होगा कि उसे जीवन की सार्थकता तथा प्रभाव विषय वस्तु से वंचित करना। इस प्रकार प्राण और जीविका के साधन के मध्य एक घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः उस साधन को जो प्राण जीवित रहने के लिए समर्थ बनाता है, प्राण के अधिकार का अभिन्न अंग मानना चाहिए।

        यह स्मरणीय है कि संविधान का अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति को प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित करने पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगाता परन्तु यह आवश्यक करता है कि इस वचन के लिए विधि द्वारा स्थापित एक उचित (reasonable) प्रक्रिया होनी चाहिए जिसमें प्राकृतिक न्याय का समावेश हो। जैसे दण्ड संहिता का प्रावधान 302 है जिसके अन्तर्गत प्रक्रिया अपनाकर व्यक्ति को प्राण से वंचित भी किया जा सकता है।

         दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Personal Liberty) – दैहिक स्वतन्त्रता पदावली एक विस्तृत अर्थ वाली पदावली है। इसका मुख्य तात्पर्य व्यक्ति की निजी स्वतन्त्रता से है जब किसी व्यक्ति को निरुद्ध कर लिया जाता है या बन्दी बना लिया जाता है तो यह कहा जाता है कि उसकी दैहिक स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। इस प्रकार यदि बन्दीकरण या निरोध अथवा कारावास विधि की स्थापित प्रक्रिया के अनुसार नहीं किया गया है तो अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।

          ए० के० गोपालन बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 27 नामक वाद में दैहिक स्वतन्त्रता पदावली का निर्वचन सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय द्वारा किया गया। इस वाद में याची को निवारक निरोध अधिनियम, 1950 के अन्तर्गत निरुद्ध करके जेल में बन्द कर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि यद्यपि स्वतन्त्रता व्यापक अर्थ वाला शब्द है। किन्तु अनुच्छेद 21 में उसके क्षेत्र को दैहिक विशेषण लगाकर सीमित कर दिया गया है। उस अर्थ में दैहिक स्वतन्त्रता का अर्थ शारीरिक स्वतन्त्रता मात्र से है। डायसी के अनुसार दैहिक स्वतन्त्रता का अर्थ सभी व्यक्तियों का बिना विधिक औचित्य में जाना, गिरफ्तारी तथा अन्य शारीरिक अवरोध के विरुद्ध स्वतन्त्रता है। न्यायालय के अनुसार अनुच्छेद 19 तथा अनुच्छेद 21 विभिन्न पहलुओं पर आधारित है। दैहिक स्वतन्त्रता, समस्त भारत में भ्रमण करने के अधिकार से बिल्कुल भिन्न है। याचौ को उसकी दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया गया था। अतः उपर्युक्त निरोध संवैधानिक था।

           उच्चतम न्यायालय ने अपने पश्चात्वर्ती विनिश्चयों में ए० के० गोपालन के वाद में दिये गये निर्णय को अस्वीकार कर दिया है तथा अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त दैहिक स्वतन्त्रता का व्यापक अर्थ लगाया है। मेनका गाँधी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 597 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने ए० के० गोपालन नामक वाद में दिये गए निर्णय को एक प्रकार से उलट दिया है तथा ए० के० गोपालन में न्यायमूर्ति फजल अली द्वारा दिये गये विमत को स्वीकार कर लिया है। मेनका गाँधी वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने दैहिक स्वतन्त्रता को व्यापक अर्थ देते हुए कहा कि दैहिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत वे सभी प्रकार के अधिकार सम्मिलित हैं जो व्यक्ति की दैहिक स्वतन्त्रता को पूर्ण बनाते हैं जिनमें कुछ को अनुच्छेद 19 के अधीन सुस्पष्ट एवं भिन्न मूल अधिकार का दर्जा दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 अब कार्यपालिका तथा विधायिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। मेनका गाँधी के वाद में उच्चतम न्यायालय का निर्णय अनुच्छेद 21 में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों को सम्मिलित करते हुए इसे अमेरिकन स्थिति प्रदान करता है। इस वाद में मेनका गाँधी का पासपोर्ट लोकहित में अवरुद्ध (impound) कर लिया गया था तथा ऐसा करने का कारण लोकहित में नहीं बताया गया था। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती ने कहा कि याची को उसके पासपोर्ट को अवरुद्ध करने का कारण न बताना नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन है। पासपोर्ट एक्ट चूँकि पासपोर्ट अवरुद्ध करने का कारण बताने का प्रावधान सम्मिलित करता है अतः यह असंवैधानिक नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दैहिक स्वतन्त्रता में निर्वाध आवागमन की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है तथा किसी व्यक्ति को विदेश भ्रमण के अधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत उसे प्रदत्त दैहिक स्वतन्त्रता का अतिलंघन है।

       खरक सिंह बनाम उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 1963 सु० को० 1295 नामक बाद में याची पर डकैती का आरोप था परन्तु उसे पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में दोषमुक्त कर दिया गया था। उत्तर प्रदेश पुलिस विनियमन के अधीन उत्तर प्रदेश सरकार ने उसे पुलिस की निगरानी में रखा था। इस विनियमन के अधीन पुलिस उसके घर रात्रि में जाकर देखती थी कि वह घर में है या नहीं। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि रात्रि में याची के घर पुलिस आना उसकी दैहिक स्वतन्त्रता का उल्लंघन है। यह उसकी वैयक्तिक (personal) तथा व्यक्तिगत एकान्तता के अधिकार (right of privacy) का अतिलंघन है। अतः यह असंवैधानिक है।

         गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 1379 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिनियम के अन्तर्गत किसी व्यक्ति पर निगरानी रखना विधिक समर्थन के अन्तर्गत है अतः वैध है। उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि मान लिया जाय कि एकान्तता का अधिकार है परन्तु यह अधिकार आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। यह देखना होगा कि व्यक्ति का चरित्र कैसा है। याची अपराधी चरित्र का व्यक्ति था। अतः उसकी समानता के अधिकार पर लगाया गया निर्बन्धन (restriction) मान्य है।

         महाराष्ट्र राज्य बनाम मधुकर नारायण, ए० आई० आर० 1991 सु० को० 207 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एकान्तता (privacy) का अधिकार एक बुरे चरित्र वाली महिला को भी प्राप्त है। पुलिस को उसके घर में इस आधार पर प्रवेश करने तथा छेड़छाड़ करने का अधिकार नहीं है कि वह एक बुरे चरित्र की महिला है। अनुच्छेद 21 का संरक्षण ऐसी महिला को भी प्राप्त है।

         प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के व्यापक आयाम – नवीन दृष्टिकोण (Right to life and personal liberty wide dimension new outlook)- सतवन्त सिंह बनाम सहायक पासपोर्ट अधिकारी, नई दिल्ली, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 1836 नामक बाद में, ए० के० गोपालन के वाद के निर्णय के प्रतिकूल यह निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 में प्रदत्त संवैधानिक अधिकार के बिना सम्भव नहीं है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता में विदेश भ्रमण की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है तथा बिना विधिक प्रक्रिया के इस अधिकार को छीना नहीं जा सकता। मेनका गाँधी बनाम भारत संघ, ए०आई० आर० 1978 सु० को० 597 नामक वाद में उक्त निर्णय की पुष्टि की गई।

         डी० वी० एन० पटनायक बनाम आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० 1977 सु० को० 2012 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार किसी व्यक्ति के विरुद्ध होने पर समाप्त नहीं हो जाते। ये अधिकार उन व्यक्तियों को भी प्राप्त हैं जिन्हें न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया जा चुका है। ए० के० राय बनाम भारत संघ (1980) 1 एस० सी० सी० 194 नामक वांद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त विधि के अन्तर्गत अध्यादेश भी सम्मिलित है।

          नियमन संगमा बनाम होम सेक्रेटरी, (1980) 1 एस० सी० सी० 700 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि विचाराधीन कैदी को एक लम्बी अवधि तक निरोध में रखा जाता है तथा उसका विचारण नहीं किया जाता तो इससे अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन होता है।

         जगमोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1972 एस० सी० 947 नामक वाद में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 जो मृत्युदण्ड का प्रावधान करती है, को संवैधानिक घोषित करते हुए इसे अनुच्छेद 14 तथा 21 का अतिलंघन नहीं माना।

      डॉ महमूद नायर आजम बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, ए० आई० आर० (2012) एस० सी० 2573 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि जीने के अधिकार में मानव गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार सम्मिलित है। गरिमा का प्रश्न व्यक्ति के अभिरक्षा में रहने पर समाप्त नहीं हो जाता।

         नेशनल लीगल सर्विसेज आधोरिटी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 1863 के वाद में यह अभिमत व्यक्त किया गया है कि मानव अधिकार सभी व्यक्तियों को उपलब्ध है, यहाँ तक कि ट्रांसजेन्डर व्यक्ति अर्थात् हिजड़े को भी उपलब्ध है। यदि म्युनिसिपल विधि में इनके बारे में कोई प्रावधान नहीं हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमयों का अनुसरण करते हुए इनके हितों एवं अधिकारों का संरक्षण किया जाना चाहिये। शब्द ‘व्यक्ति” में हिजड़े भी सम्मिलित हैं।

       टी० वी० वथीस्वरन बनाम तमिलनाडु राज्य, (1983) 2 एस० सी० सी० 68 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मृत्युदण्ड के निष्पादन में दस वर्ष का विलम्ब अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।

       महाराष्ट्र राज्य बनाम श्रीपति दूबल नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 जिसके अधीन आत्महत्या को अपराध घोषित किया गया है, यह धारा अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है अतः अवैध है।”

       अनुच्छेद 21 के अधीन जीने के अधिकार में मरने का अधिकार भी सम्मिलित है। धारा 309 मरने का अधिकार छीनती है। अतः अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है अतः अवैध है।

         जावेद बनाम हरियाणा, ए० आई० आर० 2003, सु० को० 3057 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दो बच्चों के रहते निर्वाचन लड़ने के अधिकार पर अनर्हता (अयोग्यता) किसी मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं है और न ही यह युक्तियुक्तता की सीमा को पार करती है।

       दलीप कुमार झा बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए० आई० आर० (2015) एन० ओ० सी० 562 पंजाब एवं हरियाणा के मामले में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि गरिमायुक्त जीवन जीने का अधिकार केवल जीवित व्यक्तियों को ही उपलब्ध नहीं है, अपितु मृत्यु के बाद भी उपलब्ध रहता है।

उत्तर- (ii) क्या जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल है? मरने के अधिकार को जीने के अधिकार में शामिल किया जाये या न किया जाये इस विषय पर न्यायालय में विभिन्न मत रहे हैं। सर्वप्रथम महाराष्ट्र राज्य बनाम श्रीपति दूबल (1987) Cr. L.J. 743 के वाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 के अधीन ‘जीने के अधिकार’ (Right to live) में मरने का अधिकार भी शामिल है।

