-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न :-
दण्डशास्त्र (Penology)
प्रश्न 1. अपराध शास्त्र से आपका क्या तात्पर्य है, इसका स्वरूप क्या है? इस सम्बन्ध में दण्ड के मूल सिद्धान्तों पर प्रकाश डालते हुए इसके महत्व पर प्रकाश डालिए। What do you understand by Criminology? What is its nature? Also explain the main theories of Punishment alongwith its importance.
उत्तर- (1) अपराध शास्त्र का अर्थ– किसी भी विषय के शास्त्रीय अध्ययन के लिए, जहाँ उसे परिभाषित करना अति आवश्यक होता है, वहीं दूसरी ओर किसी विषय की ऐसी परिभाषा देना जो सर्वमान्य एवं सार्वकालिक हो, अति कठिन होता है। यह बात अपराध शास्त्र के सम्बन्ध में भी लागू होती है क्योंकि अपराधशास्त्र की परिभाषा के विषय में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।
न्यायशास्त्रियों द्वारा दी गई अपराध शास्त्र की परिभाषा, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, जीववैज्ञानिकों तथा मनोचिकित्सकों द्वारा दी गई परिभाषा से भिन्न है। वैधानिक दृष्टिकोण से अपराधशास्त्र एक ऐसा अध्ययन है तो मानव- दुराचरण से सम्बन्धित है जिन्हें विधि द्वारा निर्बन्धित किया जाता है। अपराधशास्त्र के अन्तर्गत मानव की आपराधिक दुष्प्रवृत्तियों के कारण, उनके निवारण तथा अपराधों के विश्लेषण आदि का अध्ययन समाविष्ट है। सामान्यतः अपराधशास्त्र के अन्तर्गत आपराधिकता से सम्बन्धित सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।
डॉ० केनी (Dr. Kenny) के अनुसार-“ अपराधशास्त्र अपराध विज्ञान की वह शाखा है जो अपराध के कारणों, उनके विश्लेषण तथा अपराध निवारण से सम्बन्धित है।”
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अपराधशास्त्र में ऐसे सभी असामाजिक दुष्कृत्यों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है, जिन्हें समाज अनुचित मानता है परन्तु ‘असामाजिक शब्द की निश्चित परिधि निश्चित करना कठिन कार्य होने के कारण इस परिभाषा में निश्चितता का अभाव है।’
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपराधशास्त्र की एक निश्चित सर्वमान्य परिभाषा प्रायः असम्भव ही है। फिर भी इसमें सन्देह नहीं है कि अपराधशास्त्र की प्रमुख विषयवस्तु अपराध एवं अपराधी ही है तथा इसके अन्तर्गत ऐसी सभी संस्थाओं का समावेश है जो इस दोनों पर नियन्त्रण रखने हेतु कार्यरत हैं।
(2) अपराधशास्त्र का वर्गीकरण- प्रो० डब्ल्यू० ए० बोंगर (W.A. Bonger) के अनुसार सैद्धान्तिक अपराधशास्त्र को निम्न उपशाखाओं में विभक्त किया गया है-
(क) आपराधिक मनोविज्ञान (Criminal Psychology),
(ख) आपराधिक मानवशास्त्र (Criminal Anthropology).
(ग) आपराधिक समाजशास्त्र (Criminal Sociology).
(घ) दण्डशास्त्र (Penology),
(ङ) आपराधिक साइकोन्यूट्रोपैथालॉजी (Criminal Psycho-neutro Pathology)
अपराधशास्त्र तथा दण्डशास्त्र के अतिरिक्त हाल ही में एक नई उपशाखा का प्रादुर्भाव भी हुआ है जिसे ‘क्रिमिनेलिस्टिक्स’ कहा गया है और जो मुख्यतः अपराधों का पता लगाने हेतु पुलिस द्वारा अपनाई जाने वाली तकनीक से सम्बन्धित है।
आपराधिक जीवशास्त्र के अन्तर्गत अपराध के विभिन्न कारणों का उल्लेख किया जाता है जबकि आपराधिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत यह देखा गया है कि अपराधी की सामाजिक पारिवारिक, आर्थिक एवं अन्य परिस्थितियाँ उसके कृत्य से किस सीमा तक करणीभूत हैं। इसी कारण प्रो० फ्रीडमेन ने दण्ड विधि को नैतिक विचारकों का भारमापक यंत्र (Barometer) माना है। प्रो० वेचेस्लर (Prof. Wechesler) के अनुसार अपराध, समाज द्वारा निषिद्ध माना गया एक ऐसा आचरण है जिसे रोकने के लिए उसे करने वाले को दण्ड दिये जाने की व्यवस्था है। इसीलिए वर्तमान अपराधशास्त्रियों के सम्मुख तीन प्रमुख समस्याएँ हैं जिनके समाधान के लिए वे अत्यन्त प्रयत्नशील हैं-
(1) मानव के कौन-कौन से आचरणों को अपराध मानकर प्रतिबंधित किया जाये तथा इन आचरणों पर परिस्थितियों का क्या प्रभाव पड़ेगा।
(2) इन आचरणों के लिए भर्त्सना के रूप में क्या उपाय होंगे।
(3) इन अपराधों के निवारण के लिए कौन-सी शास्तियाँ उचित होंगी।
आपराधिक विधि का स्वरूप आपराधिक विधि के स्वरूप का विश्लेषण करना उचित होगा। प्रो० मेरेट (Prof. Marret) के अनुसार विधि सामाजिक सम्बन्धों का प्राधिकृत नियमन है। डॉ० ऐलन (Dr. Allen) ने विधि को केवल राज्य का समादेश न मानते हुए इसे लोकमत पर आधारित ऐसी जन इच्छा माना है जो कि लोगों को नैतिक मूल्यों का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करती है ताकि लोकहित का संवर्धन हो सके। अतः स्पष्ट है कि विधि एक सापेक्ष संकल्पना है जो समय के अनुसार समाज की जरूरतों के अनुरूप परिवर्तनशील है। किसी भी दण्ड विधि को प्रभावी बनाने के लिए उसमें निम्न तत्वों का होना अति आवश्यक है— (क) उसमें एकरूपता हो, (ख) वह स्पष्ट तथा निश्चित हो, (ग) उसके पीछे दण्ड की शास्ति हो, (घ) वह राज्य द्वारा निर्धारित एवं मान्य हो ।
दण्ड विधि के मूल सिद्धान्त – दण्ड विधि भी कुछ निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित है जो इसे निश्चितता तथा न्यायिक स्वरूप प्रदान करते हैं। आपराधिक विधि के प्रमुख सिद्धान्त निम्न हैं-
(1) आपराधिक विधि के अन्तर्गत तथ्य सम्बन्धी भूल अपराधी के लिए एक अच्छा बचाव है। लेकिन विधि सम्बन्धी भूल किसी भी दशा में अपराधी को आपराधिक दायित्व से मुक्ति नहीं दिला सकती। लेकिन कुछ ऐसे सांविधानिक कठोर दायित्व होते हैं जिनके लिए तथ्य सम्बन्धी भूल का बचाव उपलब्ध नहीं होता है। जैसे-यदि कोई आदमी किसी अन्य की भूमि में भूलवश यह मानते हुए कि वह भूमि उसकी स्वयं की है, प्रवेश करता है तो वह अतिचार (Trespass) के अपराध के लिए दोषी होगा चाहे भले ही उसमें उसका अपराध न रहा हो।
(2) कोई भी कृत्य अपराध माने जाने के लिए यह आवश्यक है कि वह आपराधिक आशय से किया गया हो। अतः सद्भावना से या निष्कपट बुद्धि से किये गये कार्य के कारण यदि किसी भी व्यक्ति को क्षति पहुँचे तो उसे अपराध नहीं कहा जा सकता है। जैसे—-हत्या के मामले में हत्यारे का दूषित आशय, बलात्कार के प्रकरण में स्त्री की इच्छा के विरुद्ध अपराधी द्वारा संभोग के प्रयास में बलात् सम्पर्क स्थापित किया जाना तथा चोरी के अपराध में चोरी करने तथा चुराई गई वस्तु को प्राप्त करने के इरादे को आपराधिक आशय कहा जा सकता है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध निर्णीत वाद ‘शॉ बनाम डी० पी० पी०’, ‘डी० पी० पी० बनाम स्मिथ’ तथा ‘राज्य बनाम विद्यावती’ के प्रकरण अति महत्वपूर्ण हैं।
(3) आपराधिक विधि के अन्तर्गत सह-अपराधी को मुख्य अपराधी के समान ही माना जाता है तथा दोनों को समान दण्ड दिया जाता है।
(4) इसमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रथम दृष्ट्या निर्दोष माना जायेगा जब तक कि दण्ड विधि के अन्तर्गत उसका दोषसिद्धि न हो जाय। इस सिद्धान्त में अपराधी को अपने बचाव का पूरा-पूरा अवसर मिल सके और उसके अपराधी होने के बारे में न्यायालय कोई पूर्व धारणा न बना लें।
(5) अपराधी को केवल ऐसे कृत्य के लिए दण्डित किया जा सकता है जो उस समय जबकि उसने वह अपराध किया हो, विधि के अन्तर्गत अपराध के रूप में दण्डनीय हो। लेकिन यदि कृत्य घटित होने के समय अपराध के रूप में दण्डनीय न हो और बाद में उसे अपराध घोषित किया गया हो, तो वह दण्डनीय नहीं माना जाएगा।
(6) अपराधी को उसके विचारण के दौरान तथा विचारण के पहले और बाद में कुछ अधिकार और संरक्षण प्राप्त होते हैं जिनमें उचित परीक्षण तथा दोहरे परिसंकट व स्वयं की अभिशास्ति के विरुद्ध अधिकार शामिल हैं। उसे प्राप्त अन्य अधिकारों में अविलम्ब मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किये जाने, जमानत या बंधपत्र पर रिहा किये जाने तथा विधिक सहायता के अधिकार विशेष उल्लेखनीय हैं।
अपराधशास्त्र का महत्व – अपराधशास्त्र के अन्तर्गत मानव की स्वतन्त्रता व जीवन की सुरक्षा एवं सम्पत्ति के संरक्षण के लिए अपराध विज्ञान के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन जरूरी समझा गया है। इनमें अपराधशास्त्र, दण्डशास्त्र, दण्ड विधि का अधिक महत्व है क्योंकि ये समाज से अपराध और अपराधियों को दूर रखने में सहायक सिद्ध होते हैं। अपराधों का प्रमुख कारण मनुष्य की धन-लोलुपता, भौतिक इच्छाएँ ईर्ष्या, सन्देह, अविश्वास आदि ही हैं। यही कारण है कि आज अपराधशास्त्र ने ज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा का स्थान प्राप्त कर लिया है। इनकी मुख्य विशेषताएं –
(1) अपराधशास्त्र के द्वारा सामाजिक सुरक्षा की सुदृढ़ता सुनिश्चित की जाती है जो असामाजिक तत्वों तथा विधि का उल्लंघन करने वालों को सदाचारी बनाने में सहायक सिद्ध होती है। दण्ड का भय व्यक्तियों को अवांछित आचरण से परावृत रखने के लिए शास्ति का कार्य करता है।
(2) इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ‘अपराध और अपराधी’ दोनों ही इसके केन्द्र बिन्दु हैं। इसकी मूल धारणा यह है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही अपराधी प्रकृति का नहीं होता है। अतः इसी मान्यता के आधार पर अपराधशास्त्र में अपराधी की मनोवृत्ति में सुधार करके उसे समाज में विधि का पालन करने वाला सामान्य नागरिक बनाने का प्रयास किया जाता है और इस हेतु वैयक्तिक दण्ड को साधन के रूप में अपनाया जाता है।
(3) डोनाल्ड टेफ्ट ने अपराधशास्त्र को समाज सेवा का उत्तम माध्यम मानते हुए कहा है कि जहाँ इसके अन्तर्गत अनेक लोगों को व्यवसाय और रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं वहीं दूसरी तरफ, इसके अध्ययन से न्याय प्रशासन से सम्बन्धित विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत व्यक्तियों जैसे पुलिस, अधिवक्ता, न्यायाधीश, परिवीक्षक आदि को अपराधों से जुड़े सभी पहलुओं की यथेष्ट जानकारी भी उपलब्ध होती है।
(4) इसमें सन्देह नहीं है कि वर्तमान समय में वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप मानव जीवन की जटिलताएँ बढ़ती जा रही हैं जिसके कारण अपराधों में वृद्धि हो रही है। वर्तमान समय में ऐसे अनेक नये अपराधों का प्रादुर्भाव हुआ है जो पूर्व में कभी नहीं सुने गये थे। जैसे-तस्करी, काला बाजारी, बैंक लूट, आतंकवाद, वाहनों की चोरी, साइबर अपराध इत्यादि। जिस प्रकार अपराध निरोधक संस्थाएँ अपराधों को रोकने के लिए नई-नई तकनीकों तथा साधनों का उपयोग कर रही हैं, उसी प्रकार अपराधी भी नवीनतम तरीकों को अपनाने में लगे हुए हैं। अतः इन परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि आपराधिक विधि से सम्बन्धित व्यक्ति इन सामयिक परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए अपराध विज्ञान को अद्यतन बनाये रखने में योगदान दें।
इस संदर्भ में विख्यात अपराधशास्त्री डॉ० पी० के० सेन के विचारों का उल्लेख किया गया है। भारतीय दण्डशास्त्र के विषय में उनका कहना था कि हमारे पुराने धर्मग्रन्थों में इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं कि उस समय भी इस देश में एक सुनियोजित व व्यवस्थित दण्ड प्रणाली लागू थी। यही कारण था कि पुराने समय में लोगों के सदाचारी होने के कारण अपराधों की संख्या नगण्यप्राय थी।
अपराधशास्त्र का भविष्य – आज के युग में अपराधशास्त्रियों का ध्यान इस ओर लगा हुआ है कि क्या इस विषय को सही अर्थों में ‘विज्ञान’ की संज्ञा दी जा सकती है। इस विषय मैं प्रो० सदरलैण्ड के अनुसार विज्ञान का मूलतत्व उसके सिद्धान्तों की सार्वभौमिकता में निहित होता है जो केवल स्थायी इकाइयों के प्रति ही लागू किया जा सकता है। यह एक ऐसी गम्भीर सामाजिक समस्या है जो समस्त लोगों को प्रभावित करके कुछ अपराधों का प्रभाव जनता पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। जैसे― चोरी, हत्या, डकैती, राजद्रोह आदि और कुछ अपराध ऐसे भी हैं जिनका प्रभाव अपकारित व्यक्ति विशेष पर तो प्रत्यक्षतः पड़ता है लेकिन जनता पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है; जैसे-बलात्कार या मानहानि आदि।
सामाजिक परिवर्तनों के साथ दण्ड नीति के बारे में भी न्यायविदों के विचारों में परिवर्तन आया है। आज की मान्यता यह है कि अपराधी परिस्थितियों से पीड़ित व्यक्ति है। अतः उसे एक रोगी की भाँति मानकर दण्डित करने के बजाय उपचारात्मक पद्धति से उसका समाज में पुनर्वास किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी आपराधिक प्रवृत्ति त्यागकर सामान्य नागरिक की तरह जीवन बिता सके। इस विषय में प्रो० एच० एल० ए० हार्ट के विचारों को उद्धत करना समीचीन होगा जिन्होंने कहा है कि ‘हम समाज में भर्त्सना करने के लिए जीवित नहीं रहते अपितु जीवित रहने के लिए भर्त्सना करते हैं। वास्तव में दण्डाधिकारियों के लिए यह सही चेतावनी है तथा उन्हें दण्ड का प्रयोग सामाजिक सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में ही करना चाहिए ताकि राज्य, समाज तथा व्यक्ति सभी का कल्याण हो। आज जरूरत इस बात की है कि दण्डशास्त्रियों को अपना ध्यान केवल ‘अपराधी’ पर केन्द्रित न करते हुए सामाजिक हितवर्धन की ओर अधिक केन्द्रित करना चाहिए ताकि दण्ड नीति का उद्देश्य सफल हो सके।
प्रश्न 2. दण्डशास्त्र से आप क्या समझते हैं? इसके स्वरूप की विवेचना कीजिए तथा यह कितने प्रकार का होता है? स्पष्ट करें। What do you understand by Penology? Discuss the nature and how many kinds of Penology ? Explain.
उत्तर- अपराधशास्त्र की भाँति दण्डशास्त्र का भी अपना अलग महत्व है। समाज में व्यक्ति के आचरण को नियन्त्रित करने के लिए विधियों की नितान्त आवश्यकता होती है ताकि समाज में शान्ति-व्यवस्था बनी रहे और मानव-जीवन तथा सम्पत्ति का संरक्षण सम्भव हो। परन्तु मानव स्वभावतः ही स्वार्थी होने के कारण केवल विधि बना देने मात्र से उसका आचरण नियन्त्रित नहीं हो जाता जब तक कि इन कानूनों (नियमों) के उल्लंघन के लिए समुचित दण्ड की व्यवस्था न हो। अतः प्रायः सभी दण्डशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि अपराधों के निवारण के लिए दण्ड के प्रावधान रखे जाना नितान्त आवश्यक है क्योंकि दण्ड का भय ही व्यक्ति को आपराधिक आचरण से परावृत्त रखता है।
दण्ड की अनिवार्यता को प्रायः सभी दण्डशास्त्री स्वीकार करते हैं लेकिन दण्ड का निश्चित स्वरूप क्या हो इस सन्दर्भ में मतभेद कायम हैं। कुछ दण्डशास्त्री कठोर दण्ड दिये। जाने के पक्षधर हैं, जबकि कुछ सुधारात्मक या उपचारात्मक दण्ड दिये जाने का समर्थन करते हैं।
सामाजिक परिवर्तनों के साथ दण्डशास्त्र के बारे में भी विधिशास्त्रियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। वर्तमान समय में मान्यता यह है कि अपराधी परिस्थितियों से पीडित व्यक्ति है अतः उसे एक रोगी की भाँति मानकर दण्डित करने के बजाय उपचारात्मक पद्धति से उसका समाज में पुनर्वास किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी आपराधिक प्रवृत्ति को त्यागकर सामान्य नागरिक की तरह जीवन बिता सके। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आपराधिकता सम्बन्धी सम्पूर्ण विचारधारा के पुनरीक्षण किये जाने पर बल दिया गया है ताकि उसे अधिक युक्तिसंगत तथा समयानुकूल बनाया जा सके। आधुनिक दण्ड-व्यवस्था में दण्ड को एक बुराई के रूप में माना गया है तथा इसका प्रयोग केवल तभी किया जाना अपेक्षित है जब उसके सिवा न्याय के उद्देश्य की पूर्ति सम्भव न हो।
दण्ड में अन्तर्निहित कष्ट या पीड़ा अपराधी को अपराध से परावृत्त रहने के लिए बाध्य करते हैं और वह विधि का उल्लंघन करने के बजाय उसका अनुपालन करने में ही अपनी भलाई समझता है। अतः एक निश्चित सीमा से अधिक सुविधा या सुधार दण्ड को निष्प्रभावी बना देंगे जिसका समाज पर विपरीत परिणाम होगा और अपराधों में वृद्धि होगी। आज आवश्यकता इस बात की है कि दण्डशास्त्रियों को अपना ध्यान केवल ‘अपराधी’ पर केन्द्रित न करते हुए सामाजिक हित के संवर्धन को और अधिक केन्द्रित करना चाहिए ताकि दण्ड नीति का उद्देश्य सफल हो सके।
अब यह पूर्णतः स्थापित हो चुका है कि दण्डशास्त्र का अन्तिम लक्ष्य अपराधों का निवारण तथा समाज का आपराधियों से संरक्षण करना है। प्रसिद्ध अपराधशास्त्री काल्डवेल ने अपनी पुस्तक क्रिमिनोलॉजी में कहा है कि दण्ड का निर्धारण एक कला है जिसमें प्रतिशोधात्मक, निवारक तथा सुधारात्मक नीतियों का संतुलन बनाये रखते हुए समाज और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुसार निर्णय लिया जाना अपेक्षित है, तभी दण्ड के वांछित उद्देश्य में सफलता प्राप्त करना सम्भव हो सकता है।
दण्डशास्त्र को अध्ययन के दृष्टिकोण से चार भागों में बाँटा गया है- (1) प्रशासनिक दण्डशास्त्र, (2) वैज्ञानिक दण्डशास्त्र, (3) अकादमिक दण्डशास्त्र, (4) विश्लेषणात्मक दण्डशास्त्र।.
(1) प्रशासनिक दण्डशास्त्र – प्रशासनिक दण्डशास्त्र को ‘एप्लाइड दण्डशास्त्र’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसमें विभिन्न देशों में प्रचलित दाण्डिक पद्धतियों की विवेचना की जाती है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न शासकीय दण्ड नीतियों एंव संस्थागत उपचारात्मक पद्धतियों का समावेश रहता है। इस दण्डशास्त्र का उद्देश्य अपराधियों की अभिरक्षा, उन पर नियन्त्रण एवं उनसे समाज की सुरक्षा करना है तथा यह विभिन्न दाण्डिक समस्याओं के समाधान की ओर भी प्रयत्नशील रहता है।
(2) वैज्ञानिक दण्डशास्त्र- इस दण्डशास्त्र का प्रमुख लक्षण यह है कि इसके – अन्तर्गत चिकित्सकीय एवं मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ अपराधियों के उपचार से जुड़ी समस्याओं का निदान करते हैं। अतः इसका केन्द्र बिन्दु अपराधी का व्यक्तित्व होता है न कि उसके द्वारा कारित अपराध का।
(3) अकादमिक दण्डशास्त्र – अकादमिक दण्डशास्त्र का स्वरूप मुख्यतः वर्णनात्मक होता है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक एवं अनुसंधान के माध्यम से दण्डात्मक ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना है। इसमें दण्डशास्त्र के सैद्धान्तिक पहलू पर अधिक बल दिया जाता है।
(4) विश्लेषणात्मक दण्डशास्त्र – विश्लेषणात्मक दण्डशास्त्र का मुख्य उद्देश्य किसी स्थान विशेष में प्रचलित दण्ड नीति के औचित्य का अध्ययन करके उसमें सुधार हेतु प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए स्थान विशेष के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक मूल्यों का अवधारण करते हुए उनका आपराधिकता पर प्रभाव का भी आंकलन किया जाता है ताकि दण्ड नीति को अधिक प्रभावी बनाया जा सके।
दण्डशास्त्र के सन्दर्भ में म० प्र० उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने सेन्ट्रल इण्डिया विधि त्रैमासिक पत्रिका में लिखा है कि केवल वैयक्तिक न्याय ही स्वयं में सामाजिक न्याय नहीं है-यदि अपराधी के वैयक्तिक सुधार से समाज का भला होता है, तो सामाजिक न्याय का उद्देश्य पूर्ण होगा, परन्तु यदि सुधार केवल अपराधी के लिए ही लाभप्रद है तो सामजिक न्याय का दम घुटने लगेगा और हमें यह जाने-अनजाने में भी नहीं होने देना है। अतः दण्डशास्त्र का समाज को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान है।
प्रश्न 3. (i) अपराधशास्त्र, दण्डशास्त्र तथा दण्ड विधि के बीच सम्बन्धों को बतलाइये। Explain the relation between Criminology, Penology and Criminal Law.
(ii) दण्ड की परिभाषा दीजिए। भारत की प्राचीन न्याय-व्यवस्था में दण्ड का क्या महत्व है? Define Punishment. What is the importance of Punishment in the ancient administration of Justice of India?
