Law of Trust Long Answer

-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न :-

साम्या (Equity)

प्रश्न 1. साम्या के उद्भव और विकास के महत्वपूर्ण पहलुओं का उल्लेख कीजिए। Describe the important aspects of origin and development of Equity.

उत्तर– साम्या के उद्भव एवं विकास को इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। इसका उद्भव किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं है। इसका उद्भव एक सुनियोजित रीति से हुआ है।

     मेटलैण्ड नामक विद्वान् के अनुसार- “साम्या का उद्भव विधि की कठोरता को कम करने के लिए हुआ है। इसका विधि से कोई विरोध नहीं था, इसका उद्भव विधि को नष्ट करने के लिए नहीं, अपितु उसकी पूर्ति करने के लिए हुआ था।”

     इस प्रकार जब जब यह पाया गया कि किसी मामले में सामान्य विधि उपचार प्रदान करने में असफल रही है, साम्या ने उसमें हस्तक्षेप किया और पक्षकारों को उचित एवं पर्याप्त अनुतोष दिलवाया। विधि की पूर्ति करते हुए साम्या ने इस प्रकार अबोध गति से विकास को सीढ़ियाँ पार की और अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुँचा। साम्या ने इस उक्ति को चरितार्थं किया कि ” जीवन की तरह, विधि भी स्थिर नहीं है।”

       रोम में इसका उद्भव विधि की कठोरता को कम करने एवं उसे सरल बनाने के लिए हुआ। साम्या के अस्तित्व में आने से पहले रोम में सभी लौकिक शक्तियाँ सम्राट् के हाथों में केन्द्रित थीं तथा सभी प्रकार के मामलों में उसका निर्णय अन्तिम माना जाता था किन्तु रोमन साम्राज्य के विस्तार के साथ ही रोम में साम्या का उद्भव एवं विकास हुआ। रोम में विधि एवं साम्या का प्रशासन एक ही न्यायाधिकरण द्वारा किया जाता था। प्रेयटर ही इन दोनों अधिकार क्षेत्रों का एक साथ प्रयोग करता था।

     इंग्लैण्ड में साम्या के उद्भव एवं विकास का इतिहास लगभग उतना ही प्राचीन है जितना कि रोम का।

      एडवर्ड प्रथम के शासनकाल तक इंग्लैण्ड में एक ही विधि प्रचलित थी जिसे सामान्य विधि (Common Law) कहा जाता था। इसका प्रशासन तीन पृथक्-पृथक् न्यायालयों द्वारा किया जाता था-

(1) राज न्यायालय (Kings Bench)

(2) सार्वजनिक प्रतिकथन न्यायालय

(3) राज्य कोष न्यायालय।

       वास्तव में सामान्य विधि की कठोरता को कम करने हेतु प्रथम प्रयास सन् 1285 में किया गया क्योंकि इस वर्ष बेस्ट मिनिस्टर का द्वितीय परिनियम पारित किया गया। इसके पश्चात् उत्तरोत्तर प्रयास जारी रहा।

      चांसलर का भी इस संदर्भ में काफी योगदान था क्योंकि उसने वादों का विनिश्चय सद्विवेक एवं अन्तःकरण के आधार पर करना आरम्भ किया।

      इस सम्बन्ध में हैनबरी ने कहा- “मध्यकालीन युग में सद्विवेक एवं साम्या स्यामी (Siamese) जुड़वा बच्चों के समान थे जो बिना अलग किये ही एक-दूसरे से सन्तुष्ट थे।”,

     मेटलैण्ड के अनुसार- “चांसलर को अब सामान्य विधि के अधिकार क्षेत्र से वर्जित कर दिया गया था। वह ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं कर सकता था जो सामान्यतः सामान्य विधि के न्यायालयों द्वारा सुने जा सकते थे। इस प्रकार, अपकृत्य, भूमि एवं सम्पत्ति सम्बन्धी संविदाओं का विनिश्चय अव चांसलर नहीं कर सकता था।”

      इस प्रकार इंग्लैण्ड में मध्ययुग में जहाँ साम्या एक उच्च उत्कर्ष को प्राप्त हुआ वहाँ यह आलोचना का विषय भी बना रहा।

     सोलहवीं शताब्दी में साम्या के अधिकार क्षेत्र में वृद्धि का एक और सूत्रपात हुआ। अब साम्या न्यायालय अर्थात् चांसरी ने आकस्मिक घटना, कपट एवं विश्वासघात (Breach of Confidence) से सम्बन्धित मामलों का विनिश्चय करना आरम्भ कर दिया।

      इस शताब्दी में जिन नियमों का विकास हुआ वे ‘साम्या एवं शुद्ध अन्तःकरण’ के नियम कहलाए।

    17वीं शताब्दी का युग साम्या के विकास के सन्दर्भ में रूपान्तर का युग कहलाया और 18वीं शताब्दी तक साम्या अपने विकास की चरम सीमा तक पहुँच चुका था। इसी समय चांसरी ने साम्या के अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और इस शताब्दी के अन्त तक इसने एक नियत पद्धति का रूप धारण कर लिया।

भारत में साम्या का उद्भव एवं विकास

      भारतीय न्याय प्रशासन में साम्या की योजना कोई नवीन उपलब्धि नहीं है। इसका इतिहास भी उतना ही प्राचीन है, जितना कि इंग्लैण्ड का अत्यन्त प्राचीन भारतीय न्यायिक व्यवस्था में हमें इसके अंकुर देखने को मिलते हैं।

हिन्दू विधि में साम्या का उद्भव

     भारत में साम्या के उद्भव का इतिहास हिन्दूकाल से प्रारम्भ होता है, जबकि शास्त्रकार पुरातन विधियों को समय एवं परिस्थितियों के अनुकूल बनाने तथा उनमें विरोध उपस्थित होने पर साम्यिक व्यवस्था प्रदान करते थे। उस समय साम्या युक्ति के रूप में प्रचलित थी। जैसा कि बृहस्पति ने कहा है-

“केवल शास्त्रमाश्रित्य न कर्त्तव्यो हि निर्णयः।

युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥

     अर्थात् केवल धर्मशास्त्रों पर ही आश्रित होकर निर्णय नहीं दिया जाना चाहिए। युक्तिहीन विचार से धर्म की हानि होती है।

      नारद का भी यह मत है-

‘धर्मशास्त्रविरोधे तु युक्तियुक्तो विधिः स्मृतः । “

      अर्थात् किसी बात के सम्बन्ध में धर्मशास्त्रों में विरोध होने पर जो बात युक्तियुक्त हो, वही ठीक है।

      कौटिल्य ने भी कहा है—“यदि धर्म का मूल पाठ न्यायिक युक्ति के प्रतिकूल पाया। जाये तो धर्म का मूल पाठ निष्फल हो जाएगा और युक्ति की प्रमाणिकता अभिभावी होगी। ”

     याज्ञवल्क्य को भी यही धारणा थी कि जहाँ युक्ति तथा मूल पाठ में विरोध हो, स्वतः शास्त्रों में विरोध की अवस्था में युक्ति या साम्या को हो अधिमान प्राप्त होगा।