       इसके विपरीत चेन्ना जगादेश्वर बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, 1988 Cr. L.J. 549 के वाद में आन्ध्र प्रदेश राज्य के उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। अतः भारतीय दण्ड संहिता की धारा-309 जो कि आत्महत्या के प्रयास को दण्डनीय बनाती है, संवैधानिक है तथा वह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं करती है। पी० रतीनाम बनाम भारत संघ (1994) 3 एस० सौ० सी० 394 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में ‘मरने का अधिकार’ भी शामिल है। अतः भारतीय दण्ड संहिता की धारा-309, अनुच्छेद 21 के विरुद्ध होने के कारण असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-309, अनुच्छेद 21 के विरुद्ध होने के कारण असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-309 क्रूर तथा न्याय के विरुद्ध है, क्योंकि वह ऐसे व्यक्ति को दण्ड देने का प्रावधान करती है, जो पहले से ही पीड़ित है और जिसे मानसिक रोग से जूझने की सलाह की आवश्यकता है और दूसरों को कोई हानि नहीं पहुंचाता है।

          परन्तु ज्ञान (ग्यान) कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) 2 एस० सी० सी० 649 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय को उलट दिया तथा यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में मरने का अधिकार’ शामिल नहीं है। न्यायालय ने कहा कि जीवन के अन्तिम क्षण तक गरिमा से मरने के अधिकार की तुलना जीवन की सामान्य अवधि को कम करके अप्राकृतिक रूप से मरने का अधिकार नहीं कही जा सकती है। ‘मरने का अधिकार’ तथा ‘जीने का अधिकार’ एक-दूसरे के विरोधी हैं। इसलिए वे एक-दूसरे में शामिल नहीं हो सकते हैं।

        अतः वर्तमान में अनुच्छेद 21 के सन्दर्भ में यह स्पष्ट है कि ‘जीवन के अधिकार’ में ‘मरने का अधिकार’ शामिल नहीं है।’

प्रश्न 10. (i) निम्नलिखित पर व्याख्यात्मक टिप्पणी लिखिए –

(1) मृत्युदण्ड की संवैधानिकता

(2) शिक्षा का मूल अधिकार

Write explanatory notes on the following-

(1) Constitutionality of Death Penalty.

(2) Fundamental Right to Education.

(ii) निवारक निरोध क्या है? दाण्डिक निरोध से यह किस प्रकार भिन्न है? निवारक निरोध के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति को क्या-क्या संवैधानिक सुरक्षाएँ प्राप्त हैं? विवेचना करें।

What is preventivë detention? In what manner it differs from penal detention? What Constitutional safeguards are available to detained person? Discuss.

उत्तर- (i) (1) मृत्युदण्ड की संवैधानिकता (Constitutionality of Death Penalty)-एक मृत्युदण्ड प्राप्त अभियुक्त का यह कहना कि चूँकि मृत्युदण्ड देने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन कोई युक्तियुक्त प्रक्रिया विहित नहीं है, अतः यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, अभियुक्त के इस तर्क पर उच्चतम न्यायालय ने सबसे पहले जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 947 के वाद में विचार किया था। न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया कि मृत्युदण्ड से अनुच्छेद 19 और 21 ka उल्लंघन नहीं होता है क्योंकि मृत्युदण्ड और आजीवन कारावास में चुनाव करते समय न्यायालय विधि द्वारा विहित दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) के अनुसार ही कार्य करता है।

        किन्तु राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 916 के मामले में न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने कहा कि न्यायालय को मृत्युदण्ड और आजीवन कारावास में विशिष्ट कारणों के आधार पर चुनाव करने के अधिकार से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होता है, अतः उन्होंने मृत्युदण्ड को समाप्त करने की बड़ी जोरदार सिफारिश करते हुए यह मत प्रकट किया है कि उसे केवल सफेदपोश गम्भीर सामाजिक अपराधों के मामलों में ही दिया जाना चाहिए।

        बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 898 के बाद में न्यायालय ने 4 : 1 के बहुमत से निर्णय दिया है कि मृत्यु कारित करने के लिए मृत्युदण्ड का वैकल्पिक दण्ड अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं करता है और संवैधानिक है। Cr. P.C. की धारा-354 (3) में मृत्युदण्ड दिये जाने की विहित प्रक्रिया अयुक्तियुक्त और अन्यायपूर्ण नहीं है और अनुच्छेद 14, 19, 21 का अतिक्रमण नहीं करती है।

       भारत के महान्यायवादी बनाम लक्ष्मी देवी, ए० आई० र० 1986 सु० को० 467 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि सबके सामने मृत्युदण्ड देना अनुच्छेद 21 के अधीन प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन है। अमानवीय अपराधों के लिए अमानवीय प्रकार से मृत्युदण्ड देना आवश्यक एवं उचित नहीं है।

(2) शिक्षा का मूल अधिकार (Fundamental Right to Education)- संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा एक नया अनुच्छेद 21-क जोड़ा गया है जो यह उपबन्धित करता है कि “राज्य ऐसी रीति से जैसे कि विधि बनाकर निर्धारित करे, 6 – वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों के लिए निः शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए उपबन्ध करेगा।”

       शिक्षा का अधिकार एक मूलभूत मानव अधिकार है। किसी भी लोकतान्त्रिक प्रणाली की सरकार की सफलता वहाँ के सभी नागरिकों के शिक्षित होने पर निर्भर करती है। एक शिक्षित नागरिक स्वयं को विकसित करता है और साथ ही साथ अपने देश को भी विकास की ओर बढ़ने में योगदान करता है। शिक्षा ही एक व्यक्ति को मानव की गरिमा प्रदान करती है। हमारे देश में यह कहा गया है कि एक अशिक्षित व्यक्ति पशु के समान है, इसलिए शिक्षा अति महत्वपूर्ण है किन्तु हमारे संविधान निर्माताओं ने सभी बालकों को शिक्षा देने का कर्त्तव्य संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व के रूप में भाग-4 में रखा था। अनुच्छेद 45 के अधीन राज्य का 14 वर्ष की आयु के सभी वालकों को निः शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने का कर्तव्य था। यह माना गया था कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें संविधान के इस निदेश को ईमानदारी से कार्यान्वित करेंगी। नीति निर्देशकों को मूल अधिकारों से कम महत्व नहीं दिया गया है। डॉ० अम्बेडर ने यह कहा था कि निदेशक तत्व एक पवित्र घोषणा मात्र नहीं हैं बल्कि एक सांविधानिक दायित्व हैं और उन्हें लागू न करने पर सरकारों को जनता के समक्ष जवाब देना पड़ेगा और कोई भी सरकार इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती है। संविधान लागू होने के कई वर्ष बीत जाने के फलस्वरूप आज भी भारत के 35 प्रतिशत बालक शिक्षा से वंचित हैं।

        इस बीच उच्चतम न्यायालय ने यूनीकृष्णन बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, (1993) 4 एस० सी० सी० 645 के वाद में 6 वर्ष 14 वर्ष के बालकों की शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार घोषित कर दिया। सभी ओर से शिक्षा से अधिकार को मूल अधिकार घोषित करने की माँग उठायी जाती रही। इसके फलस्वरूप सरकार ने 86 वें संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार बना दिया।

        स्टेट आफ कर्नाटक बनाम एसोसियेटेड मैनेजमेन्ट ऑफ प्राइमरी एण्ड सेकेण्डरी स्कूल्स, ए० आई० आर० (2014) एस० सी० 2094 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि निःशुल्क शिक्षा के अधिकार में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा अथवा अनुदेश का माध्यम का चयन करने का अधिकार सम्मिलित नहीं है।

        वजमा कौसिर बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर, ए० आई० आर० (2015) एन० ओ० सी० 850 जम्मू एण्ड कश्मीर के बाद में जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा यह विनिर्धारित किया गया है कि रोजगारोन्मुखी वृत्तिक पाठ्यक्रमों में शिक्षा के अधिकार को विनियमित करने के लिए राज्य युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है।

उत्तर (ii)- निवारक निरोध (Preventive Detention) – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। इस अनुच्छेद के अनुसार किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित किया जा सकता है। संविधान का अनुच्छेद 22 अपने सात खण्डों के माध्यम से गिरफ्तारी तथा निरोध के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है। इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त संरक्षण नागरिक तथा विदेशी व्यक्ति को समान रूप से उपलब्ध है।

       भारतीय संविधान का अनुच्छेद दो प्रकार का संरक्षण प्रदान करता है-

(1) सामान्य दण्ड के अन्तर्गत गिरफ्तारी के विरुद्ध; तथा

(2) निवारक निरोध के अन्तर्गत गिरफ्तारी के विरुद्ध।

       निवारक निरोध (Preventive detention)- निवारक निरोध अपराधों के निवारण के उद्देश्य के अन्तर्गत किया जाता है। अपराध गठित न हो, इसके लिए किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करना निवारक निरोध है। यह अपराध होने के पूर्व की स्थिति है। यदि किसी व्यक्ति के प्रति यह आशंका है कि वह व्यक्ति अपराध करेगा तो ऐसी दशा में उसे वह अपराध करने से वंचित करने के लिए उसकी गिरफ्तारी जब की जाती है तो ऐसा निरोध (गिरफ्तारी) निवारक निरोध कहा जाता है। अनुच्छेद 22 के खण्ड (4) में निवारक निरोध शब्द का प्रयोग किया गया है। निवारक निरोध के विरुद्ध संरक्षण अनुच्छेद 22 के खण्ड (4) से खण्ड (7) तक है जबकि किसी सामान्य दण्ड के अन्तर्गत गिरफ्तारी के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण अनुच्छेद 22 के खण्ड (1) तथा खण्ड (2) के अन्तर्गत प्राप्त है। खण्ड (3) यह उपबन्ध करता है कि अनुच्छेद 22 के खण्ड (1) तथा खण्ड (2) के उपबन्ध विदेशी शत्रु देश के व्यक्ति पर लागू नहीं होंगे जो निवारक निरोध के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया है।

       निवारक निरोध का तात्पर्य उस निरोध से है जो विचारण तथा दोषसिद्धि के बिना किसी कार्यपालक प्राधिकारी (executive authority) द्वारा किसी आपराधिक आचरण में सम्मिलित होने के सन्देह के आधार पर किया जाय। निवारक निरोध के प्रावधान ब्रिटिश तथा कनाडियन संविधान में भी विद्यमान हैं।

        भारत में निवारक निरोध विधि संविधान का अंग है। अमेरिका में यह संविधान का अंग नहीं है परन्तु उसे सिर्फ आपातकाल में विशेष अधिनियम द्वारा लागू किया जाता है जिसकी घोषणा राष्ट्रपति को करनी पड़ती है। इंग्लैण्ड में भी ऐसी ही स्थिति है। भारत में इसका प्रयोग युद्ध तथा शान्ति दोनों में किया जाता है। निवारक निरोध विधियों को संवैधानिक स्तर प्रदान करने का उद्देश्य समाज विरोधी तथा देश को खतरा पहुँचाने वाले तत्वों को दबाना है। ए० के० गोपालन बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1960 एस० सी० 119 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि लोकतान्त्रिक संविधान में निवारक निरोध जैसा प्रावधान नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन तो करता है परन्तु यह उन समाज विरोधी तथा विनाशकारी तत्वों द्वारा, जो नवजात गणतन्त्र के हित को खतरे में डाल सकते हैं, किए जाने वाले स्वतन्त्रता के दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से रखा गया है।

