Uttar Pradesh Rajwa 2006 Question Part-1

उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006

(Uttar Pradesh Revenue Code, 2006)

भूमि में साम्पत्तिक अधिकार (Property Right in Land)

प्रश्न 1. हिन्दू काल में साम्पत्तिक अधिकार का उद्गम एवं विकास कैसे हुआ? स्पष्ट करें। How did origin and development of Proprietary right in Hindu Period? Explain.

उत्तर- उद्गम- भूमि में साम्पत्तिक अधिकार का उद्गम “अध्यसन वाद” पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब किसी वस्तु का कोई स्वामी नहीं होता तो उसका स्वामी वह होता है जो उस पर सर्वप्रथम काबिज था। मनुस्मृति के अनुसार, “पुराविद् (ज्ञानी) पहले वृक्ष काटने वाले का खेत मानते हैं और पहले घायल करने वाले का मृग ।” इस प्रकार जो व्यक्ति शाखाविहीन सूखे पेड़ को खोदकर भूमि को जोतने और बोने योग्य भूमि बना देता है, उसी को उस भूमि अथवा खेत का स्वामी माना गया। जो शिकारी किसी मृग को पहले मारता है उसे ही उस मृग को पाने का अधिकारी माना गया। सबसे पहले इस सिद्धान्त को मनु ने नहीं कहा है वरन् उनके समय के विद्वानों का यह विचार था जिनका समर्थन मनु ने किया है। मनु के इस ‘अध्यसन वाद’ का समर्थन बाद वाले रोमन विधिशास्त्री करते हैं।

विकास

     राजा भूमि का स्वामी नहीं – हिन्दू मनीषियों एवं विधिशास्त्रियों के अनुसार, “राजा भूमि का स्वामी नहीं है।” वह प्रजा के कब्जे की भूमि की उपज में ही हकदार माना गया। उसका उपज में भाग प्राप्ति का अधिकार इसलिए नहीं था कि वह भूमि का स्वामी था वरन् इसलिए था कि वह प्रजा के जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पति की रक्षा करता था। स्मृतिकार नारद के शब्दों में, ” यह मालगुजारी (उपज भाग) प्रजापालन वेतन था।”

      क्या राजा भूमि का दान कर सकता है?— मीमांसाकार जैमिनी का कथन है कि भूमि दान में नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह सभी की सम्पत्ति है। भूमि के विशिष्ट भाग पर जो काबिज व्यक्ति हो सकते हैं, वे उसके स्वामी होंगे। सारी भूमियों पर कोई काबिज नहीं हो सकता।” अतएव उसका कोई स्वामी नहीं हो सकता।

       मनुस्मृति के अनुसार, राजा को भूमि को उपज का छठा भाग प्राप्त करने का अधिकार था।

        खेती पर बल दिया जाता था (Cultivation Insisted on ) — कोई व्यक्ति कृषियोग्य भूमि में खेती नहीं करता और न किसी से करवाता था, तो राजा ऐसे व्यक्ति से अपना वह हिस्सा पाने का हकदार था जो यदि क्षेत्रपति खेती करता और उस उपज का भाग राजा को मिलता। इस उपज भाग के अतिरिक्त राजा उस व्यक्ति से जुर्माना भी वसूल सकता था। यदि कोई व्यक्ति भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने में लापरवाही करता था या उसने समय पर जुताई- बुवाई न की तो उसके ऊपर राजा के हिस्से का दस गुना जुर्माना किया जाता था। मनुस्मृति के अनुसार, यदि उसकी बिना जानकारी में नौकरों द्वारा यह गलती की गई है तो क्षेत्रपति के ऊपर केवल पांच गुना ही जुर्माना किया जाता था।

      कृषक भूमि का स्वामी होता था  – भूमि में जो कृषि करता था. वह भूमि उसी की होती थी। भूमि में सर्वनिष्ठ स्वामित्व तो नहीं था, किन्तु पूरे परिवार का स्वामित्व था। खेतिहर भूमि की सबसे छोटी इकाई कुटुम्ब श्री. न कि गाँव मनुस्मृति में मनु का प्रसिद्ध 1 श्लोक यह था कि ‘पुराविद ऋषि लोग घोषित करते हैं कि कृषित भूमि उसकी है जिसने जंगल साफ किया या उस पर कृषि की अर्थात् मनुस्मृति के अनुसार भूमि में व्यक्तिगत स्वामित्व को ही बताता है।

