Law of Evidence Short Answer

-: लघु उत्तरीय प्रश्न :-

प्रश्न 1. ‘तथ्य’ और ‘सुसंगत तथ्य’ की परिभाषा दीजिए। Define ‘fact’ and ‘relevant fact’

उत्तर- तथ्य ( Fact )—साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 में दी गई परिभाषा के अनुसार तथ्य शब्द के अर्थ के अन्तर्गत निम्न को सम्मिलित किया गया है-

(1) ऐसी कोई वस्तु, वस्तुओं की अवस्था या वस्तुओं का सम्बन्ध जो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बोधगम्य हो; तथा

(2) कोई मानसिक दशा जिसका ज्ञान किसी व्यक्ति को हो। इस प्रकार इस धारा में दी गई तथ्य की परिभाषा में भौतिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के तथ्यों को सम्मिलित किया गया है। इस धारा में दी गई परिभाषा के अनुसार तथ्य में वस्तु की सभी अवस्थाएँ सम्मिलित हैं जो मनुष्य अपनी पाँचों इन्द्रियों द्वारा महसूस कर सकता है। यदि आलमारी में किताबें सजी हैं, यह एक तथ्य होगा क्योंकि उसे मनुष्य अपनी आँख द्वारा देख सकता है। इसी प्रकार यदि कोई शब्द मनुष्य सुन सकता है तो उस शब्द को होना एक तथ्य है। यदि कोई व्यक्ति अपनी स्पर्श इन्द्रिय द्वारा कुछ महसूस कर रहा है या घ्राण (सूँघकर) इन्द्रिय द्वारा किसी विशेष गंध को महसूस कर रहा है तो वह तथ्य है।

  सुसंगत तथ्य (Relevant fact) – धारा 3 – भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के. अनुसार एक तथ्य दूसरे तथ्य से सुसंगत तब होगा जब वह एक दूसरे से इस प्रकार जुड़ा या सम्बन्धित हो जैसा कि साक्ष्य अधिनियम के सुसंगतता के अध्याय में वर्णित है।

     संक्षेप में एक तथ्य दूसरे तथ्य से सुसंगत तब कहा जाता है जब दो तथ्य आपस में इस प्रकार संसक्त (जुड़े) हों कि सामान्य घटनाक्रम के अनुसार यह तथ्य अकेले या दूसरे तथ्य के साथ मिलकर दूसरे तथ्य को (विवाद्यक तथ्य को) साबित करता हो या दूसरे तथ्यों के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के अस्तित्व को अत्यधिक सम्भव या असम्भव बनाते हों।

प्रश्न 2. साक्ष्य की परिभाषा दीजिए और इसके विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। Define Evidence and mention its various kinds.

उत्तर- साक्ष्य (Evidence) धारा 3 – साक्ष्य शब्द से विधिक अर्थों में वे सभी विभिन्न विधिक साधन सम्मिलित हैं जो जाँच के लिए प्रस्तुत तथ्य को साबित करने के आशय से न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। दूसरे अर्थों में साक्ष्य की परिभाषा में वे सभी वस्तुयें आती हैं जिनका झुकाव या उद्देश्य किसी दूसरे तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व के बारे में उपधारणा या अनुमान उत्पन्न करना है। परन्तु शपथपत्र साक्ष्य की परिभाषा में सम्मिलित नहीं है।

     साक्ष्य में मौखिक साक्ष्य तथा दस्तावेजी साक्ष्य के अतिरिक्त न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अन्य सामग्री भी सम्मिलित हैं जो किसी तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व के बारे में न्यायालय के मस्तिष्क में अनुमान उत्पन्न करता है।

      साक्ष्य के प्रकार- यह विभिन्न प्रकार का होता है-

(1) मौखिक साक्ष्य

(2) दस्तावेजी साक्ष्य

(3) परिस्थितिजन्य साक्ष्य

(4) अनुश्रुत साक्ष्य

प्रश्न 3. पारिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या है? What is Circumstantial Evidence?

उत्तर – परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) – परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं होता परन्तु यह उन परिस्थितियों का साक्ष्य होता है जिसमें मुख्य घटना घटित हुई है। परिस्थितिजन्य साक्ष्य विवाद्यक तथ्य का प्रत्यक्ष साक्ष्य तो नहीं होता परन्तु विवाद्यक तथ्य के कारण तथा परिणाम के रूप में जुड़ा होता है।

     यदि कहीं पदचिन्ह पाया जाता है तो उससे यह अनुमान लगता है कि उधर से कोई जीवित मनुष्य या पशु या पक्षी गया होगा। इसी प्रकार जब घटना घटित होते किसी ने नहीं देखा परन्तु यदि उस घटना की परिस्थितियों का वर्णन हो तो घटना का अनुमान लगता है। ये परिस्थितिजन्य साक्ष्य कहलाते हैं। परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रत्यक्ष तो नहीं होते परन्तु प्रत्यक्ष साक्ष्य से इतना करीब होते हैं कि उनके मानव अनुभव के अनुसार प्रश्नगत घटना का घटित होना अत्यधिक सम्भव होता है। इन परिस्थितियों को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा ही साबित करना होता है। यही तत्व इसे अनुश्रुत साक्ष्य (Hearsay Evidence) से पृथक करते हैं।

     ‘अ’ पर ‘ब’ की बलात्कार के पश्चात् हत्या का आरोप है। बलात्कार तथा हत्या होते हुए किसी ने प्रत्यक्ष नहीं देखा है। परन्तु निम्न साक्ष्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य के रूप में ग्राहा होंगे। यह तथ्य कि –

(1) ‘ब’ बलात्कार के समय घर में अकेली थी;

(ii) चिकित्सीय प्रतिवेदन में बलात्कार होने की पुष्टि हुई।

(iii) ‘अ’, ‘ब’ को पहले से जानता था तथा उसने यह बताया कि ‘ब’ घर में किस समय अकेली रहती थी।