        निवारक तथा दण्डात्मक निरोध – निवारक तथा दण्डात्मक एक-दूसरे के विलोम हैं। निवारक गिरफ्तारी तथा दण्डात्मक गिरफ्तारी में निम्नलिखित अन्तर हैं-

दण्डात्मक निरोध (Penal Detention)

(1) दण्डात्मक निरोध का उद्देश्य किसी व्यक्ति को दण्ड देना है।

(2) दण्डात्मक निरोध में एक व्यक्ति पर किसी अपराध को करने का आरोप लगाया गया होता है।

(3) दण्डात्मक निरोध किसी आक्षेप का विचारण करने के पश्चात एक निश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत होते हैं।

(4) दण्डात्मक निरोध अपराध घटित होने के पश्चात अभियुक्त के विचारण तथा दोषसिद्धि के पश्चात की स्थिति है।

(5) दण्डात्मक निरोध किसी न्यायिक अधिकारी के आदेश के अन्तर्गत होता है जो अपराध के विचारण के पश्चात् दिया जाता है।

निवारक निरोध(Preventive Detention)

(1) निवारक निरोध का उद्देश्य किसी व्यक्ति को किसी अपराध को करने से रोकना है।

(2) निवारक निरोध में निरुद्ध व्यक्ति पर किसी अपराध के करने का सन्देह मात्र होता है।

(3) निवारक निरोध में किसी अपराध के विचारण की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती।

(4) निवारक निरोध अपराध घटित होने के पूर्व की स्थिति है तथा इसमें अपराध के घटित होने के निवारण का उद्देश्य होता है।

(5) निवारक निरोध एक कार्यपालक प्राधिकारी के आदेश के अन्तर्गत किसी व्यक्ति द्वारा किसी अपराध के किये जाने के सन्देह के आधार पर होता है।

        भारतीय संसद ने सन् 1980 में निवारक निरोध अधिनियम पारित किया। प्रारम्भ में यह अधिनियम कठोरता के साथ लागू हुआ परन्तु बाद काम लिया गया। सन् 1967 में कांगेस ने में इसके प्रवर्तन में सरकार द्वारा उदारता से वामपंथी दलों के सहयोग से एक अल्पमत सरकार का गठन किया। वामपंथी दलों के दबाव के अन्तर्गत 31 सितम्बर, 1969 ई० को यह अधिनियम समाप्त कर दिया गया।

       सन् 1971 के चुनाव में कांग्रेस बहुमत में आई और उसने निवारक निरोध अधिनियम को आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम के नाम से पारित कराया। इस अधिनियम की धारा 17 (क) किसी व्यक्ति को सलाहकार परिषद् की राय के बगैर दो वर्षों तक निरोध (detain) करने की व्यवस्था करती है। निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 12 के अन्तर्गत यह अवधि एक वर्ष की थी। सन् 1977 में जब केन्द्र में जनता पार्टी पदारूढ़ हुई, उसने आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम को समाप्त कर दिया। परन्तु अब भी निवारक के उपबन्ध निम्न विधियों में उपलब्ध हैं-

(1) विदेशी मुद्रा संरक्षण तथा तस्करी निवारण अधिनियम, 1974 (Conservation of Foreign Exchange and Preventions of Smuggling Activities Act-COFEPOSA)

(2) विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (Foreign Exchange Regulation Act-FERA)

(3) प्रिवेन्शन ऑफ ब्लैक मार्केटिंग एण्ड मेन्टीनेन्स ऑफ सप्लाइज ऑफ इसेन्सियल कमोडिटीज एक्ट, 1980.

(4) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (National Security Act), 1980.

निरुद्ध व्यक्ति को प्राप्त संवैधानिक संरक्षण (The Constitutional Safe- guards Available to Detained Persons) भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 किसी निरुद्ध व्यक्ति को कुछ संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करता है। अनुच्छेद 22 का खण्ड (1) तथा खण्ड (2) सामान्य दाण्डिक विधि के अधीन निरुद्ध व्यक्ति के विरुद्ध संवैधानिक सुरक्षा का उल्लेख करता है जबकि खण्ड (4) से खण्ड (7) तक निवारक विधियों के अन्तर्गत निरुद्ध (गिरफ्तार) व्यक्तियों को संवैधानिक सुरक्षा का उल्लेख करती है।

       सामान्य विधि के अधीन गिरफ्तारी से संरक्षण- दाण्डिक विधि के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति को प्राप्त संरक्षण का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 22 के खण्ड (1) तथा खण्ड (2) में हैं। ये संवैधानिक संरक्षण निम्नलिखित हैं-

(1) गिरफ्तारी के कारणों को शीघ्रातिशीघ्र बताये जाने का अधिकार,

(2) अपनी रुचि के वकील से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार,

(3) गिरफ्तारी के पश्चात् 24 घण्टों के अन्दर किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किये जाने का अधिकार,

(4) 24 घण्टे से अधिक मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना निरोध से स्वतन्त्रता ।

अपवाद – अनुच्छेद 22 (3) खण्ड (1) तथा खण्ड (2) के अपवाद हैं। अनुच्छेद 22 के खण्ड (1) तथा खण्ड (2) के अन्तर्गत उपलब्ध उपरोक्त संरक्षण शत्रु देश के व्यक्तियों और निवारक अधिनियम के अधीन गिरफ्तार व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं है। शत्रु देश का व्यक्ति यदि उसे निवारक निरोध के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया है तो अनुच्छेद 22 खण्ड (4) तथा खण्ड (5) के अधीन संरक्षण का दावा कर सकता है।

       निवारक निरोध विधियों के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण– निवारक विधि के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्तियों को अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 से खण्ड (6) तक कुछ संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है। ये निम्न हैं-

(1) सलाहकार परिषद् द्वारा पुनर्विलोकन (Review of Advisory Board) खण्ड (4)

(2) गिरफ्तारी के कारण जानने तथा अभ्यावेदन प्रतिवेदन प्रस्तुत करने का अधिकार [अनुच्छेद 22 (5)]

(3) सलाहकार परिषद् की प्रक्रिया (Procedure of Advisory Board) अनुच्छेद 22 (6)

       अनुच्छेद 22 खण्ड (7) संसद को विधि द्वारा कुछ विहित (prescribe) करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

(1) सलाहकार परिषद् द्वारा पुनर्विलोकन (Review by Advisory Board)- अनुच्छेद 22 खण्ड (4) – सन् 1978 के 44 वें संशोधन के पूर्व किसी व्यक्ति की निवारक निरोध के अन्तर्गत 3 माह से अधिक उसी परिस्थिति में सम्भव थी जब एक सलाहकार परिषद 3 माह की समाप्ति के पूर्व यह रिपोर्ट दे दे कि गिरफ्तारी या निरोध के पर्याप्त कारण हैं। यदि सलाहकार परिषद् निरोध के विरुद्ध प्रतिवेदन दे तो निरोध का आदेश सरकार द्वारा रद्द कर देना पड़ता था। निरोध उस अवधि से अधिक का नहीं हो सकता था जो संसद द्वारा इसके लिए विहित (prescribe) की गई हो।

         सन् 1978 के 44 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद (4) तथा खण्ड (7) में संशोधन किया गया। अब यह अवधि घटाकर 2 माह कर दी गई। अब सलाहकार परिषद का गठन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से किया जायेगा। इसमें एक अध्यक्ष तथा कम से कम दो सदस्य होंगे। परिषद् का अध्यक्ष उच्च न्यायालय का कार्यरत न्यायाधीश ही हो सकते हैं। संशोधन के पश्चात अब किसी व्यक्ति को 2 माह की अवधि से अधिक अवधि के लिए सलाहकार परिषद् की राय के लिए निरुद्ध नहीं किया जा सकता। संशोधन द्वारा खण्ड (7) का उपबन्ध (ब) निरस्त कर दिया गया।

         कार्यपालिका के मनमानेपन के विरुद्ध यह संरक्षण है। अब कार्यपालिका 2 माह से अधिक अवधि तक किसी को निरुद्ध नहीं रख सकती तथा सलाहकार परिषद् की राय में यदि निरोध अनुचित है तो निरुद्ध व्यक्ति को मुक्त कर दिया जायेगा। परन्तु अभी तक 44 वें संशोधन को लागू नहीं किया गया है।

         नन्द लाल बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 2041 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि निरुद्ध व्यक्ति को विधिक सहायता का कोई अधिकार नहीं है। परन्तु यदि परिषद चाहे तो यह अनुमति दे सकता है। ऐसी परिस्थिति में सरकार को निरुद्ध व्यक्ति के लिए विधिक सलाह की व्यवस्था करनी होगी।

(2) गिरफ्तारी के कारण जानने का अधिकार (Right to know the Cause of Detention)-अनुच्छेद 22 (5) के अन्तर्गत निवारक निरोध के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति को दो संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की गई है- (1) गिरफ्तारी के आधारों (कारणों) को जानने का अधिकार, तथा (2) गिरफ्तारी के आदेश के विरुद्ध प्रतिवेदन (अभ्यावेदन : representation) करने का अधिकार।

        अनुच्छेद 22 खण्ड (5) निरोध आदेश जारी करने वाले प्राधिकारी को यह निर्देश देता है कि वह गिरफ्तार व्यक्ति को यथाशीघ्र उसको निरोध के आधारों (grounds) से अवगत कराये। आधार शब्द में वे सभी मूल तथ्य (basic facts) तथा सामग्रियाँ (materials) भी आते हैं, जिनके आधार पर निरोध आदेश पारित किया गया है। यदि विलेखों तथा सामग्रियों को निरुद्ध व्यक्ति को उपलब्ध कराने में विलम्ब होता है तथा उस विलम्ब का कोई कारण नहीं बताया जाता तो वह निरोध अवैध हो जायेगा। इब्राहित अहमद बनाम गुजरात राज्य, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 53 गिरफ्तारी के आधार स्पष्ट तथा बोधगम्य होने चाहिए अर्थात् वे ऐसी भाषा में होने चाहिए जिसे निरुद्ध व्यक्ति जानता हो। नयन मल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1500।

        दूसरी शर्त यह है कि निरोध आदेश में जो कारण बताये जायें, उनका वास्तव में अस्तित्व होना चाहिए। ये कारण भ्रामक तथा काल्पनिक नहीं होने चाहिए। इन आधारों में न तो कोई अंश छिपाया जाना चाहिए न जोड़ा जाना चाहिए। शिब्बन लाल सक्सेना बनाम उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 1954 सु० को० 179 नामक वाद में एक आधार रद्द कर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निवारक निरोध को असंवैधानिक करार दिया।

         निरोध विधि में संशोधन – राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में संशोधन करके न्यायिक पुनर्विलोकन के क्षेत्र में काफी सीमित कर दिया गया है। इस संशोधन के अनुसार अधिनियम के अन्तर्गत निरोध आदेश सिर्फ इस आधार पर निरस्त नहीं किया जायेगा कि निरोध के आधारों में से कोई एक अस्पष्ट तथा अस्तित्व में नहीं है। निरोध के प्रत्येक आधार पृथक माने जायेंगे। एक आधार के अवैध हो जाने पर निरोध अवैध नहीं होगा।

(3) अभ्यावेदन प्रतिवेदन (Representation) देने के अधिकार- निवारण निरोध के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति का दूसरा महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार अपने निरोध के विरुद्ध अभ्यावेदन प्रतिवेदन देने का अधिकार है। निरुद्ध व्यक्ति को यथाशीघ्र प्रतिवेदन देने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। यदि अभ्यावेदन पत्र तैयार करने के लिए कुछ तथ्यों की आवश्यकता है तो माँगने पर उन तथ्यों को उपलब्ध कराना चाहिए। उपलब्ध कराये गये तथ्य परिस्थितियों के अनुसार निरुद्ध व्यक्ति को प्रभावी रूप में अभ्यावेदन प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त है?