उत्तर (क) — अपराधशास्त्र, दण्डशास्त्र तथा दण्ड विधि में परस्पर सम्बन्ध – अपराधशास्त्र अपराध-विज्ञान की वह शाखा है जो अपराध तथा आपराधिक आचरणों से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत अपराध के कारणों तथा उनके निवारण का विवेचन रहता है। दण्डशास्त्र के अन्तर्गत अपराधियों की अभिरक्षा, उनके उपचार तथा उन पर नियन्त्रण की विभिन्न पद्धतियों का अध्ययन किया जाता है। अपराधशास्त्र तथा दण्डशास्त्र, इन दोनों शाखाओं द्वारा निर्धारित दण्ड नीतियों को दण्ड विधि के माध्यम से लागू किया जाता है। दूसरे शब्दों में, दण्डनीति को दण्ड विधि द्वारा कार्यान्वित किया जाता है।
उत्पीड़न शास्त्र के अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि कतिपय व्यक्ति अपराध के शिकार क्यों होते हैं और उनकी जीवन-शैली उन्हें अपराध का शिकार बनाने में किस सीमा तक कारक होती है।
अपराध विज्ञान को तीन भागों अपराधशास्त्र, दण्डशास्त्र एवं दण्ड विधि में बाँटकर अध्ययन किया जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि अपराधशास्त्र, दण्डशास्त्र तथा दण्डविधि में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं रखा जा सकता है। दण्ड के निर्धारण का आधार मुख्यतः अपराधों की प्रकृति तथा कारणों पर निर्भर करता है जिसका प्रवर्तन दण्ड विधि के माध्यम से किया जाता है। इसलिए प्रो० सेलिन ने कहा है कि अपराधशास्त्र का उद्देश्य विधि-निर्माण, विधि की अवज्ञा (Law-breaking) तथा विधि उल्लंघन के दुष्परिणामों का विधि की प्रभावशीलता की दृष्टि से क्रमबद्ध अध्ययन करना है। तथा साथ ही यह भी देखना है कि दण्ड विधि अपराधों पर नियन्त्रण रखने में कहाँ तक सफल रही है। इस सम्बन्ध में डोनाल्ड टेफ्ट ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि अपराधशास्त्र के अन्तर्गत अपराधों एवं अपराधियों का वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण तथा अध्ययन किया जाता है, जबकि दण्डशास्त्र मुख्यतः अपराधियों के दण्ड एवं उपचार से सम्बन्धित है। उनके मतानुसार अपराधशास्त्र का प्रादुर्भाव तथा विकास दण्डशास्त्र की तुलना में बहुत बाद में हुआ है क्योंकि आरम्भिक काल में अपराधों के कारणों के विश्लेषण के बजाय अपराधियों को दण्डित करने पर ही विशेष जोर दिया जाता था।
उत्तर (ii)- दण्ड की परिभाषा – राज्य द्वारा निर्मित विधियों (कानूनों) का पालन प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जाना आवश्यक होता है। इन कानूनों का उल्लंघन किये जाने पर व्यक्ति दण्डित किया जाता है। प्रत्येक देश की दण्ड विधि में अनेक प्रकार के अपराधों का उल्लेख होता है जिसके लिए दण्ड के उपबन्ध निर्मित किये जाते हैं। दण्ड विधि के नियमों के उल्लंघन को अपराध कहा जाता है। विधिशास्त्रियों ने दण्ड को भिन्न-भिन्न रीतियों से परिभाषित किया है जिसमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नवत् हैं-
प्रो० सदरलैण्ड के अनुसार “लोक न्याय के उपकरण के रूप में दो बातों का होना आवश्यक है। प्रथम, यह दण्ड समुदाय द्वारा अपनी क्षमता के रूप में उस व्यक्ति को दिया जाता है जो उस समुदाय का सदस्य है तथा दूसरे इसमें पीड़ा तथा क्लेश सन्निहित रहते हैं जो समुदाय के सामाजिक मूल्य द्वारा न्यायोचित माने जाते हैं।”
एनरिको फैरी ने दण्ड को एक विधिक प्रतिरोध के रूप में निरूपित किया है। वेस्टर मॉर्क (Wester Mark) के अनुसार, “दण्ड एक ऐसी पीड़ा है जो समाज द्वारा अपराधी को सुनिश्चित ढंग से दी जाती है क्योंकि वह अपराधी उस समाज का स्थायी या अस्थायी सदस्य होता है।
प्रो० सेठना के अनुसार, “दण्ड एक प्रकार की सामाजिक प्रताड़ना है और इसमें यह आवश्यक नहीं है कि सामाजिक पीड़ा या संत्रास कारित हो।”
भारत की प्राचीन न्याय व्यवस्था में दण्ड का महत्व – उल्लेखनीय है कि प्राचीन आपराधिक न्याय व्यवस्था में भी दण्ड को व्यापक महत्व प्राप्त था। सुविख्यात दण्डशास्त्री पी० के० सेन के अनुसार भारत की प्राचीन दण्ड व्यवस्था सुनिश्चित दण्ड सिद्धान्तों पर आधारित थी। हिन्दू धर्म के अधीन कर्म को प्रधानता को व्यापक महत्व प्रदान किया गया है। अपराधी को दण्डित करना शासक का कर्तव्य था और यदि शासक इसमें व्यतिक्रम करता था तो माना जाता था कि वह अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा है। मनु और कौटिल्य की रचनाओं में अपराधियों को राजदण्ड से दण्डित किये जाने पर जोर दिये जाने का उल्लेख मिलता है।
मनुस्मृति के अनुसार प्रजा द्वारा “राजधर्म का पालन किया जाय इस दृष्टि से दण्ड विधान का होना परम आवश्यक है। दण्ड के भय से समाज के व्यक्ति अपने धर्म और कर्म से विचलित रहने से विरत रहते हैं। दण्ड ही प्रजाजनों की जानमाल की रक्षा करता है। इसलिए अपराधी को दण्डित करना राजा का परम धर्म है।”
सारांश में सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण के लिए जो कानून निर्मित हैं उनमें उल्लंघन को रोकने के लिए भय के रूप में जो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कष्ट पहुँचाया जाता है, वह दण्ड कहलाता है।
प्रश्न 4. दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। Describe the various theories of Punishment.
उत्तर- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्त (Deterrent Theories ) – प्रारम्भिक काल में दण्ड का स्वरूप बहुधा प्रतिरोधात्मक होता था। इसके अन्तर्गत अपराधियों को यातनात्मक दण्ड दिया जाता था ताकि वे आपराधिक कृत्य से दूर रहें तथा इस तरह के दण्ड का उदाहरण लेते हुए व्यक्ति स्वयं को अपराध से विरत रखे। इस प्रकार दण्ड की कठोरता अपराधी के लिए पर्याप्त भय का कारण होने के साथ-साथ अन्यों के लिए चेतावनी का कार्य भी करती है। यही कारण है कि प्रायः सभी दण्ड विधियों में प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।
उल्लेखनीय है कि प्रतिरोधात्मक दण्ड का प्रादुर्भाव अपराध और अपराधियों से सम्बन्धित आदिकालीन सिद्धान्तों से हुआ जब अपराध को पैशाचिक प्रवृत्ति का परिणाम माना जाता था। प्राचीन काल में चोरी के अपराध के लिए अपराधी का हाथ कटवा दिया जाता था या बलात्कारी का गुप्तांग कटवा लिया जाता था। ये दण्ड प्रतिरोधात्मक दण्ड के स्वरूप थे।
यह दण्ड वर्तमान परिवेश में उचित नहीं प्रतीत होता है क्योंकि दण्ड के इस सिद्धान्त की नींव बर्बरता रूपी स्तम्भ पर टिकायी गयी है।
(2) प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त (Retributive Theories) जहाँ एक ओर प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त को सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने का साधन माना गया था वहीं पर दूसरी ओर दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त को स्वयं एक अन्तिम लक्ष्य के रूप में निरूपित किया गया है। डॉ० पी० के० सेन के अनुसार प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त का मूल आधार यह था कि बुराई का प्रतिशोध बुराई से लेना चाहिए। अतः इस सिद्धान्त के पीछे प्रतिशोध की भावना प्रबल थी। अतः अपराधी को दिये जाने वाले दण्ड की पीड़ा उसके द्वारा किये गये अपराध कृत्य से प्राप्त सुख से कहीं अधिक होनी चाहिए ताकि दण्ड प्रभावी हो सके। इस प्रकार दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त के समर्थकों ने दण्ड का अपराधी के अपराध कृत्य के प्रति समाज का निरनुमोदन माना। सर वाल्टर कोर्बले के अनुसार प्रतिशोधात्मक दण्ड के अन्तर्गत इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि अपराधी को अपने दुष्कृत्य का फल मिलना ही चाहिए। उन्होंने दण्ड की नापसंदगी निरूपित करते हुए कहा कि स्वस्थ समाज के लिए दण्ड परम आवश्यक है।
जर्मन दार्शनिक एवं विधिवेत्ता कांट दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक थे। उनके अनुसार आँख के लिए आँख और दाँत के लिए दाँत की उक्ति प्रतिशोधात्मक दण्ड की भावना से युक्त है।
स्टीफेन तथा ब्रडले महोदय इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हैं। ब्रेडले के अनुसार जिस तरह विवाह और स्नेह में परस्पर सम्बन्ध है उसी प्रकार दण्ड विधि और प्रतिशोध में घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्लेटो के अनुसार, “न्याय आत्मा की अच्छाई और स्वास्थ्य है, जबकि अन्याय इसकी बीमारी और शर्मिन्दगी है।” परन्तु इस विचार की आलोचना हुई है क्योंकि अपराधी द्वारा अपने अपराध का दण्ड भोग लिये जाने के पश्चात् निर्दोषिता की स्थिति में आ जाने के कारण वह समझने लगता है कि उसने जो अपराध किया था, उसका दण्ड तो वह भुगत चुका है अतः अब पुनः अपराध करने के लिए वह पूरी तरह स्वतन्त्र है।
(3) निरोधात्मक सिद्धान्त (Preventive Theories)- दण्ड के निरोधात्मक सिद्धान्त के प्रति अवधारणा यह है कि अपराध के लिए बदला लेने के बजाय उसका निवारण करना चाहिए। इस सिद्धान्त के पोषकों का मानना है कि समाज की सुरक्षा के लिए दण्ड नितान्त आवश्यक है। अपराधियों को दण्डित करके समाज उन असामाजिक तत्वों से स्वयं की रक्षा करता है जो लोगों के जीवन तथा सम्पत्ति के लिए संकट उत्पन्न करते हैं। इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विधिशास्त्री फिस्बे ने अवलोकन किया है कि सभी दण्ड विधियों का लक्ष्य है कि उन्हें लागू न करना पड़े। अपने विचारों को एक उदाहरण देकर अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि भूमि का धारक अपनी भूमि के स्थान पर यह नोटिस लगता है कि अतिचारी को दण्डित किया जायेगा तो इसका आशय यह नहीं है कि वह यह इच्छा रखता है कि कोई व्यक्ति उसकी भूमि में अतिक्रमण करे ताकि वह उसके विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही करे।
(4) सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative Theories) समय में परिवर्तन के साथ अपराध विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रगतिगामी परिवर्तन हुए हैं जिनके फलस्वरूप अपराधशास्त्रीय चिन्तन में भी बदलाव आया। अपराध और अपराधियों से सम्बन्धित समस्याओं के प्रति लोगों की धारणायें बदलने लगीं और दण्ड के सभी पूर्ववर्ती सिद्धान्त अधूरे सिद्ध हुए क्योंकि इनसे अपराध निवारण में विशेष सहायता नहीं मिल पाती है। अत: आपराधिक क्षेत्र में वैयक्तिकरण की उपचार पद्धति द्वारा अपराधियों से निपटने की नई तकनीक अपनायी गयी जो सुधारात्मक सिद्धान्त का मूल आधार मानी जाती है।
दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त का प्रादुर्भाव 20वीं शताब्दी में सुधारवादी युग की देन है। यह सिद्धान्त अपराधी को रोगी मानते हुए उसे दण्डित करने के बजाय उसके सुधार पर विशेष बल प्रदान करता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अपराध की प्रणीति के उपरान्त अपराधी को मिलने वाले दण्ड को व्यर्थ माना गया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह मान्यता है कि दण्ड की सफलता के लिए अपराधी के भविष्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए न कि उसके बीते हुए कल पर दण्ड का प्रयोग अपराधी के भूतकालीन अपराधी जीवन का बदला लेने के लिए नहीं किया जाना चाहिए वरन् उसे भविष्य में एक बार पुनः स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए अवसर के रूप में प्रयोग करना चाहिए। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार समाज का वातावरण ही मुख्य रूप से आपराधिकता के लिए करणीभूत होता है।
प्रश्न 5. (क) भारतीय आपराधिक विधि के अधीन दण्ड के स्वरूपों की व्याख्या कीजिए। Explain the types of Punishment under the Indian Criminal Law?
(ख) दण्ड कितने प्रकार का होता है? संक्षेप में वर्णन कीजिए। How many kinds of Punishment? Describe in brief.
(ग) उपचारात्मक दण्ड पद्धति क्या है? एक आदर्श दण्डनीति के कौन-कौन से आवश्यक लक्षण हैं? स्पष्ट करें। What is Clinical Method of Punishment? How many essential features of a Ideal Penology? Explain.
(घ) न्याधिक दण्डादेश से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट करें। What do you understand by Judicial Sentencing? Explain.
उत्तर (क) — समाज में अपराधों के नियन्त्रण हेतु अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था एक आवश्यक बुराई है। दण्ड का मुख्य उद्देश्य आपराधिक मनःस्थिति वाले व्यक्तियों के मन में भय उत्पन्न कर उन्हें अपराध करने से प्रविरत रखना है इसलिए प्राचीन समाज में ही नहीं वरन् प्रत्येक समाज में दण्ड देने की व्यवस्था विद्यमान थी। दण्ड देने में निष्पक्षता तथा उन्हें लागू करने में कठोरता ही सभ्य तथा शान्तिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का मेरुदण्ड है। दण्ड का स्वरूप तथा उसकी मात्रा के सम्बन्ध में कोई कठोर नियम प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। यह अपराध की परिस्थितियों, अपराध की प्रकृति, अपराधी का आशय, अपराधी की आयु तथा पूर्व चरित्र पर निर्भर होना चाहिए। इसी कारण यह न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया जाता था।
भारतीय दण्ड संहिता में अधिकतम दण्ड की सीमा का निर्धारण किया गया है तथा न्यायालय को यह विवेक दिया गया है कि वह अपराध की प्रकृति, अपराधी के पूर्व चरित्र तथा अपराध की परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए उस दण्ड को निर्धारित सीमा के अन्तर्गत उचित दण्ड दे। दण्ड में निम्न बातें होनी आवश्यक हैं-
(1) दण्ड के अन्तर्गत ऐसे परिणामों का समावेश होना चाहिए जो कष्टकारक हों।
(2) दण्ड का प्रावधान दाण्डिक विधि के अन्तर्गत होना चाहिए।
(3) दण्ड किसी अभियुक्त को सन्देह से परे साबित होने के पश्चात् दिया गया हो कि उसने अपराध किया है जिसके लिए प्रश्नगत दण्ड निर्धारित है।
(4) दण्ड के लिए यह आवश्यक है कि वह अपराध के स्वरूप, उसकी गम्भीरता तथा समाज में उसके कारण उत्पन्न होने वाली हानि के अनुरूप हो।
दण्ड के स्वरूप – भारतीय अपराध विधि में मूलतः छः प्रकार के दण्डों का उल्लेख किया गया है – मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास, सम्पत्ति का समपहरण, जुर्माना ।
(1) मृत्युदण्ड (Death Penalty) – भारतीय दण्ड संहिता के अधीन आठ प्रकार के अपराधों के लिए मृत्युदण्ड से दण्डित किये जाने का प्रावधान है। यह आठ अपराध इस प्रकार से हैं-
(1) भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने का प्रयास करना या उकसाना (धारा 121 );
(2) ऐसे सैनिक विद्रोह का दुष्प्रेरण जिसके परिणामस्वरूप विद्रोह वास्तव में हुआ हो। (धारा 132) ;
(3) ऐसा मिथ्या साक्ष्य देना या गढ़ना जिसके परिणामस्वरूप किसी निर्दोष व्यक्ति को मृत्युदण्ड दिया जाय (धारा 194);
(4) हत्या (धारा 302 );
(5) आजीवन कारावास भुगत रहे अपराधी द्वारा हत्या (धारा 303 );
(6) किसी शिशु या पागल या उन्मत्त को आत्महत्या करने के लिए दुष्प्रेरित करना (धारा 305);
(7) आजीवन कारावास भुगत रहे व्यक्ति द्वारा हत्या का प्रयास जिससे चोट कारित हुई हो (धारा 307), मृत्यु सहित डकैती (धारा 396)। आजीवन कारावास भुगत रहे व्यक्ति द्वारा यदि मृत्यु कारित की जाती है तो उसके लिए एकमात्र दण्ड मृत्युदण्ड का प्रावधान है (धारा 303)।
शेष अन्य धाराओं के अन्तर्गत दिये जाने वाले मृत्युदण्ड के विकल्प में आजीवन कारावास के दण्ड का विकल्प है, अर्थात् शेष मृत्युदण्ड के विकल्प में न्यायालय मानसिक कारावास का दण्ड दे सकता है। सन् 1955 के पूर्व इस विकल्प के अन्तर्गत मृत्युदण्ड दिया जाना एक सामान्य नियम था तथा आपवादिक परिस्थितियों में आजीवन कारावास दिया जाता था। परन्तु सन् 1955 में दाण्डिक संशोधन के पश्चात् स्थिति उसके विपरीत हो गयी अतः हत्या के लिए आजीवन कारावास का दण्ड एक सामान्य नियम हो गया तथा मृत्युदण्ड केवल आपवादित परिस्थितियों में दिये जाने की व्यवस्था हुई है। अब मृत्युदण्ड देते समय न्यायाधीश को अपने दण्डादेश में यह स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि वह प्रस्तुत मामले में मृत्युदण्ड देना ही क्यों उचित समझता है। सन् 1973 में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) के अन्तर्गत यह स्पष्ट रूप से प्रावधानित है कि मृत्यु दण्डादेश देते समय न्यायाधीश द्वारा इसके कारणों का स्पष्ट उल्लेख किया जाना एक विधिक कर्तव्य के रूप में अनिवार्य माना गया है।
मृत्युदण्ड के विषय में यह उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को तथा अनुच्छेद 161 के अन्तर्गत राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह मृत्युदण्ड को क्षमादान दे सकते हैं तथा मृत्युदण्ड को अन्य दण्ड से संशोधित कर सकते हैं। उनकी इस शक्ति को न्यायिक जाँच का विषय नहीं माना जायेगा।
(2) आजीवन कारावास (Life Imprisonment) भारतीय आपराधिक विधि की धारा 53 में उल्लिखित, आजीवन कारावास शब्दावली से तात्पर्य सश्रम कारावास से है, न कि साधारण आजीवन कारावास से। इसमें कुल 51 धारायें ऐसी हैं जिसके अन्तर्गत किये गये अपराध के लिये आजीवन कारावास का दण्ड निर्धारित है। यद्यपि आजीवन कारावास के दण्ड को कम या समाप्त किये जाने की शक्ति समुचित सरकार के विवेक के अधीन है फिर भी यदि ऐसा नहीं किया गया है तो आजीवन कारावास से दण्डित व्यक्ति को अपना शेष जीवन कारावास में व्यतीत करना होगा। भागीरथ बनाम दिल्ली प्रशासन, ए० आई० आर० 1985 सु० को ० 1057 में उच्चतम न्यायालय की बृहद खण्डपीठ ने आजीवन कारावास तथा निश्चित अवधि के कारावास के मध्य विभेद के तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि आजीवन कारावास को भी एक निश्चित अवधि का कारावास ही मानना चाहिए क्योंकि आजीवन कारावास के दण्ड के अन्तर्गत भी एक निश्चित अवधि के कारावास का दण्ड दिया जाता है। तथ्यतः यह निश्चित अवधि है-अपराधी के जीवन की शेष अवधि, यद्यपि अपराधी के आचरण को देखते हुए इस अवधि में छूट देकर इसे कम किया जा सकता है। आजीवन कारावास का दण्ड 14 वर्षों के कारावास का दण्ड नहीं है।
(3) कारावास (Imprisonment) – कारावास के दण्ड से तात्पर्य एक निश्चित अवधि के लिए कारावास की सजा से दण्डित किये जाने से है। इसके अन्तर्गत अधिकतम सजा की अवधि 14 वर्ष तथा कम से कम सजा की अवधि 24 घण्टे की है। कारावास के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जाता है। धारा 53 के अन्तर्गत कारावास दो प्रकार का बताया गया है- (1) सश्रम या कठोर कारावास तथा (2) सादा या श्रम रहित कारावास। इसके अतिरिक्त धारा 73-74 में एक अन्य प्रकार के कारावास का उल्लेख है। वह है एकान्त परिरोध या एकान्त कारावास। यह कठोर कारावास से अधिक कष्टप्रद है।
धारा 397 या 398, कम से कम 7 वर्ष की अवधि के कारावास से दण्ड का प्रावधान करती है। इसका अर्थ है न्यायालय को इन धाराओं के अधीन 7 वर्ष से कम अवधि की सजा देने का विवेक प्राप्त नहीं है। धारा 194 के अन्तर्गत तथा धारा 449 में सिर्फ सश्रम या कठोर कारावास दिये जाने का प्रावधान है। इस धाराओं के अन्तर्गत न्यायालय अपराधी को सादा कारावास का दण्ड नहीं दे सकता। इसके अलावा भारतीय दण्ड विधि की धारा 168, 169. 172, 173 में 180, 188, 223, 225-क, 228, 291, 441, 500, 501, 502, 209 तथा 510 के अन्तर्गत वर्णित अपराधों के लिए अभियुक्त को केवल साधारण कारावास का दण्ड दिये जाने का प्रावधान है। इन अपराधों के लिए न्यायालय कठोर या सश्रम कारावास देने का अधिकार नहीं रखता है।
(4) सम्पत्ति का समपहरण (Forfeiture of Property) — सन् 1921 के संशोधन द्वारा अपराधी की सम्पत्ति का पूर्णतः समपहरण किया जाना समाप्त कर दिया गया है। अतः सम्पत्ति के पूर्णत: समपहरण की व्यवस्था करने वाली धारा 61 तथा 62 निरस्त कर दी गयी है। चार० एस० जोशी बनाम अजीत मिल्स, ए० आई० आर० 1997 सु० के० 2279 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि दण्ड संहिता की धारा 126, 127 तथा 129 के अन्तर्गत किसी निश्चित अवधि को समपहरण (जब्त किये जाने का दण्ड अभी भी दिया जा सकता है।
(5) जुर्माना (Fine) — भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत निम्न अपराध उनके साथ उल्लिखित धाराओं के अन्तर्गत अर्थदण्ड से दण्डनीय हैं-
(1) किसी वाणिज्यिक पोत के प्रभारी द्वारा उपेक्षावश किसी भगोड़े सैनिक को पोत में। छिपाने की अनुमति दिये जाने पर 500 रुपये से अनधिक अर्थदण्ड से दण्डित किया जाना।
(2) विधि विरुद्ध जमाव या बल्वे के स्थान के स्वामी तथा अधिभोगी द्वारा उसे रोकने के साधनों का प्रयोग न किया जाना अथवा पुलिस को सूचना दिये जाने पर उसे अधिकतम 1,000 रुपये से दण्डित किया जाना (धारा 154)
(3) जिस व्यक्ति के लाभ के लिए बल्वा किया गया हो उसके व्यवस्थापक या अभिकर्ता द्वारा उसे रोकने में असफल रहने पर उस व्यक्ति के व्यवस्थापक या अभिकर्ता को दण्डित किया जा सकेगा। (धारा 155-156)
(4) निर्वाचन के सम्बन्ध में मिथ्या कथन का अपराध जुर्माने से दण्डनीय है।
(5) निर्वाचन के सम्बन्ध में अवैध भुगतान किये जाने पर दोषी व्यक्ति को जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है। (176-H)
(6) निर्वाचन के व्यय का सही-सही हिसाब न रखना भी जुर्माने से दण्डनीय है।
(7) जनस्वास्थ्य को हानि पहुँचाने के आशय से स्वेच्छया वायुमण्डल को दूषित करने के दोषी व्यक्ति को 500 रुपये तक के जुर्माने से दण्डित किया जायेगा । (धारा 278)
(8) सार्वजनिक मार्ग या जल मार्ग में अवरोध उत्पन्न किये जाने पर दोषी व्यक्ति को 100 या 200 रुपये तक के जुर्माने से दण्डित किया जायेगा।
(9) ऐसा लोक अपराध जिसके लिए अन्यथा कोई प्रावधान नहीं है, 200 रुपये तक के अर्थदण्ड से दण्डित किया जा सकेगा। (धारा 290)
(10) लाटरी सम्बन्धी प्रस्तावों का प्रकाशन 1,000 रुपये तक के जुर्माने से दण्डित किया जायेगा। (धारा 294-क)।
यदि किसी बालक को जो अवयस्क है, अर्थदण्ड से दण्डित किया जाता है तो अर्थदण्ड का भुगतान उसके माता-पिता संरक्षक या जो भी उसकी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है, द्वारा किया जायेगा। जुर्माने के भुगतान के लिए एक निश्चित अवधि निश्चित किया जाना इसलिए आवश्यक है कि उससे अनिश्चितता समाप्त हो जाती है। यदि एक अभियुक्त विभिन्न अपराधों के लिए विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत दण्डित किया जाता है तो उसे प्रत्येक अपराध के लिए पृथक पृथक् दण्ड दिया जाना चाहिए। आर्थिक अपराधों के लिए अर्थदण्ड दिया जा सकता है।