(iv) बलात्कार के समय किसी ने ‘अ’ को ‘ब’ के घर से निकलते हुए देखा था।

     मारिया वेंकटराव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1994 एस० सी० 470 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रत्येक परिस्थितियों में स्वतन्त्र साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना चाहिए तथा इन परिस्थितियों को एक कड़ी के रूप में एक-दूसरे से जुड़ा रहना आवश्यक है जिससे परिकल्पना (Hypothesis) के लिए कोई स्थान न हो।

     जी० पार्षवनाथ बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक, ए० आई० आर० (2010) एस० सी० 2914 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णित किया है कि अभियुक्त के कुछ व्यक्तियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होना महत्वपूर्ण साक्ष्य होता है। विशेषकर तब जब मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित हो उन सब के बीच टेलीफोन पर बातचीत होना महत्वपूर्ण साक्ष्य माना गया और इसलिये ग्राहय हुआ।

प्रश्न 4. निश्चायक सबूत से क्या तात्पर्य है? What do you mean by conclusive proof?

उत्तर- निश्चयात्मक सबूत (Conclusive Proof) – सामान्य नियम के अनुसार किसी वाद या कार्यवाही में विचारित तथ्यों के अस्तित्व को पक्षकारों द्वारा सकारात्मक (Positive) सबूत देकर साबित करना पड़ता है या उस तथ्य को असिद्ध करने के लिए सकारात्मक सबूत देने होते हैं। कुछ मामलों में यदि कतिपय ज्ञात तथ्यों को साबित कर दिया जाये तो विधि न्यायालय को अधिकार देती है कि वह अज्ञात विवादित तथ्य के बारे में अनुमान लगाए या अनुमान (उपधारणा) लगा सके। परन्तु साक्ष्य अधिनियम में किन्हीं- किन्हीं धाराओं में निश्चयात्मक सबूत का प्रयोग किया गया है। जैसे धारा 41 के अनुसार जहाँ सक्षम न्यायालय द्वारा वैवाहिक क्षेत्राधिकार में अन्तिम आदेश, निर्णय या आज्ञप्ति पारित की गई है तो यह निर्णय इत्यादि उस व्यक्ति के विधिक चरित्र के निश्चयात्मक सबूत हैं जिनके बारे में यह निर्णय, आज्ञप्ति या आदेश पारित किया गया है।

      अधिनियम की धारा 4 में निश्चयात्मक सबूत शब्दावली का प्रयोग किया गया है। निश्चयात्मक सबूत का तात्पर्य यह है कि न्यायालय किसी ऐसे साक्ष्य को पेश किये जाने पर, जो किसी अन्य तथ्य का निश्चयात्मक सबूत घोषित किया गया है, किसी अन्य साक्ष्य की माँग नहीं करेंगी तथा उसे पेश किये गये साक्ष्य के प्रश्नगत तथ्य के सन्दर्भ में निश्चयात्मक मान लेगी। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि किसी विधिक निर्णय या आज्ञति या आदेश में किसी व्यक्ति के विधिक चरित्र का निश्चयात्मक सबूत घोषित किया गया है तो उस निर्णय आदि को पेश किये जाने पर उस व्यक्ति के विधिक चरित्र के बारे में किया गया निर्णय स्वीकार कर लेने के न्यायालय के पास अन्य विकल्प नहीं है। न्यायालय पक्षकारों से इस विधिक चरित्र को साबित करने हेतु अतिरिक्त साक्ष्य पेश करने का आग्रह नहीं कर सकती है।

प्रश्न 5. ‘ साबित नहीं हुआ’ से क्या तात्पर्य है? What do you mean by not proved?

उत्तर- साबित नहीं हुआ (Not Proved) – धारा (3) जब वाद या कार्यवाही के – पक्षकार किसी विवादित तथ्य को न तो स्थापित कर पाते हैं या न ही नासाबित या असिद्ध हो कर पाते हैं तो यह कहा जाता है कि वह तथ्य साबित नहीं हुआ। साबित नहीं हुआ साबित तथा नासाबित के बीच की स्थिति है। दूसरे शब्दों में यदि न्यायालय के समक्ष किसी मामले में किसी विवाद्यक तथ्य को साबित करने हेतु प्रस्तुत किये गये तथ्य, उस तथ्य को साबित करने हेतु पर्याप्त नहीं होते तथा दूसरे पक्षकार द्वारा उस विवाद्यक तथ्य को नासावित (असिद्ध) करने हेतु पेश किये गये तथ्य (साक्ष्य) भी पर्याप्त नहीं होते तो यह कहा जायेगा कि वह तथ्य साबित नहीं हुआ (The fact is not proved) ।

     इस प्रकार साबित नहीं हुआ (Not proved) एक संशय की स्थिति है जिसमें न्यायालय अपने समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों के आधार पर न तो इस विश्वास पर पहुँचता है कि विवाद्यक तथ्य साबित हुआ तथा न ही इस विश्वास पर पहुँच पाता है कि तथ्य नासाबित है।

     ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि तथ्य साबित नहीं है। ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि तथ्य साबित नहीं हुआ। उदाहरण के रूप में ‘क’ पर ‘ख’ की हत्या का आरोप है। अभियोजक यदि साबित करने में सफल हो जाता है कि ‘क’ ने ‘ख’ की हत्या की तो यह कहा जायेगा कि तथ्य साबित हुआ। यदि ‘क’ यह साबित करने में सफल हो जाता है कि घटना के समय वह जेल में था तो यह कहा जायेगा कि तथ्य नासाबित हुआ। परन्तु यदि दोनों ओर का साक्ष्य, न्यायालय के अनुसार विश्वास योग्य नहीं है तो यह कहा जायेगा कि तथ्य साबित नहीं हुआ।

प्रश्न 6. ‘विवाद्यक तथ्य’ को परिभाषित कीजिए। Define ‘Fact in issue’.