        वसीउद्दीन अहमद बनाम जिलाधिकारी, अलीगढ़, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 2166 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 22 (5) में “और अवसर देगा” शब्दावली निरोध प्राधिकारी के ऊपर यह कर्त्तव्य अधिरोपित करता है कि वह निरोध के आधारों के साथ-साथ निरुद्ध व्यक्ति को यह बताये कि उसे सलाहकार परिषद् के समक्ष अभ्यावेदन करने का अधिकार प्राप्त है। आधार शब्द में वे सभी मूल तथ्य तथा सामग्रियाँ आते हैं जिनके आधार पर निरोध आदेश पारित किया गया। निरोध के आधार पर उससे सम्बन्धित सभी मूल तथ्य तथा आवश्यक प्रलेख साथ-साथ दिया जाना आवश्यक है।

         अशोक कुमार बनाम दिल्ली प्रशासन, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1143 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधि यह है कि निरोध आदेश पारित करने वाला प्राधिकारी निरुद्ध व्यक्ति को निरोध का आधार दे, न कि आधार पहले दे और फिर निरोध आदेश पारित करे। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अधीन 5 से 10 दिवस के भीतर निरोध के आधार बताये जाने आवश्यक हैं जैसा कि मामले की परिस्थितियों के अनुसार उचित हो।

          अनुच्छेद 22 (5) के अन्तर्गत समुचित अधिकारी निरुद्ध व्यक्ति के अभ्यावेदन (representation) पर यथाशीघ्र विचार करने के लिए आबद्ध है। यदि निरुद्ध व्यक्ति के अभ्यावेदन निपटाने में विलम्ब होता है जिसके लिए राज्य द्वारा स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है तो इससे अनुच्छेद 22 (5) का उल्लंघन होता है तथा निरोध आधार अवैध हो जाता है। खातून बेगम बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 1077 अभ्यावेदन 24 अक्टूबर, 1980, 25 नवम्बर, 1980 को अस्वीकार। विलम्ब का कोई कारण नहीं। निरोध अवैध ।

       बालचन्द्र चौरसिया बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 297 नामक वाद में सरकार ने याची के अभ्यावेदन पर विचार किए बिना उसके निरोध आदेश को अनुमोदित कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि चूँकि सरकार द्वारा प्रतिवेदन पर विचार नहीं किया गया था जिसके लिए सरकार प्रतिबद्ध थी अतः निरोध आदेश असंवैधानिक माना गया।

         निवारक निरोध के तथ्य लोकहित में प्रकट नहीं किये जा सकते – अनुच्छेद 22. (5) के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति को प्राप्त संवैधानिक अधिकार का अपवाद अनुच्छेद 22 (6) में है। इसके अनुसार यदि निवारक निरोध आदेश जारी करने वाले प्राधिकारी की राय में लोकहित में निरोध का आधार बताना उचित नहीं होगा तो यह उन आधारों को प्रकट करने से रोक सकता है। लोकहित सम्बन्धी तथ्यों का निर्णय कार्यपालिका का है। [पूरन लाल बनाम भारत संघ, ए० आई० आई० आर० 1985 एस० सी० 163]

प्रश्न 11. भारतीय संविधान के अन्तर्गत धार्मिक स्वतन्त्रता के संरक्षण के विस्तार की व्याख्या कीजिए।

Discuss the extent to which religious freedom is guaranteed under the Indian Constitution.

अथवा (Or)

धर्म की स्वतंत्रता से सम्बन्धित संविधान के प्रावधानों की विवेचना कीजिए।

Discuss the provisions of the Constitution relating to freedom of religion.

उत्तर- धर्म निरपेक्षता (Secularism) – धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि धर्म के आधार पर भेदभाव न किया जाना। सभी धर्मों को समान संरक्षण प्रदान करना जनता को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करना धर्मनिरपेक्षता का ही प्रतीक है। राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। राज्य राजकीय कार्यों में सम्प्रभु होता है, धार्मिक क्षेत्र में इसका क्षेत्राधिकार नहीं होता है। कई बार धर्मनिरपेक्षता को धर्म के विरुद्ध माना जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। धर्मनिरपेक्षता व धार्मिक स्वतन्त्रता दोनों का साथ में अस्तित्व हो सकता है। धर्म अन्तःकरण का विषय है। इसे किसी पर थोपा नहीं जा सकता। इसका सीधा सम्बन्ध मन अर्थात् आत्मा से है।

       भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-28 धार्मिक स्वतन्त्रता के बारे में हैं। भारत राष्ट्र का अपना कोई धर्म नहीं है। यह प्रत्येक धर्म को समान आदर प्रदान करता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि धर्म क्या है? संविधान में धर्म की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। न्यायिक निर्णयों के आधार पर हम कह सकते हैं कि धर्म में केवल विश्वास ही नहीं आता, बल्कि धार्मिक आचरण भी सम्मिलित होता है-

       अनुच्छेद 25 व्यक्तियों को दो प्रकार की स्वतन्त्रतायें प्रदान करता है-

(1) अन्तःकरण अर्थात् धार्मिक आस्था की स्वतन्त्रता।

(2) धार्मिक आचरण या प्रचार की स्वतन्त्रता।

        धर्म प्रचार में किसी को धर्म-परिवर्तन करने के लिए वाध्य करना सम्मिलित नहीं है। अनुच्छेद 25 में दी गई स्वतन्त्रता पर निम्नलिखित निर्बन्धन हैं-

(i) ऐसा कोई धार्मिक कार्य नहीं किया जा सकता है जो सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार व जनता के स्वास्थ्य के विरुद्ध हो;

(ii) धर्म के नाम किये गये वे ही कार्य संरिक्षत हैं जिनमें धर्म का तत्व प्रधान है। मोहम्मद हनीफ कुरेशी बनाम बिहार राज्य में यह निर्धारित किया गया कि बकरीद पर गाय काटना मुस्लिम धर्म का आवश्यक अंग नहीं है। रमेश बनाम भारत संघ, (1998) 1 ए० सी० सी० 688 के वाद में यह कहा गया कि धार्मिक सहिष्णुता कायम रखने के लिए न्यायालय का ध्यान आकर्षित करने का अधिकार है। पश्चिम बंगाल राज्य बनाम आशुतोष लाहिरी, ए० आई० आर० 1955 सु० को० के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बकरीद पर गो-वध मुस्लिम धार्मिक क्रिया का अंग नहीं है।

(iii) यदि धार्मिक स्वतन्त्रता समाज कल्याण एवं सुधार में बाधा उत्पन्न करती है तो ऐसी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

        सैफुद्दीन साहब बनाम स्टेट ऑफ बम्बई राज्य में सती व देवदासी जैसी बुराइयों पर प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून को संवैधानिक माना गया।

    एम० मोहम्मद अब्बास बनाम चीफ सेक्रेटरी गवर्नमेन्ट ऑफ तमिलनाडु, ए० आई० आर० (2015) मद्रास 237 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2007 द्वारा मुस्लिम बाल विवाह पर रोक लगाया जाना धर्म के मूल अधिकार का हनन नहीं है। यह लड़कियों की समुचित शिक्षा, सशक्तीकरण एवं पुरुष के समान दर्जा पाने के लिए आवश्यक है।

           धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 26) – प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी वर्ग को अपने द्वारा स्थापित धार्मिक संस्थाओं की स्थापना, प्रबन्ध एवं पोषण की स्वतन्त्रता होती है किन्तु यह स्वतन्त्रता आत्यन्तिक नहीं है। इस प्रकार के धार्मिक सम्प्रदायों या उसके वर्ग को उसके सम्बन्ध में निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होंगे-

(क) धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का;

(ख) अपने धार्मिक कार्यों सम्बन्धी विषयों का प्रबन्ध करने का;

(ग) जंगम और स्थावर सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का;

(घ) ऐसी अर्जित या प्राप्त सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार होगा।

       इस अनुच्छेद में मिली स्वतन्त्रता पर भी “सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार व व्यवस्था” का निर्बन्धन लागू होगा। धार्मिक सम्प्रदाय केवल उन्हीं संस्थाओं का पोषण कर सकते हैं जिनकी स्थापना उनके द्वारा की जाती है। लोकहित को ध्यान में रखते हुए सम्पत्ति प्रशासन में भी हस्तक्षेप किया जा सकता है।

        अनुच्छेद 27 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की उन्नति के लिए कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। कर के रूप में राज्य जो धन इकट्ठा किया जाता है उसे किसी विशिष्ट धर्म के लिए खर्च नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कर सभी धर्म के लोगों से वसूल किया जाता है।

        अनुच्छेद 28 के अनुसार, राज्य विधि से पोषित किसी भी शिक्षा संस्थान में कोई भी धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है लेकिन जो संस्था किसी धार्मिक उद्देश्य को लेकर न्यास के अन्तर्गत चल रही हो, उस पर यह प्रतिबन्ध लागू नहीं होता है। अनुच्छेद 28 चार प्रकार की शैक्षणिक संस्थाओं का उल्लेख करता है-

(1) राज्य द्वारा पूरी तरह से पोषित संस्थायें – ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है।

(2) राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थायें- लोगों की सहमति से धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है।

(3) राज्य निधि से सहायता पाने वाली सस्थायें- ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, बशर्ते लोगों ने अपनी सम्मति दे दी हो।

(4) राज्य प्रशासित किन्तु न्यास के अन्तर्गत स्थापित संस्था में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, यदि न्यास का धार्मिक उद्देश्य हो।

        इस तरह हम देखते हैं कि भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता सम्पूर्ण नहीं है। धार्मिक स्वतन्त्रता कुछ सीमाओं के अन्तर्गत है।

      क्या धर्म स्वातंत्र्य में धर्म परिवर्तन का अधिकार सम्मिलित है- कोई व्यक्ति कौन- सा धर्म माने, यह उसके अन्तःकरण पर निर्भर करता है। भारतीय संविधान अपनी रुचि के धर्म के आचरण की स्वतन्त्रता देता है। अतः किसी व्यक्ति द्वारा धर्म परिवर्तन करना उसके धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार के अन्तर्गत है। परन्तु किसी व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह किसी को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य करे। इसलिए तमिलनाडु सरकार ने धर्म- परिवर्तन प्रतिषेध कानून बना दिया है।

प्रश्न 12. भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन की प्रकृति एवं विस्तार क्षेत्र पर एक आलोचनात्मक निबन्ध लिखिए।

Write a critical essay on the nature and scope of Judicial Review in India.