       जैमिनी ने अपने प्रसिद्ध सूत्र में कहा कि “न भूमिः स्यात् सर्वान् प्रत्यविशिष्टत्वात्” अर्थात् राजा भूमि का स्वामी नहीं है बल्कि भूमि उसकी है जो उस पर कृषि करता है। प्राचीन काल में हिन्दुओं में भूमि का स्वामित्व संयुक्त परिवार में निहित था, न कि संयुक्त गाँव- समाज में खेतिहर भूमि के अतिरिक्त परती भूमि पूरे गाँव-समाज की सम्पत्ति होती थी। सार्वजनिक चारागाह, जलाशय, मन्दिर एवं देवता ग्राम- समुदाय की सम्पत्ति माने जाते थे।

       प्रारम्भ में जब सम्पत्ति पैतृक होती थी या संयुक्त परिवार द्वारा धारित होती थी, तो असंक्राम्य होती थी। बाजारी प्रतियोगिता का अभाव एवं विक्रय मूल्य के अभाव के कारण भी व्यावहारिक रूप में भूमि अन्तरणीय नहीं थी।

        हिन्दू काल में मालगुजारी व्यवस्था – शासन की सबसे छोटी इकाई “गाँव” थी। गाँव का एक मुखिया हुआ करता था जिसे “ग्रामाधिपति या मुखिया” कहते थे। भूमि-उपज में राजभाग या मालगुजारी पूरे गाँव में निर्धारित की जाती थी। यह पूरी मालगुजारी मुखिया द्वारा व्यक्तिगत कृषकों पर भूमि के क्षेत्रफल एवं उर्वरा शक्ति के आधार पर विभाजित कर दी जाती थी। गाँव के स्थायी निवासियों का संयुक्त दायित्व था कि गाँव की मालगुजारी अदा करें। गाँव के मुखिया की हैसियत बहुत महत्त्वपूर्ण थी। यह न केवल मालगुजारी की अदायगी के लिए जिम्मेदार था वरन् कृषकों में मालगुजारी के समान एवं उचित विभाजन के लिए भी थी।

प्रश्न 2. मुस्लिम काल में साम्पत्तिक अधिकार का विकास कैसे हुआ? संक्षेप में वर्णन कीजिए। How did develop of Proprietary right in Muslim Period? Describe in brief.

उत्तर- मुस्लिम काल में साम्पत्तिक अधिकार का विकास (Development of Proprietary right in Muslim Period) – भूमि में साम्पत्तिक अधिकार के सन्दर्भ में मुस्लिम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने कहा कि “बंजर भूमि को जो कृषि योग्य बनाता है, वह उसमें सम्पत्ति का हक प्राप्त करता है।” उनके इस वाक्य का अर्थ विधिशास्त्री अलग- अलग करते हैं। प्रसिद्ध विधिशास्त्री अबू हनीफा के अनुसार बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाकर कृषि करने मात्र से भूमि में भौमिक अधिकार प्राप्त नहीं होते वरन् राज्य की अनुज्ञा (अनुमति) भी आवश्यक है।

       मुस्लिम काल में भूमि व्यवस्था उसी प्रकार थी जैसा कि हिन्दू काल में थी। आरम्भ में मुसलमानों ने विजित हिन्दू राजाओं को कर के अधीन रखा। उनके राज्य के अन्दरूनी शासन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। ये राजा लोग पहले की भाँति गाँव के मुखिया के माध्यम से खेतिहरों से अपनी मालगुजारी उगाहा करते थे। यह राजा या तो कर देने वाला हो जाता था और मुखिया के माध्यम से मालगुजारी उगाहा करता था राजा मालगुजारी वसूलने वाला प्रवर (Chief) हो जाता था और मुस्लिम शासक के प्रति अपने को उत्तरदायी बनाता था। इन  करदाता राजाओं या सरदारों ने अपने को गाँव के मुखिया से श्रेष्ठतर माना और गाँव के मुखिया के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समाप्त कर दिया। इस प्रकार ये लोग राज्य एवं कृषक के बीच मध्यवर्ती बन गये।

      उस समय के राजा या सरदार सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक रूप में राज्य अधिकारी या कर एकत्रक तो थे परन्तु उनका भूमि पर कोई स्वामित्व नहीं था। कृषक भूमि में स्थायी, वंशानुगामी एवं संक्राम्य अधिकार रखते थे और परम्परागत या परगना दर से मालगुजारी के देनदार थे।