उत्तर- विवाद्यक तथ्य (Fact in issue) (धारा 3 ) – सामान्य रूप से विवाद्यक तथ्य उन तथ्यों को कहते हैं जिनसे पक्षकारों के अधिकारों तथा दायित्वों के बारे में विधिक अनुमान लगाया जा सकता है। विवाद्यक तथ्य शब्द का अर्थ वह तथ्य है जो विवाद का विषय है तथा जो जाँच का विषय है जिसके बारे में बाद या कार्यवाही में जाँच हो रही है।

     विवाद्यक तथ्य उन तथ्यों को कहते हैं जिन्हें किसी दीवानी बाद में एक पक्षकार आरोपित करता है तथा दूसरा पक्षकार इन्कार करता है या जिन तथ्यों का अभियोजक आपराधिक मामलों में आरोप लगाता है तथा अभियुक्त इन्कार करता है।

प्रश्न 7. बाल साक्षी की सक्षमता के बारे में बतलाइये। Discuss the rule as to competency of child witness.

उत्तर- बाल साक्षी (Child witness) – बाल साक्षी के अभिसाक्ष्य को एकदम रह नहीं करना चाहिए किन्तु उसकी अत्यन्त सावधानी से जाँच की जानी चाहिए जहाँ एक 13 वर्ष के बालक का अभिसाक्ष्य जो सिखाया पढ़ाया था दौर्बल्य नहीं मालूम पड़ता था और उसकी सम्पुष्टि उसकी परिस्थितियों से हुई तो उसके अभिसाक्ष्य को इस आधार पर अमान्य नहीं किया जा सकता कि यह एक बालक का साक्ष्य है। जहाँ मृतक के बच्चे प्रत्यक्षदर्शी गवाह थे और उनका साक्ष्य यह संतुष्टि के लिए कि क्या वे समझदारी से और निर्भय होकर उत्तर दे सकते हैं, उनसे प्रारम्भिक प्रश्न पूछने के बाद अभिलिखित किया गया और उन्होंने घटना का समस्त विवरण दिया और प्रतिपरीक्षा में खरे उतरे तो यह अभिनिर्धारित किया गया कि उनका साक्ष्य स्वीकार्य है। एक अवयस्क बालक की समझदारी के स्तर को सुनिश्चित करने के लिये प्रारम्भिक परीक्षा न करना उसके साक्ष्य में घातक दुर्बलता नहीं है। स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम चामरू, ए० आई० आर० (2007) एस० सी० 2400 के बाद में बाल साक्षी ने अभियुक्त की पहचान नहीं बतायी चाहे वह जानती थी। न्यायालय में उसने चामरू नाम बताया, उसमें कथनों की अधिकांश बातें बढ़ा-चढ़ा कर बतायी गयी थी और एक या किसी अन्य प्रकार की बुराई से घिरी हुई थी। उच्चतम न्यायालय ने ऐसे साक्षी को विश्वसनीय नहीं माना।

प्रश्न 8. पंचनामा क्या है? What is Panchnama?

उत्तर- पंचनामा – पुलिस के अन्वेषण के दौरान साक्षियों के रूप में समन किये गये व्यक्ति पंच कहे जाते हैं। पंचनामा मात्र में उन बातों का अभिलेख होता है जो कुछ पंच ने देखा होता है। एक मात्र उपयोग जो इसका किया जा सकता है वह यह है कि जब वह पंचसाक्षी कटघरे में जाता है और जो कुछ देखा होता है उसकी शपथ लेता है तो वह पंचनामा उसकी स्मृति को ताजा करने के लिए समकालिक अभिलेख के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। यदि पुलिस किसी पंच पर निर्भर करना चाहती है तो उन्हें उस पत्र को उसे साबित करने के लिये बुलाना पड़ेगा किसी परिसर की तलाशी के सम्बन्ध में पंचनामा जो कुछ वहाँ मिला था उसका साक्ष्य नहीं होता जब तक की पंचों की साक्षियों के रूप में परीक्षा न की जाये। [ एम्परर बनाम रुस्तम लाभ (1931) 34 बाम्बे एल० आर० 267]

प्रश्न 9 सुसंगत तथ्य तथा विवाद्यक तथ्य में अन्तर कीजिए। Distinguish between Relevant fact and fact in issue.

उत्तर- सुसंगत तथ्य तथा विवाद्यक तथ्य में अन्तर (Difference between Relevancy of fact and fact in issue)-

सुसंगत तथ्य (Relevant fact)

(1) सुसंगत तथ्य ऐसे तथ्य हैं जिनके आधार पर तथ्यों के अस्तित्व या अनस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है ।

(2) सुसंगत तथ्य किसी अधिकार या दायित्व का एक आवश्यक तत्व नहीं होता ।

(3) सुसंगत तथ्य विवाद्यक तथ्य को साबित करने के साधन कहलाते हैं।

विवाद्यक तथ्य (Fact in issue)

(1) विवाद्यक तथ्य ऐसे तथ्य होते हैं जिन पर विवाद होता है तथा जिनके निर्णय पर ही वाद का निर्णय आधारित होता है ।

(2) विवाद्यक तथ्य किसी अधिकार या दायित्व का आवश्यक तत्व होता है।

(3) विवाद्यक तथ्य प्रमुख तथ्य कहलाते हैं तथा यही किसी विधिक कार्यवाही में मेरुदण्ड होते हैं।

प्रश्न 10. सुसंगतता एवं ग्राह्यता में अन्तर कीजिए। Distinguish between Relevancy and Admissibility.

उत्तर- सुसंगतता तथा ग्राह्यता में अन्तर (Difference between Relevancy and Admissibility) – सुसंगतता तथा ग्राह्यता में निम्न अन्तर हैं-

सुसंगतता (Relevancy)

(1) सुसंगतता का अर्थ है कि जो तर्क के आधार पर सम्भव हो।

(2) सुसंगतता धारा 5 से 55 तक वर्णित है ।

(3) सुसंगतता के नियम यह घोषित करते हैं कि क्या सुसंगत है।

(4) सुसंगतता का अर्थ है कौन से तथ्य न्यायालय के सामने साबित किये जायँ ।

ग्राह्यता (Admissibility)

(1) ग्राह्यता तर्क के आधार पर न होकर कठोर विधि के नियमों पर आधारित होती है।

(2) ग्राह्यता धारा 56 के पश्चात् वर्णित है।

(3) ग्राह्यता के नियम यह घोषित करते हैं कि क्या कुछ साक्ष्य के प्रकार, जो सुसंगत तथ्यों के बारे में हैं, अपवर्जित किये जायं या ग्राह्य किये जायें।

(4) ग्राह्यता सुसंगत तथ्यों को साबित करने का उपाय एवं तरीका है।

प्रश्न 11. ‘साबित’ से आप क्या समझते हैं? What do you understand by ‘Proved?