उत्तर (ख ) दण्ड के प्रकार – अठारहवीं शती के अन्तिम वर्षों में दण्ड की कठोरता को कम करके उसे मानवीय आधार पर संशोधित करने का प्रयास प्रारम्भ हुआ। विश्व के विभिन्न भागों में प्रचलित शारीरिक दण्डों में कोड़े मारना, अंग-भंग या अंग- विच्छेद, दागना, सार्वजनिक स्थान पर फाँसी देना, लोहे की जंजीरों से अपराधियों को एकत्र बाँधना, साधारण या सश्रम कारावास, सम्पत्ति की जब्ती एवं अर्थदण्ड आदि मुख्य रूप से प्रचलित थे। कुछ प्रमुख दण्ड इस प्रकार हैं-
(1) कोड़े मारना या पीटना (Flogging) – शारीरिक दण्डों में अपराधी को कोड़े मारना पीटना सर्वाधिक प्रचलित दण्ड था। भारत में इस दण्ड को द्विपिंग अधिनियम, 1864 (Whipping Act, 1864) के अन्तर्गत कानूनी मान्यता प्रदान की गई थी जिसे सन् 1909 में नये अधिनियम द्वारा अनुमोदित किया गया था। परन्तु सन् 1955 से यह दण्ड भारतीय दण्ड विधि से पूर्णतः हटा दिया गया है। वर्तमान प्रगतिशील दण्ड व्यवस्थाओं में इस दण्ड को प्रायः सभी देशों ने निकाल दिया है लेकिन मध्य पूर्व देशों में यह दण्ड आज भी प्रचलित है।
दाण्डिक अध्ययनों ने यह साबित कर दिया कि अपराधी को कोड़े मारकर पीटने की सजा प्रभावी नहीं थी क्योंकि दण्ड पूरा होते ही अपराधी प्रायः पुनः अपराध करते थे। सामान्यतः छेड़-छाड़, नशाखोरी, आवारागर्दी, उठाईगिरी आदि छोटे-मोटे अपराधों के लिए कोड़े मारकर दण्डित करने की सजा सम्भवतः प्रभावी हो सकती थी लेकिन गम्भीर अपराधों के लिए यह पूर्णतः निष्प्रभावी सिद्ध हुई।
(2) अंग-विच्छेद (Mutilation)— भारत की हिन्दू-दण्ड विधि में यह दण्ड विशेष रूप से प्रसार में था। चोरी के अपराध के लिए अपराधी के एक या दोनों हाथ काट दिये जाते थे तथा लैंगिक अपराध के लिए उसका गुप्तांग काट दिया जाता था। अनेक यूरोपीय देशों में भी यह दण्ड प्रचार में था। इस दण्ड के औचित्य में यह तर्क प्रस्तुत किया जाता था कि इससे प्रतिरोध एवं प्रतिशोध, दोनों उद्देश्य एक साथ पूर्ण हो जाते थे। तथापि वर्तमान काल में यह दण्ड पूर्णतः समाप्त कर दिया गया है क्योंकि इससे लोगों में क्रूरता की भावना पनपने की सम्भावना है।
(3) दागना (Branding) – रोमन दण्ड में अपराधी के माथे पर गर्म लोहे की छड़ से दागने या चिन्हित करने का दण्ड चोरी जैसे अपराध के लिए प्रायः दिया जाता था। इंग्लैण्ड में दागने का दण्ड सन् 1829 तक दिया जाता रहा इसके बाद इसे मानवीय आधार पर निरसित कर दिया गया। अमेरिकन दण्ड प्रणाली में चोरी करने वाले अपराधी के माथे पर “T” का चिह्न बना दिया जाता था जबकि इसकी पुनरावृत्ति की जाने पर “R” अक्षर दागने की व्यवस्था थी।
भारत में दागने का दण्ड मुस्लिम दण्ड विधान में प्रयोग में लाया जाता था परन्तु बाद में इसे पूर्णतः समाप्त कर दिया गया।
(4) दण्ड-कटघरा (Pillory)— इस दण्ड के अन्तर्गत अपराधी को एक लोहे की चौखट (Frame) में उसके हाथ-पैर जकड़कर इस प्रकार बाँध दिया जाता था कि वह अपने शरीर को हिला-डुला न सके। इस स्थिति में रखकर उस पर कोड़ों से या पत्थर से प्रहार किया जाता था। कभी-कभी अपराधी के कानों को छेदकर चौखट में कोलों से जड़ दिया जाता था। शरीर को हिला सकने में असमर्थ होने के कारण अपराधी के लिए यह दर्दनाक यातना असहनीय होती थी और दर्शकों के लिए भी यह उतनी ही भयावह थी। वर्तमान भारतीय दण्ड व्यवस्था के अन्तर्गत दण्ड के रूप में निम्नलिखित को मान्यता दी गई है- (1) अर्थदण्ड, (2) सम्पत्ति की जब्ती, (3) साधारण कारावास, (4) कठोर कारावास, (5) आजीवन कारावास तथा (6) मृत्यु दण्ड। एकान्त कारावास को पृथक् दण्ड नहीं माना गया है।
अर्थदण्ड (Fine) — यह दण्ड प्रायः राजस्व सम्बन्धी उल्लंघनों तथा यातायात कानूनों के अपालन के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अपकारित व्यक्ति को अपराधी से क्षतिपूर्ति दिलाई जाना भी अर्थ दण्ड का ही एक प्रकार है जिसे भारत में दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत आवश्यक माना गया है। अर्थदण्ड में अपराधी की आय के स्रोत में से कटौती कर ली जाना इस दण्ड को कार्यान्वित करने का एक उचित एवं योग्य उपाय माना गया है।
भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अर्थदण्ड निम्न रूपों में अधिरोपित किया जा सकता है-
(1) अपराध के निपटारे के तौर पर
(2) कारावास के विकल्प के रूप में;
(3) कारावास सहित अतिरिक्त दण्ड के रूप में;
(4) अर्थ दण्ड की मात्रा का निर्धारण न्यायालयीय विवेक पर निर्भर करता है।
आदमजी उमर दलाल बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1952 एस० सी० 14 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अर्थदण्ड की राशि का निर्धारण करते समय न्यायालय अपराधी की प्रकृति एवं गम्भीरता को ध्यान में रखने के साथ-साथ अभियुक्त की वित्तीय स्थिति तथा क्षमता को भी विचार में लेगा।
सम्पत्ति की जब्ती (Forfeiture of Property)—भारतीय दण्ड संहिता की धारा 53 के अन्तर्गत सम्पत्ति की जब्ती को दण्ड के प्रकार के रूप में स्वीकार किया गया है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 126 एवं 169 के अधीन कारित दो अपराध ऐसे हैं जिनमें कारावास के दण्ड सहित या रहित सम्पत्ति की जब्ती का दण्ड दिया जा सकता है।
प्रतिभूति बन्धपत्र (Security Bond)- वास्तविक अर्थ में व्यक्ति को प्रतिभूति बन्धपत्र पर छोड़ा जाना दण्ड नहीं माना जा सकेगा फिर भी अपराधी को अवरोधित करने के रूप में यह प्रभावी सिद्ध होता है। न्यायालय चाहे, तो किसी अपराधी को दण्डित करने के बजाय उसके दण्ड को अस्थगित (defer) रखते हुए उसे प्रतिभूति बन्धपत्र या मुचलके पर छोड़ सकता है।
निर्वासन या देश निकाला (Banishment) – अवांछित अपराधियों को देश निकाला देकर समाज से अलग-थलग कर देने के लिए निर्वासन का दण्ड प्रायः विश्व के सभी देशों में सदियों से प्रचलित रहा है। निर्वासन रूपी दण्ड की पद्धति को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्णतः समाप्त कर दिया गया। ब्रिटिश भारत में भी निर्वासन के दण्ड को दण्ड विधि में उपबन्धित किया गया था जो स्वतन्त्रता के पश्चात् आजीवन कारावास के रूप में प्रवर्तन में है।
एकान्त परिरोध (Solitary Confinement) — एकान्त कारावास से दण्डित अपराधियों में से अधिकांश एकाकी नीरस जीवन के कारण दण्ड की अवधि पूरी होने के पहले ही मर जाते थे या मानसिक दृष्टि से पागल हो जाते थे तथा इनमें से जो जीवित वापस लौटते थे वे प्रतिशोध की भावना के कारण समाज के प्रति अधिक खतरनाक साबित होते थे। इस प्रकार का दण्ड अनेक देशों ने अपने यहाँ पूर्णतः समाप्त कर दिया है किन्तु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 73 एवं 74 में इसका प्रावधान अब भी उपबन्धित है। मूत्तू स्वामी बनाम राज्य, (1948) मद्रास 359 के मामले में न्यायालय ने कहा कि एकांत परिरोध का दण्ड केवल ऐसी अपवादास्पद परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए जिसमें अपराधी का कृत्य अत्यधिक यातनात्मक एवं बर्बरतापूर्ण हो।
कारावास (Imprisonment)— अपराधी को अपराध करने से परावृत्त रखने में कारागार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। अपराधियों को समाज से दूर रखकर सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का यह सर्वोत्तम सरल उपाय है। कारावास का दण्ड निरोधात्मक सिद्धान्त पर आधारित होने के अतिरिक्त इसमें कारावासियों के सुधार पर भी उचित ध्यान दिया जाता है।
आजीवन कारावास (Imprisonment for life) दण्ड के एक प्रकार के रूप में आजीवन कारावास को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 53 के अधीन मान्यता दी गई है। आजीवन कारावास के दण्ड की प्रकृति के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय ने नायव सिंह बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1983 एस० सी० 855 के मामले में कहा कि यह कठोर कारावास ही है जो न्यायालय द्वारा अभियुक्त को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 418 के अधीन वारंट जारी करके दिया जा सकता है तथा इसका निष्पादन अभियुक्त को कारागृह में रखकर ही किया जाता है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 57 में यह उपबन्धित है कि कारावास की अवधि के भिन्नों की गणना करने में आजीवन कारावास को 20 वर्ष के कारावास के तुल्य गिना जायेगा। [ के० एम० मानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० (1962) सु० को० 605]
स्वामी श्रद्धानन्द उर्फ मुरली मनोहर मिश्रा बनाम कर्नाटक राज्य, ए० आई० आर० (2008) सु० को० 3040 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आजीवन कारावास भोग रहे कैदियों के दण्ड का कार्यपालिका आदेश द्वारा उपशमन या छूट का कोई विधिक आधार नहीं होता है तथा न्यायालय को यह अधिकार शक्ति प्राप्त है कि वह आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए अभियुक्त को उसके शेष जीवन पर्यन्त, अर्थात् जब तक वह जीवित रहता है, के कारावास से दण्डित कर सकता है। न्यायालय ने आगे कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 57 किसी भी तरह से आजीवन कारावास के दण्ड को 20 वर्ष तक सीमित नहीं करती है।
मृत्युदण्ड (Capital Punishment) – विभिन्न प्रकार के दण्डों में सम्भवतः मृत्युदण्ड सबसे अधिक विवादास्पद दण्ड रहा है। आज भी इस दण्ड के औचित्य के विषय में अपराधशास्त्रियों में मतभेद है। तथापि विभिन्न न्यायिक निर्णयों द्वारा इस विवाद को समाप्त करने में पर्याप्त मदद मिली है। वर्तमान में दण्डशास्त्र में सुधारात्मक दण्ड को सर्वाधिक महत्व दिये जाने के कारण मृत्युदण्ड के प्रति अपराधशास्त्रियों की आस्था कम होती जा रही “है फिर भी घोर अपराधियों तथा हत्यारों के लिए इस दण्ड की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता है।
उत्तर (ग) – उपचारात्मक दण्ड पद्धति – दण्ड के सुधारवादी सिद्धान्त के आधार पर ही वर्तमान में उपचारात्मक दण्ड पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ जिसके अन्तर्गत अपराधी को एक बीमार व्यक्ति माना गया है जिसे दण्डित किये जाने के बजाय उसका उपचार किया जाना चाहिए ताकि उसकी मानसिकता में बदलाव आये और वह आपराधिकता को त्यागने की सामर्थ्य जुटा सके। वर्तमान में प्रायः सभी प्रगतिशील देश अपनी दण्ड नीति में उपचारात्मक व्यवस्था को अपना रहे हैं। भारत में भी दण्ड के उपचारात्मक पद्धति का अनुसरण करते हुए कारागार व्यवस्था को पुनर्गठित किया गया है तथा कारागारों में कारावासियों के प्रति मानवीय व्यवहार पर विशेष बल दिया गया है। इसी प्रकार महिलाओं, बाल अपराधियों तथा नव- अपराधियों के प्रति विशेष उदारता बरतने की नीति अपनाई गई है।
वर्तमान दण्ड नीति में इस सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है कि दण्ड की मात्रा अपराध की गम्भीरता के अनुरूप होनी चाहिए। अतः दण्ड का अन्तिम उद्देश्य अपराधी में सुधार परिलक्षित करना है जबकि वैयक्तिकरण को इसके साधन के रूप में अपनाया जाना चाहिए। आज अंग-भंग, दागना, कोड़े लगाना, डुबोकर मार डालना, भूखा रखना, एकान्त कारावास या सार्वजनिक स्थान पर सूली पर लटका देना आदि जैसे पुरातन अमानवीय दण्डों को तिलांजलि दे दी गई है और दण्ड के नवीनतम सुधारात्मक उपाय जैसे-पैरोल, परिवीक्षा आदि अपनाये जा रहे हैं ताकि अपराधी के अन्दर की ‘मानवता’ को पुनः जागृत किया जा सके। वर्तमान में सफेदपोश अपराधियों को अधिकतर अर्थदण्ड से दण्डित किया जाता है। इन सब सुधारवादी तकनीकों के विकास में यूरोपियन अपराधशास्त्री फैरी, गेरोफेलो, बेंथम, वाल्टर रेकलैस आदि का योगदान विशेष उल्लेखनीय है।
यद्यपि भारत में स्वतन्त्रता के पूर्व ‘देश निकाले’ का दण्ड प्रचार में था जिसे ‘काला पानी की सजा’ कहा जाता था, लेकिन अब इसे समाप्त करके जिले से निष्कासित करने तक ही सीमित रखा गया है।
प्रसिद्ध अपराधशास्त्री गेरोफेलो ने विकृत मस्तिष्क के अपराधियों के प्रति विशेष उदारता बरती जाने पर जोर दिया परन्तु उनके विचार से सुधारात्मक दण्ड पद्धति को एक निश्चित सोमा से अधिक विस्तृत करने से सुपरिणामों की बजाय दुष्परिणामों की ही सम्भावना अधिक होती है। उनके मतानुसार यदि सुधार के नाम पर दण्ड पद्धति में इतनी अधिक ढील दे दी जाये कि कारावासी जीवन और कारागार के बाहर के स्वच्छन्द जीवन में अन्तर ही समाप्त हो जाये तो अपराधियों में दण्ड का भय समाप्त हो जाएगा और वे कारागार में ही रहना अधिक पसन्द करेंगे। अत: गेरोफेलो के विचार से सुधारात्मक दण्ड केवल कुछ निश्चित वर्गों जैसे बाल अपराधियों, विकृत मस्तिष्क के अपराधियों या महिला अपराधियों के प्रति ही लागू किया जाना चाहिए तथा घोर अपराधियों के लिए यह दण्ड व्यवस्था विशेष लाभदायक नहीं होगी।
अनेक आलोचकों ने सुधारात्मक तथा उपचारात्मक दण्ड के सिद्धान्तों की व्यवहारिकता पर सन्देह प्रकट करते हुए कहा है कि कुछ अपराधी स्वभाव से ही आपराधिक प्रवृत्ति के होने के कारण उन पर सुधारात्मक दण्ड का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उनका यह भी मानना है कि यदि कारावास के कष्टप्रद जीवन को आरामदेह बना दिया जायेगा, तो कारागृह आरामगृहों में परिवर्तित हो जायेंगे। अतः निठल्ले और बेरोजगार व्यक्ति श्रम-कार्य करने के बजाय कोई अपराध करके कारावासी जीवन बिताना ही अधिक श्रेयष्कर समझने लगेंगे।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यद्यपि वर्तमान में सुधारात्मक दण्ड पद्धति को प्रायः सभी उन्नत एवं प्रगतिशील देशों ने स्वीकार किया है, फिर भी इसे सभी अपराधियों के प्रति एक समान लागू किया जाना न तो उचित होगा और न व्यावहारिक दृष्टि से परिणामकारी ही होगा। यही कारण है कि प्रसिद्ध विधिशास्त्री सामण्ड ने सुधारात्मक दण्ड व्यवस्था अपनाई जाने के पहले अपराधियों के वर्गीकरण पर जोर दिया है ताकि केवल ऐसे वर्ग के अपराधियों के प्रति हो यह व्यवस्था लागू की जा सके जो वास्तव में सुधार योग्य हो। सदरलैण्ड महोदय ने भी उदार दण्ड व्यवस्था की आवश्यकता प्रतिपादित की है लेकिन उसे अपराधी विशेष की प्रवृत्ति एवं सुधार की संभावना के अनुसार लागू किया जाना चाहिए। घोर- अपराधियों तथा आदतन अपराधियों के लिए सुधारात्मक दण्ड विशेष परिणामकारी नहीं होगा। उनके विचार से कारागृहों को न तो अत्यधिक यातनात्मक बनाया जाये और न ही अत्यधिक सुविधाजनक उसमें मानव जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ उपलब्ध कराकर कारावासी से उपयोगी श्रम कार्य ऐसा लिया जाये ताकि वह शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ बना रहे।
प्रसिद्ध अपराधशास्त्री डॉ० पी० के० सेन के अनुसार वर्तमान समय में भारतीय दण्ड व्यवस्था में प्रतिरोध तथा प्रतिशोध के स्थान पर निरोधात्मक एवं सुधारात्मक तरीकों को विशेष महत्व दिया जा रहा है।
एक आदर्श दण्डनीति के आवश्यक लक्षण- एक आदर्श दण्डनीति में निम्नलिखित आवश्यक लक्षणों (तत्वों) का होना आवश्यक है –
(1) आदर्श दण्ड प्रणाली का सर्वश्रेष्ठ गुण यह है कि उसका लक्ष्य समाज का अपराधियों से संरक्षण करना होना चाहिए तथा अपराधी को समाज में पुनर्स्थापित किये जाने पर बल दिया जाना चाहिए। अतः उपचार की बजाय अपराधों के निवारण को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।
(2) दण्ड की प्रभावोत्पादकता के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए विधि सुधारक जर्मी बेंथम ने कहा है कि दण्ड नीति सुख-दुःख के उपयोगितावादी सिद्धान्त के अनुरूप होनी चाहिए। अपराध कृत्य से अपराधी को प्राप्त होने वाला सुख, उस अपराध के लिए देय दण्ड की पीड़ा की तुलना में अधिक नहीं होना चाहिए अन्यथा दण्ड का महत्व ही समाप्त हो जायेगा।
(3) सभी विधिवेत्ता यह स्वीकार करते हैं कि विलम्ब, न्याय के उद्देश्य को ही समाप्त कर देता है। अतः अपराध कृत्य और दण्ड निर्धारण में जितना कम समय लिया जाए, दण्ड उतना ही प्रभावी होगा दुर्भाग्य से वर्तमान भारतीय दण्ड व्यवस्था में इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त की अवहेलना की जा रही है जिसके कारण पक्षकारों को न्यायालय से न्याय मिलने की बजाय कष्ट और परेशानी ही अधिक हो रही है और न्यायिक संस्थाओं के प्रति जनता का विश्वास समाप्त होता जा रहा है। उदाहरण के लिए स्व० श्रीमती इंदिरा गाँधी व स्व० राजीव गाँधी की हत्या से सम्बन्धित मामलों को हल करने में वर्षों लग गये।
(4) दण्ड की कुछ मानव आचरणों के प्रति समाज की नापसन्दगी का प्रतीक माना गया है तथा इसकी शास्ति (दण्ड) के कारण लोग ऐसे आपराधिक आवरणों से परावृत्त रहने के लिए बाध्य होते हैं।
(5) अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि एक समान अपराध के लिए एक सी दण्ड नीति विशेष परिणामकारी सिद्ध नहीं होती। इसीलिए नव अपराधियों या प्रथमतः अपराध करने वाले व्यक्तियों, बाल अपराधियों एवं परिस्थितिवश अपराध करने वाले व्यक्तियों को घोर आदतन अपराधियों से भिन्न दण्ड दिया जाना उचित है। वस्तुतः दण्ड का निर्धारण अपराधी की आयु, लिंग, बौद्धिक क्षमता, मनोदशा, सामाजिक परिस्थिति आदि के अनुसार किया जाना चाहिए।
(6) यह सर्वविदित है कि पुलिस, न्यायालय तथा कारागार में आपराधिक न्याय प्रशासन के तीन प्रमुख अभिकरण (Agencies) हैं। अतः दण्ड को प्रभावी बनाए रखने के लिए आपराधिक न्याय के इन तीनों अंगों का कार्यकुशल होना नितान्त आवश्यक है। यदि ये तीनों संस्थाएं कार्यकुशल होंगी तभी जनता में इनके प्रति विश्वास बढ़ेगा।
(7) दण्ड का उद्देश्य अपराधी में सुधार करना होना चाहिए तथा वैयक्तिकरण को इसके साधन के रूप में अपनाया जाना चाहिए। इस हेतु किसी एक विशिष्ट दण्ड के सिद्धान्त का अनुसरण करना उचित नहीं होगा बल्कि यथासम्भव सुधार, जहाँ आवश्यक हो वहाँ निरोध या कारावास तथा अत्यन्त गम्भीर मामलों में प्रतिरोधात्मक दण्ड दिये जाने की रीति अपनाया जाना श्रेयस्कर होगा। दूसरे शब्दों में एक आदर्श दण्ड पद्धति में दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की आवश्यकता के अनुसार सम्मिश्रण होना आवश्यक है।
(8) जहाँ एक ओर सुधारात्मक दण्ड पद्धति के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, वहीं दूसरी ओर इनका अत्यधिक प्रयोग दण्ड के सुपरिणामों को दुष्परिणामों में बदल सकता है। कारागारों को सुधार गृहों में बदल लेना अलग बात है लेकिन उन्हें आराम गृहों में परिवर्तित कर देने से दण्ड का प्रयोजन ही समाप्त हो जाएगा तथा अपराधों की संख्या में अकल्पित वृद्धि होगी। जब तक कि कैदी को कारागार के असुविधाजनक जीवन की स्मृति रहेगी वह अपराध करने से विमुख रहेगा।
(9) किसी आदर्श दण्ड नीति का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि उसमें अपराधी की छवि को बढ़ा-चढ़ाकर उसे अनावश्यक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। डोनाल्ड टेफ्ट के विचार से यदि दण्ड विधान के अन्तर्गत अपराधी को विशेष महत्व दिया जाता है, तो दण्ड का प्रभाव कम हो जाएगा। अतः स्पष्ट है कि खतरनाक अपराधियों को पकड़वाने हेतु सरकार द्वारा इनाम के रूप में ऊँची रकम दी जाने की घोषणा किया जाना आदर्श दण्डनीति के विरुद्ध है क्योंकि इससे अपराधी स्वयं को विशिष्ट व्यक्ति समझने लगता है। खूंखार अपराधियों के सिर पर पुलिस द्वारा इनाम की घोषणा की जाने का एक दुष्परिणाम यह भी होता है कि इन अपराधियों में आपस में एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर अपराध करने की होड़ सी लग जाती है। इस कथन की सत्यता के उदाहरणस्वरूप कुख्यात दस्यु मूरत सिंह, मलखान सिंह, फूलन देवी आदि को जो प्रसिद्धि दी गई है, वह दाण्डिक सिद्धान्तों के आदर्श की दृष्टि से अवांछनीय है।
(10) वर्तमान सुधारवादी दण्डशास्त्री मृत्युदण्ड के औचित्य का मानवीय आधार पर विरोध करते हैं। उनका तर्क है कि मृत्यु कारित करना अमानवीय है इसके अतिरिक्त उनका यह भी मानना है कि भूलवश किसी निर्दोष अभियुक्त को मृत्युदण्ड दे दिया जाए, तो बाद में इस भूल को सुधारा नहीं जा सकता क्योंकि यह एक अपूरणीय क्षति है। परन्तु निवेदित है कि मृत्युदण्ड की समाप्ति के पक्ष में जितना जनमत तैयार हो रहा है उससे कहीं अधिक उसे यथावत् बनाये रखने के पक्ष में है।
उत्तर (घ) – न्यायिक दण्डादेश (Judicial Sentencing) – विभिन्न प्रकार के दण्डों के साथ जुड़ी एक जटिल समस्या न्यायिक दण्डादेश की है। न्याय-निर्णय में दण्डाधिकारी के लिए यह तय कर पाना कठिन होता है कि वह दण्डादेश के लिए कौन-सा निश्चित मार्ग अपनाए। उदाहरण के लिए दिन-दहाड़े की गई बैंक डकैती के मामले को, जिसमें अपराधियों ने एक-दो व्यक्तियों को जान से मार डाला हो, यदि न्यायाधीश समाज के लिए गम्भीर खतरे का प्रकरण मानते हुए प्रतिरोधात्मक कठोर दण्ड दे, तो सम्भवतः वह उचित ही होगा। इसी प्रकार यदि चार-पाँच किशोर वयस्क कालेज के छात्र कार में बैठे किसी नव-दम्पत्ति पर कार रोककर हमला करें और महिला के साथ बलात्कार करें, तो कोई भी दण्डाधिकारी उनके प्रति गम्भीर रुख अपनाते हुए उन्हें कुछ वर्षों की जेल की सजा अवश्य सुनाएगा भले ही इन अपराधियों को परिवीक्षा अधिनियम के अन्तर्गत परिवीक्षा का लाभ (Benefit of Probation) देकर छोड़ा जा सकता था।
न्यायिक दण्डादेश के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुए सर जेम्स फिट्सजेम्स स्टीफेन (Sir James Fitzajames Stephen) ने कहा है कि सामाजिक-दूषण होने के कारण अपराधियों से घृणा कोई विशेष बात नहीं है लेकिन सामाजिक मूल्यों के नाम पर उनका बहिष्कार कर उन्हें त्याग देना उचित नहीं है। इस सम्बन्ध में न्यायाधीशों के विचारों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। कुछ न्यायाधीश दण्ड के बदले हुए परिवेश में अपराधी के प्रति नरमी बरतते हैं जबकि अन्य न्यायाधीश अपराधी को समाज के लिए कलंक मानते हुए कठोर दण्ड दिये जाने में विश्वास करते हैं। आशय यह है कि न्यायिक दण्डादेश का स्वरूप बहुत- कुछ न्यायाधीशों की वैयक्तिक धारणाओं और मान्यताओं पर निर्भर करता है।
वर्तमान में विश्व के प्रायः सभी न्यायविद एक सर्वसाधारण एवं सर्वसम्मत न्यायिक दण्डादेश नीति प्रतिपादित किये जाने के पक्ष में हैं जो सुनिश्चित सिद्धान्तों पर आधारित हो। परन्तु इसमें सबसे बड़ी अड़चन यह है कि दण्ड के चार सुस्थापित सिद्धान्तों प्रतिरोधात्मक, प्रतिशोधात्मक, निरोधात्मक तथा सुधारात्मक में से किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए, इस मुद्दे पर न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं तथा दण्डाधिकारियों में गहन मतभेद हैं। इसमें सबसे बड़ी समस्या यह तय करना है कि न्यायिक दण्डादेश का मुख्य उद्देश्य समाज का संरक्षण करना हो या अपराध का निवारण; अर्थात् इन दोनों में से किसे अधिक महत्व दिया जाए। तथापि किसी निश्चित मापदण्ड के अभाव में न्यायिक दण्डादेश के सम्बन्ध में निम्नलिखित मार्गदर्शक- सिद्धान्त सहायक सिद्ध हो सकते हैं-