       मुस्लिम धर्म का सिद्धान्त था कि “यदि इमाम किसी देश को बल से जीत ले तो वह चाहे तो विजित निवासियों से भूमि छीन कर मुस्लिमों या सिपाहियों में बाँट दे या मूल स्वामियों के पास रहने दे और उससे जजिया (विजित व्यक्तियों से कर) वसूल करे एवं उसकी भूमि पर ‘खिराज’ नामक कर लगाये” खिराज कर पहले गैर-मुस्लिम से वसूल किया जाता था, किन्तु बाद में मुस्लिमों पर भी लगाया गया। भारत में कोई भी भूमि विजित निवासियों से छीन कर मुसलमानों में नहीं बांटी गई। सेना को बहुत कम भाग जागीर के रूप में दी गई और वह भी परती या बंजर भूमि थी। मुसलमानों ने भूमि पर ‘खिराज’ लगाया। यह खिराज दो किस्म का होता था-

(1) मुकस्सिमा खिराज – जो उपज का वास्तविक भाग होता था और प्रत्येक – फसल पर लिया जाता था।

(2) वजीफा खिराज- यह निश्चित रकम होती थी जो साल में एक बार ली जाती थी। यह कृषक की भूमि के क्षेत्रफल के अनुसार लगायी जाती थी: चाहे कृषक भूमि में जोताई बोवाई करे या न करे।

      मुकस्सिमा खिराज भी शीघ्र रकम में बदल दी गई। परिणाम यह हुआ कि राजा व्यवहार में भूमि का स्वामी न होकर केवल मालगुजारी का हकदार ही रहा। हिन्दू काल में राजा का भाग- उपज का 1/6 था, जब कि मुस्लिम काल में 1/3, औरंगजेब के समय में यह धनराशि बढ़ाकर 1/2 कर दी गई थी।

        टोडरमल – बन्दोबस्त – भूमि-विधि में अकबर-काल में किया गया टोडरमल- बन्दोबस्त बहुत महत्वपूर्ण है। इस मालगुजारी व्यवस्था में सब स्वेच्छाचारी कर हटा दिये। गये और भूमि की उर्वरा शक्ति और क्षेत्रफल के अनुसार मालगुजारी निर्धारित की गई।

       टोडरमल द्वारा किया गया बन्दोबस्त रैयतवाड़ी बन्दोबस्त था। कृषक भूमि के स्वामी थे। 1 कोई व्यक्ति भूमि में श्रेष्ठतर अधिकार नहीं रखता था। गाँव के मुखिया या कर उगाहने वाले मध्यवर्तियों को उनकी सेवाओं के बदले में जिन्हें कुछ धनराशि नकद दी जाती थी या उन्हें कुछ मालगुजारी मुक्त भूमि दी जाती थी, जिसे सेवार्थ भूमि कहते थे।

प्रश्न 3. ब्रिटिश काल में सम्पत्ति के अधिकार का विकास कैसे हुआ? संक्षेप में वर्णन कीजिए। Describe in brief how did develop of Proprietary right in British Period?

उत्तर- ब्रिटिश काल में सम्पत्ति के अधिकार का विकास– ब्रिटिश काल में उत्तर प्रदेश के भू-भाग अंग्रेजों के कब्जे में 1775 ई० से 1857 ई० के बीच एक-एक कर कई बार में आये। प्राचीन बनारस प्रान्त अंग्रेजों को अवध के नवाब से सन्धि में प्राप्त हुआ। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेजों के पास केवल बनारस डिविजन (सोनभद्र को छोड़कर) और इलाहाबाद का किला था। बाद में 1801 ई० में अवध के नवाब द्वारा आजमगढ़, मऊलायभंजन, देवरिया, गोरखपुर बस्ती, इटावा कानपुर एटा बरेली आदि को अंग्रेजों को दे दिया।

       ये सब विजित एवं मिलाये गये क्षेत्र बंगाल प्रेसीडेन्सी के मातहत रखे गये और गवर्नर- जनरल के नियन्त्रण में रहे। 1833 ई० के गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया ऐक्ट द्वारा आगरा प्रेसीडेन्सी कायम को गई और अवध को छोड़कर लगभग पूरा क्षेत्र आगरा प्रेसीडेन्सी में शामिल किया गया। परन्तु इस योजना का कार्यान्वयन न हो सका। प्रदेश के

      सन् 1950 ई० तक का इतिहास यह प्रदर्शित करता है कि इस समय तक उत्तर तीन प्रान्तों में विभिन्न व्यवस्थाएं प्रचलित थीं, जिनका ब्यौरा निम्नलिखित है –