मुस्लिम विधि एवं साम्या

       मुस्लिम विधि में भी साम्या को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सुन्नी शाखा के हनफी सम्प्रदाय के संस्थापक अबू हनीफा ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि समय तथा परिस्थितियों के अनुसार विधि के नियमों को उदार व्याख्या द्वारा अपास्त किया जा सकता है। मुस्लिम विधि में इन सिद्धान्तों को “इस्तिहान ” अथवा “विधिक साम्या” कहा जाता है।

      स्वयं पैगम्बर साहब ने युक्ति एवं विवेक के रूप में साम्या की व्यवस्था की। एक बार पैग़म्बर साहब ने अपने मुअज्जम से पूछा कि तुम अपने विनिश्चय किस पर आधारित करोगे? मुअज्जम ने यह उत्तर दिया- “खुदा के ग्रंथ पर, अगर उससे मदद न मिली तो पैगम्बर के दृष्टान्त पर अगर उससे भी काम न चला तो अपनी ही बुद्धि से निर्णय करूंगा।” पैगम्बर ने हाथ उठाकर कहा-“यह ख़ुदा की तारीफ है जो अपने पैगम्बर के दूतों को राह दिखाती है।”

       हमीरा बीवी बनाम जुबैदा बीबी, (1916) 43 आई० ए० 294 के मामले में प्रिवी कौंसिल ने यह धारण किया कि “मुस्लिम विधि के प्रमुख ग्रंथों में काजी के कर्तव्यों (अदब) के अध्याय से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि मुस्लिम विधि इंग्लैण्ड के चांसरी न्यायालयों द्वारा मान्य साम्यिक नियमों एवं विचारों से अपरिचित नहीं है अपितु वास्तविक रूप से वादों के विनिश्चय में अधिकांशतः उनका पालन होता रहा है।

      भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्रथम बार अंग्रेजी साम्यिक सिद्धान्तों को लागू किया। उसके शासनकाल में विभिन्न परिनियमों द्वारा यह व्यवस्था दी गई है कि-“ऐसे वादों का विनिश्चय जिनके लिए विधि के अन्तर्गत कोई व्यवस्था उपलब्ध न हो, साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण (Equity, Justice & Good Conscience) के सिद्धान्तों के आधार पर किया जा सकता है

तभी से यह व्यवस्था निरन्तर चलती चली आ रही है।

     गुरुनाथ बनाम कमला बाई, 1951 ए० सी० आर० 1135 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारण किया कि अब यह सुस्थापित हो गया कि हिन्दू विधि के अधीन किसी नियम के अभाव में न्यायालय वादों का विनिश्चय साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों के आधार पर कर सकते हैं।

भारत में विभिन्न अधिनियमों में साम्या का समावेश करके उसे सांविधिक मान्यता (Statutory recognition) प्रदान की गई है।

       विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 (अब 1963), भारतीय न्यास अधिनियम, 1882, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872, सम्मति अन्तरण अधिनियम, 1882, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 एवं संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में साम्या के नियमों को शामिल किया गया है।

   विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 (वर्तमान अधिनियम, 1963) के अन्तर्गत संविदाओं का विनिर्दिष्ट अनुपालन, विलेखों का विलोपन एवं परिशोधन, प्रापक, व्यादेश सम्बन्धी प्रावधानों में साम्या के सिद्धान्तों का निरूपण किया गया है।

      वर्तमान में यह सुस्थापित है कि जहाँ कहीं न्यायालय को अपने विवेक का प्रयोग करने की अधिकारिता प्रदान की गई हो, वहाँ न्यायालय को इस अधिकार का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए कि उससे साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों की पूर्ति हो जाय। मात्र तकनीकी आधार पर किसी को उपचार से वंचित नहीं करना चाहिए।

     भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 पूर्णतः उन्हीं नियमों पर आधारित है जो अंग्रेजी न्यायालयों द्वारा ‘साम्या, न्याय एवं शुद्धे अन्तःकरण’ के नाम से प्रकाशित किये जाते थे।

      भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 64 एवं 65 में साम्या के सिद्धान्तों का समावेश किया गया है। धारा 64 एवं 65 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति शून्य या शून्यकरणीय संविदा के अन्तर्गत कोई लाभ प्राप्त करता है तो उसे ऐसे लाभ को वापस करना पड़ेगा या उस व्यक्ति को प्रतिकर देना पड़ेगा जिससे उसने यह लाभ प्राप्त किया है।

      यह साम्या के इस सूत्र पर आधारित है कि-“साम्या चाहने वाले को साम्या का पालन करना चाहिए” (He who seeks equity, must do equity)।

     सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 48, 51 एवं 53 (क) में साम्या के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। धारा 48 ‘पूर्वता’ के सम्बन्ध में, धारा 51 सद्भावी क्रेता द्वारा किये गये सुधारों के सम्बन्ध में एवं धारा 53 (क) आंशिक पालन के सम्बन्ध में प्रावधान करती है।

      भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 177 से 179 तक में साम्या के नियमों का समावेश किया गया है।

प्रश्न 2. साम्या के अर्थ को समझाइए। संक्षेप में इसकी प्रकृति एवं विषयवस्तु पर भी प्रकाश डालिए। क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि साम्या सम्पूर्ण नैसर्गिक न्याय को स्वीकार नहीं करती? Explain the meaning of Equity. Discuss the nature and subject matter of Equity. Do you agree with the statement that equity does not empress whole of natural justice ?

उत्तर- कानून एवं न्याय के प्रशासन (Administration of Justice) में निम्न दो तत्वों का विशेष महत्व है-

(क) तर्कः एवं (ख) विवेक ।

       तर्क एवं विवेक के आधार पर दी जाने वाली व्यवस्थायें प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त (Theory of Natural Justice) पर आधारित हैं। इसका न्याय प्रशासन में सदैव से महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वास्तव में साम्या विधि का वह स्रोत है जो विधि के विशिष्ट नियम के अभाव में प्रारम्भ होता है तथा कार्य करता है। वर्तमान न्याय व्यवस्था को हम ‘साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण’ (Equity, Justice & Good Conscience) के नाम से सम्बोधित करते हैं।

     साम्या की परिभाषा – साम्या शब्द इंग्लिश के ‘Equity’ का रूपान्तरण है। शब्द इक्विटी (Equity) लैटिन शब्द ‘Acquitas’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है समान या

      समतल बनाना। अतः इसके शाब्दिक अर्थानुसार-साम्या वह है जो किसी मनमानी बात को अथवा न्याय के प्रत्याख्यान को छीलकर एक समान कर देता है।

     साम्या की विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी हैं। सामान्यतः साम्या का अर्थ है-प्राकृतिक न्याय, समता, ईमानदारी एवं ऐसा व्यवहार करना जैसा कि हम दूसरे से अपने प्रति किये जाने की आशा करते हैं।