उत्तर- “न्यायिक पुनर्विलोकन” हमारे संविधान का एक आधारभूत ढाँचा है, ऐसा मिनर्वा मिल के वाद में कहा गया है। अतः ‘न्यायिक पुनर्विलोकन’ का तात्पर्य न्यायालय की विधायिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कृत्यों की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति से है। न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा न्यायालय की किसी भी ऐसी विधि को प्रवर्तित होने से इन्कार किया जा सकता है जो संविधान के उपबन्धों से असंगत होती है।

        संविधान के उपबन्धों से असंगत होने के कारण उन्हें शून्य भी घोषित कर दिया जाता है। विधायी कृत्यों के न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का उपबन्ध अनुच्छेद 13, 32, 131 से 136, 226, 246 में किया गया है। यह सत्य है कि भारत का संविधान देश की एक सर्वोच्च विधि है। सर्वोच्च विधि की गरिमा को बनाये रखने के लिए न्यायालय को उन समस्त उपबन्धों को समाप्त कर देने की शक्ति प्राप्त होती है जो संविधान के अनुच्छेदों के उल्लंघन में होते हैं।

      इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन विधायिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कृत्यों पर न्यायिक बाधा का दूसरा रूप है। अन्य शब्दों में न्यायिक पुनर्विलोकन हमारी संवैधानिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है और न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 32 तथा उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत संविधि के उपबन्धों की संवैधानिकता को निर्णीत करने के विषय में प्राप्त है। इसके साथ-साथ अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को और भी अधिकार प्रदान किये गये हैं कि वह अपने विवेक से भारत के किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा दिये गये निर्णय, डिक्री, सजा या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष अनुमति प्रदान कर सकें। अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को भी प्रशासनिक निर्णयों के पुनर्विलोकन का अधिकार प्राप्त है जो प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा न्यायिक कल्याण अधिकारी की क्षमता में दिये जाते हैं।

       न्यायिक पुनर्विलोकन का विस्तार क्षेत्र- भारत के संविधान का अनुच्छेद 13 भारत में समस्त विधायन, भूत या वर्तमान के न्यायिक पुनर्विलोकन का उपबन्ध करता है। यह अधिकार केवल अभिलेख न्यायालय को ही प्रदान किये गये हैं।

        ‘अभिलेख न्यायालय’ का तात्पर्य ऐसे न्यायालय से होता है जिसके अभिलेखों का साक्ष्यिक मूल्य होता है और उन्हें विवादित नहीं किया जा सकता है। जब ऐसे अभिलेख को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब किसी न्यायालय को अभिलेख न्यायालय बना दिया जाता है तथा उसे अपने अवमान के लिए दण्डित करने की शक्ति भी प्रदान कर दी जाती है।

        भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 (1) के अनुसार, इस संविधान के लागू होने के ठीक पूर्व भारत में प्रवृत्त विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जहाँ तक वे भाग-3 के उपबन्धों से असंगत हैं। अनुच्छेद 13 (2) राज्य को ऐसी विधि बनाने से निषिद्ध करता है जो इसे भाग-3 द्वारा दिये गये अधिकारों को छीनती या न्यून करती हो। राज्य द्वारा निर्मित इस खण्ड के उल्लंघन में प्रत्येक विधि के उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। अनुच्छेद 13 (3) में प्रयुक्त शब्द ‘विधि’ को अत्यन्त व्यापक रूप प्रदान किया गया है। ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत अध्यादेश आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, विधि का बल रखने वाली रूढ़ि तथा प्रथा को सम्मिलित किया गया है।

       इस प्रकार अनुच्छेद 13 से यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि केवल विधायिका सम्बन्धी कृत्य ही नहीं अपितु कार्यपालिका सम्बन्धी कृत्य तथा विधि के अन्तर्गत सम्मिलित चीजों को न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन रखा गया है जो भारतीय संविधान के भाग 3 के उल्लंघन में होती है। भारत के संविधान के भाग 3 में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार प्रदान किये गये हैं। यदि इन मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन में कोई विधि या विधायन पारित किया जाता है तो न्यायालय (मात्र उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय) द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा उन्हें शून्य घोषित किया जा सकता है।

        न्यायिक पुनर्विलोकन, का सिद्धान्त सर्वप्रथम अमेरिका के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया था। सामान्यतया यू० एस० ए० के संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन का कोई अभिव्यक्त उपबन्ध नहीं है। किन्तु भारत के सविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन का अभिव्यक्त उपबन्ध किया गया है।

        ए० के० गोपालन बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1950 एस० सी० 27 में कहा गया कि यह निर्णय करने का कार्य न्यायपालिका का है कि क्या कोई अधिनियम संवैधानिक है अथवा नहीं।

      केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 1461 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि ‘न्यायिक पुनर्विलोकन’ भारतीय संविधान की एक आधारभूत विशेषता है और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संविधान में संशोधन के द्वारा नहीं छीना जा सकता है।

         न्यायिक पुनर्विलोकन का अपवर्जन- उच्चतम तथा उच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति आत्यन्तिक नहीं है। कतिपय संवैधानिक उपबन्धों के अनुच्छेद 31- क, 31-ख, 31-ग, अनुच्छेद 262 (2) तथा अनुच्छेद 33 द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन का अपवर्जन कर दिया गया है। सामान्य धारणा यह है कि कोई भी न्यायिक पुनर्विलोकन किसी वैधानिक नीति के क्रियान्वयन में अनावश्यक विलम्ब करता है। प्रशासन न्यायिक हस्तक्षेप के कारण सुचारु ढंग से कभी-कभी सही कार्य तथा नीति को निष्पादित नहीं कर पाता है इसलिए कुछ उपबन्ध बनाये जाते हैं जिनसे न्यायिक पुनर्विलोकन का स्पष्ट रूप से अपवर्जन किया जा सकता है।

प्रश्न 13. मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय में समावेदन (writ) करने का अधिकार किस अर्थ में मूल अधिकार है? क्या उच्चतम न्यायालय मात्र प्राङ्गन्याय अथवा विलम्ब अथवा इस आधार पर कि समावेदन (petition) कर्ता को पहले उच्च न्यायालय में जाना चाहिए समावेदन (petition) अस्वीकार कर सकता है?

अथवा

मूल अधिकारों के प्रवर्तन से सम्बन्धित उच्चतम तथा उच्च न्यायालय की अधिकारिता की परीक्षा करें। उच्चतम न्यायालय किन-किन आधारों पर मूल अधिकारों के प्रवर्तन से मना कर सकता है?

अथवा

उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय की याचिका (writ) जारी करने की शक्ति का विवेचन करें। याचिका कब जारी की जा सकती है? क्या ऐसे कोई आधार हैं जिनके आधार पर उच्चतम न्यायालय याचिका (write) जारी करने से इन्कार कर सकता है?

How far the right of petition to enforce Fundamental Right, is Fundamental Right? Can Supreme Court refuse to accept the petition on the ground of res judicata or delay or on the ground that the petitioner should have expediate the remedy available with the High Court in this regard.

Or

Examine the jurisdiction of Supreme Court and High Court to enforce the Fundamental Right. What are those grounds on which the Supreme Court can refuse the Fundamental Rights?

Or

Discuss the jurisdiction of Supreme Court and High Court to issue writs. When the writs can be issued? Are there any grounds upon which the Supreme Court can refuse to issue the writs.

उत्तर- भारतीय संविधान में भारत के नागरिकों को कतिपय अधिकार प्रदान किये गये हैं। ये अधिकार व्यक्ति के जीवन तथा व्यक्तिगत विकास के लिए अपरिहार्य हैं। इसीलिए इन अधिकारों को मूल अधिकार या मौलिक अधिकार (fundamental rights) या कभी-कभी नैसर्गिक अधिकार (natural right) की संज्ञा दी जाती है। ये अधिकार संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक प्रदान किये गये हैं।

        कोई स्वतन्त्रता उसे प्रवर्तित (लागू) कराने की सुरक्षा या प्रतिभूति के बिना अर्थहीन है। दूसरे शब्दों में यदि किसी स्वतन्त्रता के अतिक्रमण या हनन के विरुद्ध कोई उपचार प्रदत्त नहीं है तो ऐसी स्वतन्त्रता का कोई मतलब नहीं होता। भारत की न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की संरक्षक (guardian) है। संविधान का अनुच्छेद 226 इसी विषय से सम्बन्धित अनुच्छेद है। अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत भारत का उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत प्रान्तों में स्थापित उच्च न्यायालय राज्य के ऐसे क्रिया-कलापों के विरुद्ध उपचार प्रदान करने के लिए अधिकृत किये गये हैं जिनसे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों (fundamental rights) का अतिलंघन या अतिक्रमण या हनन होता है। यदि राज्य के किसी कार्य द्वारा किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो वह समावेदन (Petition) के माध्यम से अनुच्छेद 32 में उच्चतम न्यायालय से उपचार प्राप्त करने का मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) रखता है। इस प्रकार अनुच्छेद 32 में प्रदत्त एक मौलिक अधिकार है जो भाग 3 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के राज्य द्वारा व्यपहरण के विरुद्ध उपचार प्रदान करता है।

       अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने का अधिकार भी मूलाधिकार है- अनुच्छेद 32 संविधान के भाग-3 में सम्मिलित किया गया है। संविधान के भाग 3 में सिर्फ मूल या मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) ही सम्मिलित किये गये हैं। अतः अनुच्छेद 32 में प्रदत्त अधिकार भी मूल अधिकार हैं।

       अनुच्छेद 32 में मौलिक अधिकार के प्रवर्तन का अधिकार संविधान का आधारभूत ढाँचा (basic structure) माना गया है। इसे संविधान संशोधन द्वारा परिवर्तित या समाप्त नहीं किया जा सकता। फर्टिलाइजर कार्पोरेशन कामगार संघ बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 345 रमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1950 सु० को० 124 नामक वाद में न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने कहा कि उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के खण्ड (1) में अभिव्यक्त न्यायालय में समावेदन (petition) करने के अधिकार को ऐसा अधिकार मानता है कि (जो मूल अधिकार ही नहीं) मूल अधिकारों का संरक्षक तथा गारण्टर है।

        संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन की प्रतिभूति देने का प्रावधान संविधान के जिन अनुच्छेदों में है, उनमें अनुच्छेद 32 का स्थान सर्वोपरि है। अनुच्छेद 32 चार उपखण्डों में विभक्त है।

        अनुच्छेद 32 (1) नागरिकों को संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित (लागू) कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को समुचित कार्यवाहियों द्वारा प्रचलित करने के अधिकार की गारण्टी देता है। अनुच्छेद 32 (2) उच्चतम न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु समुचित निदेश या याचिका (writ) जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। इन याचिकाओं (writs) में बन्दी प्रत्यक्षीकरण (habeus corpus), परमादेश (mandamus), प्रतिषेध (prohibition), अधिकार पृच्छा (Quo waranto) तथा उत्प्रेषण (certiorari) जैसी याचिका (रिटें) सम्मिलित हैं। अनुच्छेद 32 का खण्ड (3) के अधीन विधि द्वारा किसी न्यायालय को उसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर उच्चतम न्यायालय द्वारा खण्ड (2) के अधीन प्रयोग की जाने वाली किसी या सभी शक्तियों का प्रयोग करने को सशक्त करती है। अनुच्छेद 32 खण्ड (4) यह उपबन्धित करता है कि संविधान द्वारा अन्यथा उपबन्धित के सिवाय इस अनुच्छेद द्वारा गारण्टी किये गये अधिकारों को निलम्बित नहीं किया जायेगा।

        रमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1972 सु० को० 124 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस अनुच्छेद का प्रयोग सिर्फ नागरिकों के मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए किया जा सकता है। यह अधिकार त्वरित अधिकार है तथा नियमित सिविल कार्यवाही का विलम्बकारी होने के दुर्गुण से यह अधिकार मुक्त है। इस अधिकार की तुलना जहाँगीर के दरबार में लगी फरियाद की घंटी से की जाती है परन्तु अन्तर सिर्फ यह था कि जहाँगीर की घण्टी का प्रयोग निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी कर सकता था जबकि अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत प्राप्त अधिकार का प्रयोग सिर्फ सम्पन्न तथा धनवान व्यक्ति ही कर सकता है परन्तु अब जनहित या लोकहित याचिका की परिकल्पना ने इस नियम को भी समाप्त कर दिया है।

         अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत आवेदन वह व्यक्ति दे सकता है जिसके मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है। प्रत्येक प्रार्थी को यह साबित करना आवश्यक है कि वह कानून जिसे वह चुनौती देना चाहता है, उसके किसी मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है। अन्य किसी अधिकार के उल्लंघन के लिए अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत संरक्षण प्राप्त नहीं होगा। इस अनुच्छेद के अन्तर्गत रिट जारी करने का अधिकार वैवेकिक (discretionary) नहीं है अर्थात् यदि कोई नागरिक अपने मौलिक अधिकार का अतिक्रमण साबित करने में सफल हो जाता है तो वह उपचार का दावा आधिकारिक रूप से कर सकता है तथा वह समुचित उपचार प्राप्त करने का अधिकारी होगा। राम बली बनाम मद्रास, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 623

       उच्चतम न्यायालय में समावेदन (petition) करने के अधिकार पर कुछ मामलों में रोक– वे आधार जिन पर उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत याचिका (रिट) जारी करने से इन्कार कर सकता है-

(1) प्राङ्गन्याय (res judicata)

(2) विलम्ब (delay);

(3) वैकल्पिक अनुतोष (Alternative remedy);

(4) मूल अधिकार पर प्रत्यक्ष और आसन्न संकट।

(1) प्राङ्गन्याय (Resjudicata) – पूर्व न्याय या प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त अनुच्छेद 32 के मामले में भी लागू होता है। यदि कोई व्यक्ति अपने मूल अधिकारों के अतिलंघन के विरुद्ध अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय के माध्यम से उपचार प्राप्त कर चुका है तो वह उन्हीं बिन्दुओं पर उसी प्राधिकारी या व्यक्ति के विरुद्ध अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत वही उपचार प्राप्त नहीं कर सकता। उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत असफल व्यक्ति अनुच्छेद 132 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में सिर्फ अपील के माध्यम से ही जा सकता है। दरयाव बनाम उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 1961 सु० को० 1457 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि पूर्व न्याय या प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त स्वस्थ एवं उचित सिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण संवैधानिक कार्यवाहियों पर भी उसी प्रकार लागू होता है जैसे अन्य कार्यवाहियों पर। लल्लू भाई जोगी भाई पटेल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 730 नामक वाद में यह निर्णय दिया गया कि जहाँ वन्दी प्रत्यक्षीकरण के लिए रिट की गई है तथा बाद में नये आधारों पर निवारक निरोध के विरुद्ध समावेदन (petition) किया जाता है वहाँ ऐसे समावेदन (petition) आन्वयिक प्राङ्गन्याय (constructive res judicata) के सिद्धान्त के आधार पर वर्जित नहीं है क्योंकि आन्वयिक प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त दीवानी मामलों पर लागू होता है निवारक निरोध के मामले पर नहीं।

(2) अत्यधिक विलम्ब (Undue Delay) – अनुच्छेद 32 (1) के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय किसी व्यक्ति के मूल अधिकार का प्रवर्तन नहीं करा सकता। यदि वह अपने अधिकारों के प्रति स्वयं शिथिल है अथवा उसके मूल अधिकारों के प्रवर्तन के दावे विलम्बित हो चुके हैं। इस प्रकार शैथिल्य (laches) का सिद्धान्त मूल अधिकार के प्रवर्तन के मार्ग में बांधा प्रस्तुत करता है। किन्तु यदि विलम्ब का कोई उचित स्पष्टीकरण दिया जाता है तो न्यायालय केवल विलम्ब के आधार पर उपचार देने से इन्कार नहीं करेगा। उत्तर प्रदेश राज्य ‘बनाम बहादुर सिंह, (1983) 3 एस० सी० सी० 73

         त्रिलोक चन्द्र मोती चन्द्र बनाम एच० वी० मुन्शी, ए० आई० आर० 1970 सु० को० 898 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति मित्तल ने इस अवधि को 3 वर्ष रखा जबकि न्यायमूर्ति सीकरी एक वर्ष के पक्ष में थे। न्यायमूर्ति हेगड़े के अनुसार इसके लिए कोई अवधि निर्धारित नहीं की जा सकती जबकि न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला के अनुसार इस विषय में कोई ठोस नियम नहीं बनाया जा सकता। यह न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

(3) वैकल्पिक अनुतोष (Alternative Remedy) – अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत यद्यपि वैकल्पिक अनुतोष उपचार के मार्ग में बाधक नहीं बनते परन्तु शर्त यह है कि ये वैकल्पिक अनुतोष ‘मूल अधिकार के प्रवर्तन के लिए हों। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति अनुच्छेद 311 के अन्तर्गत प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत रिट दाखिल करना चाहता है तो यदि उसे कोई वैकल्पिक उपचार प्राप्त है तो उसकी पिटीशन उच्चतम न्यायालय में स्वीकार नहीं की जा सकती।

(4) मूल अधिकारों से दूरस्थ सम्बन्ध – यदि किसी व्यक्ति को हुई हानि या क्षति का मूल अधिकारों से निकटतम सम्बन्ध नहीं है तथा उसका मौलिक अधिकारों से दूरस्थ सम्बन्ध हो तो उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 (2) के अन्तर्गत याचिका जारी करने से उपचार देने से इन्कार कर सकता है।

       भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत मूल अधिकारों के अतिलंघन या मूल अधिकारों के अपहरण के विरुद्ध याचिकायें (writs) जारी करने का अधिकार उच्च न्यायालयों (High Courts) को उसी भाँति प्राप्त हैं जिस तरह अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को। किन्तु उस मामलें में उच्च न्यायालय की शक्ति उच्चतम न्यायालय की अपेक्षा अधिक विस्तृत है क्योंकि उच्च न्यायालयों को मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के अतिरिक्त अन्ये प्रयोजनों के लिए भी रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है जो उच्चतम न्यायालय को प्राप्त नहीं है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि मूल अधिकारों को प्रवर्तित या लागू कराने के लिए रिट जारी करने का उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय का अधिकार समावेदनकर्ता (petitioner) को दोनों न्यायालयों में से किसी न्यायालय में समावेदन (petition) करने का अधिकार है। अनुच्छेद 32 तथा अनुच्छेद 226 में निम्न अन्तर हैं –

अनुच्छेद 32

(1) अनुच्छेद 32 संविधान के भाग तीन में सम्मिलित है अतः यह अपने आप में मौलिक अधिकार है।

(2) अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों के अपहरण के विरुद्ध सुरक्षा का अधिकार उच्चतम न्यायालय को है।

(3) अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत रिट जारी करने का उच्चतम न्यायालय का अधिकार उच्च न्यायालय के समान विस्तृत नहीं है।

अनुच्छेद 226

(1) अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकार नहीं है। उसे संविधान संशोधन द्वारा संशोधित किया जा सकता है।

(2) अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों के अपहरण के विरुद्ध उपचार प्रदान करने का अधिकार उच्च न्यायालय को है।

(3) अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत रिट जारी करने का उच्च न्यायालय का अधिकार विस्तृत है क्योंकि उसे मूल अधिकारों के प्रवर्तन के अतिरिक्त अन्य प्रयोजनों के लिए भी याचिका जारी करने का अधिकार है।

         क्या मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जाने से पहले उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत समावेदन करना आवश्यक है?- पी० एन० कुमार बनाम नगर निगम दिल्ली, ए० आई० आर० 1988 सु० को० 1 नामक वाद में न्यायमूर्ति वेंकट रमैय्या तथा न्यायमूर्ति के० एन० सिंह द्वारा दिया गया निर्णय अनुच्छेद 32 में प्रदत्त अधिकार को सीमित करने का प्रयास है। इन दोनों न्यायमूर्तिगणों ने यह निर्णय दिया कि नागरिकों को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सीधे उच्चतम न्यायालय नहीं जाना चाहिए बल्कि उन्हें पहले अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय में जाना चाहिए। इन न्यायमूर्तिगणों का मत था कि अनुच्छेद 226 में प्रदत्त उच्च न्यायालय का अधिकार अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत प्रदत्त अधिकारों से अधिक विस्तृत है। अतः समावेदनकर्ता (petitioner) को पहले उच्च न्यायालय में जाना चाहिए और उसके निर्णय से असन्तुष्ट होने पर उच्चतम न्यायालय में जाना चाहिए क्योंकि-

(1) इससे उच्चतम न्यायालय का इस मामले में भार हल्का हो जायेगा।

(2) इससे धन तथा समय की बचत होगी।

(3) उच्च न्यायालय के अधिवक्तागण तथा न्यायाधीश अपने प्रदेश की विधियों के इतिहास से परिचित हैं।

(4) उच्चतम न्यायालय में सीधे समावेदन करने से उच्च न्यायालय के नेतृत्व पर प्रभाव पड़ता है।

         उक्त निर्णय का प्रभाव अनुच्छेद 32 के प्रभाव को कम करना है। इस निर्णय की विधिवेत्ताओं द्वारा आलोचना की गई। न्यायाधीश अन्तरण के मामले में आज तक उच्चतम न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि वादों की अधिक संख्या इस बात में कोई रुकावट नहीं होगी तथा न्यायालय के दरवाजे सभी के लिए खुले रहेंगे। उच्चतम न्यायालय को इस निर्णय को यथाशीघ्र सुधार लेना चाहिए।

प्रश्न 14. संविधान के अन्तर्गत प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 32 तथा अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत क्या उपचार प्राप्त है? बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख कब तथा किसके विरुद्ध तथा किन आधारों पर जारी किया जा सकता है?

What remedies are available under Article 32 and Article 226 of the Constitution of enforce fundamental rights provided under Indian Constitution? Describe in brief the characteristics of writ of habeus corpus. When and against whom this writ can be issued?