(1) दण्ड के निर्धारण में अपराध की गुरुता की बजाय अपराधी के व्यक्तित्व पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। दण्ड की मात्रा विनिश्चित करते समय न्यायाधीश को अपराधी की आयु, लिंग, पूर्व-वृत्तांत, सुधार एवं पुनर्वास की सम्भावनाओं तथा अपराध की परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए।
(2) दण्ड निर्धारण में मानवीयता, सामाजिक मूल्यों तथा मितव्ययिता को भी ध्यान में रखा जाना अपेक्षित है। अमेरिका में अश्वेत अपराधियों को श्वेत अपराधियों की तुलना में अधिक कठोर दण्ड दिया जाना इस सिद्धान्त के विपरीत है क्योंकि यह जातीय भेदभावपूर्ण रीति पर आधारित है। इस सन्दर्भ में असगर हुसैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1974) 2 एस० सी० सी० 518, के बाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दण्डादेश में विषमता अपराधियों के मन में विद्रोहात्मक भावना उत्पन्न करती है जिसके कारण उनकी समाज में पुनर्वासित होने की सम्भावनायें क्षीण हो जाती हैं और वे अपने प्रति हुए अन्याय के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप समाज के प्रति रोष एवं असन्तोष प्रकट करते हैं।
(3) न्यायिक दण्डादेश में विषमता होना स्वाभाविक है क्योंकि न्यायाधीशों की धारणाओं, मान्यताओं तथा वैयक्तिक अनुभवों की छाप उनके दण्ड निर्धारण पर अवश्य पढ़ती है। अतः इस विषमता का निवारण प्रायः असम्भव है। फिर भी कुछ अपराधों के लिए आज्ञापक दण्ड द्वारा इस विषमता को कुछ सीमा तक दूर किया जा सकता है।
(4) दण्ड विधि स्वयं ही न्यायिक दण्डादेश में न्यायाधीश को स्वविवेक का प्रयोग करने की अनुमति देती है क्योंकि दाण्डिक प्रावधानों में विभिन्न अपराधों के लिए या तो अधिकतम दण्ड निर्धारित रहता है या न्यूनतम दण्ड का उल्लेख रहता है। इसके परिणामस्वरूप न्यायाधीश की विवेक शक्ति दण्ड विधान में ही उपबन्धित रहती है।
(5) न्यायिक दण्डादेश में असमानता तथा विषमता को दूर करने की दृष्टि से परिवीक्षा, पैरोल तथा अनियत दण्डादेश जैसी आधुनिकतम तकनीकों का अधिकाधिक उपयोग किया जाना चाहिए।
(6) व्यावसायिक अपराधियों तथा गम्भीर राजनीतिक अपराधियों अथवा आतंकवादियों को कारावधि के बाद निवारक निरोध में रखा जाना जनहित में होगा क्योंकि ये अपराध देश और समाज के लिए घातक होते हैं। इस प्रयोजन के लिए घोर अपराधियों और प्रत्यावर्ती अपराधियों में विभेद किया जाना परम आवश्यक है क्योंकि प्रथम समाज के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न करते हैं जबकि दूसरे समाज के लिए केवल अपदूषण मात्र हैं न कि भय का कारण।
लोक सेवकों द्वारा किये गए अपराधों के लिए उन्हें अन्यों की अपेक्षा कठोर दण्ड दिया। जाना उचित होगा। विशेषतः रिश्वत अथवा खाद्य पदार्थों में मिलावट के मामलों को अधिक गम्भीरता से लेते हुए इनके लिए कठोरतम दण्ड दिया जाना जनहित में उचित होगा।
(7) न्यायिक दण्डादेश न्यायाधीश का वैयक्तिक दायित्व होने के कारण उसे अपनी आत्मा की आवाज के अनुसार न्याय करना चाहिए। अपराधी के विषय में उसे कोई पूर्वाग्रह बनाकर न्यायनिर्णय नहीं करना चाहिए।
(8) न्यायिक दण्डादेश की गुणवत्ता पर न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का परोक्ष प्रभाव अवश्य पड़ता है। कठिन चयन पद्धति से चुने गये न्यायाधीशों की गुणवत्ता मनोनीत न्यायाधीशों की तुलना में निश्चित ही अधिक अच्छी होगी। इसी प्रकार चुनाव पद्धति से चुने गए न्यायाधीशों का शासन के प्रति पक्षपाती होना स्वाभाविक है। अतः इससे उनके निर्णय प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे जो न्यायिक दृष्टि से उचित नहीं है।
(9) न्यायिक दण्डादेश पर इस बात का भी गहरा प्रभाव पड़ता है कि उनके समक्ष पुलिस द्वारा मामला किस रूप में प्रस्तुत किया गया है क्योंकि निर्णय का आधार अभियोजन उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर विनिश्चित किये जाने के कारण अभियोजन पक्ष और अधिवक्ताओं द्वारा मामले का प्रस्तुतीकरण निर्णय के लिए विशेष महत्व रखता है।
(10) न्यायिक दण्डादेश के कारण अपराधी के प्रति अन्याय न हो इसलिए उच्च अदालत में अपील के प्रावधान प्रायः सभी दण्ड-विधानों में रखे गए हैं। परोक्षतः इससे दण्डाधिकारियों पर भी आवश्यक नियन्त्रण बना रहता है क्योंकि उनके निर्णय से हुई अपील में उच्च न्यायालय द्वारा उनके विरुद्ध अवक्षेप (strictures) पारित किये जाने की सम्भावना उन्हें उचित न्याय निर्णय करने के लिए बाध्य करती रहती है।
(11) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील के दौरान अभियुक्त की सजा निलम्बित रखते हुए उसे जमानत पर छोड़े जाने के प्रावधान हैं तथापि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हरियाणा राज्य बनाम हसमत, ए० आई० आर० (2004) सु० को० 3926, के बाद में जमानत और सजा के निलम्बन में विभेद करते हुए स्पष्ट किया गया कि धारा 389 का एक आवश्यक तत्व यह है कि अपीलीय न्यायालय को अभियुक्त की सजा के निलम्बन का आदेश पारित करते समय इसके कारणों का लिखित रूप में उल्लेख करना आवश्यक होगा। यदि अभियुक्त बन्दीगृह में निरुद्ध हो, तो उसे स्वयं के बन्धपत्र पर जमानत पर रिहा किये जाने के निर्देश दिये जा सकते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि न्यायिक दण्डादेश की एकरूपता की सम्भावना बहुत कम है क्योंकि ‘न्याय निर्णय’ कोई रोटी सेंकने जैसी क्रिया नहीं है जिसके लिए संघटक वस्तु को आवश्यक अनुपात में पहले से मिश्रित करके आवश्यक तापमान पर रखा जा सके दण्डादेश में न्यायाधीश अपराध के बारे में पहले से ही कोई नीति निर्धारित नहीं कर सकता है, बल्कि उसका निर्णय अपराधों की अलग-अलग प्रकृति तथा अपराधियों की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। फिर भी दण्ड निर्धारण के लिए कोई मानक मानदण्ड तो होना ही चाहिए। इस उद्देश्य से अमेरिका के संघीय प्राधिकारियों ने सन् 1957 में एक दण्डादेश संस्थान की स्थापना की है जिसमें दण्डाधिकारियों को दण्डादेश के बारे में समुचित: प्रशिक्षण दिया जाता है। न्यायिक दण्डादेश से सम्बन्धित समस्याओं के निवारण हेतु अमेरिका में अनेक दण्डादेश परिषदें (Sentencing Councils) भी कार्यरत हैं जो दण्डाधिकारियों को समय-समय पर उचित परामर्श देती हैं। इंग्लैण्ड में भी मुख्य न्यायाधिपति समस्त देश के लिए एक समान न्यायिक दण्डादेश पद्धति लागू करने के लिए गत दो दशकों से प्रयासरत हैं।
भारत में न्यायिक दण्डादेश मुख्यतः भारतीय दण्ड विधि के उपबन्धों की सीमाओं के अनुसार प्रशासित होता है। अनेक सांविधिक अधिनियमों में भी दण्ड के प्रावधान हैं जो दण्डाधिकारियों को दण्ड निर्धारण में सहायक होते हैं। भारत में भी दण्डाधिकारियों के प्रशिक्षण एवं पुनश्चर्या पाठ्यक्रम (Refresher Course) हेतु एक राष्ट्रीय दण्डादेश संस्थान की स्थापना किये जाने की आवश्यकता है।
भारत के उच्चतम न्यायालय ने आडूराम बनाम मुकना तथा अन्य, ए० आई० आर० (2004) सु० को ० 5064, के वाद में अपराध और उसके लिये देय दण्ड की न्यायिक समीक्षा करते हुए अभिकथन किया कि दण्डादेश पारित करते समय अपराध के कारण समाज पर पड़ने वाले सम्भावित परिणामों को ध्यान में अवश्य रखा जाना चाहिए और दण्ड की मात्रा उसी अनुपात में निर्धारित की जानी चाहिए। न्यायाधीशों को अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दण्ड की मात्रा अपराध की गम्भीरता तथा समाज पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभाव के अनुरूप हो। यदि दण्ड की मात्रा अपराध की गुरुता के अनुरूप न हुई, तो समाज के प्रति यह घोर अन्याय होगा। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनेक अपराध जैसे महिलाओं एवं बच्चों के प्रति अपराध, डकैती, अपहरण, दुर्विनियोग, देशद्रोह, अनैतिकता से जुड़े अपराध आदि का समाज पर दुष्प्रभाव पड़ने के कारण इनके लिए कठोरतम दण्ड दिया जाना ही न्यायोचित होगा। ऐसे प्रकरणों में अपराधी के प्रति सहानुभूति एवं अपर्याप्त दण्ड सामाजिक हितों के प्रतिकूल होगा। इस बाद में दो पक्षों के विवाद के चलते झगड़े में कुल्हाड़ी और लाठियों के वार से मृतक की हत्या कारित हुई। यहाँ उच्च न्यायालय द्वारा विचारण न्यायालय द्वारा दी गई धारा 302 के अन्तर्गत दण्ड को धारा 304-1 में परिवर्तित कर दिया गया और अभियुक्तों को उनके द्वारा भोगी गई छः वर्ष की सजा को पर्याप्त मानते हुए आजीवन कारावास की सजा से छः वर्ष के दण्ड में बदल दिया गया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को न्यायोचित मानते हुए अभिकथन किया कि वास्तव में अभियुक्तों को धारा 304-1 के बजाय धारा 304-11 (भारतीय दण्ड संहिता) के अन्तर्गत दण्डित किया जाना चाहिए था, फिर भी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उक्त दण्डादेश उचित था।
श्री लाल उर्फ सिपिया बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (2008) सु० को० 2314, के बाद में अपीलार्थी ने अपनी स्वयं की तेरह वर्षीय पुत्री के साथ बलात्कार किया था। जिसके लिए उसे सत्र न्यायालय, गुना द्वारा आजीवन कारावास तथा एक हजार रुपये अर्थदण्ड से दण्डादिष्ट किया गया था जिसे उच्च न्यायालय ने बहाल रखा। इसके विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलार्थी किसी भी सहानुभूति या उदारता का पात्र नहीं है क्योंकि उसने स्वयं की 13 वर्षीय पुत्री के साथ बलात्कार का कुकृत्य करके उसे सतत् शारीरिक मानसिक यातना पहुँचाई, जिसके लिए उसे कठोर दण्ड दिया जाना न्यायोचित है। ऐसे जघन्य अपराध के मामले में अभियुक्त के प्रति किसी भी प्रकार की उदारता बरती जाना न्यायिक व्यवस्था के प्रति हानिकारक होगा। अतः अपील खारिज किये जाने योग्य है।
प्रश्न 6. (क) मृत्युदण्ड से आप क्या समझते हैं? यह कितने तरीके से दिया जाता है? मृत्युदण्ड के पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिए। What do you understand by Death Sentence? How many different modes of the award of death sentence? Give reason in favour and opposition of capital punishment.
(ख) इच्छा मृत्यु या दया मृत्यु से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट करें। What do you understand by Euthanasia or Mercy Killing? Explain.
उत्तर (क) – मृत्युदण्ड (Death Sentence) — मृत्युदण्ड से तात्पर्य ऐसे दण्ड से है। जिसमें अपराधी के जीवन को समाप्त कर दिया जाता है। ऐसा दण्ड प्रायः गम्भीर एवं संगीन अपराधों के लिए ही दिया जाता है। सामान्यतः दण्ड की मात्रा और उसका निर्धारण अपराध की गम्भीरता तथा उसके कारण समाज को उत्पन्न होने वाले संभावित संकट पर निर्भर करती है। अपराधी की आपराधिक प्रवृत्ति के अनुसार उसे कम या अधिक दण्ड दिया जाता है। दाण्डिक विधिशास्त्र के निरपेक्ष विश्लेषण से यह पता चलता है कि मृत्युदण्ड केवल हत्या या बलात्कार सहित हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए ही दिया जाना उचित है जिनके कारण समाज के लिए गंभीर संकट उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। इसलिए अति विरल मामले में ही मृत्युदण्ड दिया जाता है ताकि अवांछित तथा समाज के लिए खतरनाक अपराधियों का अस्तित्व समाप्त किया जा सके। भारतीय दण्डनीति के प्रति यही दृष्टिकोण अपनाया गया है।
मृत्युदण्ड के विभिन्न तरीके- विश्व की प्रायः सभी दण्ड-प्रणालियों में प्राचीनकाल से ही अपराधियों को मृत्युदण्ड दिये जाने का प्रचलन रहा है तथापि मृत्युदण्ड के क्रियान्वयन के तरीके अलग-अलग अवश्य थे। कहीं जल्लाद अपराधी का सिर कलम कर देते थे, तो कहीं अपराधी को दीवारों में चुनवा दिया जाता था। प्राचीन समय से लेकर आज तक मृत्युदण्ड के लिए उपयोग में लाए जाने वाले विभिन्न तरीके मुख्यतः निम्नानुसार हैं-
(1) दम घोंटकर मृत्युदण्ड देने में अपराधी के शरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति पूरी तरह बन्द कर दी जाती थी, ताकि दम घुटने के कारण उसकी मौत हो जाए।
(2) ऐसे अपराधी जो तन्त्र-मन्त्र आदि द्वारा दूसरों को नुकसान पहुँचाते थे, उनके शरीर के प्रमुख अंग निकालकर उन्हें मौत की सजा दी जाती थी, लेकिन ब्रिटेन में यदि अपराधी कोई स्त्री होती. तो ऐसा न करते हुए उसका सम्मान बनाए रखने के लिए जिन्दा जला दिया जाता था।
(3) जो व्यक्ति मासूम लोगों की बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या कारित करता था, उसे सूली पर टांगकर मृत्युदण्ड दिया जाता था ताकि उसे यह अहसास हो कि जिस व्यक्ति को उसने यातना देकर मार डाला है, उसे कितना कष्ट हुआ होगा।
(4) अनेक अविकसित देशों में हत्यारे को कुचलकर मार डाला जाता था।
(5) बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक चीन में अपराधी को हफ्तों या महीनों तक प्रतिदिन छोटे-छोटे घाव कर दिये जाते थे ताकि वह कष्ट झेलते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाए।
(6) मध्यकालीन युग में सिर कलम करके मृत्युदण्ड देना प्रचलन में था। इसके लिए प्रायः तलवार या कुल्हाड़ी का प्रयोग किया जाता था।
(7) हाथ-पैर काटकर या उन्हें शरीर से उखाड़कर भी सजा-ए-मौत देने का तरीका प्रचलित था।
मृत्युदण्ड के पक्ष और विपक्ष में तर्क- मानव सभ्यता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी समय मृत्युदण्ड को दण्ड के रूप में अमान्य नहीं किया गया है। सर हेनरीमैन के अनुसार रोम की प्राचीनतम सभ्यता में भी मृत्युदण्ड को समाप्त करना उचित नहीं समझा गया था, यद्यपि लोगों के सामान्यतः सदाचारिणी होने के कारण इसका प्रयोग यदाकदा ही किया जाता था। प्राचीन भारत में भी मृत्युदण्ड दिये जाने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती थी क्योंकि लोग स्वभावतः धर्मभीरु होने के कारण अनैतिक आचरण से विमुख रहते थे। परन्तु फिर भी प्राचीन हिन्दू दण्ड विधि में मृत्युदण्ड को वैधानिक मान्यता दी गयी थी।
मृत्युदण्ड के विषय में भारतीय दण्डशास्त्रियों के विचार भिन्न-भिन्न रहे हैं। कुछ इसका मानवीय आधार पर विरोध करते हैं जबकि अन्य इसे लोगों को विधि का पालन कराने के लिए शास्ति के रूप में आवश्यक मानते हैं। मृत्युदण्ड के समर्थकों का मत है कि घोर अपराधी की (कारित करना न्याय की आवश्यकता मानी जानी चाहिए। उनके अनुसार अपकारित मृत्यु व्यक्ति की मृत्यु के बदले हत्यारे को मृत्युदण्ड देकर उसकी मृत्यु कारित करना कोई अनुचित कृत्य नहीं है क्योंकि मृत्युदण्ड न रखा जाए तो न्याय-व्यवस्था के प्रति समाज का रोष शान्त नहीं होगा।
मृत्युदण्ड के विरोधियों का तर्क है कि मृत्युदण्ड को दण्ड विधि में यथावत बनाये रखकर भी हत्यारों और बलात्कार के अपराधों में निरन्तर वृद्धि यह दर्शाती है कि प्रतिरोध के रूप में मृत्युदण्ड विशेष प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकता है। एक अन्य तर्क यह भी है कि मृत्युदण्ड से दण्डनीय अपराधी बहुधा संगीन अपराधी होते हैं, जो पकड़े जाने पर भी अपने बचाव का मार्ग येनकेन प्रकारेण प्रायः ढूँढ ही निकालते हैं। अतः इन्हें मृत्युदण्ड का विशेष भय नहीं रहता। वर्तमान दण्ड एवं प्रक्रिया विधि में इनके बच निकलने की काफी गुंजाइश रहती है। इसके अतिरिक्त भावावेश में की गई हत्याओं के मामलों में मृत्युदण्ड के भय के प्रभाव का प्रश्न ही नहीं उठता।
मृत्युदण्ड के विपक्ष में सबसे प्रबल दलील यह दी जाती है कि यदि किसी निर्दोष अपराधी को विधि की भूल के कारण मृत्युदण्ड दे दिया जाता है, तो इस भूल का परिमार्जन असम्भव है, अतः इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से इस तर्क में कोई बल नहीं है क्योंकि मृत्युदण्ड के कार्यान्वित किये जाने तक अपराधी को अगली उच्च न्यायालय में अपील के अनेक अवसर उपलब्ध होते हैं और अन्ततः राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान की व्यवस्था भी संविधान में है। अतः इन सभी चरणों में उसके साथ अन्याय होता रहेगा। यह कहना निरर्थक है।
मृत्युदण्ड के विषय में निम्नलिखित सामान्यीकरणों का मार्गदर्शिका के रूप में उपयोग किया जा सकता है-
(1) खतरनाक और घोर अपराधियों के लिए मृत्युदण्ड को यथावत बनाये रखना उचित प्रतीत होता है अन्यथा निष्ठुर और नृशंस हत्यारे अपने छोटे-मोटे स्वार्थ के लिए भी लोगों की हत्या करने से नहीं हिचकिचायेंगे ।
(2) भारत जैसे कृषि प्रधान देश में अधिकांश हत्यायें जमीन या खेतों से सम्बन्धित विवादों के कारण ही होती हैं। अतः हत्या करने वाले अपराधी प्रायः भोले-भाले खेतिहर कृषक ही होते हैं जो भावावेश या क्रोध के कारण हत्या कर बैठते हैं। यद्यपि इन लोगों को अपने कृत्य के गम्भीर परिणामों की कल्पना रहती है परन्तु वस्तुतः उनका हत्या करने का उद्देश्य नहीं रहता है। इसी कारण इन अपराधियों को व्यावसायिक हत्यारों की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए तथा मृत्युदण्ड इनके लिए अनुपयुक्त सिद्ध होगा।
(3) वर्तमान परिस्थितियों में हत्यायें जातीय या धार्मिक आन्दोलनों, दंगों या वैमनस्य के कारण होती हैं। राजनैतिक हत्यायें भी दिनों-दिन बढ़ रही हैं। ये अपराधी साम्प्रदायिक या धार्मिक उन्माद में अनेक लोगों का बध करते हैं या अन्य प्रकार से लोगों को शारीरिक या साम्पतिक क्षति पहुँचाते हैं। ऐसे लोगों को मृत्युदण्ड देना उचित नहीं होगा क्योंकि वस्तुतः उनकी मानसिकता में सुधार किये जाने की आवश्यकता है। महिलाओं को लेकर हत्यायें भी प्रायः आवेश और भावावेश में ही होती हैं।
(4) मृत्युदण्ड का समर्थन प्रायः इस आधार पर किया जाता है कि इससे हत्यारे अपराधी को समाज से हटाया जा सकेगा और इस प्रकार का संरक्षण सम्भव होगा। परन्तु लोगों के मन में अपराध के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए मृत्युदण्ड के भय के बजाय उनमें आदर्श भावनायें जागृत करने के प्रयास किया जाना अधिक श्रेयस्कर होगा।
(5) मृत्युदण्ड को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए गम्भीर अपराधियों को उनकी प्रवृत्ति और पूर्व वृत्तान्त के अनुसार वर्गीकरण दिया जाना आवश्यक है तथा केवल ऐसे अपराधियों को ही मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए जो समाज के लिए सभी दृष्टि से घातक हों।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आदतन अपराधी और लैंगिक अपराधियों को मृत्युदण्ड देने से कोई लाभ नहीं होगा बल्कि मनश्चिकित्सा द्वारा उनका उपचार किया जाना उचित होगा। तथापि कुछ निर्मम अपराधी ऐसे भी होते हैं जो हत्या इसलिए करते हैं क्योंकि मानव को मरते समय छटपटाते देखकर उन्हें एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। निःसन्देह ही ऐसे घोर अपराधियों को मृत्युदण्ड देकर समाज से समाप्त करना उचित उपाय है।
उत्तर (ख)- इच्छा मृत्यु या दया मृत्यु से आशय यह है कि जो व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीड़ित वर्षों से निर्जीव स्थिति में पड़ा असह्य शारीरिक पीड़ा या यातनाएँ भोग रहा है, क्या उसे चिकित्सक की सहायता से स्वयं के जीवन का अंत करने की अनुमति दी जानी चाहिए? इसी प्रकार यदि कोई रोगी महीनों से बेहोशी की हालत में कृत्रिम श्वास मशीन (रेस्पिरेटर) के सहारे जी रहा है और चिकित्सक जानता है कि कृत्रिम श्वास नली हटाते ही उसकी तत्काल मृत्यु होना सुनिश्चित है, तो क्या ऐसी स्थिति में उस रोगी की प्राकृतिक मृत्यु के पूर्व श्वास नली हटाकर उसके परिवारजनों की माँग पर उसका जीवन समाप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए? वर्तमान विधि के अनुसार चिकित्सक द्वारा किया गया ऐसा कृत्य ‘हत्या‘ कहलाएगा तथा मृत व्यक्ति के परिवारजन भी हत्या के दोषी होंगे। कभी-कभी अत्यधिक वृद्ध अवस्था के कारण व्यक्ति की जीवित रहने की इच्छा पूर्णतः समाप्त हो जाती है और वह स्वयं को दूसरों पर बोझ समझने लगता है। यदि ऐसा व्यक्ति वास्तव में अपनी जीवन लीला समाप्त करना चाहता है तो क्या उसे इसकी अनुमति दी जानी चाहिए। इसी प्रकार कोई एड्स (AIDS) ग्रसित रोगी यह जानता है कि उसकी मृत्यु निकट भविष्य में सुनिश्चित है और जितने दिनों तक वह जीवित रहेगा, समाज के लिए खतरा बना रहेगा, इसलिए स्वेच्छया मृत्यु का इच्छुक है, तो क्या उसे विधि के अन्तर्गत इसकी अनुमति दी जानी चाहिए। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो इच्छा मृत्यु को वैधानिकता प्रदान करने के पूर्व विधिज्ञों द्वारा विचार में लिया जाना आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि व्यक्ति के लिए स्वयं के जीवन से बढ़कर और कोई मूल्यवान वस्तु इस संसार में नहीं है, अतः यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन को स्वेच्छा से बिना किसी क्षोभ, दबाव या आवेश के समाप्त करना चाहता है, तो उसे इसकी अनुमति दी जाए अथवा नहीं, इस बारे में अधिकांश देशों की विधियों का दृष्टिकोण नकारात्मक रहा है।
भारत में इच्छा मृत्यु को वैधता प्राप्त नहीं है। ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1257 के मामले में कहा गया कि यदि इसे वैधता प्रदान की जाए तो आत्महत्या का प्रयास (धारा 309 I.P.C.) स्वयमेव निरस्त हो जाएगा तथा संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन जीने के अधिकार में मरने का भी अधिकार शामिल हो जायेगा। इसी प्रकार I.P.C. की धारा 300 में छठें अपवाद के रूप में यह जोड़ना आवश्यक हो जाएगा कि इच्छा मृत्यु से कारित जीवन का अंत सदोष मानव-वध का अपराध नहीं होगा।
वर्तमान स्थिति यह है कि भारत में इच्छा मृत्यु को वैधानिकता प्राप्त नहीं है। इच्छा मौत को अब तक वैधानिक मान्यता हॉलैण्ड (नीदरलैण्ड) तथा बेल्जियम ने प्रदान की है।
मानव अधिकार विशेषज्ञों के अनुसार इच्छामृत्यु को वैधता प्रदान करने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि इसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो सकता है। मृत्यु-शैय्या पर पड़े व्यक्ति को सम्पत्ति के लिए चिकित्सक के साथ मिलकर जहरीला इन्जेक्शन देकर दया-मृत्यु के नाम पर भरवाया जा सकता है। इसी तरह परिवार पर बोझ बन चुके मानसिक रूप से विक्षिप्त या लकवा, कैंसर या असाध्य रोग के मरीजों पर भी इस कानून की गाज गिर सकती है। अनेक बार जीवन की आस छोड़ चुके गम्भीर रोगों से पीड़ित व्यक्ति भी आश्चर्यजनक रूप से ठीक हो जाते हैं, इसलिए ऐसे लोगों के लिए इच्छा मृत्यु उपयुक्त विकल्प नहीं है।
प्रश्न 7. (क) मृत्युदण्ड सम्बन्धी न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए। Explain the Judicial Trends related to Capital Punishment.