        बनारस का स्थायी बन्दोबस्त – ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बनारस प्रान्त (बनारस) – जौनपुर, बलिया, गाजीपुर एवं आजमगढ़ जिले का कुछ भाग तथा मिर्जापुर का उत्तरी भाग) 1775 में अवध के नवाब आसफुद्दौला से सन्धि में प्राप्त हुआ था। उस समय ये भाग बनारस के राजा चैत सिंह के प्रबन्ध में थे। राजा चैत सिंह को 22 लाख रुपया वार्षिक कर देने की शर्त पर इस प्रान्त का बन्दोबस्त करने एवं मालगुजारी वसूल करने का मालिक बना रहने दिया गया।

      बनारस में नियुक्त अंग्रेजी रेजीडेंट इन्कन साहब के हाथ में राजस्व प्रशासन 1788-94 के काल तक रहा। उसने भूमि का बन्दोबस्त गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस के आदेश से करना प्रारम्भ किया। उसका मूल इरादा था कि बन्दोबस्त किसानों के साथ किया जाय। लाई कार्नवालिस ने ऐसा न होने दिया और 1795 ई० में बंगाल में 1793 ई० में किये गये स्थायी बन्दोबस्त के प्रावधान को यहाँ लागू कर दिया।

       स्थायी बन्दोबस्त जमींदारों के साथ किया गया था। उन्हें सारी भूमि का स्वामी माना गया। इस प्रकार ‘स्थायी बन्दोबस्त’ के साथ-साथ आधुनिक जमींदार और जमींदारी प्रथा प्रारम्भ हुई।

      अवध की तालुकदारी प्रणाली– 1856 ई० में अवध अंग्रेजी राज्य में मिलाया गया। 1857 ई० में भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम हुआ जब यह आन्दोलन दबा दिया गया। तब लार्ड कैनिंग ने यह घोषणा 1858 ई० में की कि बलरामपुर के राजा दिग्विजय सिंह और पहा के राजा कुलवंत सिंह को छोड़कर पूरे अवध प्रान्त का भूमि-सम्बन्धी अधिकार ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाता है, और जैसा उचित समझा जायेगा वैसा भौमिक अधिकारों का प्रबन्ध किया जायेगा।

       इस प्रकार ब्रिटिश शासकों ने अवध में जमींदारी प्रणाली स्थापित को। लार्ड कैनिंग ने 1858 ई० की घोषणा द्वारा न केवल भूमि का स्वामित्वाधिकार जब्त किया बल्कि हर किस्म की भूमि के अधिकार जिसमें दखलकारी अधिकार भी शामिल है, न केवल छोटे-छोटे किसान उखाड़ फेंके गये, बल्कि छोटे-छोटे जमींदार जो कि बीस वर्षों से भूमि का उपयोग कर रहे थे. भी हटा दिये गये। तालुकदार सदैव के लिए अंग्रेजी सरकार के मित्र एवं भक्त बन गये। बाद में अंग्रेजों ने ‘अवध कम्प्रोमाइज’ के अनुसार दो अधिनियम पारित किये-

(i) अवध सब-सेन्टिलमेंट एक्ट 1866 और

(ii) अवध रेन्ट एक्ट, 18681

      अवध  सब सेन्टिलमेन्ट अधिनियम ने छोटे जमींदारों को उनके अधिकार उन्हें दे दिये। अवध रेन्ट एक्ट, 1868 को समाप्त कर 1886 का एक्ट बनाया गया जिसमें गैर-दखीलकारी काश्तकारों को संरक्षण प्रदान किया गया। ये पाँच वर्ष तक बेदखल नहीं किये जायेंगे और उनका लगान बढ़ाया न जा सकेगा।

प्रश्न 4. उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, 1950 के पहले उत्तर प्रदेश में कौन-कौन से भूमि अधिनियम प्रचलित थे? संक्षेप में वर्णन कीजिए। Describe in brief how many Act were enforced relating to land in U.P. before the enforcement of U.P.Z.A. 1950?

उत्तर- उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, 1950 के लागू होने के पहले उत्तर प्रदेश में निम्नलिखित भूमि सम्बन्धी अधिनियम प्रचलित थे, जैसे-

(1) रेन्ट रिकवरी ऐक्ट, 1859

(2) नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेज रेन्ट ऐक्ट, 1873

(3) आगरा टेनेन्सी ऐक्ट, 1926

(4) अवध रेन्ट (अमेण्डमेण्ट) एक्ट, 1921)