      इस प्रकार यह औचित्य एवं प्राकृतिक न्याय की धारणा में निहित है।

     अरस्तू के अनुसार, “साम्या, कानून में समानता के कारण उत्पन्न दोषों का सुधार है। मनुष्य की गलतियों को क्षमा करना ही साम्या है। विधि की ओर नहीं, विधायन की ओर शब्दों की ओर नहीं, अभिप्राय की ओर कार्य की ओर नहीं भावना की ओर; सम्पूर्ण की ओर न कि भाग की ओर अभिकर्ता के दीर्घकालीन चरित्र की ओर, न कि वर्तमान चरित्र की ओर अच्छी बातों का स्मरण करना, न कि बुरी बातों का; आघात की अपेक्षा शब्दों द्वारा तय करना पंच निर्णय को स्वीकार करना ही साम्या है, क्योंकि पंच अथवा मध्यस्थ वही करता है जो साम्या के अनुसार उचित होता है।”

      सर हेनरी मेन के अनुसार, “साम्या कतिपय नियमों का एक ऐसा समूह है, जो मूल व्यवहार विधि का सहवर्ती है, जो सुस्पष्ट सिद्धान्तों पर आधारित है और जो उन सिद्धान्तों में निहित श्रेष्ठतम पवित्रता के कारण संयोगवश व्यवहार विधि को निष्प्रभावी बनाने की क्षमता रखता है। “

     ब्लैकस्टोन के अनुसार, “साम्या समस्त विधियों की आत्मा तथा प्राण है। उसके द्वारा वास्तविक विधि को अर्थ प्राप्त होता है और प्राकृतिक विधि का निर्माण होता है। इस सम्बन्ध में साम्या न्याय का पर्याय है; क्योंकि वह नियमों का यथार्थ एवं सही निर्वचन है।”

    स्नैल के अनुसार, “साम्या की उसके लोकप्रिय भाव में, परिभाषा प्राकृतिक न्याय के एक भाग के रूप में की जा सकती है, जिसकी प्रकृति यद्यपि वैध रूप में प्रवर्तन योग्य है, फिर भी ऐतिहासिक कारणों से सामान्य विधि के न्यायालयों द्वारा उसका प्रवर्तन नहीं किया जाता था, जिसकी पूर्ति साम्या के न्यायालय करते थे।”

    स्टोरी के अनुसार, “साम्या विधिशास्त्र उचित रूप से उपचारात्मक न्याय का वह भाग है जिसका अनन्य रूप में प्रशासन साम्या के न्यायालय द्वारा किया जाता था तथा और जो उपचारात्मक न्याय के उस भाग से भिन्न था जिसका अनन्य रूप में प्रशासन सामान्य विधि के न्यायालय द्वारा किया जाता था।”

      उपर्युक्त विधिशास्त्रियों द्वारा साम्या की दी गयी परिभाषा से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह अपने सहज एवं स्वाभाविक अर्थ में युक्ति अथवा औचित्य के समान है और इसका उद्देश्य विधि को समाज की बदलती हुई परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप ढालकर उसको उसकी कठोरता से मुक्त करना है।

       साम्या की प्रकृति (Nature of Equity) – साम्या की जो उपरोक्त परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं, उनसे साम्या की प्रकृति का भली प्रकार स्पष्टीकरण होता है। साम्या की प्रकृति का अध्ययन हम निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत करेंगे-

(1) साम्या, शुद्ध अन्तःकरण एवं प्राकृतिक न्याय पर आधारित है;

(2) साम्या, न्यायालय के विवेक की विषयवस्तु है:

(3) साम्या, सामान्य विधि की पूर्ति करने वाला एक निकाय है;

(4) साम्या, विधि का अनुयायी है;

(5) साम्या की क्रिया व्यक्ति से सम्बन्ध रखती है;

(6) साम्या, समता में विश्वास रखता है।

(1) साम्या, शुद्ध अन्तःकरण एवं प्राकृतिक न्याय पर आधारित है

     साम्या की परिभाषा से यह भली प्रकार स्पष्ट है कि साम्या, अन्तःकरण की विषय-वस्तु है एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित है।

      इस प्रकार प्राकृतिक न्याय ‘ईमानदारी’ एवं ‘सच्चाई’ की आधार शिलायें हैं। अतः साम्या में कपट के लिए कोई स्थान नहीं है। कपटयुक्त संव्यवहार की साम्या रक्षा नहीं करता है। असर सत्यम बनाम स्टेट ऑफ बिहार, ए० आई० आर० (2004) पटना 83 के मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि कपट के आधार पर किसी शैक्षणिक संस्था में प्रवेश पाने वाला व्यक्ति साम्या के आधार पर किसी अनुतोष की माँग नहीं कर सकता।

प्राकृतिक न्याय के दो और सिद्धान्त साम्या के अनुयायी हैं-

(1) कोई भी व्यक्ति एक ही मामले का विचारण न्यायाधीश एवं अपीलीय न्यायाधीश के रूप में नहीं कर सकता है अर्थात् किसी निर्णय के विरुद्ध अपील की सुनवाई उस न्यायाधीश द्वारा नहीं की जानी चाहिए जिसके निर्णय के विरुद्ध अपील की गई है।

(2) यदि किसी कार्य अथवा आदेश से किसी व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने वाला हो तो ऐसा कार्य करने का आदेश करने से पूर्व उस व्यक्ति को सूचना दिया जाकर उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना जरूरी है।

        स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम बी० के वर्मन, (1970) 3 एस० सी० सी० 612 के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि- “सुनवाई का अवसर एकमात्र औपचारिक ही नहीं होना चाहिए अपितु इसे युक्तियुक्त होना चाहिए।”

      सीनियर डिविजनल कॉमर्शियल मैनेजर साउथ ईस्टर्न रेलवे, चक्रधरपुर, झारखण्ड बनाम सुनीता सिंह, ए० आई० आर० (2015) झारखण्ड 49 के बाद में पार्किंग स्लोब का ठेका पिटिशनर को दिया गया था। उस ठेके के अन्तर्गत काम नहीं होने पर पुनः निविदा जारी की गई जिसमें पिटिशनर ने भी भाग लिया। पिटिशनर द्वारा पूर्व ठेके की निविदा के अन्तर्गत अग्रिम राशि जमा कराई गई थी। न्यायालय ने यह विनिर्धारित किया कि वह अग्रिम राशि कुछ खर्चों को काटकर वापस पिटिशनर को लौटाई जानी चाहिए। उसे जब्त करना न केवल कठोर निर्णय होगा, अपितु वह साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों के विपरीत भी होगा।

      इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साम्या शुद्ध अन्तःकरण को प्रेरित करने वाले सिद्धान्तों का एक समूह है।

(2) साम्या, न्यायालय के विवेक की विषय वस्तु है।

      इंग्लैण्ड में राजा को सदैव न्याय का एक स्रोत माना गया है। स्वयं चांसलर जब न्यायिक अनुतोष प्रदान करता था तो वह राजा के ही परमाधिकारों का प्रयोग करता था ताकि ऐसे मामलों में अनुतोष प्रदान किया जा सके जिसके लिए सामान्य विधि के अन्तर्गत कोई उपचार उपलब्ध नहीं थे। यही कारण है कि साम्यिक अनुतोष न्यायालय के विवेक के विषय रहे हैं। यही स्थिति आज भी है।

(3) साम्या, सामान्य विधि की पूर्ति करने वाला एक निकाय है

     स्नेल के अनुसार, साम्या सामान्य विधि की तीन प्रकार से पूर्ति करता है—

(i) ऐसे मामलों में अनुतोष प्रदान करके, जिनमें सामान्य विधि द्वारा उपचार उपलब्ध नहीं होता है।

(ii) ऐसे मामलों में पर्याप्त अनुतोष प्रदान करके जिनमें सामान्य विधि द्वारा प्रदत्त अनुतोष अपर्याप्त होता है।

(ii) सामान्य विधि की कठोर एवं दोषपूर्ण कार्य प्रणाली को सरल बनाकर।

     इस प्रकार साम्या, सामान्य विधि की कठोरता को कम करके उसे समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप बनाने का प्रयास करता है।

(4) साम्या, सामान्य विधि की अनुगामी है.