(ख) मृत्युदण्ड की संवैधानिक स्थिति की विवेचना कीजिए। Discuss the constitutionality of death sentence.
(ग) अनियत दण्डादेश से आप क्या समझते हैं? अनियत दण्डादेश का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
What do you understand by Indeterminate sentence? Critically evaluate the indeterminate sentence.
(घ) दण्ड के क्षमादान, लघुकरण एवं दण्ड के परिहार का क्या तात्पर्य है? स्पष्ट करें।
What do you mean by Pardon, Commutation of Sentence and Remission of Sentence? Explain.
उत्तर (क)- मृत्युदण्ड सम्बन्धी न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial Trends) मृत्युदण्ड का समर्थन करने या विरोध करने के लिए दण्डाधिकारियों ने प्रायः दण्ड संहिता की धारा 354 (3) का सहारा लिया है। इसके समर्थकों का मानना है कि इस धारा में मृत्युदण्ड दिये जाने के विशेष कारणों के उल्लेख का प्रावधान यह दर्शाता है कि मृत्युदण्ड विधिक और सांविधिक दृष्टि से अनुज्ञेय (Permissible) है। दूसरी ओर मृत्युदण्ड का विरोध करने वाले इस धारा को मृत्युदण्ड को कम से कम मामलों में दिये जाने के लिए तथा उदार बनाये जाने का उपयुक्त साधन मानते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मृत्युदण्ड सम्बन्धी दाण्डिक प्रावधान न्यायाधीशों को पर्याप्त विवेक शक्ति प्रदान करते हैं और वे अपनी निजी धारणाओं तथा मान्यताओं के अनुसार मृत्युदण्ड देने या उसका परिवर्जन (avoid) करने के लिए स्वतन्त्र हैं। इस कथन की पुष्टि कुंजू कुंजू बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, (1978) के बाद से हो जाती है। इस वाद में अभियुक्त एक विवाहित व्यक्ति था जिसके दो छोटे बच्चे भी थे। उसका किसी युवती से प्रेम हो गया और उससे शादी करने की नीयत से उसने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों की रात में सोते समय निर्मम हत्या कर दी जबकि उसकी प्रेमिका पत्रों द्वारा उसे अपना पारिवारिक जीवन, उनके अवैध सम्बन्धों के कारण बरबाद न करने की चेतावनी बराबर देती रही। इस वाद में यद्यपि न्यायाधीशों ने 2:1 मत से इन तीन हत्याओं के अभियुक्त की मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाना उचित समझा परन्तु इस पर न्यायमूर्ति ए० पी० सेन ने अपना विसम्मत मत व्यक्त करते हुए अवलोकन किया-
“अभियुक्त ने एक राक्षसी कृत्य किया है तथा अपनी पत्नी तथा उससे पैदा हुये दो निर्दोष नन्हें बच्चों की हत्या करने में भी वह नहीं हिचकिचाया, यदि इस प्रकार के मामले में भी मृत्युदण्ड न दिया जाए, तो मुझे समझ में नहीं आता कि मृत्युदण्ड और किस प्रकार के मामलों में दिया जा सकता है।”
भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत्त मृत्युदण्ड से सम्बन्धित प्रकरणों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि न्यायालय ने आकस्मिक आवेश या भावावेश या उत्तेजना, विषयासक्ति के कारण उत्पन्न घृणा, पारिवारिक कलह, भूमि सम्बन्धी झगड़े, पत्नी की बेवफाई या विश्वासघात या मृत्युदण्ड से दण्डित अभियुक्त के दण्ड के प्रवर्तन में विलम्ब आदि को मृत्युदण्ड के बजाय आजीवन कारावास का दण्ड दिये जाने का उचित कारण माना है। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (1979) एस० सी० 916 के बाद में जोर देकर कहा कि जहाँ हत्या जानबूझकर पूर्वनियोजित, नृशंस तथा बर्बरतापूर्वक ढंग से की गई हो तथा इसके लिए कोई परिशमनकारी परिस्थितियाँ (extenuating circumstances) न हो, वहाँ सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से मृत्युदण्ड अनिवार्य रूप से दिया ही जाना चाहिए।
टी० वी० वाथेसन बनाम तमिलनाडु राज्य, ए० आई० आर० (1983) सु० को० 361के वाद में उच्चतम न्यायालय ने एक बार पुनः विनिश्चित किया कि जहाँ अभियुक्त का मृत्युदण्ड दो वर्षों से अधिक विलम्बित रखा गया हो, वहाँ उसके दण्ड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाना उचित है क्योंकि इतनी लम्बी अवधि तक अभियुक्त पर मृत्यु की विभीषिका छाया रहना उसके प्रति अन्याय है तथा इस प्रक्रियात्मक व्यतिक्रम के दुष्प्रभाव के शमन के लिए एकमात्र उपाय मृत्युदण्ड को घटाकर आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया जाना है।
परन्तु शेरसिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० (1983) एस० सी० 456 के वाद में उच्यतम न्यायालय ने वाथेसरन के विनिश्चय को पलट दिया। इस वाद में निर्णय देते हुए न्यायाधिपति वाय० वी० चन्द्रचूड ने विनिश्चित किया कि यह ठीक है कि मृत्युदण्ड कम से कम मामलों में दिया जाए, लेकिन जहाँ उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया है यदि अभियुक्त की ओर से उसे तुच्छ और व्यर्थ की कार्यवाहियों का सहारा लेते हुए विलम्बित रखे जाने की कोशिश की जाती है जो ऐसी स्थिति में विलम्ब के आधार पर मृत्युदण्ड को लघुकृत करना हास्यास्पद होगा। अतः इस वाद में विलम्ब के आधार पर की गई अपील को निरस्त करते हुए न्यायालय ने अभियुक्त का मृत्युदण्ड बहाल रखा और साथ ही पंजाब सरकार से दण्ड के प्रवर्तन में अनावश्यक विलम्ब का स्पष्टीकरण माँगा।
मधुमेहता बनाम भारत संघ, (1989) 1 Cr. L.J. 2321 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चय किया कि अभियुक्त द्वारा दायर की गई मृत्युदण्ड के विरुद्ध दया (क्षमादान) की याचिका के निपटाने में आठ वर्षों का विलम्ब उसके दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित किये जाने के लिए उचित कारण है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 21 में उपबन्धित स्वाधीनता के अधिकार (Right to liberty) में त्वरित विचारण का अधिकार सन्निहित है।
कुलविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० (2007) सु० को० 2868 के मामले में अभियुक्त कुलविंदर सिंह ने मृतका हरदीप कौर के साथ बलात्कार करने के आशय से उसके कमरे में प्रवेश किया और इसका विरोध करने पर उसके गले में चुन्नी डालकर उसकी हत्या कर दी तथा वहाँ उपस्थित जोगिन्दर कौर को भी गम्भीर चोटें पहुँची जिसके कारण उसकी भी मृत्यु हो गई। चक्षुदर्शी गवाह सरबजीत सिंह की विश्वसनीयता घटनास्थल पर पाए गए अंगुल-छापों, लाकेट, हथियारों तथा कपड़ों से सिद्ध हुई थी और उस पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं था। अतः अभियुक्त को धारा 302 के अन्तर्गत मृत्युदण्ड दिया गया जिसकी उच्च न्यायालय ने संपुष्टि कर दी। इस दण्डादेश के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि अभियुक्त दो हत्याएँ कारित करने का दोषी था, परन्तु ये हत्याएँ पूर्व आयोजित न होकर आवेश में आकर की गई थीं, इसलिए इन्हें विरलतम प्रकरण नहीं माना जा सकता है। अतः अभियुक्त के मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदल दिया गया।
सी० मुनीअप्पन तथा अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य, (2010) 9 एस० सी० सी० 567 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अभियुक्त को दण्डादिष्ट करते समय दण्ड की अनुपातता के नियम पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इसका प्रभाव समाज पर पड़ता है। यदि समाज की सामूहिक अन्तरात्मा की पुकार यह कहती है अमुक अभियुक्त को मृत्युदण्ड ही दिया जाना एकमात्र विकल्प है, प्रकरण में तो विरलतम मामले में यह दण्ड देना न्यायोचित होगा। जहाँ अभियुक्त ने बिना किसी प्रकोपन के सुनियोजित तरीके से हत्या कारित की है, तो ऐसे प्रकरण में मृत्युदण्ड देना उचित होगा।
उत्तर (ख)- मृत्युदण्ड का समर्थन करने या विरोध करने के लिए न्यायशास्त्रियों ने सदैव दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) का सहारा लिया है। इसके समर्थकों का मानना है कि इस धारा में मृत्युदण्ड दिए जाने के विशेष उपबन्धों की प्रत्याशा से यह दर्शित होता है कि मृत्युदण्ड सांविधिक एवं विधिक दृष्टिकोण से अनुज्ञेय है। दूसरी ओर मृत्युदण्ड का विरोध करने वाले इस धारा में मृत्युदण्ड को कम से कम मामलों में दिए जाने के लिए तथा उदार बनाए जाने का उपयुक्त साधन मानते हैं।
सर्वप्रथम मृत्युदण्ड की संवैधानिकता को चुनौती “राजेन्द्र प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ यू० पी०, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 1916″ के वाद में दी गई। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तुत आपत्ति को अस्वीकार करते हुए मृत्युदण्ड को संवैधानिक मान लिया क्योंकि यह दण्ड कारणों के उल्लेख के अधीन दिया जाता है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि जहाँ हत्या जानबूझकर पूर्व-नियोजित नृशंस तथा बर्बरतापूर्ण ढंग से की गयी हो तथा इसके लिए कोई भी परिशमनकारी परिस्थिति न हो तो वहाँ पर सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से मृत्युदण्ड का दिया जाना उचित प्रतीत होता है।
“बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1980 क्रि० लॉ ज० 636 के वाद में 4 : 1 के बहुमत से उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय प्रदान किया कि मृत्युदण्ड आजीवन कारावास के विकल्प के रूप में दिया जाने वाला एक वैध दण्ड है। अतः इस तरह से दिए जाने वाले दण्ड को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा 21 के विपरीत नहीं कहा जा सकता है। हमारी प्रत्याशा इस वाद में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) की भावना के अनुरूप भी है क्योंकि इस धारा के अधीन कारणों को देते हुए मृत्युदण्ड का दिया जाना वैध माना गया है।
“माझी सिंह बनाम पंजाब राज्य” 1983 क्रि० लॉ ज० 1457 के मामले में दो निर्दोष महिलाओं की हत्या करने वाले अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया जाना उचित समझा गया क्योंकि उसने ये हत्याएँ अत्यन्त बर्बरतापूर्ण तथा निर्मम ढंग से की थी।
“कुलजीत सिंह (रंगा) बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 1572″ के वाद में बच्चों का अपहरण करके उसकी हत्या करने वाले आध्यामिक व्यक्ति पर मृत्युदण्ड की प्रणीति को उचित माना गया।
“अशर्फी लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1987 सु० को० 1727″ के मामले में अपीलार्थी ने 14 अगस्त, 1984 को एक महिला से सम्पत्ति सम्बन्धी किसी झगड़े के कारण बदले की भावना से उस महिला तथा दो अबोध बालिकाओं की हत्या कर दी। अपील को खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि ऐसी जानबूझकर की गयी निर्दयतापूर्वक हत्या के प्रकरण में अभियुक्त को प्रतिरोधात्मक दण्ड के रूप में मृत्युदण्ड देना न्यायालय का कर्तव्य है।
धनञ्जय चटर्जी उर्फ धन्ना बनाम पं० बंगाल राज्य, ए० आई० आर० 2004 सु० को० के नवीनतम मामले में अभियुक्त धनञ्जय ने एक स्कूली छात्रा हेतल पारेख का बलात्कार करके उसकी निर्मम हत्या कर दी थी। अभियुक्त को भा० दं० सं० की धारा 302/376/6380 के अन्तर्गत सिद्धदोष कर मृत्युदण्ड दिया गया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त की अपील को खारिज कर उसके मामले को विरलतम मामला मानते हुए मृत्युदण्ड को न्यायोचित माना।
कुलविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० (2007) सु० को० 2868 के वाद में अभियुक्त कुलविंदर सिंह ने मृतका हरदीप कौर के साथ बलात्कार करने के आशय से उसके कमरे में प्रवेश किया और उसका विरोध करने पर उसके गले में चुन्नी डालकर उसकी हत्या कर दी तथा वहाँ उपस्थित जोगिन्दर कौर को भी गम्भीर चोटें पहुँचाई जिसके कारण उसकी भी मृत्यु हो गई। चक्षुदर्शी गवाह सरबजीत सिंह की विश्वसनीयता घटनास्थल पर पाए गए, अंगुल-छापों, लाकेट, हथियारों तथा कपड़ों से सिद्ध हुई थी और उस पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं था। अतः अभियुक्त को धारा 302 के अन्तर्गत मृत्युदण्ड दिया गया जिसकी उच्च न्यायालय ने संपुष्टि कर दी। इस दण्डादेश के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि अभियुक्त दो हत्याएँ कारित करने का दोषी था, परन्तु ये हत्याएँ पूर्व आयोजित न होकर आवेश में आकर की गई थीं, इसलिए इन्हें विरलतम प्रकरण नहीं माना जा सकता है। अतः अभियुक्त के मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदल दिया गया।
अतः उपर्युक्त न्यायिक निर्णयों के आधार पर कहा जा सकता है कि मृत्युदण्ड पूर्णतया संवैधानिक है क्योंकि इस तरह का दण्ड अति दुरूह परिस्थिति में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार दिया जाता है।
उत्तर (ग)- अनियत दण्डादेश (Indeterminated Sentence) – विभिन्न दण्ड प्रणालियों के अन्तर्गत दण्ड विधि द्वारा प्रत्येक अपराध के लिए निश्चित दण्ड निर्धारित किया जाता है इसे नियत दण्ड (Determinated Sentence) कहते हैं। परन्तु अनेक देशों ने अपनी दण्ड विधि में विभिन्न अपराधों के लिए केवल न्यूनतम एवं अधिकतम दण्ड की सीमाएँ निर्धारित करके उसे निश्चितीकरण का कार्य पैरोल बोर्ड के विवेक पर छोड़ दिया है, जिसे अनियत दण्डादेश (Indeterminated Sentence) कहते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अनियत दण्डादेश को अनिश्चित (Indefinite) दण्डादेश कहना गलत होगा क्योंकि अनियत दण्डादेश में दण्ड की मात्रा पूर्णतः अनिश्चित न होकर न्यूनतम और अधिकतम सीमा के अन्दर कुछ भी विनिश्चित की जा सकती है अर्थात् दण्ड के बारे में एक निश्चित सीमा में सुनिश्चितता रहती है।
प्रो० सदरलैण्ड ने अनियत दण्डादेश की व्याख्या करते हुए लिखा है कि इसके अन्तर्गत कारावासी का जेल से मुक्ति का समय प्रशासकीय बोर्ड द्वारा तय किया जाता है तथा न्यायालय अपने निर्णय में केवल न्यूनतम एवं अधिकतम दण्ड का उल्लेख ही करता है। उनका मत है कि इस प्रकार के दण्डादेश को अनियत दण्डादेश कहना उचित नहीं है क्योंकि इसमें दण्ड की न्यूनतम तथा अधिकतम सीमाएँ उल्लिखित रहती हैं। अतः इसे अनिश्चित दण्डादेश कहना उचित होगा। परन्तु निवेदित है कि यह तर्क उचित नहीं प्रतीत होता है क्योंकि अनियत दण्डादेश में दण्ड की अवधि न्यूनतम तथा अधिकतम सीमाओं के बीच की कुछ भी होती है न कि पूर्णतः अनिश्चित।
यहाँ पर इस बात को स्पष्ट कर देना उचित होगा कि अधिकांश दण्ड विधियों में विभिन्न अपराधों के लिए दण्ड के प्रावधान में या तो अधिकतम दण्ड का उल्लेख किया जाता है या न्यूनतम दण्ड का। उदाहरण के लिए भारतीय दण्ड विधि में प्रत्येक अपराध के लिए अधिकतम देय दण्ड का उल्लेख है और न्यायाधीश अपने विवेकानुसार इस सीमा के अन्दर कोई भी कम दण्ड दे सकता है। इसी प्रकार कुछ दण्ड प्रणालियों में किसी अपराध के लिए न्यूनतम देय दण्ड निर्धारित रहता है और न्यायाधीश इस न्यूनतम दण्ड से अधिक अवधि का कोई भी दण्ड दे सकता है लेकिन इन दोनों ही दशाओं में दण्ड को अनियत दण्डादेश नहीं कहा जायेगा क्योंकि इनमें अधिकतम और न्यूनतम दण्ड में से केवल एक ही का उल्लेख है, दोनों का नहीं। इसके अतिरिक्त यद्यपि इनमें अधिकतम या न्यूनतम जैसी भी स्थिति हो, सीमा दी रहती है लेकिन न्यायाधीश इस सीमा में स्वयं ही निश्चित दण्ड निर्धारित करता है। जबकि अनियत दण्डादेश में न्यायालय दण्ड की अधिकतम एवं न्यूनतम सीमाओं का उल्लेख करके अपराधी को कारागार में भेज देता है जहां पर उसके मुक्ति की निश्चित अवधि के बारे में निर्णय पैरोल बोर्ड द्वारा लिया जाता है। तात्पर्य यह है कि यदि दण्ड की केवल अधिकतम या न्यूनतम सीमा ही विनिर्दिष्ट है तो इसे अनियत दण्डादेश नहीं कहा जायेगा जब तक कि उसमें दोनों ही सीमाओं का उल्लेख न हो।
मूल्यांकन – अनियत दण्डादेश सामाजिक सुरक्षा के ठोस सिद्धान्त पर आधारित होने के कारण इसे उपचारात्मक दण्ड के साधन के रूप में स्वीकारा जा चुका है। इस दण्ड का सर्वश्रेष्ठ गुण यह है कि इसमें कारावासी स्वयं ही अपनी शीघ्र रिहाई का प्रयास करता है तथा वह अपनी मानसिकता बदलकर स्वयं को समाज में पुनर्स्थापित कर सकता है। अनियत दण्डादेश इस बात का द्योतक है कि कभी-कभी न्यायिक वैयक्तिकरण असफल हो सकता है जबकि प्रशासनिक वैयक्तिकरण की नीति सफल होती है। वस्तुतः यह सदाचरण के लिए कारावासी को मिलने वाली छूट का ही एक दूसरा रूप है। लन्दन में सन् 1925 में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सुधारागार अधिवेशन में सुधारागार के अध्यक्ष लार्ड क्लोव ने अनियत दण्डादेश के बारे में निम्नलिखित सुझाव दिये-
(1) छोटे-छोटे अपराधों के लिए दोषी पाये गये अपराधियों को लम्बी अवधि की सजा नहीं दी जानी चाहिए।
(2) सामान्यतः पच्चीस वर्ष से अधिक आयु के अपराधियों को नियत दण्ड ही दिया जाना चाहिए जबकि इससे कम आयु के नव-अपराधियों तथा बाल एवं किशोर अपराधियों के लिए अनियत दण्डादेश उपयुक्त होगा।
(3) अनियत दण्डादेश के अन्तर्गत दण्ड विधि में अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम दण्ड को ही मान्यता दी जानी चाहिए तथा न्यूनतम दण्ड का उल्लेख आवश्यक नहीं होना चाहिए।
(4) अनियत दण्डादेश के प्रवर्तन से सम्बन्धित प्रशासकीय अधिकारी या पैरोल बोर्ड के सदस्य, सामाजिक सुधार कार्य में अनुभवी, दक्ष तथा प्रशिक्षित होने चाहिए।
(5) दण्ड की निष्पक्षता की दृष्टि से अनियत दण्डादेश के औचित्य के बारे में सन्देह हो सकता है क्योंकि अभिरक्षण काल में सुधारात्मक तरीकों द्वारा कारावासी की रिहाई का निर्णय कारागार के प्रबन्धकों अथवा पैरोल बोर्ड के स्वविवेक पर निर्भर करता है इसलिए उसमें कैदियों के प्रति भेदभाव या पक्षपात की काफी गुंजाइश रहती है। तथापि कारावासियों के वैयक्तिक उपचार को ध्यान में रखते हुए प्रशासकों या पैरोल बोर्ड को यह विवेक शक्ति देना आवश्यक है। वास्तविक स्थिति तो यह है कि अनियत दण्डादेश के बिना पैरोल पद्धति सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकती है।
(6) समान अपराध करने वाले सभी अपराधियों को एक समान दण्ड देना न्यायिक दृष्टि से अनुचित होगा क्योंकि दण्ड की प्रतिक्रिया सभी अपराधियों पर एक सी न होकर उनके वैयक्तिक स्वभाव तथा मानसिकता के अनुसार भिन्न-भिन होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अपराधियों को दिये जाने वाले दण्ड में भिन्नता या असमानता होना उनके वैयक्तिक सुधार की दृष्टि से परम आवश्यक है। परन्तु दण्ड की इस असमानता के कारण कारावासियों में परस्पर वैमनस्य, ईर्ष्या तथा कारावास प्रशासन के प्रति रोष उत्पन्न हो सकता है जिसके कारण कारागारों में अनुशासन सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं। इन अप्रिय घटनाओं से बचने के लिए अपराधियों को अनियत दण्डादेश देना एक अच्छा विकल्प है।
अनियत दण्डादेश को वैधानिक मान्यता होते हुए भी यथार्थ में बहुत कम देशों ने इसे पूरी तरह अपनाया है। सामान्यतः जिन देशों ने अनियत दण्डादेश प्रणाली को लागू किया है वे प्रायः कारावधि की न्यूनतम अवधि विहित करते हैं जिसे कारागार में बिताना कारावासी के लिए अनिवार्य होता है और साथ ही कारावासी को अत्यधिक लम्बी अवधि के लिए कारावासित किये जाने के विरुद्ध संरक्षण भी प्रदान किया जाता है। कारावासी की रिहाई की अवधि उसकी अभिवृद्धि तथा उस समाज की परिस्थितियों पर निर्भर करती है जिसमें कारावासी को विचरना है।
आलोचना
अनियत दण्डादेश की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है-
(1) इस दण्ड का सबसे गम्भीर दोष यह है कि इसमें दण्ड की अनिश्चितता बनी रहने के कारण कारावासी की मानसिकता परं इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनेक दण्डशास्त्रियों का यह मानना है कि दण्ड की अनिश्चितता स्वयं में एक कठोर दण्ड है तथा अधिकांश व्यक्ति दीर्घकालीन अनियत दण्ड के बजाय अल्पकालीन निश्चित दण्ड भोगना अधिक पसन्द करेंगे। इसके अलावा अनियत दण्डादेश से कारावासियों के मन में सदैव यह भावना बनी रहती है कि उसके प्रति अन्याय या पक्षपात किया जा रहा है। उनकी अनियत दण्ड की अवधि कितनी भी कम क्यों न हो, लेकिन वे अपनी रिहाई की निश्चित तिथि के बारे में सदैव अन्धकार में रहते हैं।
(2) अनियत दण्डादेश के अन्तर्गत किसी कारावासी को कब छोड़ा जाए। यह तय करने का कोई निश्चित आधारभूत मापदण्ड नहीं है और यह पूर्णतः पैरोल बोर्ड के स्वविवेक पर निर्भर करता है। कभी-कभी कारावासी की रिहाई के बारे में पैरोल बोर्ड के त्रुटिपूर्ण निर्णय के कारण कारावासी को वास्तविक आवश्यकता से अधिक समय तक कारागार में रखा जा सकता है, जो उसके प्रति अन्यायपूर्ण है।
(3) अनियत दण्डादेश के अधीन सजा भोग रहे कारावासियों की रिहाई बहुत कुछ कारागार के प्रहरी-रक्षकों की रिपोर्ट पर निर्भर करती है। अतः यदि किसी कारावासी की रक्षक से किसी बात को लेकर अनबन हो जाती है, तो इच्छी रिपोर्ट के अभाव में उसे अधिक लम्बे समय तक निरोध में रखा जा सकता है।
(4) अनियत दण्डादेश के अन्तर्गत कारावासियों में स्वयं के वास्तविक सुधार के प्रति उतनी अधिक रुचि नहीं रहती है जितनी कि कारागार से शीघ्र रिहाई के लिए अपने बारे में अच्छी रिपोर्ट भिजवाने में रहती है। अतः इस हेतु वे जेल के रक्षकों, वार्डनों तथा अधिकारियों को प्रसन्न रखने के लिए उनकी चापलूसी करने में लगे रहते हैं। इस दण्ड से दण्डित कारावासियों का सदाचरण वास्तविक कम और बनावटी अधिक होता है ताकि वे कारागार से शीघ्र मुक्ति पा सकें।
(5) इस दण्ड पद्धति के अन्तर्गत दण्ड की निश्चित अवधि का निर्धारण कारागार के प्रशासकीय अधिकारी अथवा पैरोल बोर्ड द्वारा किये जाने के कारण समान अपराध करने वाले अपराधियों को अलग-अलग अवधि के लिए कारागार में रखा जाना स्वाभाविक है। अतः अनियत दण्डादेश के अधीन कारावासियों में हताशा तथा न्याय के प्रति अविश्वास उत्पन्न होना सम्भव है।
(6) यदि दण्ड की अवधि निश्चित हो, तो कारावधि समाप्त होने के पश्चात् कारावासी को कानूनन रिहा करना होगा जिसके परिणामस्वरूप उसे यह आत्मसन्तोष होता है कि पूरा दण्ड भोग लेने के बाद ही उसकी मुक्ति हुई है न कि किसी की दया या उदारता के कारण। परन्तु अनियत दण्डादेश के अधीन कारावासी को किसी भी समय कारावधि से मुक्त किये जाने के कारण उसे यह आत्मसन्तोष नहीं मिलता है कि उसने अपने अपराध के लिए पूरी सजा भुगत ली है।
अन्त में यह उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा कि सभी प्रकार के दण्डों का अन्तिम लक्ष्य समाज का अपराधियों से संरक्षण करना है। कभी-कभी सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से अपराधी को लम्बे समय तक कारावासित रखना आवश्यक होता है क्योंकि उसकी घोर आपराधिक प्रवृत्ति के कारण कोई भी उपचारात्मक पद्धति उसे सुधारने में सफल नहीं होती है। ऐसे अपराधी को निश्चित दण्ड दिया जाना ही एकमात्र उपाय है। केवल यही नहीं अनेक ऐसे मामलों में जिनमें अपराधी सुधार योग्य है और उसे अनियत दण्डादेश दिया जा सकता है, यह सुनिश्चित करना कठिन होता है कि उसे रिहा किये जाने का उचित समय क्या हो।
उत्तर (घ) – न्यायिक निर्णयों के कारण अपराधी को यदाकदा होने वाले सम्भावित अन्याय से संरक्षण देने के लिए विश्व के प्रायः सभी देशों ने अपनी दण्ड-व्यवस्था में कार्यपालिका के प्रमुख को क्षमादान, दण्ड के स्थगन या लघुकरण आदि का अधिकार प्रदान किया है। वर्तमान दण्ड व्यवस्था में उपचारात्मक तरीके को विशेष महत्व दिये जाने के कारण दण्ड निर्धारण में न्यायालयों को पर्याप्त विवेकीय शक्ति दिया जाना आवश्यक समझा गया है ताकि वे अभियुक्त की वैयक्तिक आवश्यकता के अनुसार दण्ड की अवधि तय करें। इसके साथ ही साथ यह भी अनुभव किया गया है कि न्यायालयों की इस विवेकीय शक्ति पर उचित अंकुश लगाना भी अति आवश्यक है ताकि सिद्धदोष अभियुक्त के प्रति किसी प्रकार का अन्याय न हो सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु कार्यपालिका के सर्वोच्च प्रमुख कों विशेष परिस्थितियों में दोषी अभियुक्त को क्षमादान करने की अधिकार शक्ति प्रदान की गई है।
क्षमादान (Pardon)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 के अधीन राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गयी है कि वह किसी भी सिद्धदोष अपराधी को क्षमादान कर सकता है या उसके दण्ड को निलम्बित रख सकता है या उसका लघुकरण कर सकता है। राष्ट्रपति उस शक्ति का प्रयोग केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है। क्षमादान का एक अनुग्रह है तथा इसकी माँग एक अधिकार के रूप में नहीं की जा सकती है। क्षमादान से अभियुक्त का केवल दण्ड ही समाप्त नहीं हो पाता बल्कि इससे दण्डित व्यक्ति पूर्व स्थिति में आ जाता है मानों कि उसने कोई अपराध नहीं किया है।
संविधान के अनुच्छेद 161 के अधीन राज्यों के राज्यपालों को भी किसी सिद्धदोष व्यक्ति के अपराध को क्षमा करने की शक्ति प्रदान की गई है।
लघुकरण (Remission of Sentence)- किसी दण्ड के परिहार का तात्पर्य है कि दण्ड के स्वरूप में परिवर्तन किये बिना उसकी मात्रा में कमी करना जैसे सात वर्ष के कारावास को कम करके तीन वर्ष का कारावास कर देना।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 के अधीन राज्यों के राज्यपालों को भी किसी सिद्धदोष व्यक्ति के अपराध को क्षमा करने या उसका निलम्बन, परिहार या लघुकरण करने की शक्ति प्राप्त है। किन्तु राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्ति में निम्नलिखित मुख्य अन्तर हैं-
(1) राष्ट्रपति को सभी प्रकार के दण्डों के मामलों में क्षमादान की शक्ति प्राप्त है, जबकि राज्यपाल को मृत्युदण्ड के मामले में क्षमादान करने की शक्ति नहीं प्राप्त है।
(2) राष्ट्रपति को सेना न्यायालय के दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है, किन्तु इस सन्दर्भ में राज्यपाल को क्षमादान करने की शक्ति नहीं प्रदान की गई है।
“केहर सिंह बनाम भारत संघ, (1989) एस० सी० सी० 204″ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 72 के अधीन राष्ट्रपति की क्षमादान सम्बन्धी शक्ति की विस्तारपूर्वक व्याख्या किया है। इस मामले में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के लिए दोषी अभियुक्त केहर सिंह ने परीक्षण न्यायालय के निर्णय को गलत निरूपित करते हुए चुनौती दी थी तथा राष्ट्रपति से सुनवाई का अवसर दिये जाने की प्रार्थना की थी। माननीय राष्ट्रपति ने अभियुक्त के क्षमादान की याचिका को स्वीकार करने से इन्कार करते हुए यह कहा कि वे उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के गुण-दोषों पर विचार करने के लिए बाध्य नहीं किये जा सकते हैं। राष्ट्रपति को प्रदत्त क्षमादान की शक्ति एक सांविधिक शक्ति है जिसका प्रयोग वह मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है।
रंगाबिल्ला का मामला अर्थात् “कुलजीत सिंह बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1980 सु० को० 893″ के मामले में यह निर्णीत किया गया कि राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति उसके विवेक पर आधारित होती है। अतः इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने निर्णय के कारणों का उल्लेख करें।
प्रश्न 8. (क) पुलिस की परिभाषा दीजिए। भारत में पुलिस बल की संरचनात्मक व्यवस्था बतलाइये। Define Police? Discuss the structural system of Police force in India?