(5) उत्तर प्रदेश काश्तकारी अधिनियम, 1939

(1) रेन्ट रिकवरी ऐक्ट, 1859- आगरा में पहला अधिनियम जो भूमि-विधि में लागू हुआ, वह है-रेण्ट रिकवरी ऐक्ट, 1859 यह अधिनियम फोर्ट विलियम प्रेसीडेन्सी के क्षेत्र के लिए था और उन प्रान्तों में भी लागू किया गया जो ब्रिटिश सरकार के अधिकार में आये। आगरा प्रान्त में यह अधिनियम लागू किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य था कि किसानों के लिए कुछ अधिकार सुरक्षित किये जायें। किन्तु यह अधिनियम किसानों को कुछ लाभ न पहुँचा सका, बल्कि इस अधिनियम ने जमींदारों के हाथों को और भी मजबूत किया। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे-

(1) जोतदारों की परिभाषा एवं वर्गीकरण

(2) जमींदारों का यह कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे काश्तकारों को पट्टा निष्पादित करें ताकि किसान अपनी हैसियत को जान सकें।

(3) अवैध तरीकों से किसानों का शोषण एवं लगान से अतिरिक्त वसूली पर रोक।

(4) लगान को बढ़ाने एवं कम करने का प्रावधान।

(5) जोतों का समर्पण करने का प्रावधान।।

(2) नार्थ वेस्टर्न प्राविन्सेज रेण्ट ऐक्ट, 1873 – नॉर्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेज ऐक्ट, 1873 के अस्तित्व में आने के बाद आगरा प्रान्त में प्रचलित रेण्ट रिकवरी ऐक्ट 1859 को निरस्त कर दिया गया। इस अधिनियम द्वारा एक और किस्म के जोतदारों का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गतस्वामित्व काश्तकार कहते हैं। इस प्रकार अब पाँच प्रकार के जोतदार हो गये और ये पाँचों प्रकार के जोतदार 1887 के रेण्ट ऐक्ट और 1901 ई० के टेनेन्सी ऐक्ट में भी ज्यों के त्यों बने रहे।

         सन् 1901 में नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेज टेनेन्सी ऐक्ट पास हुआ। उसका नाम, 1902 में बदलकर आगरा टेनेन्सी ऐक्ट, 1901 रखा गया। इस अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है काश्तकारों को दखीलकारी अधिकारों का प्रदान करना। इन अधिनियम ने जमींदारों की स्वेच्छा पर धारण करने वाले उन काश्तकारों को जो 12 वर्ष तक भूमि पर काबिज थे, उन्हें दखलकार काश्तकार बना दिया, जिसका अर्थ यह हुआ कि ये काश्तकार जमींदार द्वारा बेदखल नहीं किये जा सकते थे, जब तक वे लगान देते रहें या अवैध अन्तरण न करें।

     उदाहरण- जमींदार ने ‘संदीप’ नामक किसान को एक भूमि 5 वर्ष के लिए दी उसके बाद जमींदार ने यह भूमि ‘संदीप’ से छीनकर उसे ‘कल्लू’ को दे दिया और ‘कल्लू’ की भूमि छीनकर ‘संदीप’ को दे दिया। ‘संदीप’ ने दूसरी भूमि पर भी 4 वर्ष तक कृषि को, और काबिज रहा। जमींदार ने ‘संदीप’ से इस भूमि का इस्तीफा ले लिया और 1 वर्ष के अन्दर ही ‘संदीप’ को एक अन्य खेत दिया, जिस पर ‘संदीप’ तीन वर्षों तक काबिज रहा। यहाँ 12 वर्ष के काल की गिनती करते समय ‘संदीप’ के पहले, दूसरे और तीसरे खेत के समय को जोड़ लिया जायेगा। इस प्रकार 5+4+3- 12 वर्ष पूरा हो जाता है और ‘संदीप’ तीसरे खेत का देखीलकार काश्तकार हो जाता है।

       इस अधिनियम ने दूसरा महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि टेनेन्ट्स ऐट बिल का नाम बदलकर गैर-दखीलकार काश्तकार रखा और यह प्रावधान किया कि उन्हें अगले 7 वर्ष तक भूमि को धारण करने का अधिकार रहेगा। तीसरा महत्वपूर्ण कार्य जो इस अधिनियम ने किया वह है, भूमि को ‘सौर भूमि’ में होने से रोकना। इस अधिनियम के लागू होने के बाद कोई भी जमींदार किसी भूमि को ‘सीर भूमि’ में बदल नहीं सकता था।

      आगरा टेनेन्सी ऐक्ट, 1926 और अवध रेन्ट (अमेण्डमेण्ट ) ऐक्ट, 1921 – किसानों के बढ़ते असन्तोष को रोकने के लिए दो अधिनियम पारित किये गये जिसमें पहला आगरा टेनेन्सी ऐक्ट, 1926 एवं दूसरा अवध रेन्ट (संशोधन) अधिनियम, 1921 पारित किया गया। आगरा टेनेन्सी एक्ट, 1926 के तहत भूमि विधि में निम्नलिखित परिवर्तन किये गए-