उत्तर—साबित (Proved) (धारा 3 ) – एक तथ्य साबित किया हुआ तब कहा जाता है जब न्यायालय के समक्ष पेश किए गए साक्ष्य पर विचार करते हुए न्यायालय या तो तथ्य के अस्तित्व पर विश्वास कर ले या उस तथ्य का अस्तित्व न्यायालय इतना अधिसम्भाव्य मान ले कि कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी उन्हीं परिस्थितियों में इस अनुमान पर पहुँचे कि उस तथ्य का अस्तित्व रहा होगा।

इस प्रकार ‘साबित’ शब्द की परिभाषा में दो प्रकार की मनःस्थितियाँ दी गई हैं-

(1) वह जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य की यथार्थता पर पूर्ण विश्वास करता है;

(2) वह जब उसे ऐसा विश्वास तो नहीं होता किन्तु उस तथ्य के सत्य होने की सम्भावना की मात्रा इतनी अधिक होती है कि कोई भी प्रज्ञावान व्यक्ति उसे तथ्य मानकर उसके अनुकूल आचरण करने में संकोच नहीं करता।

      उदाहरण के लिए कत्ल के मुकदमें में चार गवाह आँखों देखा साक्ष्य देते हैं। अभियुक्त धारा 164, दण्ड प्रक्रिया संहिता के अनुसार अपराध इकबाल करता है। उसके शरीर पर से खून के कपड़े मिलते हैं। सबूत पर विचार करते हुए यह विश्वास के योग्य है कि अभियुक्त ने हो कत्ल किया है।

प्रश्न 12 (क) ‘उपधारणा कर सकेगा’ और ‘उपधारणा करेगा’ की व्याख्या कीजिए। Explain ‘May Presume’ and ‘Shall Presume’.

(ख) ‘रेस जेस्टे’ सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन कीजिए। Discuss the Principles of ‘Res Gestae’ in short.

उत्तर (क) — साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 ‘उपधारणा कर सकेगा’, ‘उपधारणा करेगा’ तथा निश्चयात्मक सबूत शब्दावली की परिभाषा देती है।

    उपधारणा कर सकेगा ( May Presume) — साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 के अनुसार जहाँ न्यायालय किसी तथ्य की उपधारणा कर सकेगा, वहाँ न्यायालय या तो ऐसे तथ्य को साबित हुआ मान सकेगा यदि और जब तक वह नासाबित नहीं किया जाता है या उसके सबूत की माँग कर सकेगा।

     उपधारणा करेगा (Shall Presume) —’ उपधारणा करेगा’ का तात्पर्य यह है कि न्यायालय किसी तथ्य को प्रमाणित या साबित हुआ उपधारित या अनुमान करेगा जब तक वह तथ्य असिद्ध न कर दिया जाये अर्थात् उसका खण्डन न हो जाय।

    धारा 79 से 83, धारा 85, 89 और 104 में उपधारणा करेगा शब्दावली का प्रयोग किया गया है। ये विधि की खण्डनीय उपधारणाएँ हैं।

उदाहरण – यदि किसी दस्तावेज को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का आदेश दिया गया है और दस्तावेज न्यायालय में सूचना के पश्चात् भी प्रस्तुत नहीं किया जाता, तो न्यायालय यह अनुमान करेगा कि दस्तावेज विधि द्वारा अपेक्षित प्रकार से प्रमाणित किया गया है और उसको निष्पादित किया गया है (धारा-89)।

उत्तर (ख) – रेस जेस्टे (Res-Gestae)—रेस गेस्टा (Res-Gestae) पदावली का प्रयोग भारतीय साक्ष्य अधिनियम में नहीं किया गया है। यह पदावली अंग्रेजी साक्ष्य अधिनियम में प्रयोग की गई है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 में यह कहा गया है कि वे तथ्य जो विवादक तथ्य से इस प्रकार जुड़े हैं कि वे एक ही संव्यवहार के अंग (भाग या आवली) का निर्माण करते हैं वे तथ्य सुसंगत हैं चाहे ये तथ्य एक स्थान पर घटित हुए हों या भिन्न-भिन्न स्थानों पर या एक ही समय घटित हुए हों या भिन्न-भिन्न समय पर इस प्रकार रेस गेस्टा जो अंग्रेजी विधि में प्रयुक्त है तथा एक ही संव्यवहार के निर्माण करने वाले तथ्य जिनका भारतीय साक्ष्य अधिनियम में उल्लेख है, समानार्थी हैं।

     रेस गेस्टा या ‘एक ही संव्यवहार’ की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम में नहीं दी गई है। स्टीफेन महोदय के अनुसार, “एक संव्यवहार” तथ्यों का वह समूह है जो आपस में इस प्रकार जुड़े हों कि उन्हें अपराध या संविदा या अपकृत्य जैसे एक विधिक नाम की संज्ञा दी जा सके या जो विवाद ग्रस्त जांच की विषय हो। संव्यवहार की ठीक-ठीक परिभाषा देना 1 कठिन है परन्तु कोई तथ्य संव्यवहार का अंग है या नहीं यहाँ कार्य तथा हेतु की निरन्तरता होना आवश्यक है। एक तथ्य एक ही संव्यवहार का अंग है या नहीं है इसे निश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि वे तथ्य आपस में वर्तमान निरन्तर कार्यकलाप के अंग के रूप में जुड़े हों।

प्रश्न 13. स्वीकृति से आप क्या समझते हैं? स्वीकृति कौन कर सकता है? What do you understand by an Admission? Who can make it?