(ख) पुलिस के अधिकार एवं कर्तव्य की विवेचना पुलिस अधिनियम, दण्ड प्रक्रिया संहिता तथा अन्य विधियों के अन्तर्गत कीजिए। Explain the rights and duties of Police in reference of Police Act, Criminal Procedure Code and other Laws.
उत्तर (क) – समाज में शान्ति व्यवस्था कायम रखने, अपराधों का पता लगाने तथा अपराधियों को खोज निकालने के लिए एक प्रभावशाली व्यवस्था पुलिस है। प्रारम्भ में पुलिस शब्द का प्रयोग इतने व्यापक अर्थ में किया गया था कि इसमें सभी प्रकार की आन्तरिक व्यवस्थायें शामिल थीं, पुलिस का प्रारम्भ इंग्लैण्ड से हुआ है। इंग्लैण्ड की आन्तरिक अर्थ व्यवस्था को पुलिस कहा जाता था जिस पर राज्य में कानून व्यवस्था बनाये रखने का दायित्व भी सौंपा गया था।
पुलिस का विकास 18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में दिखाई पड़ता है। पुलिस अपने प्रारम्भिक चरण में ‘रक्षा प्रहरी’ का कार्य करती थी। वर्तमान में पुलिस का कार्य जनता की स्वाधीनता तथा शान्ति की रक्षा करते हुए लोकहित का संवर्धन करना है।
पुलिस की परिभाषा – पुलिस की परिभाषा देते हुए सदरलैण्ड ने कहा है कि “पुलिस शब्द प्राथमिक रूप से राज्य के उन प्रतिनिधियों की ओर संकेत देता है जिनका कार्य विधि व्यवस्था बनाये रखना है तथा विशेष रूप से अधिनियमित दण्ड विधि को प्रवर्तित करना है।” इस परिभाषा में पुलिस की तीन विशेषताओं की ओर इंगित किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(1) पुलिस राज्य के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है।
(2) पुलिस का कार्य समाज में कानून व्यवस्था को बनाये रखना है।
(3) कानून व्यवस्था बनाये रखने हेतु पुलिस दण्ड विधि तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों को लागू करती है।
इस प्रकार से स्पष्ट है कि पुलिस आपराधिक न्याय प्रशासन का प्रथम महत्वपूर्ण अभिकरण है क्योंकि अधिकांशतः अपराधियों का सर्वप्रथम सम्पर्क पुलिस से ही होता है। यही कारण है कि पुलिस बल को सुरक्षा की प्रथम पंक्ति में रखा गया है और पुलिस का प्रमुख कार्य अपराधों की जाँच-पड़ताल करना तथा अपराधियों को गिरफ्तार करना तथा हिरासत में रखना है ताकि उन्हें परीक्षण के लिए न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके। इसके अलावा समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने का सामान्य एवं पूर्णतः दायित्व पुलिस पर ही होता है। इस प्रकार पुलिस को सामाजिक सुरक्षा एवं नियन्त्रण का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया है।
पुलिस की संरचनात्मक व्यवस्था- पुलिस व्यवस्था पूर्णतः राज्य द्वारा संचालित होने के कारण प्रत्येक राज्य अपनी सुविधानुसार पुलिस बल का गठन करता है। यह पुलिस व्यवस्था पुलिस अधिनियम, 1861 के अन्तर्गत अधिनियमित होती है। इसकी तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं-
(1) भारतीय पुलिस सुसंगठित एवं सुनियोजित है तथा वह राज्यों के निर्देशानुसार कार्य करती है।
(2) वह सेना बल की तरह विभिन्न काडरों में वर्गीकृत है।
(3) प्रत्येक राज्य की पुलिस को दो शाखाओं में विभाजित किया गया है जिसे सशस्त्र पुलिस तथा निःशस्त्र पुलिस कहा जाता है।
राज्यों द्वारा साधारण रूप से अपनायी गयी पुलिस व्यवस्था में निम्नलिखित अधिकारियों का समावेश होता है-
(1) महानिदेशक पुलिस (Director General of Police)
(2) पुलिस महानिरीक्षक (Inspector General of Police)
इसमें चार सहायक होते हैं- खुफिया विभाग (C.I.D.), विशेष सशस्त्र बल (S.A.F.), स्थापना (General Branch), बजट (Budget) के कार्य सम्भालते हैं।
3. पुलिस महानिरीक्षक (I.G.P.) के मुख्यालय में उसके अधीनस्थ पाँच उपमहानिरीक्षक कार्यरत हैं जो निम्नलिखित विभाग सँभालते हैं-
(i) उपमहानिरीक्षक (सामान्य प्रशासन)
(ii) उपमहानिरीक्षक (अपराध एवं रेलवे)
(iii) उपमहानिरीक्षक (खुफिया)
(iv) उपमहानिरीक्षक (सतर्कता : Vigilence)
(v) उपमहानिरीक्षक (विशेष सशस्त्र बल) (S.A.F.)
4. राज्य के प्रत्येक सम्भाग के मुख्य पुलिस अधिकारी को उपमहानिरीक्षक (D.I.G.) कहा जाता है जो महानिरीक्षक के अधीनस्थ कार्य करते हैं।
5. जिले की पुलिस व्यवस्था का दायित्व पुलिस अधीक्षक पर होता है जो जिले का सर्वोच्च पुलिस अधिकारी होता है। राज्य के (A) श्रेणी के नगरों के लिए पुलिस अधीक्षक होता है जिसकी सहायतार्थ, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक नियुक्त किये जा सकते हैं।
6. जिले के अन्य अधीनस्थ पुलिस पदाधिकारियों का श्रेणीबद्ध क्रम निम्नानुसार है-
(i) मण्डल निरीक्षक (सर्किल इंस्पेक्टर)
(ii) थाना प्रभारी (S.H.O.) (Sub-Inspector)
(iii) सहायक उपनिरीक्षक (Asst. Sub-Inspector)
(iv) मुख्य आरक्षक (Head Constable)
(v) आरक्षक (Constable)
(vi) रिकूट आरक्षक़ (प्रशिक्षकों को कहा जाता है)
कुछ राज्यों में उपमहानिरीक्षकों के पद को पुलिस कमिश्नर कहा जाता है। होमगार्ड को भी पुलिस का ही एक सहायक अंग माना जाता है। परन्तु फिर भी यह आवश्यक रूप से एक स्वैच्छिक सेवी संगठन है। प्रत्येक राज्य में होमगार्ड्स के लिए एक चीफ कमाण्डेण्ट जनरल होता है। राज्य का होम गार्ड्स संगठन अनेक सम्भागों, कम्पनियों, प्लाटूनों में विभाजित रहता है। उनको अपना एक निर्धारित ड्रेस एवं बिल्ले भी धारण करने होते हैं तथा उन्हें विशिष्ट प्रशिक्षण दिया जाता है।
महिला पुलिस – भारतीय स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय पुलिस सेवा में 1947 से महिला पुलिस को भी एक स्वतन्त्र शाखा के रूप में विकसित किया गया है जिन्हें बाल ‘अपराधियों तथा महिला अपराधियों का दायित्व सौंपा गया है। विश्व का प्रथम महिला पुलिस थाना केरल के कालीकट में 27 अक्टूबर, 1973 को स्थापित किया गया। हाल ही में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में भी महिला बटालियन की स्थापना की गई है।
इस प्रकार भारत की प्रशासनिक व्यवस्था लोकतंत्र, समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्ष कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्तों पर आधारित होने के बावजूद पुलिस की कार्य पद्धति अर्द्ध सैनिक कार्य प्रणाली पर आधारित होने के कारण अधिकतर वह डर, धमकी तथा जोर- जबरदस्ती से भी काम लेती हैं। दूसरे शब्दों में पुलिस की कार्य पद्धति में लोकतान्त्रिक प्रणाली की छाप कम ही दिखलाई पड़ती है। अतः पुलिस से अधिक से अधिक जनसहयोग की अपेक्षा की जाती है।
भारतीय संविधान में पुलिस को राज्य सूची के अधीन रखा गया है। राज्य पुलिस की सहायता के लिए कुछ विशिष्ट प्रकार के पुलिस बल जो केन्द्र द्वारा प्रशासित होते हैं, कार्यरत हैं जिसमें सुरक्षा बल, रेलवे सुरक्षा बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल आदि प्रमुख हैं। होमगार्ड्स, विशेष सशस्त्र बल (S.A.F.) को भी पुलिस संगठन का अंग माना गया है। इसके अलावा यातायात पुलिस का एक पृथक् विभाग है जो यातायात व्यवस्था के नियमों के उल्लंघन के प्रकरणों पर निगरानी रखता है।
उत्तर (ख)- भारत की वर्तमान पुलिस व्यवस्था मूलतः ब्रिटिश पद्धति पर आधारित है और यह व्यवस्था लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुरानी है। परन्तु भारत के प्राचीन इतिहासों में भी पुलिस बल का उल्लेख है। गुप्तकाल में भारत में एक सुनियोजित एवं कुशल पुलिस प्रणाली कार्यरत होने का उल्लेख है। इसलिए गुप्तकाल के शासनकाल में देश की कानून व्यवस्था सुदृढ़ एवं सन्तोषप्रद थी। पुलिस बल के मुख्य अधिकारी को महादण्डाधिकारी कहा जाता था और उनके अधीनस्थ अधिकारियों को दण्डाधिकारी कहा जाता था। पुलिस व्यवस्था में व्यापक फेरबदल 1857 की क्रान्ति के साथ हुआ। तत्पश्चात् पुलिस अधिनियम, 1861 पारित किया गया जिनके द्वारा पुलिस बल को पुनर्गठित किया गया ताकि वह अपराधों के निवारण का कार्य प्रभावी ढंग से कर सकें। अपराध एवं अपराधियों की जाँच-पड़ताल एवं पता लगाने के अलावा पुलिस को यातायात व्यवस्था, लोक अपदूषण का निवारण, पशुओं को क्रूरता से बचाने, नशाखोरी, जनस्वास्थ्य सम्बन्धी संकटों पर निगरानी रखने आदि के अतिरिक्त कार्य भी सौंपे गये हैं। इस प्रकार पुलिस अधिनियम में पुलिस के विधिक कार्य दिये गये हैं-
1. गिरफ्तारी एवं हिरासत – पुलिस का प्रमुख कार्य अपराधी या संभावित व्यक्ति को गिरफ्तार करके उसे अपनी अभिरक्षा में लेना है। पुलिस की निवारक शक्तियाँ दण्ड़ प्रक्रिया संहिता की धारा 149-153 में वर्णित हैं। सद्भावपूर्वक किये गये कार्यों के लिए पुलिस को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 76 में उचित संरक्षण प्राप्त हैं। संभावित व्यक्ति को गिरफ्तार करके हिरासत में रखने सम्बन्धी शक्ति की सीमाओं को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167, 169 तथा 170 (2) इत्यादि में स्पष्ट रूप से सम्मिलित किया गया है। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय पुलिस आयोग की यह सिफारिश है कि Cr.P.C. के अध्याय (v) में एक नई धारा 50क जोड़ी जाय जिसके अनुसार हिरासत में लिये गये व्यक्ति की गिरफ्तारी की जानकारी उसके द्वारा बताये गये रिश्तेदार, मित्र या अन्य व्यक्ति को दी जानी अनिवार्य प्रक्रिया के रूप में रखा जाय। इसका उद्देश्य यह है कि गिरफ्तार व्यक्ति के सगे-सम्बन्धी या उसमें हित रखने वाला कोई व्यक्ति उसकी गिरफ्तारी के बारे में जान सके और उसे जमानत पर छुड़ाने की व्यवस्था करे।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग की उक्त सिफारिश को दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में धारा 50-क जोड़कर लागू कर दिया गया है।
गिरफ्तार करने के पश्चात् भी पुलिस का कार्य बढ़ जाता है। गिरफ्तार व्यक्तियों को हिरासत में लेने की 24 घंटे की अवधि के भीतर सक्षम दण्डाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। रिमाण्ड पर लेने की प्रक्रिया पूरी करना तथा जमानती. अपराधी को जमानत पर छोड़ना। वारण्टी अपराधी को 24 घंटे की अवधि में न्यायिक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत न किये जाने पर उसका बन्दीकरण अवैध होगा।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने सम्बन्धी पुलिस को व्यापक अधिकार शक्ति प्राप्त है।
2. पुलिस द्वारा अभियुक्त के लिए हथकड़ी का प्रयोग- कोई भी विचाराधीन अपराधी संरक्षण से भाग न सके। इसी की सुरक्षा के लिए पुलिस प्रायः हथकड़ी पहनाकर अभियुक्त को अनुरक्षित करती है। परन्तु पुलिस द्वारा अभियुक्त को हथकड़ी पहनाने के बारे में अपना निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन, ए० आई० आर० 1980, 1535 के मामले में निर्धारित किया कि पुलिस का हथकड़ी पहनाने का काम प्रथमदृष्ट्या अमानवीय, अनुचित एवं मनमानापूर्ण है। यदि अत्यधिक गम्भीर एवं खतरनाक अपराधी को हथकड़ी पहनाना आवश्यक भी हो तो सुरक्षा अधिकारी की अनुमति लेनी आवश्यक होनी चाहिए। इसके अलावा पीठासीन न्यायाधीश की अनुमति भी लेनी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि हथकड़ी पहनाना अनु० 21 का उल्लंघन होगा क्योंकि इससे न्यायोचित प्रक्रिया का हनन होता है। अतः पुलिस का विशेष दायित्व बनता है कि वह खूंखार अपराधी या असाध्य अपराधी या जिसके पास संगीन शस्त्र है उसे हथकड़ी तभी लगाये जब कि वह सत्यसिद्ध हो जाय। प्रत्येक अपराधी को अदालत में बिना हथकड़ी के ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर हथकड़ी लगाना चाहिये।
3. खाना तलाशी एवं जामा तलाशी- पुलिस का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य है शक के अधीन लगाये गये अभियुक्तों से पूछताछ करना तथा उनकी खाना तलाशी एवं जामा तलाशी लेना। जामा तलाशी का अर्थ है अपराधी की कपड़ों के जेबों तथा अन्य प्रकार के रखे गये थैलों, पर्सी इत्यादि की छानबीन करना ताकि उसके पास किसी घातक वस्तु या शस्त्र से किसी को खतरा न रहे। अपराधी के विरुद्ध साक्ष्य एकत्र करने के उद्देश्य से पुलिस अपराधी की खाना तलाशी लेती है।
पुलिस की यह तलाशी तथा जब्ती की कार्यवाही वारण्ट के अधीन या बिना वारण्ट के की जा सकती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 93 एवं 94 के अनुसार यदि पुलिस द्वारा तलाशी की कार्यवाही मजिस्ट्रेट के वारण्ट के अधीन की जा रही है तो वारन्ट में निम्न बातों का उल्लेख होना अत्यन्त आवश्यक है-
(i) उन तथ्यों का उल्लेख जिनके आधार पर अपराध घटित होने की संभावना हो,
(ii) तलाशी के स्थान या स्थानों का विनिर्देशन,
(iii) तलाशी ली जाने की युक्तियुक्त समयावधि का उल्लेख।
यदि तलाशी की वस्तु कोई मोबाइल वाहन हो जिसे तुरन्त पुलिस के क्षेत्राधिकार से बाहर ले जाया जा सकता हो या किसी व्यक्ति को वैध रूप से तत्काल गिरफ्तार किये जाने की आवश्यकता हो तो पुलिस बिना वारन्ट के भी तलाशी की कार्यवाही कर सकती है। किसी व्यक्ति की स्वेच्छया सहमति होने पर भी पुलिस उसे बिना वारन्ट के भी गिरफ्तार कर सकती है। इसे सिद्ध करने का भार अभियोजन पक्ष पर होगा।
4. अपराधी से पूछताछ करने का अधिकार- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 42 के अनुसार किसी असंज्ञेय अपराध के सन्देह में पुलिस शक के दायरे में आने वाले अपराधी से उसका नाम, पता इत्यादि की पूछताछ कर सकती है ताकि उसकी ठीक पहचान हो जाये। परन्तु सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर अभियुक्त को गिरफ्तार किया जा सकता है। परन्तु पुलिस का कार्य पूछताछ के दौरान अच्छा बर्ताव करने का है तथा अनावश्यक रूप से अपराधियों को आतंकित नहीं किया जाना चाहिए। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अधीन यह अवैध किया गया है कि अपराधियों से पूछताछ के दौरान बयान पर उसके हस्ताक्षर करा लेना। यह पुलिस का निन्दनीय कार्य है। इसी प्रकार पुलिस के समक्ष अभियुक्त द्वारा की गयी संस्वीकृति अग्राह्य होती है।
5. मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट- पुलिस के कार्यों में एक प्रमुख कार्य है मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट तैयार करना। जब कोई व्यक्ति अप्राकृतिक या सन्देहास्पद परिस्थितियों में मृत पाया जाय तो पुलिस उसकी मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट दर्ज करती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 में केवल दण्डाधिकारियों को यह अधिकार है कि यह विनिश्चित करने के लिए मृतक की मृत्यु हत्या, आत्महत्या या अकस्मात् अपघात इनमें से किस कारण हुई है इसका अन्वेषण करे। मजिस्ट्रेट इसकी जाँच करेगा फिर भी वह इस कार्य में पुलिस अन्वेषण रिपोर्ट की सहायता ले सकता है। इस जाँच में स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उपस्थिति अन्वेषण रिपोर्ट की सत्यता को बल प्रदान करती है। इस सम्बन्ध में पुलिस को स्वविवेक का प्रयोग ईमानदारी और सतर्कता से करना चाहिए।
6. अभियोजन में सहायता करना- पुलिस को अपराधी के विचारण की अवधि में अभियोजक की भूमिका निभानी पड़ती है। अभियोजन की सफलता मुख्यतः पुलिस द्वारा उपलब्ध करायी गयी साक्ष्य तथा जाँच पर निर्भर करती है केवल इच्छुक साक्षियों को ही प्रस्तुत करना चाहिए इसी प्रकार पुलिस को अपराध की संस्वीकृति की जाने की दशा में मुखबिर के परीक्षण में विशेष सतर्कता बरतनी चाहिए तथा अपराधी के विरुद्ध आरोप-पत्र तैयार करने में भी काफी सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो असफलता का सामना करना पड़ता है।
7. अपराधियों की पहचान के लिए अंगुल छाप, फोटोग्राफ आदि लेना- पुलिस के सामान्य कार्यों के अलावा अपराधियों को खोज निकालने के लिए पुलिस को अपराधियों तथा संदिग्ध व्यक्तियों के फोटो चित्र, अंगुली का नमूना इत्यादि लेना पड़ता है। अपराधियों की शिनाख्त कार्यवाही के लिए यह जरूरी है। निगरानी में रखे गये अपराधियों पर कड़ा नियन्त्रण रखना भी पुलिस को एक महत्त्वपूर्ण कार्य है।
8. बाल अपराधियों पर नियन्त्रण- वर्तमान कल्याणकारी राज्य में बालकों की देख- रेख और विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। पुलिस इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने बाल अपराधियों से निपटने के लिए पृथक् पुलिस दस्तों का गठन किये जाने की सिफारिश की है तथा इस हेतु प्रत्येक राज्य में पुलिस बल अपराधीकरण ब्यूरो की स्थापना किये जाने की सिफारिश की है। इसके अलावा अन्य समाज सेवी संस्थायें भी कार्यरत हैं, फिर भी पुलिस बल का सहयोग अत्यन्त आवश्यक होता है। बाल अपराध के न्याय प्रशासन की सभी तीन अवस्थाओं (1) निवारण, (2) परीक्षण, तथा (3) पुनर्वास में पुलिस की सक्रिय आवश्यकता पड़ती है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि पुलिस की कार्यशीलता समाज की सामान्य शान्ति व्यवस्था पर निर्भर करती है, जो समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। सामान्य पुलिस के उक्त कार्यों के अतिरिक्त पुलिस बल को अकाल, बाढ़, आगजनी, महामारी, साम्प्रदायिक दंगों आदि जैसी विपदाओं के समय जन सहायता के कार्य करने होते हैं, जो कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को साकार करते हैं। भारतीय पुलिस, पुलिस बल को सक्षम एवं प्रभावी बनाने के लिए निरन्तर प्रयासरत है।
प्रश्न 9. भारत में पुलिस बल के सामने कौन-कौन सी समस्यायें हैं? स्पष्ट करें। Which are the Problems of Police Force in India? Explain.