उत्तर- भारत में रिट प्रलेख जारी करने की प्रक्रिया का आरम्भ 1773 के विनियम अधिनियम (Regulation Act) द्वारा किया गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत जारी 1774 के राजपत्र ने पहले कलकत्ता प्रेसीडन्सी तथा तत्पश्चात् मद्रास एवं बम्बई प्रेसीडेन्सी में उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) की स्थापना की। उच्चतम न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालयों को प्रलेख या लेख (Writs) निर्गत करने का अधिकार राजपत्र द्वारा प्रदान किया गया। सन् 1001 के इण्डियन हाईकोर्ट अधिनियम के अन्तर्गत प्रावधान करके कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेन्सी में उच्च न्यायालयों (High Courts) की स्थापना तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय को समाप्त कर उनके स्थान पर की गई और प्रलेख या रिट जारी करने का अधिकार उच्च न्यायालयों ने सर्वोच्च न्यायालय से उत्तराधिकार में प्राप्त किया। रिट जारी करने का या रिट जारी करवाने का उपचार सामान्य दीवानी न्यायालय से भिन्न सांविधिक अधिकार है। त्वरित कार्यवाही उसकी विशेषता है परन्तु इनके जारी करवाने में होने वाला खर्च इसे आम आदमी की पहुँच से बाहर कर देता है। लेख जारी करने का उपचार संविधान में सांविधिक उपचार के रूप में प्राप्त है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 में तथा अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत क्रमशः उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को प्रलेख या लेख (writ) जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इन रिटों या प्रलेखों का प्रयोजन संविधान के भाग-3 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) को लागू कराना है। अनुच्छेद 32 तथा अनुच्छेद 226 में समानता यह है कि इन्हें मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए लागू किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में किसी एक या अन्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किसी व्यक्ति या सरकार के कार्यों से होता है तो प्रभावित पक्षकार अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत क्रमशः उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है तथा उसे उपयुक्त उपचार प्राप्त हो सकता है। इन दोनों अनुच्छेदों में प्रमुख अन्तर यह है कि अनुच्छेद 32 सांविधानिक उपचार होने के साथ-साथ स्वयं एक मौलिक अधिकार है परन्तु अनुच्छेद 226 सांविधानिक उपचार मात्र है। अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सिर्फ मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराने हेतु लेख जारी कराया जा सकता है जबकि अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन, के साथ-साथ किसी अन्य प्रयोजन के लिए भी उच्च न्यायालय द्वारा प्रलेख जारी किया जा सकता है। इस प्रकार अनुच्छेद 226 अनुच्छेद 32 से अधिक व्यापक है। अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को तथा अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय को बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण तथा अधिकार पृच्छा प्रकृति के प्रलेखों या लेखों (Writs) को जारी करके उपचार प्रदान करने का अधिकार है। न्यायमूर्ति के० एन० सिंह ने एक वाद में विचार व्यक्त किया था कि पहले प्रभावित पक्षकार को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय से उपचार प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए उसके पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय से। परन्तु इस विचार को अधिक समर्थन नहीं मिला।

        बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) – बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख एक ऐसा लेख है जो किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में जो कारागार में निरुद्ध है, उसे कारागार से मुक्त करने के प्रयोजन से जारी किया जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है बन्दी को न्यायालय में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित किया जाना। [To have the corpus (body) of a person produced in the court]

        हैल्सबरी लॉ ऑफ इंग्लैण्ड बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख की निम्न रूप से परिभाषा करता है-

        बन्दी प्रत्यक्षीकरण, किसी नागरिक क़ो स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु आदेशात्मक प्रक्रिया है. जो उसे अवैध तथा अनुचित निरोध से तात्कालिक मुक्ति का प्रभावशाली माध्यम प्रदान करती है तथा यह कार्यपालिका के विरुद्ध उपलब्ध होती है।

          बन्दी प्रत्यक्षीकरण का लेख अनुचित तथा अवैध रूप से निरुद्ध (detained) या परिरुद्ध (restrained) व्यक्ति को उपचार प्रदान करता है। यह प्रवर न्यायालय (उच्चतम या उच्च न्यायालय) का एक ऐसा आदेश है जो एक व्यक्ति या कारागार अधीक्षक को जिसके द्वारा कोई व्यक्ति निरुद्ध किया गया है, जारी की जादो है तथा इसमें निरोध करने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे तथा न्यायालय को निरोध या कारावास की तिथि तथा कारणों से अवगत कराये। निरोध या कारावासित करने वाले व्यक्ति को कारावास या निरोध का औचित्य साबित करने को कहा जाता है। यदि किसी व्यक्ति के निरोध या कारावास के कारण से न्यायालय सन्तुष्ट नहीं होते तो निरुद्ध व्यक्ति को तुरन्त मुक्त करने के आदेश दिये जाते हैं।

        यह लेख किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए है अतः इस लेख का महत्व और बढ़ जाता है। यदि किसी संविधान में बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका का उपचार नहीं है तो उसमें निहित व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। यह लेख सभी व्यक्तियों को समान रूप से उपलब्ध है। किसी कार्यपालिका अधिकरण द्वारा मनमानी से गिरफ्तारी को नियन्त्रित करने का यह लेख प्रभावशाली तरीका है। यह अवैध गिरफ्तारी से किसी व्यक्ति को छुड़ाने की प्रभावशाली प्रक्रिया है। यह उल्लेखनीय है कि यदि गिरफ्तारी या निरोध न्यायिक निर्णय के अन्तर्गत है तो यह लेख जारी नहीं किया जा सकता। यह किसी व्यक्ति को निरुद्ध करने वाले व्यक्ति को न तो दण्डित करती है न हो प्रभावित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति प्रदान करती है। यह सिर्फ प्रभावी व्यक्ति को उसकी अवैध तथा अनुचित गिरफ्तारी के विरुद्ध प्रभावशाली सुरक्षा प्रदान करती है। यदि निरोध (Detention) विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अन्तर्गत नहीं है तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रतिकूल या उल्लंघन में होने के कारण असंवैधानिक तथा अवैध होगा।

        बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका के लिए निरुद्ध व्यक्ति या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा आवेदन दिया जा सकता है। अब बन्दी का न्यायालय में सशरीर उपस्थित किया जाना आवश्यक नहीं रह गया है। बन्दी को निरोध या कारागार से मुक्त कर दिया गया है, यही पर्याप्त है।

    बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख जारी करने के आधार (Grounds of issuing writ of habeaus corpus) बन्दो प्रत्यक्षीकरण का लेख की प्रकृति का एक आदेश या आज्ञा (Order or command) की है जिसका प्रभाव याची की किसी व्यक्ति या लोक प्राधिकारी की अभिरक्षा से मुक्ति है जिसने याची को अवैध रूप से निरुद्ध किया था। बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख निर्गत किये जाने के निम्न आधार हैं-

(1) आवेदनकर्ता या याची को अभिरक्षा (custody) में निरुद्ध होना चाहिए।

(2) बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका चूँकि याची निरुद्ध रहता है अतः उसकी ओर से किसी रिश्तेदार (माता, पिता, पत्नी या पुत्र या भाई या बहन) या उसके मित्र द्वारा प्रस्तुत की जाती है। पहले बत्त्दी प्रत्यक्षीकरण लेख किसी अन्य व्यक्ति द्वारा आवेदन करने पर ही जारी की जाती थी। परन्तु अब उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों द्वारा यह सुस्थापित हो चुका है कि यदि बन्दी व्यक्ति पोस्टकार्ड या अन्तर्देशीय पत्र न्यायालय को प्रेषित कर देता है तथा अपने अवैध निरोध को सूचना न्यायालय को देते हुए अपने मुक्ति की माँग करता है तो उसे याचिका (Petition) मानकर न्यायालय कार्यवाही कर सकता है।

         सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, ए० आई० आर० 1980 सु० को० 1579 नामक वाद में एक सह कैदी द्वारा न्यायालय को एक पत्र लिखा गया जिसमें अपने सह कैदी को यातनाओं का उल्लेख था। माननीय न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने इस पत्र को याचिका मानकर कार्यवाही की।

(3) किसी व्यक्ति को उसी न्यायालय के भिन्न-भिन्न न्यायाधीश को उत्तरोत्तर आवेदन प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है। पी० एल० लखनपाल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 908

(4) यदि गिरफ्तारी तथा निरोध की सभी औपचारिकताओं को पूरा किये बिना गिरफ्तारी या निरोध (detention) किया गया है तथा गिरफ्तारी का आदेश दुर्भावनापूर्ण तथा साम्पाश्विक उद्देश्य से निर्गत किया गया है। यदि अधिनियम गिरफ्तारी की सूचना प्रान्त सरकार को देना आवश्यक बनाता है तथा ऐसा नहीं किया गया है तो गिरफ्तारी अवैध होगी यदि सरकार को गिरफ्तारी की सूचना देने में अत्यधिक विलम्ब किया गया है तो यह गिरफ्तारी करने वाले व्यक्ति की दुर्भावना (mala fide) का द्योतक है।

(5) गिरफ्तारी का आदेश सारवान रूप से त्रुटिपूर्ण (Substantially Deffective) है जैसे गिरफ्तार व्यक्ति का त्रुटिपूर्ण विवरण, निरुद्ध किये जाने के स्थान का उल्लेख न होना आदि।

(6) यह साबित किया जाना होगा कि गिरफ्तार करने वाला प्राधिकारी इस बात से सन्तुष्ट था कि निरुद्ध व्यक्ति ने प्रतिकूल कार्य किया है।

(7) यदि गिरफ्तारी का आदेश अनिश्चित तथा भ्रामक है। तारापद डे बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 1950 एस० सी० जे० 222 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 22 (5) के अन्तर्गत दो अधिकार निरुद्ध व्यक्ति को प्राप्त हैं- (i) गिरफ्तारी का आधार प्राप्त करना; तथा (ii) प्रतिनिधित्व का अधिकार। यदि गिरफ्तारी के जो आधार प्रदान किये गये हैं उसका सम्बन्ध गिरफ्तारी के उद्देश्य से प्रत्यक्ष तथा निकटस्थ है तो गिरफ्तारी का उचित आधार कहा जायेगा। यदि निरुद्ध व्यक्ति को दिये गये आधार उसे प्रतिनिधित्व दिलाने में सक्षम नहीं हैं तो वह अन्य आधारों की माँग कर सकता है जो उसे प्रतिनिधित्व प्राप्त करने हेतु आवश्यक है।

(8) आधार दिये जाने में विलम्ब निरुद्ध व्यक्ति को मुक्ति का आधार प्रदान करता है।

(9) जहाँ गिरफ्तारी का आधार अनियमित (irregular) है।

प्रश्न 15. परमादेश रिट को परिभाषित कीजिए। इस रिट को जारी किये जाने के आधारों की विवेचना कीजिए

Define Writ of Mandamus. Discuss the grounds on which this writ can be issued.