उत्तर – स्वीकृति – भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 17 स्वीकृति की परिभाषा देती है। इसके अनुसार स्वीकृति एक पक्षकार का ऐसा मौखिक या लिखित कथन है जो किसी ऐसे विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में अनुमान का सुझाव करता है, जिसे स्वीकार किया गया है।

     स्वीकृति कौन कर सकता है? – भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 18, 19, 20 उन व्यक्तियों का उल्लेख करती हैं जिनके द्वारा की गई स्वीकृति उन धाराओं में उल्लिखित परिस्थितियों के अन्तर्गत पक्षकार को बाध्य करती है तथा उनके विरुद्ध ग्राह्य हो सकती है-

(1) बाद या कार्यवाही के पक्षकार

(2) पक्षकारों के अभिकर्ता

(3) प्रतिनिधि की हैसियत वाले व्यक्ति;

(4) वे व्यक्ति जिनका वादग्रस्त वस्तु में साम्पत्तिक या आर्थिक हित हो;

(5) संयुक्त हित रखने वाले व्यक्ति हों;

(6) वे व्यक्ति जिनसे बाद के पक्षकारों ने हित प्राप्त किया हो;

(7) ऐसे व्यक्ति जिनकी स्थिति वाद या कार्यवाही के पक्षकार के विरुद्ध साबित होती है: सन्दि

(8) याद या कार्यवाही के पक्षकार द्वारा अभिव्यक्त रूप से व्यक्ति।

प्रान 14. संस्वीकृति क्या है? न्याधिकेत्तर संस्वीकृति से आप क्या समझ है? What is confession? What do you understand by extra- judicial confession?

उत्तर- संस्वीकृति (Confession)- संस्वीकृति शब्द की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम में कहीं भी नहीं दी गई है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संस्वीकृति की चर्चा स्वीकृति (Admission) शीर्षक के अन्तर्गत की गई है। इससे यह स्पष्ट है कि संस्वीकृति एक उपजाति है तथा स्वीकृति (Admission) उसकी जाति है।

     सामान्यतः संस्वीकृति (Confession) अभियुक्त द्वारा किये गये अपराध की, उसी के द्वारा की गई स्पष्ट तथा स्वैच्छिक है। अपनी पुस्तक डाइजेस्ट ऑफ लॉ ऑफ इविडेन्स (Digest of Law of Evidence) में संस्वीकृति को परिभाषित करते हुए स्टीफेन (Stephen) महोदय कहते हैं ‘संस्वीकृति अपराध के आरोपी किसी व्यक्ति द्वारा किसी भी समय की गई स्वीकृति है, जिसमें वह कहता है कि उसने आरोपित अपराध किया है या जिससे इस अनुमान का सुझाव होता है कि उसने वह अपराध किया है। स्टीफेन महोदय द्वारा संस्वीकृति की जो परिभाषा दी गई है, उसके दो आवश्यक तत्व हैं –

(1) यह कि इसमें अभियुक्त ने अपराध किया जाना स्वीकार किया है:

(2) अभियुक्त द्वारा की गई स्वीकृति से यह अनुमान लगता है कि प्रश्नगत अपराध किया गया है।

    न्याधिकेत्तर संस्वीकृति (Non-Judicial or Extra-Judicial Confession)- न्यायिकेत्तर संस्वीकृति वह संस्वीकृति है जो अपराध के अभियुक्त द्वारा मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष नहीं की जाती है। न्यायिकेत्तर संस्वीकृति किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समक्ष की जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को सम्बोधित हो यह प्रार्थना के रूप में हो सकती है। यह सम्बन्धियों को लिखे पत्रों में खेद की अभिव्यक्ति के रूप में हो सकती है। यह किसी व्यक्ति या मित्रों की बातचीत के माध्यम से हो सकती है।

     न्यायिकेतर संस्वीकृति को स्वीकार करते समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यह अनुचित या पारस्परिक विचार के अन्तर्गत न की गई हो।

    संक्षेप में न्यायिकेत्तर संस्वीकृति जिसमें अभियुक्त ने अपने अपराध को मजिस्ट्रेट या यी के अतिरिक्त किसी ऐसे व्यक्ति के समक्ष की गई हो जिसे न्यायिक अधिकार प्राप्त नहीं है।

प्रश्न 15. स्वीकृति और संस्वीकृति में अन्तर कीजिए।Distinguish between Admission and Confession.

उत्तर-   स्वीकृति तथा संस्वीकृति में अन्तर –(Difference between Admission and Confession)

स्वीकृति (Admission)

(1) स्वीकृति का प्रयोग सामान्यतः सिविल (मामलों) कार्यवाहियों में किया जाता है।

(2) स्वीकृति वाद के पक्षकार, उनके हित प्रतिनिधि या उसके अभिकर्त्ता द्वारा की जाती है।

(3) स्वीकृति की धारा 21 में वर्णित परिस्थितियों में स्वीकृति करने वाले व्यक्ति की ओर से अपने पक्ष में प्रयोग किया जा सकता है ।

(4) स्वीकृति स्वीकृत तथ्यों का निश्चयात्मक सबूत नहीं होती।

(5) एक व्यक्ति द्वारा की गई स्वीकृति दूसरे के विरुद्ध साक्ष्य नहीं हो सकती है।

संस्वीकृति (Confession)

(1) संस्वीकृति का प्रयोग आपराधिक कार्यवाहियों में किया जाता है।

(2) संस्वीकृति स्वयं अभियुक्त द्वारा दी जाती है।

(3) संस्वीकृति का प्रयोग हमेशा उसके करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध किया जाता है।

(4) संस्वीकृति यदि स्वतन्त्र एवं स्वैच्छिक है तो उसे निश्चयात्मक सबूत के रूप में ग्राह्य किया जा सकता है।

(5) एक ही अपराध के लिए संयुक्त रूप से विचारित किये जा रहे दो या दो से अधिक अभियुक्तों में से एक अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति को सह-अभियुक्त के विरुद्ध विचार में लिया जा सकता है। (धारा 30)

प्रश्न 16. प्रत्याहारी संस्वीकृति से आप क्या समझते हैं? What do you mean by retracted confession?