       साम्या का उद्भव ही सामान्य विधि की कठोरता को कम करने के लिए हुआ है। अतः साम्या ने सदैव ही विधि के नियमों का अनुसरण किया है। साम्या के न्यायालय ने सामान्य विधि के न्यायालयों पर भी कभी अनुभूत होने का दावा नहीं किया।

      मेटलैण्ड के अनुसार, “मूलतः साम्या, सामान्य विधि के अनुपूरक के रूप में कार्य करता था प्रतिद्वन्द्वी के रूप में नहीं साम्या का प्रादुर्भाव विधि को नष्ट करने के लिए नहीं अपितु इसकी क्षतिपूर्ति के लिए हुआ था। विधि की छोटी सी छोटी बात पर भी अमल किया जाना चाहिए। साम्या केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप करता था, जहाँ सामान्य विधि उपचार प्रदान करने में असफल रहती थी।”

     इस प्रकार सामान्य विधि के नियमों का अक्षरशः पालन किया जाता रहा है। यहाँ तक कि कभी-कभी साक्ष्य भी सामान्य विधि के लिए बद्ध रहा है।

     स्टोरी के अनुसार, “जहाँ कोई नियम चाहे वह सामान्य विधि का हो या संविदा विधि का यदि वह प्रत्यक्ष है और किसी विषय पर मामले की समस्त परिस्थितियों को शासित करता है, तो साम्या के न्यायालय भी उस नियम को मानने के लिए उतने ही बद्ध हैं जितने कि सामान्य विधि के न्यायालय।”

(5) साम्या की क्रिया व्यक्ति से सम्बन्ध रखती है

     साम्या की क्रिया व्यक्ति से सम्बद्ध रखती है, यह इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है, इसके अन्तर्गत साम्या अपने आदेशों का प्रवर्तन आरोपित व्यक्ति के अन्तःकरण पर प्रभाव उत्पन्न करके करता है, अर्थात् दूसरे शब्दों में साम्या का न्यायालय अपनी आज्ञप्ति के निष्पादन या पूर्ति के लिए प्रतिवादी के शरीर पर आधारित रहता है, साम्या प्रतिवादी की सम्पत्ति में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता है वरन् अपने आदेशों का उल्लंघन होने पर प्रतिवादी को कारावास या अर्थदण्ड से दण्डित करता है।

     साम्या ऐसी अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित संविदाओं के विशिष्ट अनुपालन का आदेश भी देता है जो विदेश में अवस्थित होती है; बशर्ते प्रतिवादी ऐसे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत निवास करता हो।

(6) साम्या, समता में विश्वास रखता है

साम्या समता का अनुगामी है। साम्या न तो भेदभाव करता है और न चाहता है। अतः अनुच्छेद 14 का उल्लंघन साम्या के सिद्धान्तों का उल्लंघन है। सुधीर गोयल बनाम म्युनिसिपल कारपोरेशन, दिल्ली, ए० आई० आर० (2005) दिल्ली 7 के मामले में विभेद को साम्या के सिद्धान्तों के प्रतिकूल निर्णीत किया गया है। इस प्रकार साम्या का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक तथा महत्वपूर्ण है। साम्या की विषय-वस्तु साम्या का अन्तःकरण से सम्बन्ध होने के कारण उसका अधिकार क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। हैनवरी ने साम्या की विषय-वस्तु में निम्न विषयों को सम्मिलित किया है-

(1) मृत व्यक्तियों की सम्पदा का प्रशासन;

(2) साझेदारी का विघटन एवं उसका लेखा;

(3) बन्धकों का मोचन अथवा बन्धक द्वारा प्रतिभूत धन के भुगतान का दावा अथवा बन्धक सम्पत्ति के आधिपत्य के परिदान के लिए दावा;

(4) भूमि पर के अंशों का अन्य भारों पर की वसूली

(5) धारणाधिकार या भार के अधीन सम्पत्ति का विक्रय और उससे प्राप्त आय का विवरण:

(6) खैराती या वैयक्तिक न्यासों का निष्पादन;

(7) विलेखों या अन्य लिखतों का अनुसमर्थन, अपास्त किया जाना (set aside) अथवा विलोपन (cancellation) किया जाना;

(8) अचल सम्पत्ति के क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच संविदाओं का विशिष्ट अनुपालन;

(9) अचल सम्पत्तियों का विभाजन;

(10) शिशुओं एवं उनकी सम्पदाओं की देखरेख।

       साम्या का नैसर्गिक न्याय से सम्बन्ध– साम्या अन्तःकरण की विषयवस्तु है एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित है। इस प्रकार प्राकृतिक न्याय, ईमानदारी एवं सच्चाई ही साम्या की आधारशिलायें हैं। साम्या प्रत्येक मनुष्य से यह आशा करती है कि वह अपने द्वारा सम्पादित संव्यवहारों में शुद्ध अन्तःकरण का प्रयोग करे। इसकी यह मूल धारणा है कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा कि वह दूसरे से अपने प्रति किये जाने की अपेक्षा या आशा करता है।

      कपटयुक्त संव्यवहार की साम्या रक्षा नहीं करता है। असर सत्यम बनाम स्टेट ऑफ बिहार, ए० आई० आर० (2004) पटना के मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि कपट के आधार पर किसी शैक्षणिक संस्था में प्रवेश पाने वाला व्यक्ति साम्या के आधार पर किसी अनुतोष की माँग नहीं कर सकता।

      प्राकृतिक न्याय के दो महत्वपूर्ण सिद्धान्त साम्या के अनुगामी है-

(1) कोई भी न्यायाधीश एक ही मामले का विचारण न्यायाधीश एवं अपीलीय न्यायाधीश के रूप में सुनवाई नहीं कर सकता है अर्थात् किसी निर्णय के विरुद्ध अपील की सुनवाई उस न्यायाधीश द्वारा नहीं की जानी चाहिए जिसके निर्णय के विरुद्ध अपील की गई है।

(2) यदि किसी कार्य अथवा आदेश से किसी व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने वाला हो तो ऐसा कार्य करने अथवा आदेश देने से पूर्व उस व्यक्ति को सूचना दी जाकर उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना अपेक्षित है।

       नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों की यह अपेक्षा है कि किसी व्यक्ति के मामले में कोई आदेश अथवा निर्णय देने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर अवश्य प्रदान किया जाना चाहिए। परन्तु साम्या सम्पूर्ण रूप से नैसर्गिक न्याय को स्वीकार नहीं करती जहाँ पर युक्तियुक्त समय दिये जाने के बावजूद पक्षकार अपने अधिकार का उपयोग नहीं करता अर्थात् सुनवाई का अवसर दिये जाने के बावजूद वह समय से उपस्थित नहीं होता या जानबूझकर विलम्ब करता है तो उसे अवसर प्रदान किये बिना भी निर्णय सुनाया जा सकता है। साम्या बहुत हद तक विधि का भी अनुसरण करती है। सामान्य विधि तथा साम्या दोनों का एक ही उद्देश्य है, ऐसा कार्य करना जो उचित हो। अधिकांश मामलों में साम्या विधि का अनुसरण करती है।

प्रश्न 3. साम्या के अधिकार क्षेत्र का वर्णन कीजिए।Explain the jurisdiction of Equity.