(1) इस अधिनियम ने पहले के गैर देखीलकार काश्तकारों में से अधिकांश काश्तकारों को अधिनियमित काश्तकार में बदल दिया। इस अधिनियम की धारा 19 के अनुसार संविदा या पट्टा में किसी बात के रहते हुए भी जो कोई व्यक्ति किसी भूमि का काश्तकार हो या अधिनियम के लागू होने के बाद हो, वह अधिनियमित काश्तकार होगा। ऐसे काश्तकार को हक होगा कि वह भूमि को आजीवन धारण किये रहे। अधिनियमित काश्तकार की मृत्यु पर उसका उत्तराधिकारी पाँच साल तक भूमि पर काबिज रहेगा।

(2) 12 वर्ष लगातार जोत होने पर जो जोतदार देखीलकार काश्तकार हो जाया करता था, वह समाप्त कर दिया गया। यह प्रावधान किया गया कि जमींदार किसी भी काश्तकार को दखीलकारी अधिकार प्रदान कर सकते हैं।

(3) काश्तकारों में खेतों का बँटवारा जमींदार की अनुमति के बिना सम्भव हो गया।

(4) जमींदारों को नयी सीर प्राप्त करने का अधिकार मिल गया।

(5) जमींदारों द्वारा लिया जाने वाला नजराना अवैध करार दे दिया गया।

     अवध रेण्ट (संशोधन) अधिनियम, 1921 – इस अधिनियम ने अवध प्रान्त की कास्तकारी विधि में निम्नलिखित महत्वपूर्ण परिवर्तन किये-

(1) गैर दखोलकर काश्तकार जो अधिक समय से पट्टे पर भूमि को जोत-बो रहे थे. उन सभी को अधिनियमित काश्तकार (Statutory tenant) बना दिया गया, चाहे भले ही पढ़े की शर्ते इसके विपरीत क्यों न रही हों। ये नये काश्तकार भूमि को अपने जीवन काल तक धारण कर सकते थे तथा उनके उत्तराधिकारी भी 5 वर्ष तक भूमि को धारण कर सकते थे।

(2) भूमि का दाखिला करते समय जमींदार जो नजराना लेते थे, उसे अवैध बना दिया गया। यदि कोई जमींदार नजराना लेता था तो जमींदार से प्रतिकर दिलवाया जाता था जो नजराना की धनराशि के दो गुने तक हो सकता था।

(3) भूमि को लगान पर उठाने पर और अधिक प्रतिबन्ध लगाया गया।

(4) सीर भूमि बढ़ाने की सुविधा जमींदारों को प्रदान की गई। अधिनियम के लागू होने समय मौजूदा सभी खुदकाश्त भूमि सोर भूमि बना दी गई। अब जमींदार भविष्य में 12 वर्ष के स्थान पर केवल 10 वर्ष के निरन्तर जुलाई – बुलाई से किसी भूमि को मीर भूमि बना सकेंगे।

     उत्तर प्रदेश काश्तकारी अधिनियम, 1939- आगरा टेनेन्सी एक्ट, 1926 एवं अवध रेण्ट (संशोधन) अधिनियम, 1921 जिन उद्देश्यों के लिए पारित हुए थे, वे इन उद्देश्यों को लाने में सफल न हो सके तथा जमींदारों द्वारा मनमानी बेदखली जारी रही एवं जमींदारों ने अपनी खुदकाश्त एवं सीरभूमि बढ़ा ली। वे लगातार किसानों का शोषण करते रहे इसलिए जमींदारी समाप्ति का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जिसके कारण एक नया अधिनियम उत्तर प्रदेश काश्तकारी अधिनियम, 1939 पारित किया गया। इस अधिनियम की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(1) आगरा एवं अवध प्रान्तों में भूमि विधि का एकीकरण कर दिया गया।

(2) जमींदारों द्वारा ‘सौर’ अब प्राप्त नहीं की जा सकती थी। (3) बेगार एवं नजराना स्पष्टतया वर्जित किया गया।

(4) कोई काश्तकार दखीलकारी अधिकार नहीं प्राप्त कर सकता था।

(5) ‘सीर’ भूमि के काश्तकार अधिनियम के लागू होने के 5 वर्ष तक बेदखल नहीं किये जा सकते थे, चाहे उनके पट्टे या करार की जो भी शर्त हो ।

प्रश्न 5. जमींदारी प्रथा से आप क्या समझते हैं? इसके उन्मूलन के लिए क्या प्रयास किये गये? संक्षेप में बताइये। What do you understand by Jamindari Pratha? What do attempted for its abolition? Describe in brief.