उत्तर- प्रत्याहारी संस्वीकृति (Retracted Confession) – एक वापस ली गई संस्वीकृति वह है, जहाँ अभियुक्त ने विचारण प्रारम्भ होने से पूर्व कोई कथन किया था जिसमें उसने अपराध करना स्वीकार किया था, परन्तु विचारण के दौरान (During Trial) वह उस कथन का खण्डन कर देता है। जब किसी अपराध की जाँच के समय, पुलिस अधिकारी यह पाता है कि अभियुक्त संस्वीकृति करना चाहता है तब पुलिस अधिकारी अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करता है। मजिस्ट्रेट जब इस बात से सन्तुष्ट हो जाता है कि अभियुक्त संस्वीकृति करना चाहता है तो वह अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति को अभिलिखित करता है। मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित इस संस्वीकृति को विचारण के दौरान साबित किया जा सकता है। जब अभियुक्त के विरुद्ध विचारण प्रारम्भ होता है, अभियुक्त से यह पूछा जाता है कि क्या उसने अपराध किया है? अभियुक्त यह कह सकता है कि उसने अपराध नहीं किया है। उसने पुनः पूछा जाता है कि क्या उसने मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दिया है और उसमें उसने अपराध किये जाने की संस्वीकृति की है? अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दिये जाने से इन्कार कर सकता है या यह कह सकता है कि उसने बयान (संस्वीकृति) उत्प्रेरणा, धमको या किसी प्रलोभन या पुलिस के दबाव के अन्तर्गत किया है। इस प्रकार की अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति, वापस ली गई संस्वीकृति (Confession) कही जाती है।

प्रश्न 17. स्वीकृतियाँ निश्चायक सबूत नहीं हैं किन्तु विबन्ध कर सकती हैं। स्पष्ट करें। Admissions not conclusive proof, but may estop. Explain.

उत्तर – भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 31 के अनुसार, “स्वीकृतियाँ, स्वीकृत विषयों का निश्चायक (conclusive) सबूत नहीं हैं, किन्तु एतस्मिन् पश्चात् अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन विबन्ध के रूप में प्रवर्तित हो सकेंगी।”

      अतः जब तक स्वीकृति विबन्ध की कोटि में नहीं आती तब तक वह एक ‘सुसंगत साक्ष्य’ ही होती है और प्रत्येक केस की परिस्थितियों के अनुसार उसे कम या अधिक परिसाक्ष्यिक महत्व प्राप्त होता है। स्वीकृतियाँ निर्णायक प्रमाण (conclusive proof) की हैसियत नहीं रखतीं, बल्कि इसका प्रभाव यह हो सकता है कि स्वीकृति करने वाला एक बार स्वीकृति करने के पश्चात् उससे न मूकरे अर्थात् स्वीकृति एक विबन्ध के रूप में कार्य करती है। स्वीकृति निश्चायक सबूत तभी मानी जाती है जब उस स्वीकृति के आधार पर कोई कृत्य किया गया हो। यदि स्वीकृति के आधार पर कोई कृत्य नहीं किया गया तो ऐसी स्वीकृति को निश्चायक साक्ष्य नहीं माना जाता है। धारा 31 का कथन है कि स्वीकृतियाँ निश्चयात्मक सबूत नहीं हैं, किन्तु वे विबन्धों के रूप में प्रभावी हो सकती हैं। अतएवं जब तक संस्वीकृति संविदात्मक नहीं है अथवा जब तक वह विबन्धन को गठित नहीं करती है, वह निश्चायक नहीं हो सकती है और उसका खण्डन किया जा सकता है।

प्रश्न 18. दीवानी मामले में स्वीकृतियों कम सुसंगत होती हैं? व्याख्या करें। Admissions in civil cases when relevent? Discuss.

उत्तर- दीवानी मामले में स्वीकृतियां कब सुसंगत हैं (Admissions in civil cases when relevant ? )– भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 23 यह बताती हैं कि दीवानी मामलों में कौन सी स्वीकृति सुसंगत नहीं होती हैं –

(1) यदि कोई व्यक्ति अपने दायित्व सम्बन्धी स्वीकृति इस स्पष्ट शर्त पर करता है। कि ऐसी स्वीकृति का प्रयोग साक्ष्य के रूप में नहीं किया जायेगा, अथवा

(2) स्वीकृति ऐसी परिस्थितियों में की गयी थी कि न्यायालय यह अनुमान कर सकता कि पक्षकार इस बात पर परस्पर सहमत हो गये थे कि उसका साक्ष्य नहीं दिया जायेगा

     साक्ष्य अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत प्राप्त विशेषाधिकार को सिद्ध करने के लिए यह दिखाना आवश्यक है कि प्रेषक और प्रेषिति दोनों के द्वारा यह आशयित था कि उन पत्र- व्यवहारों का प्रयोग कार्यवाहियों में नहीं किया जायेगा।

      यह स्मरण रखना चाहिए कि यह धारा केवल दीवानी के वादों में लागू होती है। यह आपराधिक वादों में लागू नहीं होती है। इस धारा में स्वीकृति के अर्थान्वियन के विषय में दो महत्वपूर्ण नियम है-

(1) सम्पूर्ण स्वीकृति को एक साथ लेना चाहिए – स्वीकृति को एक साथ लेकर पढ़ना चाहिए किसी स्वीकृति को या तो सम्पूर्ण रूप से या बिल्कुल नहीं इस्तेमाल करना चाहिए। किसी व्यक्ति द्वारा की गई स्वीकृति को टुकड़ों में विभाजित कर उसके टुकड़े को उसके खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। उसे सम्पूर्ण रूप से स्वीकृति किया जाना चाहिए। [ पलविन्दर कौर बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1952 एस० सी० 344]

(2) कानूनी विषय पर स्वीकृति – पक्षकार, अपनी-अपनी कानून की स्वीकृतियों द्वारा जो अविवाहित तथ्य की दशा पैदा हुई है। अदालत को अपने दृष्टिकोण को मनवाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। किसी पक्षकार द्वारा विधि के प्रश्न पर की गयी स्वीकृति उसके ऊपर बाध्यकारी नहीं होती है। विधि के प्रश्न पर किसी वकील द्वारा की गयी गलत स्वीकृति का कोई प्रभाव नहीं होता और उससे पक्षकार बाध्य नहीं होता है।

प्रश्न 19. क्या एक पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई संस्वीकृति अभियुक्त के विरुद्ध साबित की जा सकती है? Can a confession made to a police officer be proved against an accused person ?