अथवा (OR)

चांसरी न्यायालय द्वारा कितने प्रकार के अधिकार क्षेत्रों का उपयोग  किया जाता था? What kinds of jurisdictions were exercised by the Court of Chancery?

उत्तर— “मूलतः साम्या सामान्य विधि के अनुपूरक के रूप में कार्य करता था प्रतिद्वन्द्वी के रूप में नहीं। साम्या का प्रादुर्भाव विधि को नष्ट करने के लिए नहीं अपितु इसकी पूर्ति के लिए हुआ था। विधि की छोटी से छोटी बात का भी पालन किया जाना आवश्यक था। साम्या केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप करता था, जहाँ सामान्य विधि उपचार करने में असफल रहती थी।” – मेटलैण्ड

      साम्या ने सदैव ही सामान्य विधि की कमियों को दूर करने एवं उसकी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली में सुधार करने का प्रयास किया है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ऐसे अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हो गया, जिनके अन्तर्गत साम्या उपचार प्रदान करता था और इन्हीं सिद्धान्तों ने साम्या के विभिन्न अधिकार क्षेत्रों के वर्गीकरण को जन्म दिया-

(1) अनन्य अधिकार क्षेत्र (Exculsive Jurisdiction)

(2) समवर्ती अधिकार क्षेत्र (Concurrent Jurisdiction)

(3) सहायक अधिकार क्षेत्र (Auxiliary Jurisdiction)

(1) अनन्य अधिकार क्षेत्र (Exculsive Jurisdiction) साम्या के विभिन्न अधिकार क्षेत्रों में उनके अनन्य अधिकार क्षेत्र का महत्वपूर्ण स्थान है।

      साम्या ऐसे मामले में कभी हस्तक्षेप नहीं करता था जिसमें सामान्य विधि के अन्तर्गत पर्याप्त उपचार उपलब्ध था। लेकिन ऐसे मामलों में जिनमें सामान्य विधि किसी प्रकार का उपचार नहीं प्रदान करती थी, जबकि अन्तःकरण के अनुसार उपचार प्रदान किया जाना आवश्यक था, तो साम्या उपचार की व्यवस्था करता था। यही साम्या का अनन्य अधिकार क्षेत्र है ।

     स्ट्राइन के अनुसार, “ऐसे मामले, जिनमें सामान्य विधि कोई अधिकार नहीं प्रदान करती थी, जबकि अन्तःकरण के अनुसार कोई अधिकार प्रदान किया जाना आवश्यक था साम्या के अनन्य अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे।

      इस प्रकार ऐसे अनेक मामलों में जिनमें वादी द्वारा चाही गई माँग ऐसी होती थी जो अनन्य रूप से साम्यिक सिद्धान्तों पर आधारित होती थी और चांसरी न्यायालय के अतिरिक्त अन्य किसी न्यायालय में प्रतिवादी के विरुद्ध कोई उपचार उपलब्ध नहीं था तो साम्या के न्यायालय ऐसे मामलों में अपने अनन्य अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए साम्यिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत उपचार प्रदान करते थे।

       ऐसे मामले का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण न्यास का है। सामान्य विधि न्यास को मान्यता नहीं देती थी और न्यासधारी को ऐसी स्थिति का जो न्यास के रूप में उसके कब्जे में होती थी, स्वामी मान लेती थी। लेकिन साम्या न्यासधारी को ऐसी सम्पत्ति के स्वामी के रूप में कभी मान्यता नहीं देता था और वह ‘हितग्राही’ को जिसके पक्ष में न्यास निर्मित किया जाता था, उस सम्पत्ति का स्वामी मानता था।

      मेटलैण्ड के अनुसार, “साम्या की सभी सिद्धान्तों में न्यास का आविष्कार तथा विकास अत्यन्त व्यापक एवं महत्वपूर्ण है।”

      न्यास के अतिरिक्त साम्या के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत अन्य अनेक प्रकार के मामले आते थे जैसे-

(1) विवाहिता स्त्रियों के ऐसी सम्पत्ति में अधिकार जो उनके पृथक उपयोग के लिए की जाती थी;

(2) बन्धककर्ता के बन्धक मोचन सम्बन्धी साम्यिक अधिकार,

(3) शास्तियाँ, जन्ती एवं परिसम्पत्तियों का प्रशासन आदि।

      इन अधिकारों का साम्या के अनन्य अधिकार क्षेत्र में आने का एकमात्र कारण सामान्य विधि द्वारा इन्हें मान्यता प्रदान नहीं करना था।

(2) समवर्ती अधिकार क्षेत्र (Concurrent Jurisdiction)- साम्या का दूसरा अधिकार क्षेत्र समवर्ती अधिकार क्षेत्र है। सामान्यत: समवर्ती अधिकार क्षेत्र में वे सभी मामले आते हैं, जिनमें उपचार प्रदान करने का अधिकार सामान्य विधि के न्यायालय तथा साम्या के न्यायालय दोनों को होता था। ऐसे मामलों में साम्या के न्यायालय द्वारा प्रदत्त उपचार किसी भी अवस्था में सामान्य विधि के न्यायालय द्वारा प्रदत्त उपचार से श्रेष्ठ नहीं होता है।

      लेकिन वस्तुतः साम्या का समवर्ती अधिकार क्षेत्र सामान्य विधि के अधिकार क्षेत्र से कुछ विस्तृत था।

       स्ट्राहन के अनुसार, “ऐसे मामले में जिनमें सामान्य विधि अन्तःकरण के अनुसार अधिकार प्रदान करती थी, लेकिन उन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उसके द्वारा प्रदत्त उपचार न्याय की दृष्टि से पर्याप्त नहीं होते थे, साम्या के समवर्ती अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे।