उत्तर- जमींदारी प्रथा – जमींदारी प्रथा से तात्पर्य एक ऐसी प्रथा से है जिसमें राज्य की समस्त भूमियों कुछ विशिष्ट प्रभावित व्यक्तियों के पास ही सिमटकर रह गयीं। छोटे और मझोले काश्तकार भूमि विहीन थे जिसके कारण उनका शोषण एवं उत्पीड़न चरम पर था। जमींदारी प्रथा अंग्रेजी राज्य की देन है। भारतीय परम्परागत सिद्धान्तों और विचारों के विरोध में यह प्रथा रही। देश के विद्वानों एवं नेताओं ने सदैव इसकी आलोचना की। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब किसानों में जागृति आयी तो उन्होंने जमींदारी प्रथा को दमन, अक्षमता एवं भ्रष्टाचार के अस्त्र के रूप में देखा।

       यह असंतोष ही किसान आन्दोलन का मुख्य कारण था। किसान आन्दोलन के परिणामस्वरूप ही 1921 ई० में अवध रेन्ट अधिनियम तथा 1926 ई० में आगरा काश्तकारी अधिनियम पास हुआ। किन्तु किसानों के कष्टों का निवारण ये अधिनियम न कर सके। यह अनुभव किया गया कि जमींदारी वर्ग को समाप्ति के बिना कृषक वर्ग के लोगों की परिस्थिति में महत्वपूर्ण सुधार करना असम्भव है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1935 ई० में लखनऊ अधिवेशन में राज्य में जमींदारी उन्मूलन का सिद्धान्त स्वीकार किया। 1937 ई० में जब प्रथम कांग्रेस मंत्रिमण्डल बना तो इसने भूमि सुधार कार्य अपने हाथ में लिया और यू० पी० काश्तकारी अधिनियम, 1939 पारित करके किसानों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया।

      कांग्रेस ने जब राज्य में अपना मंत्रिमण्डल बनाया तो जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए आवश्यक कार्यवाही की।

उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रस्ताव- 8 अगस्त, 1946 ई० राज्य की भूमि विधि में एक स्मरणीय तिथि बनी रहेगी, क्योंकि इसी दिन राज्य की विधान सभा ने उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन के सिद्धान्तों को स्वीकार कर यह प्रस्ताव पास किया-

       “यह विधान सभा इस प्रान्त में जमींदारी प्रथा, जो कृषक और राज्य के बीच मध्यवर्तियों से युक्त है के उन्मूलन के सिद्धान्त को स्वीकार करती है तथा यह निश्चय करती है कि ऐसे मध्यवर्तियों के अधिकार उचित मुआवजा देकर अर्जित कर लिये जायँ और सरकार एक समिति की नियुक्ति करे जो इस उद्देश्य के लिए योजना तैयार करे।”

      जमींदारी उन्मूलन समिति- जमींदारी उन्मूलन समिति उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन समिति के नाम से भी जानी जाती है। इस समिति के अध्यक्ष उस समय के मुख्यमंत्री पं० गोविन्द वल्लभ पंत और उपाध्यक्ष हुकुम सिंह थे। ए० एन० झा और श्री अमीर रजा समिति के मंत्री नियुक्त किये गये। इस समिति में इन चारों व्यक्तियों के अलावा 13 और भी सदस्य थे जिनमें सम्मिलित थे, पंडित कमलापति त्रिपाठी और चौधरी चरण सिंह।

इस समिति के विचारणीय विषय तीन थे—

(1) जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का सिद्धान्त स्वीकार करना और जमींदारों के अधिकारों के अर्जन के लिए मुआवजा निर्धारण का सिद्धान्त निश्चित करना।

(2) प्रान्त में जमींदारी उन्मूलन पर जो जोतदारी व्यवस्था होगी, उसका मूल सिद्धान्त क्या होगा?