उत्तर- परमादेश लेख या प्रलेख (Writ of Mandamus) – परमादेश रिट (Writ of Mandamus) एक प्रकार की आज्ञा (आदेश) (Command) है जो निम्न न्यायालयों, न्यायाधिकरण (Tribunal), परिषद् (Boards), निगम या प्रशासी अधिकरण या किसी व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया गया है जिसके अन्तर्गत एक ऐसे विशिष्ट कर्तव्य का पालन करने के लिए कहा जाता है जो या तो विधि द्वारा उन पर निश्चित किया गया होता है या कर्तव्य उस व्यक्ति द्वारा धारण किये जा रहे पद से जुड़ा होता है।

         प्रो० एस० टी० मारकोज के अनुसार, परमादेश लेख न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को ऐसा कर्त्तव्य करने के लिए बाध्य करने वाला आज्ञा या आदेश है जो करना उसका विधिक कर्त्तव्य है। भारत में यह लेख (writ) एक न्यायिक उपचार है जो उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा आदेश के रूप में किसी सांविधानिक, कानूनी या अकानूनी (non legal) अभिकरण को कोई विनिर्दिष्ट कार्य करने या या करने से विरत रहने के लिए जिसके हेतु वह विधि के अधीन बाध्य है, जारी किया जाता है, जो लोक कर्त्तव्य या कानूनी कर्त्तव्य की प्रकृति का है।

        संक्षेप में परमादेश लेख उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 37 के अन्तर्गत तथा उच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 226 के अगार्गत किसी याचिका (Petition) पर निर्गत किया जाने वाला ऐसा आदेश है जिसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति या निकाय को ऐसा कुछ करने के लिए या ऐसा कुछ करने से विरत रहने के लिए बाध्य किया जाता है जिसे करने या करने से विरत रहने का कर्तव्य विधि द्वारा उस व्यक्ति या निकाय पर अधिरोपित किया. गया होता है।

           इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति या निकाय किसी मामले पर निर्णय करने के लिए विधितः बाध्य है परन्तु वह ऐसा नहीं करता या करने से इन्कार कर देता है तो उसे परमादेश लेख के द्वारा मामले पर विनिश्चयन करने के लिए बाध्य किया जाता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति या निकाय विधि के अन्तर्गत किसी कार्य को करने से विरत रहने के कर्त्तव्याधीन है तथा वह इस विधिक कर्त्तव्य के उल्लंघन में वह कार्य करता है तो उसे ऐसा करने से रोकने के लिए परमादेश का लेख (Writ of Mandamus) निर्गत किया जाता है। इस प्रकार परमादेश लेख ऐसे कार्य को रद्द करने के लिए जारी किया जाता है जो विधि के उल्लंघन में किया गया है तथा विधि विरुद्ध कार्य करने से प्रविरत रहने के कर्त्तव्य को लागू कराने (प्रवर्तन कराने) के लिए जारी किया जाता है। परमादेश लेख किसी अधिकरण विधि के आदेशों के अनुसार अपने कर्तव्य को करने या अपने अधिकार का प्रयोग करने को बाध्य कराने के लिए जारी की जाती है। परमादेश के लेख का प्रभाव सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों होता है जो करना विधिक कर्तव्य है उसे करने तथा जो करना विधि द्वारा अधिकृत नहीं है, उससे प्रविरत रहने के लिए किसी अधिकरण को बाध्य करने हेतु परमादेश का लेख जारी किया जाता है। जिन अधिकरणों (authority) के विरुद्ध यह लेख जारी किया जाता है वह सरकारी, अर्द्ध सरकारी तथा न्यायिक निकाय हो सकता है। परमादेश लेख एक साधारण उपचार है जो न्याय से वंचित किसी व्यक्ति को उपचार प्रदान करता है। परमादेश लेख अधिकार नहीं है। यह न्यायालय अपने विवेकानुसार निर्गत करती है।

          परमादेश रिट के लिए कौन आवेदन कर सकता है (Who may apply for Writ of Mandamus) – परमादेश लेख के लिए आवेदन या याचिका वही व्यक्ति कर सकता है जिसके अधिकारों को क्षति पहुँचायी गई है। परमादेश लेख वह व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जिसके विधिक अधिकार किसौ लोक अधिकरण द्वारा प्रभावित हुए हैं। कम्पनी के मामले में कम्पनी स्वयं आवेदन कर सकती है। कम्पनी का अंशधारक उसी अवस्था में परमादेश लेख हेतु आवेदन कर सकता है जब कम्पनी के साथ-साथ उसके लोक अधिकार भी प्रभावित हुए हों। चरनजीत लाल बनाम भारत संघ, 1950 एस० सी० आर० 809 l

          शिवेन्द्र बनाम नालन्दा कॉलेज, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 1210 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परमादेश लेख के लिए वही व्यक्ति आवेदन कर सकता है जिसका विधिक अधिकार प्रश्नगत कर्तव्य का पालन करवाना हो। इस प्रकार यदि एक व्यक्ति का यह विधिक अधिकार नहीं है कि उसकी नियुक्ति किसी पद पर की जाय तो वह दूसरे व्यक्ति की नियुक्ति के आदेश को निरस्त कराने के लिए परमादेश लेख जारी करने की माँग नहीं कर सकता।

       जिस अधिकार के उल्लंघन के विरुद्ध परमादेश लेख जारी करवाना है, उस अधिकार का याचिका की तिथि को अस्तित्व होना चाहिए। इस प्रकार यदि याची का अधिकार याचिका की तिथि पर समाप्त हो गया हो तो वह परमादेश लेख के लिए आवेदन करने का अधिकारी नहीं है।

      गुरुस्वामी बनाम मैसूर राज्य, ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 592 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सांविधिक कर्तव्य के उल्लंघन या दुरुपयोग की परिस्थिति में वही आवेदन कर सकता है जिसके अधिकार प्रभावित हुए हों। भले ही उसके पास सारवान प्रवर्तनीय अधिकार न हो। उदाहरण के लिए एक अनुज्ञप्ति।

         यह उल्लेखनीय है कि अब आवेदन करने के अधिकार से सम्बन्धित नियम उच्चतम न्यायालय द्वारा शिथिल कर दिया गया है। अब इस याचिका के लिए प्रभावित अन्य व्यक्ति की ओर से कोई उत्साही व्यक्ति परमादेश लेख के लिए लोकहित याचिका के अन्तर्गत आवेदन कर सकता है।

          किसके विरुद्ध परमादेश रिट जारी की जा सकती है (Against whom the Writ of Mandamus will lie) – सोहन लाल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 529 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि परमादेश लेख को सामान्यतः निजी व्यक्ति (Private individual) के विरुद्ध जारी नहीं किया जाता। परन्तु यदि सम्पत्ति किसी ऐसे व्यक्ति के कब्जे में है जो भारत संघ के साथ दुरभिसन्धि (Collusion) के अन्तर्गत है तथा यह जानता था कि निष्कासन अवैध है ऐसे मामले में परमादेश निजी व्यक्ति के विरुद्ध भी जारी किया जा सकता है।

        इस प्रकार अब यह नियम सुस्थापित हो चुका है कि जब कोई निजी व्यक्ति लोक अधिकरण के अन्तर्गत कार्य नहीं कर रहा होता, परमादेश का लेख निजी व्यक्तियों के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता। परमादेश का लेख सिर्फ लोक कर्तव्य को लागू करवाने के लिए ही जारी किया जा सकता है चाहे यह लोक कर्त्तव्य निजी व्यक्ति पर अधिरोपित है या लोक निकाय पर।

       सूरज प्रसाद सक्सेना बनाम प्रबन्धक अव्वलेरिच हायर सेकेण्डरी स्कूल. शाहजहाँपुर, ए० आई० आर० 1961 इलाहाबाद 282 नामक वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निजी विद्यालय के प्रबन्धक के विरुद्ध परमादेश लेख जारी करने से इन्कार कर दिया क्योंकि निजी या सहायता प्राप्त विद्यालय के प्रबन्धक लोक प्राधिकार के अन्तर्गत कार्य नहीं करते अतः उनके विरुद्ध परमादेश लेख जारी नहीं किया जा सकता क्योंकि उनकी स्थिति निजी व्यक्तियों की है।

       परमादेश का लेख लोक प्राधिकारियों के विरुद्ध जारी किया जाता है परन्तु यह लेख प्रमुख या राज्य सरकार के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता। परमादेश लेख विधायिका के विरुद्ध किसी विधेयक पर विचार करने से विरत रहने के लिए नहीं जारी किया जा सकता।

        परमादेश का लेख सरकार को ऐसे नियमों को संस्तुत करने हेतु जारी नहीं किया जा सकता जो मुख्य न्यायाधीश द्वारा निर्मित हो परन्तु उन पर सरकार की संस्तुति आवश्यक हो।

       परमादेश का लेख अर्द्ध न्यायिक कृत्य (Quasi judicial function) करने वाले निकाय के विरुद्ध जारी किया जा सकता है। सेक्कीलर बनाम कृष्णमूर्ति, ए० आई० आर० 1952 मद्रास 151 नामक वाद में यह निर्णय दिया गया कि परमादेश का लेख किसी कॉलेज के प्रधानाचार्य के विरुद्ध जो लोक निधि से संचालित है तथा विश्वविद्यालय जो स्वशासित संस्था है, के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।

         कुमकुम बनाम प्रिंसिपल जियुस एण्ड मेरी कॉलेज, ए० आई० आर० 1976 दिल्ली 35 नामक वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि परमादेश का लेख निजी पोषित विद्यालय के प्राचार्य के विरुद्ध जारी किया जा सकता है जो विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है तथा विश्वविद्यालय अध्यादेश के अन्तर्गत कार्य कर रही है।

         संक्षेप में परमादेश का लेख लोक निकाय के विरुद्ध जारी किया जाता है जो लोक पद धारण करते हुए लोक कर्त्तव्यों के निर्वहन में लोक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत कार्य कर रहा है। परमादेश का लेख श्रमिक संघ के सचिव को, सहकारी संघ के सचिव के विरुद्ध जारी किया जा सकता है परन्तु यह विधानसभा के अध्यक्ष के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता भले ही कॉलेज विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो क्योंकि यह सांविधिक निकाय नहीं है।

         परमादेश लेख जारी करने के आधार (Grounds for issuing Writ of Mandamus)- परमादेश रिट निम्नलिखित परिस्थितियों में जारी किया जाता है-

(1) जब याची को कोई विधिक अधिकार प्राप्त हो- एस० एस० पी० मनोचा तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश, ए० आई० आर० 1972 एम० पी० 86 नामक वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा यह साबित नहीं किया गया है कि उसे किसी महाविद्यालय या इसी प्रकार के किसी संस्थान में प्रवेश प्राप्त करने का सांविधिक या विधिक अधिकार है तब तक महाविद्यालय को उसे प्रवेश देने के लिए परमादेश का लेख जारी नहीं किया जा सकता। इस प्रकार यदि कोई अधिकार प्राधिकारी के विवेक पर निर्भर करता है तो परमादेश का लेख प्राप्त नहीं हो सकेगा जब तक उसे जारी करने का सांविधिक अधिकार न हो। केरल राज्य बनाम लक्ष्मीकुट्टी, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 331 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा, परमादेश लेख किसी न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय अधिकार को प्रवर्तित (enforce) कराने हेतु जारी किया जा सकता है जब यह अधिकार याची को स्वयं प्राप्त हो।