उत्तर- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 एक अपराध के अभियुक्त द्वारा पुलिस अधिकारी को की गई संस्वीकृति (Confession) को अभियुक्त के विरुद्ध प्रयोग करने के विरुद्ध स्पष्ट प्रतिबन्ध लगाती है। इस धारा के अनुसार कोई भी संस्वीकृति जो एक पुलिस अधिकारी को की गई है. किसी अपराध के अभियुक्त के विरुद्ध साबित नहीं की जायेगी। यह प्रावधान आदेशात्मक (mandatary) है।

     धारा 25 के अन्तर्गत किसी संस्वीकृति को अपराध के अभियुक्त के विरुद्ध ग्राह्य न करने के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है –

(1) वह कथन संस्वीकृति हो।

(2) संस्वीकृतिकर्त्ता किसी अपराध का अभियुक्त हो।

(3) संस्वीकृति पुलिस अधिकारी को की गई हो।

(4) संस्वीकृति अभियुक्त के विरुद्ध साबित किये जाने के प्रतिबन्धित हो।

प्रश्न 20. अभियुक्त से प्राप्त सूचना का कितना अंश सिद्ध किया जा सकता है? How much part of the information received from accused may be proved?

उत्तर- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अनुसार – यदि एक अपराध का अभियुक्त पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाता है तथा पुलिस की अभिरक्षा में वह पुलिस को कोई संस्वीकृति करता है तथा इस संस्वीकृति (Confession) के दौरान वह कोई संसूचना (Information) देता है तथा इस सूचना के फलस्वरूप यदि किसी तथ्य का पता चलता है तो उसकी संस्वीकृति का उतना अंश जिससे किसी तथ्य का पता चलता है उसके विरुद्ध साबित किया जा सकता है। भले ही वह संसूचना संस्वीकृति की श्रेणी में आती हो, यदि संसूचना का सीधा तथा स्पष्ट सम्बन्ध पता चले तथ्य से हो।

      उदाहरण के रूप में ‘अ’ का ‘व’ की हत्या के लिए पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया जाता है। उसे पुलिस की अभिरक्षा (Police Custody) में रखा जाता है पुलिस की अभिरक्षा में रहते हुए पुलिस ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए बताता है कि “मैंने पिस्तौल से ‘ब’ को मारा है तथा पिस्तौल को अपने स्नान घर में एक स्थान पर छिपाया है। पुलिस अधिकारी ‘अ’ के साथ उसके स्नान घर में आ जाता है। अभियुक्त की निशानदेही पर पुलिस अधिकारी उस स्थान से पिस्तौल बरामद करता है। अब ‘अ’ द्वारा पुलिस को दिया गया बयान जिसमें उसने अपराध को स्वीकार किया है पुलिस अभिरक्षा में पुलिस अधिकारी को की गई संस्वीकृति है अतः यह धारा 25 तथा धारा 26 के अन्तर्गत उसके विरुद्ध साबित किये जाने से प्रतिबन्धित है परन्तु धारा 27 के प्रावधानों के अनुसार यदि पुलिस अभिरक्षा में ‘अ’ द्वारा दी गई सूचना कि पिस्तौल अमुक स्थान पर छिपाई गई है, जिससे इस तथ्य का पता चलता है कि अभियुक्त ने पिस्तौल अमुक स्थान पर छिपाई है, संसूचना का इतना अंश जिससे तथ्य का पता चला है, यदि उसके विरुद्ध आरोप से सम्बन्धित है तो अपवादस्वरूप संसूचना का इतना अंश धारा 27 उसके विरुद्ध साबित करने की अनुमति देती है। भले ही ऐसी संसूचना संस्वीकृति हो या नहीं। इस उदाहरण में पुलिस द्वारा दी गई संसूचना के आधार पर इस तथ्य का पता चला कि अभियुक्त ने अमुक स्थान पर अपराध में प्रयुक्त हथियार छिपाया है तथा अभियुक्त का यह कथन है कि “मैंने पिस्तौल अपने स्नान घर में छिपायी है, अभियुक्त के विरुद्ध साबित किया जा सकेगा। अभियुक्त द्वारा दी गई संसूचना के आधार पर वस्तु का बरामद होना उसके कथन की सत्यता की प्रतिभूति (Guarantee) है।

प्रश्न 21. लोकलक्षी निर्णय से आप क्या समझते हैं? उनके साक्ष्यिक महत्व का वर्णन कीजिए। What do you understand by judgment in rem? Discuss their evidenciary value.

उत्तर- लोकलक्षी निर्णय (Judgement in rem) – साक्ष्य अधिनियम की धारा 41 लोकलक्षी निर्णय के सम्बन्ध में है। लोकलक्षी निर्णय एक प्रकार की घोषणा है जो किसी व्यक्ति की हैसियत को वर्णित करती है, जैसे कि वह दिवालिया है, और इसलिए जो सभी व्यक्तियों के प्रति प्रभावशील होती है चाहे वह उस मामले के पक्षकार हों चाहे न हों। इसलिए किसी व्यक्ति के बारे में यह घोषणा कि वह दिवालिया है, प्रत्येक ऐसे मामले में सुसंगत होगा जिसमें यह प्रश्न हो कि वह दिवालिया है। सर्वबन्धी निर्णयों की बात धारा 41 में है। इस धारा के अनुसार, वसीयत प्रशासन, वैवाहिक, सामुद्रिक, दिवालिया विषयक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत किसी सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश आज्ञप्ति तथा न्याय निर्णय उस समय सुसंगत होता है जब ऐसा न्याय निर्णय किसी व्यक्ति को कोई विधिक चरित्र प्रदान करता है या घोषित करता है कि कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट विधिक चरित्र का अधिकारी नहीं रह गया है।

प्रश्न 22. “अनुभुत साक्ष्य ग्राह्य नहीं होता।” इस सामान्य नियम के क्या अपवाद हैं ? “Hearsay Evidence is not admissible”. What are the exceptions to this general rule?