उत्तर- पुलिस को अपने कार्यों को सुचारु रूप से निष्पादित करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जिनके कारण उसे शान्ति व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराध का पता लगाकर अपराधियों को पकड़ने में बाधा उत्पन्न होती है। अपराधी सदैव पुलिस के चंगुल से बच निकलने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और वांछित जन-सहयोग के अभाव में पुलिस को भी इस कार्य में आशातीत सफलता नहीं मिल पाती। भारत में राजनीति के अपराधीकरण के कारण पुलिस का कार्य और भी जटिल हो गया है और अनेक घोर अपराधी राजनीतिक प्रभाव के कारण पकड़े जाने से बच निकलने में सफल हो जाते हैं। पुलिस के प्रति न्यायपालिका का सामान्य अविश्वास का रुख से भी पुलिस की कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया अपने कार्यों के निष्पादन में पुलिस को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है-
(1) स्वतन्त्रता के पश्चात् शीघ्रता से बढ़ती सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों के कारण भारतीय समाज के ढाँचे में आमूल परिवर्तन हुए हैं। आर्थिक प्रगति और राजनीतिक गतिविधियों में वृद्धि के साथ पुलिस को शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने में अधिक सतर्कता बरतना आवश्यक हो गया है। पुलिस का मुख्य कार्य समाज को अपराधियों से बचाना तथा नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना है। भारतीय पुलिस व्यवस्था आज भी सन् 1960 के पुलिस अधिनियम के अनुसार प्रशासित हो रही है जो लगभग 150 वर्ष पुराना होने के कारण वर्तमान बदले हुए परिवेश में निरर्थक हो गया है। वर्तमान पुलिस को एक विकासशील समाज की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है जिसमें आपराधिक गतिविधियाँ नया-नया रूप धारण कर रही हैं। अतः इन समस्याओं से निपटने के लिए पुलिस के अधिकार, उसकी शक्तियों तथा दायित्वों का पुनर्विवेचन होना चाहिए। इसीलिए राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुराने पुलिस अधिनियम के स्थान पर नया अधिनियम लागू किये जाने पर बल दिया तथा प्रस्तावित नये अधिनियम का प्रारूप भी प्रस्तुत किया था।
(2) पुलिस को अधिक कार्यकुशल बनाने के लिए यातायात साधनों में विकास अत्यावश्यक है। अपराध की सूचना मिलते ही पुलिस के समक्ष सर्वप्रथम समस्या घटनास्थल पर अविलम्ब पहुँचने की है। विकसित देशों में वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित पुलिस वाहन मिनटों में ही घटना स्थल पर पहुँच जाते हैं। इन वाहनों में ही फोटोग्राफ लेने, उँगलियों के निशान की छाप उठाने तथा अपराध के अन्य सूत्र एकत्रित करने वाले उपकरण लगे रहते हैं जिससे अन्वेषण शीघ्रता से हो जाता है। प्रायः देखा गया है कि घटनास्थल पर पहुँचने के लिए भारतीय पुलिस के पास तत्काल वाहन उपलब्ध नहीं रहता है जिसके कारण सुदूरवर्ती क्षेत्रों में पुलिस घटना स्थल पर बहुत देर से पहुँचती है। परिणामतः अपराध के चिन्ह नष्ट हो जाते हैं और अपराधियों को भाग निकलने का पर्याप्त अवसर मिलता है।
(3) अपराध का कारण पता लगाने के लिए पुलिस को विष परीक्षण, रक्त परीक्षण, पोस्टमार्टम आदि की आवश्यकता पड़ती है। इनकी सुविधा तत्काल उपलब्ध न होने के कारण अपराध की जाँच-पड़ताल में विलम्ब होता है, जो पुलिस के कार्य में बाधक होता है।
(4) समाज में पुलिस की छवि धूमिल होने के कारण सामान्यतः प्रतिष्ठित तथा ईमानदार व्यक्ति इस विभाग की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं और प्रायः कम पढ़ें- लिखे लोग ही आरक्षक के रूप में भर्ती होते हैं। पुलिस प्रशिक्षण में भी बौद्धिक स्तर के बजाय शारीरिक विकास पर ही अधिक बल दिये जाने के कारण पुलिस की मानसिकता में बदलाव लाने का विशेष प्रयास नहीं किया जाता है। पुलिसजनों को कानून का भी समुचित ज्ञान नहीं होता, अतः वे अपने अधिकारों और दायित्वों से भली-भाँति परिचित नहीं होते। उन्हें प्रायः अपने कार्य सम्पादन में रूखापन और सख्त रहने की सीख दी जाती है जिसके कारण उन्हें जनता का वांछित सहयोग नहीं मिल पाता है। अतः जब तक पुलिस कर्मियों की मानसिकता में बदलाव लाने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता, पुलिस की छवि में सुधार की आशा करना व्यर्थ है।
(5) पुलिस को अपने कर्तव्यों को निभाने में सबसे बड़ी कठिनाई राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण होती है। अनेक बार न चाहते हुए भी पुलिस को अवांछित कार्य करने पड़ते हैं जिसके कारण पुलिस के प्रति जन-साधारण का विश्वास कम हो जाता है। अनेक समाज-विरोधी तत्व तथा घोर अपराधी राजनीतिज्ञों की शरण के कारण पुलिस को ठेंगा बताने में सफल हो जाते हैं और अपनी आपराधिक गतिविधियाँ धड़ल्ले से जारी रखते हैं। पुलिस चाहते हुए भी इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर पाती। इसके परिणामस्वरूप पुलिस का मनोबल गिर जाता है।
(6) सम्भवतः पुलिस के समक्ष सबसे बड़ी समस्या जन-सहयोग के अभाव की है। लोग पुलिस के सम्पर्क में आने से कतराते हैं इसीलिए अपराध के चश्मदीद गवाह भी पुलिस को सूचना देने से कतराते हैं।
प्रश्न 10 (क) भारत में पुलिस बल के आधुनिकीकरण के लिए क्या किया जा रहा है? स्पष्ट करें।
What efforts were made for modernization of Police in India? Explain.
(ख) “ऐसा विश्वास किया जाता है कि समाज में अपराधों के लिए बहुत कुछ पुलिस जिम्मेदार है।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं? व्याख्या कीजिए।
“It is believed that Police is largely responsible for crime in the society.” Do you agree with the view? Explain.
उत्तर (क)- भारतीय पुलिस को अधिक कार्यकुशल बनाने की दृष्टि से इसके आधुनिकीकरण पर विशेष बल दिया गया है। वर्तमान युग में अपराधियों के अपराध करने के पुराने तरीके बदल चुके हैं तथा वे इस हेतु आधुनिकतम नई-नई तकनीकें अपनाते हैं। अतः स्वाभाविक है कि इनसे निपटने के लिए पुलिस को भी आधुनिक नवीनतम साधन और उपकरणों का प्रयोग करना आवश्यक हो गया है। इस दिशा में कोलकाता में सन् 1956 में स्थापित सेण्ट्रल फिंगर प्रिंट ब्यूरो तथा केन्द्रीय जाँच ब्यूरो के अन्तर्गत सन् 1964 में क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की स्थापना उल्लेखनीय कदम हैं। यह ब्यूरो राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आपराधिक सांख्यिकी का अद्यतन रिकार्ड रखने का कार्य करता है जिससे पुलिस को अपनी कार्य योजना बनाने में पर्याप्त सहायता मिलती है। आज प्रायः अधिकांश राज्यों के पुलिस विभागों में कम्प्यूटर प्रणाली लागू है। सन् 1976 में पुलिस कम्प्यूटर समन्वय निदेशक (DCPC) की स्थापना दिल्ली में की गई जिसे राज्यों के पुलिस विभाग के कम्प्यूटरीकरण हेतु वित्त जुटाने का कार्य सौंपा गया। सन् 1985 में एक राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की स्थापना की गई है जो वार्षिक आपराधिक सांख्यिकी के संकलन का कार्य करता है। ब्यूरो द्वारा ‘क्राइम इन इण्डिया’ नामक अपने वार्षिक आपराधिक प्रकाशन में विभिन्न अपराधों सम्बन्धी सांख्यिकी प्रकाशित की जाती है तथा पुलिस, न्यायालयों, कारागारों एवं सुधारगृहों आदि सम्बन्धी उपयोगी जानकारी उपलब्ध कराता है।
वर्तमान में अपराधों का पता लगाने के लिए नवीनतम साधनों का प्रयोग भी पुलिस बल की प्रगति का द्योतक है। अपराध का पता लगाने तथा अपराधियों की पहचान के लिए खून परीक्षण, विष परीक्षण आदि की क्रिया के लिए आधुनिक न्याय विज्ञान प्रयोगशालाओं का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार फोटोग्राफी के नवीनतम उपकरण माइक्रोवेव रेडियो, टेपरिकार्डर, अंगुलि-छाप के साधन हस्तलिखित दस्तावेजों के परीक्षण, डी० एन० ए० परीक्षण आदि के लिए आधुनिक उपकरणों को उपयोग में लाया जा रहा है। अपराधियों से सच उगलवाने के लिए ‘सच बुलाने वाली औषधि’ (Truth Telling Drug) का प्रयोग अपराध अनुसंधान के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। अपराधी के शरीर में इंजेक्शन देकर इस यन्त्र को लगा देने से वह अपने आप सच कथन करने लगता है।
भारतवर्ष में वर्तमान में 20 राज्य न्याय-विज्ञान प्रयोगशालाएँ तथा चार केन्द्रीय न्याय विज्ञान प्रयोगशालाएँ दिल्ली, कलकत्ता, हैदराबाद तथा चण्डीगढ़ में कार्यरत हैं।
पुलिस बल के आधुनिकीकरण के सन्दर्भ में यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि भारत जैसे बहुलतावादी एवं विभिन्नता प्रधान देश में जहाँ क्षेत्रीय असमानताएँ तथा सांस्कृतिक विविधतायें विद्यमान हैं, सामाजिक न्याय का समाज की शान्ति-व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण भारतीय पुलिस के समक्ष नई चुनौतियाँ हैं जिनका कुशलता से सामना करने हेतु उसे अधिक संवेदनशील और जन-हितैषी बनाये जाने पर बल दिया जाना चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकेगा जब पुलिस की कार्य-प्रणाली निष्पक्ष हो तथा उसमें किन्हीं बाहरी तत्वों का हस्तक्षेप न हो।
उत्तर (ख) – पुलिस आपराधिक न्याय प्रशासन का प्रथम महत्वपूर्ण अभिकरण है क्योंकि अधिकांशतः अपराधियों का सर्वप्रथम सम्पर्क पुलिस से ही होता है। यही कारण है कि पुलिस बल को सुरक्षा की प्रथम पंक्ति में रखा गया है और पुलिस का प्रमुख कार्य अपराधों की जाँच-पड़ताल करना तथा अपराधियों को गिरफ्तार करना तथा हिरासत में रखना है ताकि उन्हें परीक्षण के लिए न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके। इसके अलावा समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने का सामान्य एवं पूर्णतः दायित्व पुलिस पर ही होता है। इस प्रकार पुलिस को सामाजिक सुरक्षा एवं नियन्त्रण का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया है। मुख्यतः पुलिस की तीन मुख्य विशेषताएँ प्रलक्षित होती हैं-
(1) पुलिस राज्य के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है।
(2) पुलिस का कार्य समाज में कानून व्यवस्था को बनाये रखना है।
(3) कानून व्यवस्था बनाये रखने हेतु पुलिस दण्ड विधि तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों को लागू करती है।
परन्तु वर्तमान समय में पुलिस के प्रति समाज एवं न्यायपालिका की धारणा विशेष अच्छी नहीं तथा न्यायालयों ने अपने विभिन्न निर्णयों में पुलिस के विरुद्ध भ्रष्टाचार, बेईमानी, अकुशलता तथा दमनात्मक तरीके अपनाने का दोषारोपण किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ए० एन० मुल्ला, जो बाद में सांसद भी रहे, ने पुलिस बल को सबसे बड़ा एकमात्र ‘अराजक समूह’ निरूपित किया है। उनका यह भी कहना था कि यदि पुलिस बल को समाप्त कर दिया जाए, तो भारत में अपराध आधे से कम रह जायेंगे। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ओ० चिनप्पा रेड्डी ने भी पुलिस की भर्त्सना करते हुए अभिकथन किया कि अपनी शक्तियों के दुरुपयोग तथा मनमाने ढंग से कार्य करने के कारण जनता पुलिस के प्रति उदासीन है और इसी कारण जनता में पुलिस की छवि धूमिल है। [ भीम सिंह बनाम जम्मू- कश्मीर राज्य, ए० आई० आर० (1986) सु० को० 494]
इसके पूर्व भी सन् 1902 के पुलिस आयोग ने पुलिस की कार्यप्रणाली की आलोचना करते हुए कहा कि यह अपने कार्य में अकुशल, अप्रशिक्षित तथा संगठन में कमजोर है। इसके विरुद्ध दो मुख्य आरोप हैं- भ्रष्टाचारी तथा दमनकारी होना और इसी कारण लोग पुलिस से दूरी वनाये रखते हैं। पुलिस हिरासत में हो रही हिंसा, बर्बरता, बलात्संग आदि के मामले न्यायालयों के समक्ष प्रायः आते रहते हैं।
अतः यह कहना बिल्कुल अनुपयुक्त न होगा कि अपराधों के लिए बहुत कुछ पुलिस जिम्मेदार होती है। परन्तु इन्हें रोकने हेतु निरन्तर प्रयास हो रहे हैं। यद्यपि भारत ने ‘हिरासत में यातना तथा अमानवीय दण्ड’ पर 4 अक्टूबर, 1997 को हुए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये हैं, परन्तु फिर भी हिरासत में यातनात्मक प्रताड़नायें यथावत् जारी हैं जिससे देश के आपराधिक न्याय प्रशासन की छवि धूमिल हो रही है। इस स्थिति में सुधार लाने हेतु उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश सिंह तथा अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य, (2006) 8 सु० को० 1 के वाद में केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों को कतिपय निर्देश जारी किये हैं ताकि पुलिस तन्त्र को राजनीतिक और कार्यपालिका के अनुचित हस्तक्षेप से वंचित रखा जा सके और विधि-सम्मत शासन (Rule of Law) सुनिश्चित हो सके।
प्रश्न 11. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(i) राष्ट्रीय पुलिस आयोग
(ii) पुलिस कमिश्नर
(iii) महिला पुलिस
(iv) पुलिस के लिए नीति मूलक सिद्धान्त
(v) इन्टरपोल
Write short notes on the following-
(i) National Police Commission
(ii) Police Commissioner
(iii) Women Police
(iv) Principles of Policing
(v) Interpol
उत्तर- (i) राष्ट्रीय पुलिस आयोग (National Police Commission) पुलिस बल की कार्य पद्धति तथा कुशलता की समीक्षा के लिए भारत सरकार के गृह मन्त्रालय ने 15 नवम्बर, 1977 में श्री धर्मवीर की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग की नियुक्ति की घोषणा की थी। इसके अन्य सदस्य श्री के० एफ० रुस्तम, जी० एम० सक्सेना, एम० एस० गोरे, एन० के रेड्डी तथा सदस्य सचिव सी० वी० नरसिंहन थे। इस आयोग ने अपने 31/2 वर्ष के कार्यकाल में कुल आठ रिपोर्ट्स प्रस्तुत की। इस आयोग को निम्नलिखित कार्य सौंपे गए थे-
(1) बदले हुए परिवेश में देश में शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने तथा अपराध निवारण में पुलिस की भूमिका, कर्तव्य, शक्तियों तथा दायित्वों की समीक्षा करना,
(2) वर्तमान पुलिस व्यवस्था का मूल्यांकन करना तथा दायित्वों की समीक्षा करना,
(3) वर्तमान अन्वेषण एवं अभियोजन पद्धति में विलम्ब के दोष को दूर करना ताकि न्याय प्रदान करने में गति लाई जा सके,
(4) देश भर में एक सी पुलिस सांख्यिकी तैयार की जा सकने की सम्भावनाओं पर सुझाव देना तथा वर्तमान अपराध सांख्यिकी के स्रोतों एवं तरीकों में सुधार की सम्भावनाओं पर विचार करना,
(5) गैर-ग्रामीण क्षेत्रों की पुलिस पद्धति का पुनरीक्षण करना,
(6) पुलिस कार्यों में आधुनिक वैज्ञानिक साधनों एवं यन्त्रों जैसे-कम्प्यूटर, प्रयोगशाला आदि के प्रयोग के सम्भावित परिणामों पर विचार करना,
(7) समाज के कमजोर वर्गों के प्रति पुलिस के विशेष-दायित्वों पर विचार करना, तथा उनकी शिकायतों पर तुरन्त कार्यवाही के लिए उपाय सुझाना,
(8) पुलिस कर्मियों के लिए समुचित प्रशिक्षण एवं विकास कार्यक्रम सम्बन्धी सुझाव,
(9) पुलिस तथा जनता के बीच अधिक परस्पर सहयोग की सम्भावनाओं एवं क्षेत्रों पर विचार करना,
(10) पुलिस कार्यों से सम्बन्धित अन्य सुझाव जैसे- पुलिस द्वारा शक्ति के दुरुपयोग पर रोक, राजनैतिक दबाव से पुलिस को संरक्षण, पुलिस की कठिनाइयों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार पुलिस कर्मियों के लिए समुचित कल्याण योजनायें आदि।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने वर्तमान पुलिस अधिनियम, 1861 को निरसित किये जाने तथा नये पुलिस अधिनियम को लागू किये जाने की अनुशंसा की और इस हेतु नए प्रस्तावित पुलिस अधिनियम का प्रारूप भी तैयार किया। आयोग की अन्तिम एवं आठवीं रिपोर्ट संसद में 1 मई, 1983 को प्रस्तुत की गई जिसमें राज्यों में केन्द्रीय पुलिस आयोग (Central Police Commission) तथा राज्य सुरक्षा आयोग (State Security Commission) स्थापित किये जाने की सिफारिश की गई थी। केन्द्रीय पुलिस समिति का कार्य राज्य सरकार तथा राज्य सुरक्षा आयोग को पुलिस बल के गठन तथा उसके कार्यों में सुधार के बारे में परामर्श देना था। राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने एक अखिल भारतीय पुलिस संस्थान की स्थापना का सुझाव भी दिया था।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने सन् 1980 में प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्ट में इस ओर ध्यान दिलाया कि कभी-कभी परिवादीगण पुलिस से मिलकर अपने शत्रुओं को अपमानित करने के उद्देश्य से उनके विरुद्ध झूठी आपराधिक कार्यवाही चलवाकर उन्हें गिरफ्तार तक करा देते हैं जो कि पुलिस की मनमानी और भ्रष्ट आचरण का प्रतीक है। अतः पुलिस से अपेक्षित है कि वह जब किसी की बिना वारंट गिरफ्तारी करे तो Cr.P.C. की धारा 41 के प्रावधानों का उल्लंघन न करें।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अपने प्रतिवेदन में यह भी उल्लेख किया कि पुलिस के कार्यों में अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण पुलिस कर्मियों का मनोबल गिरता है तथा उनके आन्तरिक अनुशासन पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाय तथा उनके कार्यों में पारदर्शिता सुनिश्चित की जाय ताकि पुलिस का मनोबल ऊँचा उठ सके।
उत्तर- (ii) पुलिस कमिश्नर (Police Commissioner) – सन् 1968 में राष्ट्रीय आयोग ने भारत के विभिन्न राज्यों के कुछ बड़े नगरों के लिए पुलिस कमिश्नर नियुक्त किये जाने का सुझाव दिया था ताकि जिला दण्डाधिकारी (District Magistrate) को पुलिस प्रशासन पर नियन्त्रण रखने की आवश्यकता न रहे। परन्तु इसका भारतीय सिविल सेवा की आई० ए० एस० लाबी ने इसलिए विरोध किया क्योंकि इससे उनके दण्डाधिकार समाप्त हो जाने के परिणामस्वरूप उनकी अधिकारिता और वर्चस्वता पर प्रतिकूल परिणाम पड़ने की संभावना थी। परन्तु उल्लेखनीय है कि पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति से पुलिस की अधिकार शक्ति में वृद्धि के साथ-साथ वह तत्काल निर्णय लेने की स्थिति में होने के परिणामस्वरूप उसकी कार्यक्षमता बढ़ना सुनिश्चित था। दिल्ली महानगर के लिए पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति सन् 1971 में ही हो चुकी थी। इसके बाद बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, हैदराबाद, बंगलौर, बड़ौदा, मैसूर में भी पुलिस कमिश्नर नियुक्त हुए।
उत्तर- (iii) महिला पुलिस (Women Police) – भारतीय स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय पुलिस सेवा में सन् 1947 से महिला पुलिस को एक स्वतन्त्र शाखा के रूप में विकसित किया गया जिन्हें मुख्यतः बाल अपराधियों तथा महिला अपराधियों का दायित्व सौंपा गया। उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में महिला पुलिस का प्रारम्भ सन् 1917 में ही हो चुका था जब पुलिस के गुप्तचर विभाग में एक महिला पुलिस अधिकारी की नियुक्ति की गई थी। भारतीय महिला पुलिस का मुख्य कार्य बच्चों तथा महिलाओं से सम्बन्धित अपराधों की छानबीन करना तथा महिला अपराधियों की अनुरक्षा करना, तलाशी लेना तथा उन्हें आवश्यकतानुसार अभिरक्षा में लेना है। उन पर महिलाओं के मेले, सामूहिक कार्यक्रम, धरने आदि में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व भी है। महिलाओं की प्रताड़ना सम्बन्धी मामलों का संज्ञान भी महिला पुलिस द्वारा ही किया जाता है।
विश्व का प्रथम महिला पुलिस थाना केरल के कालीकट में 27 अक्टूबर, 1973 को स्थापित किया गया। महिला पुलिस की स्थापना से अपराध से पीड़ित महिलाओं को त्वरित न्याय की आशाएँ प्रबल हुई हैं। केन्द्रीय आरक्षित पुलिस बल में भी पृथक् महिला बटालियन की स्थापना की गई है। वैवाहिक विवादों को परामर्श तथा आपसी समझौते से निपटाने में भी महिला-पुलिस महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
उत्तर- (iv) पुलिस के लिए नीति मूलक सिद्धान्त (Principles of Policing)- शासन के लोकतांत्रिक ढाँचे में पुलिस की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उन्हें अपने कार्यों को कुशलतापूर्वक सम्पादित करने के लिए जन-समर्थन प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक है। एक स्वतन्त्र लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में पुलिस की कार्यकुशलता के लिए कुछ नीति मूलक सिद्धान्तों का अनुपालन किया जाना नितान्त आवश्यक है। अतः पुलिस को अपने कार्य निम्नलिखित सिद्धान्तों के अनुसार करना चाहिए-
(1) मानवीय संव्यवहारों में स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की वृद्धि में योगदान करना ताकि मानव की गरिमा बनी रहे।
(2) विधि-सम्मत शासन (Rule of Law) के अनुसरण में स्वतन्त्रता और सुरक्षा में सामंजस्य स्थापित करना।
(3) मानव अधिकारों का संरक्षण एवं संवर्द्धन।
(4) अपनी सौजन्यता से जन-सामान्य का विश्वास अर्जित करना।
(5) लोगों को उनकी जान-माल की रक्षा के प्रति आश्वस्त करना।
(6) अपराधों की जाँच-पड़ताल तथा अपराधियों के अभियोजन को गति देते हुए आपराधिक न्याय प्रशासन में लोगों का विश्वास उत्पन्न करना।
(7) लोक शान्ति सुनिश्चित करना तथा यातायात व्यवस्था को सुचारु रूप से नियन्त्रित रखना।
(8) समय-समय पर आने वाली गम्भीर और प्राकृतिक विपदाओं में जनता की सहायता करना तथा संकट काल में उन्हें राहत पहुँचाना।
उत्तर- (v) इन्टरपोल (Interpol)- आधुनिक कम्प्यूटर युग में आपराधिकता ने एक विश्व-समस्या का रूप धारण कर लिया है। आवागमन के साधनों तथा दूर-संचार सेवाओं की उपलब्धता के फलस्वरूप अपराधियों को अपनी गतिविधियाँ संचालित करना अपेक्षाकृत सरल हो गया है। वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों में लिप्त आपराधिक गिरोह हवाई जहाज या समुद्री जहाजों का उपयोग करते हुए अपनी गतिविधियाँ विभिन्न देशों में जारी रखते हैं तथा विश्व के अनेक देशों के आपराधियों से उनकी साठ-गाँठ रहती है। गम्भीर समस्या से प्रायः सभी देश जूझ रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय अपराध एवं आपराधिकता पर नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से प्रत्येक राज्य ने स्वयं की अन्तर्राष्ट्रीय इकाइयाँ स्थापित की हैं जिन्हें इन्टरपोल (INTERPOL) कहा जाता है। इसका वास्तविक नाम ‘इन्टरनेशनल क्रिमिनल पुलिस आर्गनाइजेशन’ है, जिसका मुख्य कार्य अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों/अपराधियों के बारे में अन्य देशों की समानान्तर संस्था, अर्थात् INTERPOL से सम्पर्क बनाए रखना है। अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी या अपराधियों यथास्थिति, से कुप्रभावित देश, सम्बन्धित देश से तीन प्रकार के निवेदन करता है, अपराधी को ढूंढकर उसे पकड़ा जाए और उसे निवेदनकर्ता देश को सौंपा जाए। वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वापक (मादक) पदार्थों का अवैध व्यापार, हीरे-जवाहरात या सोने-चांदी के तस्करी, मुद्रा, पासपोर्ट, विदेशी विनिमय आदि में कपट, धोखाधड़ी, महिलाओं एवं बच्चों का अनैतिक व्यापार, विमान अपहरण आदि में हो रही निरन्तर वृद्धि के कारण INTERPOL का महत्व और अधिक बढ़ गया है। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। अतः इन्टरपोल अपराधियों का पता लगाकर उन्हें पकड़ने के अलावा उनके बारे में सभी देशों को सूचनाएँ भी भेजता है तथा उनके प्रत्यर्पण की व्यवस्था में सहायता करता है। इसका मूल उद्देश्य विभिन्न देशों की पुलिस संस्थाओं को अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों को रोकने हेतु उनसे निपटने में सहयोग करना है।
प्रश्न 12. (क) दण्ड न्यायालयों से आप क्या समझते हैं? भारत के दण्ड न्यायालयों का उल्लेख कीजिए।
What do you mean by Criminal Courts? Describe the Criminal Courts of India.