     समवर्ती अधिकार क्षेत्र का प्रयोग निम्न दो मामलों में किया जाता था-

(1) ऐसे मामलों में जिनमें सामान्य विधि अधिकार तो प्रदान करती थी किन्तु उन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए प्रदान किया जाने वाला उपचार अपर्याप्त होता था। साम्या के न्यायालय ऐसी अवस्था में पर्याप्त उपचार प्रदान करते थे। उदाहरण के लिए संविदा भंग के मामलों में सामान्य विधि के अन्तर्गत केवल क्षतिपूर्ति का अनुतोष प्रदान किया जाता था जो कि सामान्यतः अपर्याप्त समझा जाता था। लेकिन साम्या ऐसे मामलों में विनिर्दिष्ट अनुपालन का अनुतोष प्रदान करता था, जो पर्याप्त माना जाता था। इनमें व्यादेश, विलेखों का परिशोधन आदि भी शामिल था।

(2) दूसरे ऐसे मामलों में जिनमें सामान्य विधि तथा साम्या दोनों होते थे, लेकिन साम्या द्वारा प्रदान किया जाने वाला उपचार एक प्रत्यक्ष विषय होता था जबकि सामान्य विधि के अन्तर्गत वह परोक्ष रूप से प्रदान किया जाता था। ऐसी अवस्था में वादी दोनों न्यायालयों द्वारा प्रदान किये गये उपचारों में से किसी एक का चुनाव कर सकता था।

     लेकिन साम्या के न्यायालय सदैव ही ऐसा अनुतोष नहीं प्रदान करते थे। उदाहरणार्थ जहाँ भूमि के क्रय-विक्रय की संविदा के भंग के लिए संस्थित वाद में सामान्य विधि के न्यायालय द्वारा पर्याप्त क्षतिपूर्ति या अनुतोष प्रदान किया जा चुका हो वहाँ साम्या के न्यायालय उसके विनिर्दिष्ट अनुपालन का अनुतोष नहीं प्रदान करते थे। साम्या के न्यायालय अतिरिक्त या वैकल्पिक अनुतोष उसी अवस्था में प्रदान करते थे जबकि सामान्य विधि के न्यायालय द्वारा प्रदत्त उपचार या तो पर्याप्त नहीं होते थे या फिर उन्हें प्राप्त करना असम्भव होता था। इसका कारण यह है कि ऐसे मामलों में सामान्य विधि एवं साम्या के न्यायालय दोनों साथ- साथ हस्तक्षेप कर सकते थे।

       इस सम्बन्ध में कोल बनाम होम, 1904 ए० सी० 179 का वाद प्रमुख है। प्रस्तुत वाद में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध उसके द्वारा प्रकाश में अवरोध पैदा किये जाने पर एक वाद संस्थित किया। प्रकाश का अधिकार एक विधिक अधिकार है। लेकिन सामान्यतः उसका प्रवर्तन साम्या के उपचार द्वारा कराया जाता है। अतः यहाँ प्रतिवादी को वादी के प्रकाश में अवरोध पैदा करने से रोकने के लिए एक व्यादेश प्रदान किया गया और यह कहा गया कि साम्या के अन्तर्गत प्रकाश के अधिकार में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप या अवरोध को व्यादेश द्वारा रोका जा सकता है।

(3) सहायक अधिकार क्षेत्र (Auxiliary Jurisdiction)

       साम्या का तीसरा अधिकार सहायक अधिकार क्षेत्र है। इस अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत साम्या सामान्य विधि के न्यायालय की सहायता करता था, ताकि वह यथेष्ट रूप से विधिक अनुतोष प्राप्त कर सके। सामान्यतया ऐसी सहायता विधिक प्रक्रिया के दोषों को दूर करने में की जाती थी।

     स्ट्राहन के अनुसार, “ऐसे मामले, जिनमें सामान्य विधि अन्तःकरण के अनुसार अपेक्षित अधिकार तथा न्याय की दृष्टि से पर्याप्त उपचार प्रदान करती है लेकिन उसकी विधिक प्रक्रिया ऐसी दोषपूर्ण हो कि साम्या की सहायता के बिना उन उपचारों को प्रदान नहीं किया जा सके, साम्या के सहायक अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।”

      इस प्रकार इस अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले मामलों में अधिकार एवं उपचार दोनों ही सामान्य विधि के होते थे तथा साम्या अपने अनन्य एवं समवर्ती अधिकार क्षेत्र की भाँति कोई अतिरिक्त या वैकल्पिक उपचार नहीं प्रदान करता था। वह सिर्फ ऐसे कार्य द्वारा सामान्य विधि के न्यायालय की सहायता करता था जिससे यह उचित एवं पर्याप्त अनुतोष प्रदान कर सके। उदाहरण के लिए संविदा भंग के मामलों में अधिकार एवं उपचार, दोनों सामान्य विधि के न्यायालयों द्वारा प्रदान किये जाते थे लेकिन संविदा भंग को सिद्ध करने के लिए सामान्य विधि में कोई साधन नहीं थे। अतः ऐसी अवस्था में साम्या ‘दस्तावेजों के प्रकटीकरण’ (Discovery of documents) का आदेश देकर सामान्य विधि की सहायता करता था।

      ऐसे अधिकार क्षेत्र के प्रयोग के लिए यह आवश्यक था कि सामान्य विधि के अन्तर्गत कोई कार्यवाही आरम्भ हो चुकी हो। बिना विधिक कार्यवाही के प्रारम्भ हुआ साम्या अपने सहायक अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं कर सकता था।

    एशबर्नर ने साम्या के सहायक अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत दो प्रकार के वादों को शामिल किया है-

(1) ऐसे मामलों में जिनमें न्यायालय के निर्णय का प्रभाव वाद की सम्पत्ति पर पड़ता हो या पड़ने की सम्भावना हो, साम्या दो उद्देश्यों से अपने सहायक अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत हस्तक्षेप करता है-

(क) वाद के बाहुल्य को रोकने के लिए; या

(ख) अपूरणीय क्षति को रोकने के लिए।

(2) दूसरे मामलों में साम्या के न्यायालय कार्यवाही के मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर करने के लिए हस्तक्षेप करते थे, चाहे ऐसी कार्यवाही सामान्य विधि के न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की हो या अपने ही अधिकार क्षेत्र की हो। दस्तावेजों का प्रकटीकरण मौखिक साक्ष्य का शाश्वतीकरण एवं भविष्य के लिए साक्षियों की परीक्षा आदि इस अधिकार क्षेत्र के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

      वास्तव में 18वीं शताब्दी एवं 19वीं शताब्दी साम्या के सहायक अधिकार क्षेत्र के विकास का काल था।

    18वीं शताब्दी में साम्या के न्यायालय निम्नलिखित मामलों में पक्षकारों के अधिकार का निर्णय होने के पूर्व ही विधिक अधिकारों के उल्लंघन को रोक देते थे-

(i) क्षति

(ii) बाधा;

(iii) विशिष्ट अधिकारों का उल्लंघन

(iv) मुद्रणाधिकार का उल्लंघन

(v) नकारात्मक अनुबन्धों का भंग।

        उपरोक्त मामलों में सामान्य विधि के न्यायालय द्वारा विधिक अधिकारों का निर्णय करने के पूर्व ही, साम्या का न्यायालय आदेश द्वारा अधिकारों के उल्लंघन को रोक देता था।