(3) भूमि व्यवस्था की नयी योजना को लागू करने का प्रशासकीय संगठन क्या होगा और सरकारी मालगुजारी एवं देवों की वसूली का कौन-सा साधन होगा? समिति ने कई बैठकें की। समिति की प्रथम बैठक 14 नवम्बर, 1946 ई० को और अन्तिम बैठक 3 जुलाई, 1948 को हुई।

       “जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था विधेयक -7 जुलाई, 1949 ई० को उत्तर प्रदेश विधान सभा में उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था विधेयक पेश किया गया। कई अवस्थाओं से गुजरता हुआ यह विधेयक संशोधित रूप में 10 जनवरी, 1951 ई० को | विधानसभा द्वारा और 16 जनवरी, 1951 को विधान परिषद् द्वारा पारित कर दिया गया। 24 जनवरी, 1951 ई० को राष्ट्रपति ने इस अधिनियम पर अपनी स्वीकृति दी और 26 जनवरी, 1951 ई० को यह उत्तर प्रदेश असाधारण राजट में प्रकाशित किया गया और इसी दिन से यह अधिनियम भूमि विधि का भाग बन गया।

     उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम की धारा 4 के अनुसार जमींदारी का उन्मूलन उस दिन से होगा जिस दिन राज्य सरकार गजट में अधिसूचना जारी कर प्रकाशित करें। सूर्यपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, आ० ई० रिo 1952 सुप्रीम कोर्ट 252 के मामले में जमींदारों ने यह मामला उठाया कि उक्त अधिनियम संविधान में प्रदत्त मूल अधिकार का उल्लंघन करते हैं। अतः उक्त अधिनियम को खारिज किया जाय। किन्तु उच्चतम न्यायालय ने मई 1951 में जमींदारों द्वारा दायर की गई इस अपील को निरस्त कर उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम को वैध ठहराया।

     उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 की धारा 4 के अन्तर्गत राज्य सरकार ने 1 जुलाई, 1952 ई० को उत्तर प्रदेश गजट (असाधारण) में अधिसूचना प्रकाशित की और उसी दिन जमींदारों के साथ आस्थान राज्य सरकार में निहित हो गये। इसी दिन को निहित होने का दिनांक (Date of vesting) कहते हैं। 1360 फसली वर्ष का प्रारम्भ भी इसी दिन से होता है।

        उपरोक्त अधिनियम, 1950 को लागू हुए। लगभग 60 वर्ष बीतने के पश्चात् प्रदेश सरकार को ऐसा अनुभव हुआ कि कृषि अधिकारों से सम्बन्धित उ० प्र० जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1950 के कुछ प्रावधानों के अतिरिक्त 38 ऐसे अधिनियम अभी भी लम्बित स्थिति में हैं जो अनुपयोगी एवं निष्प्रयोज्य हो चुके हैं। इन सभी अधिनियमों को निरस्त करने के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 तैयार करके प्रावधानों को सरल कर दिया गया तथा सर्वप्रथम इसे उत्तर प्रदेश अधिनियम संख्या 8 सन् 2012 द्वारा विधानमण्डल ने पारित कर दिया और राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। संहिता दिनांक 11.2.2016 से उ० प्र० राजस्व संहिता नियमावली, 2016 के साथ पूरे भारत में लागू की जा चुकी है एवं अभी तक चले आ रहे 99 अधिनियमों को संहिता की धारा 2 एवं 230 एवं प्रथम अनुसूची की सूची (क) एवं (ख) द्वारा अब निरसित कर दिया गया है।

      पुनः उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता (संशोधन) अधिनियम संख्या 7 वर्ष 2019 द्वारा उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 में संशोधन कर वर्तमान संहिता की कुछ मुख्य धाराओं 80, 89 (3), 94, 95 और 104 को पूर्णतः समाप्त कर नये रूप में प्रतिस्थापित किया गया है जिसके आधार पर कोई भी भूमिधर अपनी जोत का उपयोग कृषि, उद्योग, व्यवसायिक तथा रिहायशी उद्देश्यों के प्रयोग के साथ ही जोत या उसके कुछ भाग को निजी पट्टे द्वारा किसी व्यक्ति या विधिक व्यक्ति को पंजीकृत पट्टे द्वारा अधिकतम 30 वर्षों हेतु आपसी सहमति से निर्धारित प्रतिफल के बदले कृषि कार्य या सौर विद्युत उत्पाद हेतु उठा सकता है। धारा 81, 105, 108 एवं 110 में भी संशोधन किया गया है तथा धारा 108 एवं 110 में “अविवाहित पुत्री” को मृत पिता के पुत्र के साथ उत्तराधिकार में बराबरी का स्थान दे दिया गया है। इसी के साथ धाराएं 96, 97 एवं 103 को हमेशा के लिए विलुप्त कर दिया गया है जिसका परिणाम है केवल मानसिक अस्वस्थता से ग्रसित एवं अवयस्क भूमिधर के अतिरिक्त अन्य सभी व्यक्ति अपनी भूमि का खेती और व्यावसायिक उपयोग कर सकते हैं।