(ख) बाल (किशोर) अपचारिता का अर्थ समझाते हुए उसे परिभाषित कीजिए एवं इसके कारणों पर प्रकाश डालिए।
Define and explain Juvenile Delinquency. Also explain the causes of Juvenile Delinquency.
उत्तर (क)- दण्ड न्यायालय (Criminal Courts) – किसी भी देश की न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक प्रकार के न्यायालय कार्यरत रहते हैं जिनमें सिविल न्यायालय, राजस्व न्यायालय, दण्ड न्यायालय प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पारिवारिक न्यायालय (Family Courts), सैन्य न्यायालय (Military Courts), बाल न्यायालय (Juvenile Courts) तथा अनेक प्रकार के न्यायाधिकरण (Tribunals) भी न्यायिक कार्य करते हैं। भारत के प्रत्येक राज्य या दो या अधिक राज्यों के लिए एक उच्च न्यायालय होता है जो निचली अदालतों से अपीलों की सुनवाई करता है। उच्च न्यायालय को रिट जारी करने की मौलिक अधिकारिता प्राप्त है। उच्च न्यायालय से अपील उच्चतम न्यायालय (Supreme Courts) में हो सकती है जो भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। उच्चतम न्यायालय को भी मौलिक अधिकारों के हनन के मामलों में रिट (Writ) जारी करने की मौलिक अधिकारिता प्राप्त है।
आपराधिक न्याय प्रशासन का कार्य मुख्यतः दण्ड न्यायालयों द्वारा संचालित किया जाता है। वस्तुतः इन न्यायालयों को न्याय प्रशासन का दूसरा महत्वपूर्ण अभिकरण माना जाता है। पुलिस द्वारा अभियुक्त को न्यायालय में अभियोजन के लिए प्रस्तुत किये जाने पर दण्ड न्यायालय में उसका विचारण होता है और दोष-सिद्धि होने पर उसे दण्डित किया जाता है। यदि अभियुक्त की दोषसिद्धि नहीं होती, तो उसे न्यायालय द्वारा रिहा कर दिया जाता है। दण्ड न्यायालयों की श्रेणीबद्ध श्रृंखला में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय, सेशन न्यायालय तथा न्यायालय मजिस्ट्रेट प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी का समावेश है। उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को आपराधिक मामलों में केवल अपीलीय अधिकारिता ही प्राप्त है।
सभी दण्ड-न्यायालयों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे प्रचलित विधि के निर्धारित सिद्धान्तों के अनुसार न्याय-प्रदान करें तथा विधिक सीमाओं के अन्तर्गत व्यवस्था दें और विधि के नियमों का निर्वचन करें। परन्तु ज्ञातव्य है कि विधि के विस्तृत प्रावधान होते हुए भी अनेक बार न्यायालयों को अपने स्वविवेक के अनुसार निर्णय देना आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि अनेक मामलों में जहाँ एक न्यायाधीश किसी अपराध विशेष के प्रति गम्भीर रुख अपनाते हुए अभियुक्त को कड़ा दण्ड देता है, तो दूसरा उसी अपराध के प्रति विशेष गम्भीरता न अपना कर न्यूनतम दण्ड ही देना पर्याप्त समझता है। इस प्रकार किसी अपराध के लिए निर्धारित दण्ड की मात्रा के बारे में न्यायाधीशों के विचारों में भिन्नता होना स्वाभाविक है क्योंकि दण्ड निर्धारण में न्यायाधीश की वैयक्तिक धारणाओं, मान्यताओं, स्वभाव, पूर्वानुभव, पसन्द-नापसन्द आदि का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता है, यद्यपि उनके दाण्डिक विवेक की सीमाएँ उस अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम तथा न्यूनतम दण्ड के दायरे तक ही सीमित रहती हैं। इस सम्बन्ध में टेफ्ट (Taft) ने कहा है कि किसी मामले में विचारण करते समय न्यायाधीश अपराधी की सदोषता या निर्दोषिता के बारे में उपलब्ध तथ्यों एवं साक्ष्यों के आधार पर अपनी निश्चित वैयक्तिक धारणा बना लेता है तथा इसी मत को वह विधिक प्रावधानों की चौखट में बैठाते हुए विनिश्चय के रूप में अभिव्यक्त कर देता है। इसके अतिरिक्त लोकमत तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाएँ भी न्यायाधीशों के निर्णय को प्रभावित किये बिना नहीं रहती हैं। वर्तमान में भारत में लोकहित के मुकदमों (Public Interest litigation) उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये कुछ अभूतपूर्व निर्णय इसके उत्तम उदाहरण हैं।
आपराधिक न्याय प्रशासन में दण्ड न्यायालयों की भूमिका पुलिस तथा कारागारों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि न्यायाधीश अपने कार्य निष्पक्षता तथा सावधानीपूर्वक न करें तो लोगों का न्याय के प्रति विश्वास उठ जाएगा जो न्यायिक प्रक्रिया के लिए घातक सिद्ध होगा। निर्णय देते समय न्यायाधीश को इस बात का ध्यान देना जरूरी होता है कि उसके निर्णय का अभियुक्त का न्यायालय के प्रति आस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि यदि अपराधी होते हुए भी वह छूट जाता है या निर्दोष होते हुए भी उसकी दोष-सिद्धि हो जाती है, तो न्याय पर उसे उसका विश्वास उठ जाएगा। अभियुक्त के भावी पुनर्वास की सम्भावनाएँ बहुत कुछ उसके न्यायालयीय अनुभव पर निर्भर करती हैं।
विश्व के प्रायः सभी देशों ने आपराधिक न्याय प्रशासन के लिए श्रृंखलाबद्ध न्यायालयों का गठन किया है जिसमें निचले न्यायालय से वरिष्ठ न्यायालय तक की समुचित व्यवस्था रहती है ताकि अभियुक्त को सुनवाई का पूरा-पूरा अवसर मिल सके। न्याय प्रशासन के अभिकरण के रूप में दण्ड न्यायालयों की भूमिका को भली-भाँति समझने के लिए इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा भारत में कार्यरत दण्ड न्यायालयों की विवेचना करना उचित होगा।
भारत के दण्ड न्यायालय – धर्मशास्त्रों में पुरातन भारतीय दण्ड व्यवस्था का अधिक विस्तृत एवं विकसित चित्रण है जिसकी पुष्टि कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में की गई है।
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में (जो ईसापूर्व 310 के आस-पास लिखा गया था) तत्कालीन प्रचलित आपराधिक न्याय व्यवस्था, अपराधों के अन्वेषण, अपराधियों को दण्डित करने तथा अपराध नियन्त्रण आदि के विषय में सविस्तार वर्णन मिलता है। उस समय की दण्ड न्याय प्रशासन का प्रमुख शासक ही होता था लेकिन स्वतन्त्र दण्ड न्यायालय अभी अस्तित्व में नहीं आये थे।
भारत में मुगलों के शासनकाल में आपराधिक न्याय प्रशासन का सर्वोच्च पदाधिकारी ‘नवाब’ या ‘नाजिम’ कहलाता था जो महापराध के प्रकरण स्वयं निपटाता था। अन्य अपराधों के मामले दरोगा-अदालत-अल-अलिया (Darogah-Adalat-al-alia) तथा फौजदार द्वारा निपटाए जाते थे। फौजदार के न्यायालय को ‘फौजदारी अदालत’ कहते थे। इन पदाधिकारियों के अलावा एक अन्य पदाधिकारी ‘मोहत्तासिब’ भी था जो पुलिस अधिकारी के रूप में नशाखोरी, झूठे नापतौल के बाट रखना आदि के छुट-पुट मामले निपटाता था। ‘कोतवाल’ का कार्य अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाये रखना था।
मुस्लिम दण्ड विधि मुख्यतः ‘हिदाया’ और ‘फतवा’ पर आधारित थी। हिदाया में मुस्लिम दण्ड-विधि के सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख था जबकि ‘फतवा आलमगीरी’ में दाण्डिक न्यायालय के मार्गदर्शन हेतु पूर्व-निर्णयों (नजीरों) का संकलन था। यह दण्ड पद्धति लगभग अठारहवीं शती के अंत तक प्रचलित रही।
भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित होने के पश्चात् अंग्रेजों ने शनैः शनैः प्रचलित मुस्लिम दण्ड-व्यवस्था में परिवर्तन कर उसे अधिक तर्क एवं न्याय संगत बनाने का प्रयास किया। उन्होंने मुस्लिम दण्ड विधि के बर्बरतापूर्ण तथा पक्षपाती साक्ष्य नियमों में संशोधन कर उन्हें ब्रिटेन की न्याय प्रणाली पर आधारित करते हुए अधिक नमनशील बनाया। यही न्याय पद्धति वर्तमान में भारत में प्रचलित है यद्यपि इसमें थोड़े बहुत परिवर्तन किये गये हैं। भारत का वर्तमान आपराधिक न्याय प्रशासन भारतीय दण्ड संहिता, 1860 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 तथा साक्ष्य अधिनियम, 1872 द्वारा प्रशासित है।
भारत की वर्तमान आपराधिक न्याय पद्धति में निम्नलिखित दण्ड न्यायालय कार्यरत हैं-
1. उच्चतम न्यायालय (Supreme Court)- देश की न्याय प्रणाली में उच्चतम न्यायालय का सर्वोच्च स्थान है। आपराधिक मामलों में इसे अपीलीय अधिकारिता प्राप्त है। परन्तु इस अधिकारिता का प्रयोग उच्चतम न्यायालय बिरले मामलों में ही करता है। गत कुछ वर्षों में यह माँग की जा रही है कि ऐसे मामलों में जो दस वर्ष या अधिक की सजा से दण्डनीय हैं, उच्चतम न्यायालय को अपीलीय अधिकारिता होनी चाहिये। नागरिकों के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय को रिट अधिकारिता भी प्राप्त है।
वर्तमान समय में दण्ड-न्याय प्रशासन से सम्बन्धित प्राधिकारियों द्वारा दण्ड विधि के प्रावधानों का दुरुपयोग किये जाने पर अपकारित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति दिलाना प्रारम्भ कर दिया है। उदाहरणार्थ संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन में पुलिस अभिरक्षा में रखे व्यक्ति को पुलिस कर्मियों या अधिकारियों द्वारा यातनाएँ पहुँचाई जाने या किसी व्यक्ति के अवैध निरोध के लिए उच्चतम न्यायालय ने पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति दी जाना आदेशित किया।
2. उच्च न्यायालय (High Courts)- भारत के प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय या हाईकोर्ट स्थापित किया गया है। इस न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अर्हताएँ तथा शर्तें संविधान के अनुच्छेद 217 से 222 में उपबंधित हैं। उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के अधीन रिट आदेश जारी करने की प्रारम्भिक अधिकारिता प्राप्त है। यह न्यायालय राज्य का उच्च न्यायालय होने के नाते अपनी अधीनस्थ निचली अदालतें तथा प्राधिकरणों पर पर्यवेक्षण की शक्ति भी रखता है। आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालय को केवल अपीलीय अधिकारिता प्राप्त है। इस न्यायालय से अपील सुप्रीम कोर्ट में दायर की जा सकती है, लेकिन इसके लिए, इस न्यायालय की अनुमति या सुप्रीम कोर्ट की विशेष अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है।
3. सत्र न्यायालय (Court of Sessions) – यह प्रत्येक जिले का सर्वश्रेष्ठ न्यायालय होता है जिसमें एक सत्र न्यायाधीश तथा उसकी सहायतार्थ एक या अधिक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (Additional Sessions Judges) होते हैं। कहीं-कहीं न्यायालयों की आवश्यकतानुसार सहायक सत्र न्यायाधीशों (Assistant Sessions Judges) की नियुक्ति भी की जाती है। सत्र न्यायाधीश तथा अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विधि के उपबन्धों के अन्तर्गत कोई भी दण्ड दे सकते हैं। लेकिन मृत्यु दण्ड दिया जाने पर उसका अनुमोदन सम्बन्धित उच्च न्यायालय द्वारा किया जाना अनिवार्य है। सहायक सत्र न्यायाधीश मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अधिक का दण्ड नहीं दे सकते हैं।
सत्र न्यायालय को प्रारम्भिक एवं अपीलीय अधिकारिता, दोनों प्राप्त हैं। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए सत्र न्यायाधीशों तथा सहायक सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धित हाईकोर्ट द्वारा की जाती हैं।
4. न्यायिक दण्डाधिकारियों के न्यायालय (Courts of Judicial Magistrates)- प्रत्येक जिले में अनेक न्यायिक दण्डाधिकारियों के न्यायालय कार्यरत हैं। ये न्यायालय राज्य के परामर्श से सम्बन्धित उच्च न्यायालय द्वारा स्थापित किये जाते हैं। उच्च न्यायालय आवश्यकतानुसार किसी भी व्यवहार-न्यायाधीश (Civil Judge) को दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी की अधिकार-शक्ति प्रदान कर सकता है।
महानगरीय क्षेत्र (Metropolitan Area) को छोड़कर उच्च न्यायालय द्वारा प्रत्येक जिले के लिये एक प्रथम श्रेणी दण्डाधिकारी को मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी (Chief Judicial Magistrate) नियुक्त किया जा सकता है। उच्च न्यायालय अतिरिक्त चीफ जुडीशियल मजिस्ट्रेट भी नियुक्त कर सकता है। यह दण्डाधिकारी सात वर्ष की सजा दे सकता है। चीफ जुडीशियल मजिस्ट्रेट का कार्य अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों, पर प्रशासनिक नियन्त्रण रखना है तथा गम्भीर मामलों की सुनवाई वह स्वयं करता है। मजिस्ट्रेटों, द्वितीय श्रेणी के निर्णयों से अपील चीफ जुडीशियल मजिस्ट्रेट के न्यायालय में होती है।
5. फास्ट ट्रैक न्यायालय (Fast Track Courts) – न्यायालयों में लम्बित प्रकरणों के त्त्वरित निपटारे तथा इसमें लगने वाले विलम्ब के निवारण हेतु केन्द्र सरकार के समक्ष अनेक सुझाव रखे गये थे जिनमें 1 अप्रैल, 2001 तक सम्पूर्ण देश में 450 फास्ट ट्रैक कोर्ट्स की स्थापना का सुझाव भी था। इसका प्रारम्भ प्रत्येक जिले में 5 फास्ट ट्रैक न्यायालय स्थापित किये जाने का प्रस्ताव था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सेवा निवृत्त सत्र न्यायाधीशों या न्यायिक अधिकारियों तथा अधिवक्ताओं को दो वर्ष की अवधि के लिए तदर्थ नियुक्ति देकर उन्हें दीर्घकाल से लम्बित मुकदमों के निपटारे का कार्य सौंपा जाना था। यद्यपि इन न्यायालयों की स्थापना की वैधानिकता को आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाने के कारण इनके क्रियान्वयन पर रोक लगाई गई थी, लेकिन उच्च न्यायालय के इस स्थगन आदेश के विरुद्ध विशेष अनुमति से उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जाने पर उक्त स्थगन आदेश अपास्त कर दिया गया क्योंकि प्रायः सभी राज्यों में विचाराधीन कैदियों की संख्या अत्यधिक बढ़ रही थी जिनका शीघ्र विचारण किया जाना आवश्यक था।
फास्ट ट्रैक कोर्ट केवल उन्हीं मामलों को विचारण हेतु स्वीकार कर सकते हैं जो सत्र- न्यायालय की अधिकारिता के अन्तर्गत आते हैं। उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार प्रारम्भिक अवस्था में उन्हें पाँच वर्ष के लिए स्थापित किया गया था जिसकी अवधि अब बढ़ा दी गई है। न्यायालय ने ब्रिजमोहन बनाम भारत संघ, (2002) के वाद में दिए गए अपने निर्देशों में राज्यों को आदेशित किया था कि फास्ट ट्रैक न्यायालयों की सभी रिक्तियाँ तीन माह के अन्दर भरी जानी चाहिए।
6. कार्यपालिका दण्डाधिकारी (Executive Magistrates) – न्यायिक दण्डाधिकारियों के अलावा राज्य द्वारा प्रत्येक जिले के लिए कार्यपालिका मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति भी की जाती है जिसमें से एक दण्डाधिकारी को जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त किया जाता है तथा अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को छोड़कर शेष सभी कार्यपालिक दण्डाधिकारी जिला मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ कार्य करते हैं। इनकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है।
उत्तर (ख) – अपराधशास्त्रियों ने किशोर अपचारिता की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। सामान्यतः अपचारिता से आशय बाल एवं किशोर वयस्कों द्वारा किये गये ऐसे आचरणों से है जिन्हें समाज के लोग अच्छा नहीं मानते हैं तथा लोकहित की दृष्टि से जिनके लिए अपचारी की भर्त्सना, चेतावनी, दण्ड या कोई अन्य सुधारात्मक उपाय आवश्यक समझा जाता है। अतः अपचारिता का अर्थ अत्यन्त व्यापक है जिसके अन्तर्गत किशोरों द्वारा अन्य व्यक्तियों के प्रति तिरस्कार, घृणा, अशिष्ट या अभद्र व्यवहार तथा समाज के प्रति उदासीनता (Indifference towards society) आदि सम्मिलित हैं। किशोरों तथा बालकों द्वारा किये गये कुछ अन्य कृत्य जैसे भीख माँगना, आवारागर्दी करना, कुसंगति में रहना, अश्लीलता, देर रात तक अकारण इधर-उधर बाहर घूमना, उठाईगिरी या छोटी-मोटी चीजों की चोरी, नशा करना, जुआ खेलना आदि भी अपचारिता के अन्तर्गत आते हैं जो समाज के भ्रष्ट व्यक्ति प्रायः करते हुए देखे जाते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किशोर अवस्था, बालपन (शैशव) और पुरुषत्व या नारीत्व यथास्थिति के बीच की वह अल्हड़पन की आयु है जिसमें व्यक्ति किसी प्रकार का असामाजिक आचरण करता है, जिसे यदि समय पर न रोका गया तो उसके गम्भीर अपराधी बनने की सम्भावना रहती है।
अपचार तथा अपराध में अन्तर- ‘अपचारिता’ की उक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि यह आपराधिकता से भिन्न है। अपराध उस कृत्य को कहते हैं जो दण्डविधि के अन्तर्गत दण्डनीय हो जबकि अपचार केवल एक ऐसा कृत्य है जिसे समाज नहीं मानता लेकिन आवश्यक नहीं है कि उसके लिए कानून में दण्ड का प्रावधान हो। अतः यह कहा जा सकता है कि अपचारिता आपराधिकता की पूर्ववर्ती सीढ़ी है जिससे आगे चलकर अपचारी की ‘अपराधी’ में परिणति हो सकती है। उल्लेखनीय है कि अपचारिता एक ऐसी पदावधि (Term) है जो बाल या किशोर व्यक्तियों से जुड़ी हुई है अर्थात् यदि वही कृत्य किसी वयस्क व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो अथवा स्त्री, द्वारा किया जाता है तो समाज उसे अधिक गम्भीरता से नहीं लेता, परन्तु किशोरों द्वारा उसे किये जाने पर समाज अपना क्षोभ या अप्रसन्नता प्रकट करता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई वयस्क व्यक्ति बीड़ी या सिगरेट पीता है या देर रात तक घर से बाहर घूमता है तो सगाज के लोग उसे विशेष बुरा नहीं मानते लेकिन यदि ये ही कार्य किसी बालक या किशोर द्वारा किये जाएँ तो समाज उनके प्रति विशेष संवेदनशील रहता है और ऐसे बच्चों के प्रति नाराजगी प्रकट करता है। अतः यह स्पष्ट है कि अपचारिता के अन्तर्गत ऐसे अनेक कृत्यों का समावेश होता है जो आपराधिक स्वरूप के होते हैं और वयस्कों द्वारा किये जाने पर क्षम्य है।
वर्तमान समय में किशोर अपचारिता एक विश्वव्यापी समस्या हो गई है। किशोरों की बढ़ती हुई अपचारिता के मुख्य कारण अधोलिखित हैं-
(1) औद्योगीकरण (Industrialization);
(2) पारिवारिक विघटन (Family Disorganization);
(3) वैवाहिक सम्बन्धों में शिथिलता (Laxity in Marital Relation);
(4) फैशनपरस्ती (Fashion);
(5) जैविक एवं शारीरिक कारण (Biological and Physical Causes);
(6) दीन, हीन, निराश्रय, अभित्यक्त बच्चों का प्रशासन (Administration of Orphans);
(7) निर्धनता (Poverty);
(1) औद्योगीकरण (Industrialization)- भारत में औद्योगिक एवं आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप गाँवों एवं कस्बों का तीव्रगति से शहरीकरण होता जा रहा है जिसके कारण पारिवारिक विघटन, आवास झुग्गी-झोपड़ी एवं भीड़-भड़क्क की अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। शहरों का जीवन अत्यधिक मंहगा होने के कारण परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महिलाओं को भी घर से बाहर काम करने के लिए जाना पड़ता है। इस प्रकार जब घर की महिलाएं भी पुरुषों की भाँति घर से बाहर नौकरी या काम पर जाने लगती हैं तो ऐसे घर के बच्चों पर परिवार का नियन्त्रण ढीला पड़ जाता है और ये बच्चे अपचारिता के शिकार बन जाते हैं क्योंकि यह उनका सहज स्वभाव होता है कि वे बुरी संगति में शीघ्र ही आ जाते हैं।
(2) पारिवारिक विघटन (Family Disorganization) – औद्योगीकरण तथा शहरीकरण के कारण संयुक्त परिवारों का तेजी से विघटन हुआ है तथा उद्योग, नौकरी, धन्धे के निमित्त परिवार के सदस्य इधर-उधर बिखर गये हैं। बच्चों पर इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कार्य में व्यस्तता के कारण माँ-बाप बच्चों पर उचित ध्यान नहीं रख पाते हैं तथा बच्चे भी ऐसी स्थिति में अपने को उपेक्षित समझने लगते हैं तथा अपचारिता के चंगुल में फँस जाते हैं।
(3) वैवाहिक सम्बन्धों में शिथिलता (Laxity in Marital Relation)- वर्तमान समय में तलाक एवं वैवाहिक झगड़ों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है जिसके कारण पारिवारिक एकता (Family Solidarity) भंग सी हो गई है। महिलाओं में पुरुषों की तरह समानता की भावना प्रबल होने के कारण परिवार पर से कर्ता पुरुष का वर्चस्व प्रायः समाप्त हो जा रहा है। माता-पिता का अपने बच्चों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का उनके बच्चों की मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है इसके अतिरिक्त यदि पारिवारिक सम्बन्ध मधुर नहीं हैं तो मात-पिता के मध्य होने वाले विवाद एवं गाली-गलौज का दुष्प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है और ये बच्चे अपने को उपेक्षित समझने लगते हैं एवं अपचारिकता का रास्ता पकड़ लेते हैं।
(4) फैशनपरस्ती (Fashion)- आजकल युवाओं में फैशन के पीछे दौड़ने की होड़ लगी हुई है। भारतीय युवा वर्ग पर पाश्चात्य सभ्यता का इतना बुरा प्रभाव पड़ा है कि वे अपनी मूल भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। आज के युवाओं के खाने-पीने, उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने तथा बनने-सँवरने आदि का ढंग इतना अधिक बदल चुका है कि सांस्कृतिक टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है और बच्चों के लिए यह तय कर पाना कठिन है कि कौन-सा आचरण उचित है और कौन-सा अनुचित। चलचित्र, टी० वी०, रेडियो, डिस्को, कैबरे आदि ने भारतीय सभ्यता को बिल्कुल विकृत कर दिया है। इन कारणों से बच्चों के दिमाग का दूषित होना स्वाभाविक है जिसके फलस्वरूप अपचारिता में भी वृद्धि हुई है।
(5) जैविक एवं शारीरिक कारण (Biological and Physical Causes)- किशोरों में आपराधिक आचरण का एक अन्य कारण समय से पहले उनकी शारीरिक परिपक्वता या बुद्धि का मन्द गति से विकास भी हो सकता है। आजकल लड़कियों में कौमार्यावस्था (Puberty) का आगमन पहले से औसतन 3 या 4 वर्ष पूर्व ही हो जाता है। लगभग 12 या 13 वर्ष की आयु से ही बालिकाओं में कौमार्यागमन के जैविक लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। परिणामस्वरूप बिना सोचे-समझे क्षणिक सुख के लिए लैंगिकता का शिकार हो जाती हैं जिनके गम्भीर परिणामों की उन्हें कल्पना भी नहीं रहती है। इस स्थिति में उन्हें माता-पिता द्वारा या शिक्षण संस्थाओं में यदि उचित शिक्षा नहीं दी जाती है तो वे अपचारिता की शिकार हो जाती हैं।
(6) दीन, हीन, निराश्रय, अभित्यक्त बच्चों का प्रशासन (Administration of Orphans) – लावारिस तथा माता-पिता द्वारा उपेक्षित बच्चे प्रायः गन्दी बस्तियों में रहने लगते हैं जो असामाजिक तत्वों की संगति में आकर अपचारिता में पड़ जाते हैं। इन झुग्गी- झोपड़ियों में दरिद्रता के कारण वेश्या व्यवसाय, तस्करी, जुआखोरी, मदिरा तथा नशीले पदार्थों का व्यवसाय धड़ल्ले से चलता रहता है।
(7) निर्धनता (Poverty) – बाल अपचारिता की वृद्धि करने में निर्धनता का भी महत्वपूर्ण योगदान है। माता-पिता या परिवारजनों की निर्धनता के कारण बच्चे अपने पेट की भूख शान्त करने के लिए अवैध गतिविधियों की ओर आकृष्ट होते हैं और अपचारिता में पड़ जाते हैं। इसके अलावा अन्य कारणों में मीडिया, अशिक्षा, अज्ञान आदि भी हैं।