      19वीं शताब्दी में साम्या के अधिकार क्षेत्र का और अधिक विकास हुआ। जैसे-

(i) अधिकांश मामलों में साम्या का न्यायालय पक्षकारों के विधिक अधिकारों का सारतः निर्णय कर देता था।

(ii) साम्या के न्यायालय ने उन विधिक अधिकारों की श्रेणी में विस्तार कर दिया जिनके उल्लंघन को वह रोका करता था।

(iii) साम्या के न्यायालय ऐसे मामलों में भी हस्तक्षेप कर देते थे, जिनमें अन्तरवर्ती परिसीमाओं के कारण उत्तराधिकारी स्वीय विधि के अन्तर्गत वाद संस्थित नहीं कर सकते थे।

प्रश्न 4. विधि और साम्या का सम्मिश्रण क्या है? क्या जूडीकेचर एक्ट, 1873 तथा 1875 उनका सम्मिश्रण करने में सफल हुआ है? साम्या का सामान्य विधि से विरोध का उल्लेख करें तथा साम्या एवं सामान्य विधि में अन्तर कीजिए। What is the fusion of Law and Equity? Has the Judicature Act, 1873-75 succeeded in fusing them? Explain the inter- ference of Equity with Common Law and distinguish between the Equity and Common Law.

‘अथवा (OR)

“दो नदियाँ मिल गयीं और अब एक ही धारा में चल रही हैं किन्तु उनका पानी नहीं मिलता।” व्याख्या कीजिए। “The two rivers have met now streams run in the same channel but their water do not mix.” Explain.

उत्तर – विधि और साम्या का सम्मिश्रण – साम्या जिसका उद्भव सामान्य विधि की कठोरता एवं कमियों को दूर करने के लिए हुआ। सामान्य विधि ऐसी विधि होती है जो समस्त देश के लिए समान है। यह इंग्लैण्ड की उस विधि का एक भाग मानी जाती है जिसका प्रशासन प्राचीन विधि के न्यायालयों द्वारा किया जाता था। मूलतः सामान्य विधि देश की रूढ़ियों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं व्यवहार के नियमों पर आधारित थी। मुख्य रूप से इसका विकास नार्मन विजय के पश्चात् उस समय हुआ जबकि केन्द्रीय शासन शक्तिशाली था और राजा के परमाधिकारों का खुलकर प्रयोग किया जाता था।

     सामान्य विधि से भिन्न साम्या नैसर्गिक न्यास के सिद्धान्तों पर आधारित था, जिसका प्रशासन चान्सरी न्यायालय द्वारा किया जाता था।

       परन्तु मेटलैण्ड साम्या और सामान्य विधि के सम्बन्धों पर जोर देते हुए कहते हैं कि “हमें यह मानना चाहिए कि साम्या एक पूरक विधि है, एक प्रकार का परिशिष्ट है जो संहिता में जोड़ा गया है, एक शब्दकोश है जो संहिता के आस-पास लिखा गया है और न्यायालय इनका प्रयोग विशेषता उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करे जिनके लिए इनकी परिकल्पना की गई थी।”

      मेटलैण्ड का परम सिद्धान्त यह है कि साम्या विधि के विपरीत नहीं है। वे ब्लैकस्टोन के कथन को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि “प्रत्येक परिभाषा अथवा दृष्टान्त जो विधि और साम्या को एक-दूसरे के विपरीत रखकर दोनों अधिकार क्षेत्र के बीच सीमा निर्धारित करते हैं, वह या तो पूर्णतया गलत या कुछ सीमा तक गलत होंगे।”

     ‘हमें सामान्य विधि और साम्या को दो विरोधी प्रणालियाँ नहीं समझना चाहिए। साम्या आत्मनिर्भर नहीं थी। प्रत्येक कदम पर साम्या सामान्य विधि के अस्तित्व की पूर्व धारणा करती थी।”

    होहफील्ड (Hohfield) के अनुसार ” यद्यपि साम्या नियमों के अधिकांश भाग और विधि-नियमों में सामंजस्य था, परन्तु दूसरी ओर अधिकांश साम्या नियम, विशेषतया ये जो अनन्य और सहाय्यी अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे, विधि-नियमों के विपरीत थे, जो विधि-नियमों को कुछ सीमा तक निरस्त अथवा नकारात्मक बना देते थे।

    डॉक्टर हैन्बरी कहते हैं, “सचमुच मेटलैण्ड और होहफील्ड में अन्तर केवल अनुभूति अथवा अभिव्यक्ति का है।” वे स्वयं यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि साम्या और विधि का सम्बन्ध दोनों दृष्टिकोण के बीच समझौते में मिलता है।

      जूडीकेचर एक्ट (न्यायतन्त्र अधिनियम) 1873-75 के पारित होने से पूर्व तक आंग्ल न्याय व्यवस्था दो भागों में विभक्त थी। इस प्रकार पूर्व तक परस्पर विरोधी विधि- पद्धतियों के अन्तर्गत न्याय प्रशासन का अस्तित्व बना रहा।

      सन् 1873 1875 में न्यायतन्त्र अधिनियम के पारित हो जाने पर दोनों विरोधी पद्धतियों का उन्मूलन कर दिया गया, अर्थात् सामान्य विधि तथा साम्या के न्यायालयों का विलीनीकरण करते हुए उन्हें एक कर दिया गया और अब एक ही न्यायालय को उन सब मामलों में क्षेत्राधिकार प्रदान कर दिया गया जो पहले सामान्य विधि तथा चान्सरी के न्यायालयों को अलग-अलग प्राप्त था। अब एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई जिसका न्यायं प्रशासन सामान्य विधि तथा साम्या विधि दोनों के सिद्धान्तों पर आधारित होता था।

      सर्वोच्च न्यायालय को दो विभागों में विभाजित किया गया-उच्च न्यायालय एवं अपील का न्यायालय। फिर उच्च न्यायालय को भी दो उप-विभागों में बाँटा गया— चान्सरी विभाग तथा राज्य न्यायालय (विभाग)। यह विभाजन प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से किया गया।

      इस प्रकार सामान्य विधि तथा साम्या का उपर्युक्त विलय वास्तव में सिद्धान्तों का विलय नहीं होकर दो परस्पर विरोधी पद्धतियों के प्रशासन का विलय था।

     न्यायतन्त्र अधिनियम ने विधि तथा साम्या के बीच अन्तर को वास्तविक रूप से समाप्त नहीं किया अपितु उसने एक ही उच्च न्यायालय को सामान्य विधि तथा साम्या से सम्बन्धित अनुतोष प्रदान करने का अधिकार दिया।

     जैसा कि ऐशबर्नर ने कहा- ” अधिकार क्षेत्र की दो धारायें एक ही मार्ग पर चलती हैं, साथ-साथ बहती हैं, परन्तु उनका जल आपस में मिश्रित नहीं होता है। सामान्य विधि तथा साम्या सम्बन्धी इन अध्यर्थनाओं का अन्तर इन अधिनियमों के पारित हो जाने पर भी समाप्त नहीं हुआ है।”

     न्यायतन्त्र अधिनियमों का मुख्य उद्देश्य ‘वाद की बहुलता को रोकना’ था।

    स्नेल के अनुसार “न्यायतन्त्र अधिनियमों में वास्तव में एक ही न्यायालय को सामान्य विधि एवं साम्या से सम्बन्धित अधिकारों एवं उपचारों के प्रवर्तन का अधिकार क्षेत्र प्रदान किया गया एवं दोनों में विरोध अथवा विभेद होने की अवस्था में साम्या को पूर्वता प्रदान की। यह सिद्धान्तों का नहीं, अपितु प्रशासन का एकीकरण है।”

    बेरी बनाम बेरी (1929) 2 के० बी० 316 के महत्त्वपूर्ण वाद में जिसमें सामान्य विधि के नियमों के प्रतिकूल साम्या के नियमों को ही प्रभावशील माना गया है।

     सामान्य विधि एवं साम्या के एकीकरण की प्रशंसा करते हुए कार्ली ने लिखा है- “विधि और साम्या के इस एकीकरण ने न्यायिक प्रशासन को सुविधापूर्ण, सस्ता एवं अधिक निश्चित बना दिया है और यह आशा की जाती है कि साम्या के नियमों की विधि के नियमों पर पूर्णता का परिणाम निश्चित ही अच्छा होगा।”

     सामान्य विधि और साम्या में विरोध- साम्या का मुख्य उद्देश्य या आवश्यकता, ऐसे कार्यों को करना था जिनको सामान्य विधि ने करने से इन्कार कर दिया अथवा करने में असमर्थ थी। जब तक साम्या, सामान्य विधि से भिन्न, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सिद्धान्तों अथवा नियमों को विकसित नहीं करती हो जो रूप अथवा अर्थ या केवल अर्थ में ही भिन्न होते, इस उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता था। इस तरह ऐसे अनेक विषय हैं जिसमें साम्या ने सामान्य विधि के सिद्धान्तों के विपरीत निर्णय दिये। उदाहरण स्वरूप विधि में न्यासी या जब्त बन्धक के अन्तर्गत बन्धकी, सम्पत्ति का पूर्ण स्वामी माना जाता था। साम्या न्यायालय ने उस सम्पत्ति में हितग्राही और बन्धककर्ता के अधिकार को मान्यता दिया। अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित हैं और साम्या द्वारा न्यासधारी या चन्धकदार पर अधिरोपित बाध्यता द्वारा उसके सामान्य विधिक अधिकार का उल्लंघन करके बलपूर्वक छीन लिया।

      सामान्य विधि ने न केवल साम्या के सिद्धान्तों की उपेक्षा की बल्कि चान्सरी न्यायालय के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया। साम्या- न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत किये गये कार्य का सामान्य विधि में कोई औचित्य नहीं था। इस तरह यदि एक निष्पादक साम्या की डिक्री के अन्तर्गत भुगतान करता था तो वह डिक्री वसीयतकर्ता के लेनदार के द्वारा सामान्य विधि न्यायालय में लाये गये वाद में न तो साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता था न ही वह अभिवचन कर सकता था।

     साम्या और सामान्य विधि के प्राचीन सम्बन्ध को निम्नलिखित रीति से स्पष्ट किया गया है-

       साम्या न्यायालय कर्जदार को, जो विवाद के निष्पादन के लिए कारागार में डाल दिया जाता था, उसको मुक्त नहीं करा सकता था यद्यपि न्यायालय सन्तुष्ट था कि साम्यिक आधारों पर वह दायित्व से मुक्त होने का हकदार था। इसका एकमात्र अस्त्र, जब तक वह लेनदार को मुक्त नहीं करता था, देनदार को बन्दी बनाना था और यदि देनदार दुराग्राही था तो कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जब देनदार के आदेश के निष्पादन के लिए लेनदार जेल में था तो देनदार स्वयं भी साम्या के अवसान के लिए जेल में होता था।

      इस सम्बन्ध में चीफ जस्टिस लॉर्ड कोक और चांसलर एलेसमोर के बीच कटु विवाद का यहाँ उल्लेख करना महत्वपूर्ण है जो एक व्यक्ति के अभ्यारोपण को लेकर हुआ था, जिसमें उस व्यक्ति को चांसरी न्यायालय ने व्यादेश प्रदान किया था। मामले में गतिरोध आ गया और ऐसी स्थिति में सर जेम्स प्रथम को हस्तक्षेप करना पड़ा और सम्राट ने साम्यिक अधिकार क्षेत्र के पक्ष में अपना निर्णय दिया। उन्होंने निम्नलिखित आदेश जारी किया-

     “हमारी इच्छा है कि हम आदेश देते हैं कि हमारे महाप्रदेश के चान्सलर हमारी प्रजा के प्रति, वर्तमान परिवादों या आगे आने वाले परिवादों में (सामान्य विधि में उनके विरुद्ध कार्यवाही होने के बावजूद अनुतोष देने से विरत नहीं होंगे, जो उनके गुण-दोषों और न्याय के अनुरूप हों। यह हमारे चांसरी न्यायालय का प्राचीन और सतत् आचरण रहा है।”

      इससे यह स्पष्ट है कि सामान्य विधि और साम्था का सम्बन्ध विरोध का नहीं है परन्तु यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह विवाद केवल साम्या के निर्माणात्मक काल तक ही जारी रहा। साम्या के उत्तरवर्ती निर्माणात्मक काल में साम्या और सामान्य विधि के सम्बन्ध का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया गया है –

      ‘सर हेनेज फिंज लार्ड नाटिंघम का सन् 1673 से 1682 तक का चान्सलरशिप का कार्यकाल सामान्यतया एक नवयुग का आरम्भ माना जाता है। साहित्य परम्परा न्यायतः उनको आधुनिक साम्या के जनक की उपाधि देता है। सामान्य विधि क्षेत्र में ख्याति प्राप्त चान्सलर जिनका चयन अत्यन्त विख्यात वकीलों में से किया गया था, उन्होंने साम्या और सामान्य विधि की प्रतिस्पर्द्धा का अवसान किया। एक अन्तर्हित जीवन पद्धति का क्रमबन्धन किया गया था। सामान्य विधि और साम्या ने दो आक्रामक सेनाओं की भाँति जिनको आगे बढ़ने से रोक दिया गया था, अपने-अपने स्थान को प्रतिधृत रखा। अग्रभाग स्थिर था तत्पश्चात् खाइयों के पीछे स्थायी सेना की सुरंगें बिछाने और संगठन का कार्य जारी रहा। स्थिति युद्ध-विराम के सदृश थी और ऐसा लगता था कि निश्चित रूप से पूर्ण शान्ति कायम होगी परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ।

     सामान्य और साम्या विधि के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये गये हैं-

    मेटलैण्ड का परम सिद्धान्त यह है कि साम्या विधि के विपरीत नहीं है। यह ब्लैकस्टोन के कथन को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि “प्रत्येक परिभाषा अथवा दृष्टान्त जो विधि और साम्या को एक-दूसरे के विपरीत रखकर दोनों अधिकार क्षेत्र के बीच सीमा निर्धारण करते हैं, वह या तो पूर्णतया गलत सिद्ध होंगे या कुछ सीमा तक गलत होंगे। “