अथवा (or)

‘अनुश्रुत साक्ष्य’ का क्या अर्थ है? इस नियम के क्या अपवाद हैं कि ‘अनुश्रुत साक्ष्य’ कोई साक्ष्य नहीं है? What is the meaning of ‘hearsory evidence’? What are the exceptions to the rule that ‘hearsay evidence’ is no evidence?

उत्तर- अनुश्रुत साक्ष्य (Hearsay Evidence ) — अनुश्रुत साक्ष्य सुनी-सुनाई बातों के साक्ष्य को कहते हैं। यदि कोई व्यक्ति, जो न्यायालय में साक्ष्य दे रहा है। साक्ष्य को घटित होते हुए स्वयं नहीं देखता है तो वह दूसरे व्यक्ति के माध्यम से ज्ञात हुए तथ्यों का साक्ष्य नहीं दे सकता। सुनी-सुनाई बातों को विधि की नजर में कोई साक्ष्य नहीं माना जाता है क्योंकि सुनी-सुनाई बातों का साक्षी श्रोता न होकर अन्य कोई व्यक्ति होता है।

     साक्ष्य अधिनियम में अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन के निम्न अपवाद हैं-

(1) रेस गेस्टा – साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत यदि कोई तथ्य एक ही संव्यवहार का अंग है तथा जिन शब्दों को अनुश्रुत साक्ष्य के रूप में साबित किया जाता है यदि वे तथ्य समय, स्थान तथा परिस्थितियों को देखते हुए घटना से इतने नजदीक हों कि वह उसी संव्यवहार का भाग लगे।

(2) स्वीकृतियाँ जो धारा 17 में परिभाषित हैं तथा धारा 18, 19 तथा 20 की परिस्थितियों में इन धाराओं में वर्णित परिस्थितियों में की गई हैं।

(3) संस्वीकृतियाँ जो व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति से की है तो संस्वीकृतियों को सुनने वाला व्यक्ति संस्वीकृतियों का साक्ष्य दे सकता है।

(4) धारा 32 में वर्णित मृत्युकालीन कथन, व्यापार के दौरान किये गये अपने हित के विरुद्ध दिये गये कथन लोक अधिकार या लोक रूढ़ि के सम्बन्ध में व्यक्त की गई रायें तथा वंशावली के कथन भी अनुश्रुत साक्ष्य के रूप में ग्राह्य किये जा सकते हैं। यदि धारा 32 में वर्णित परिस्थितियाँ विद्यमान हों (कथनकर्ता मर गया है, साक्ष्य देने में अक्षम हो गया हो आदि)

(5) किसी ऐसे साक्षी का कथन जो मर गया हो या साक्षी के रूप में बुलाया जा सकता हो (धारा 33 )।

(6) सामान्य व्यापार के अनुक्रम में रखी जाने वाली लेखा पुस्तिकाओं में की गई प्राविष्टियाँ ( धारा 34)।

प्रश्न 23. “साक्ष्य तौली जाती है, गिनी नहीं जाती।” विवेचना कीजिए। “Evidence is to be weighted, not numbered.” Discuss.

उत्तर- साक्षियों की संख्या– भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 134 स्पष्ट करती है कि किसी भी मामले के तथ्यों को साबित करने के लिए साक्षियों की किसी विशिष्ट संख्या की अपेक्षा नहीं होगी। किसी तथ्य को साबित जानने के लिए कितने साक्षियों की आवश्यकता होगी यह पूर्ण रूप से न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया गया है और किसी भी निर्णय के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह निराधार है, केवल इसलिए कि केवल एक साक्षी ने गवाही दी थी।

       कई मामलों में उच्चतम न्यायालय ने ऐसी दोष सिद्धियों को सही बताया है जो केवल एक गवाह के परिसाक्ष्य पर आधारित थीं।

        हीरा लाल बनाम स्टेट, ए० आई० आर० 1971 एस० सी० के मामले में यह तर्क दिया गया था कि केवल एक गवाह के परिसाक्ष्य पर सजा देना खतरनाक हो सकता है न्यायमूर्ति रोहतगी ने कहा- कोई ऐसा तकनीकी नियम नहीं है। न्यायाधीश भी कम्प्यूटर नहीं होते। सारी बात परिस्थितियों तथा केवल एकमात्र गवाह की बात की सत्यता पर निर्भर होती है। प्रस्तुत बाद में प्रत्यक्ष तथा परिस्थितियों का साक्ष्य अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त हैं परीक्षण न्यायालय ने अभियुक्त को उस स्थान का खतरनाक बदमाश बताया है। कोई भी उसके खिलाफ गवाही देने को तैयार नहीं था। ऐसी परिस्थिति में प्रायः न्यायालय को हकीकत निकालनी पड़ती है। इसलिए विधि का यह नियम होता है कि महत्व गवाही के गुण का है, उसकी मात्रा का नहीं। “साक्ष्य तौली जाती है, गिनी नहीं जाती।” यह कथन उपयुक्त है।

प्रश्न 24. प्रत्यक्ष साक्ष्य से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Direct Evidence.

उत्तर- प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) – जब कोई तथ्य ऐसा है जिसे देखा जा सकता है तथा इस तथ्य का साक्ष्य ऐसा व्यक्ति दे रहा है जिसने स्वयं तथ्य घटित होते हुए देखा हो, यदि कोई तथ्य ऐसा है जिसे सुना जा सकता था तथा ऐसा व्यक्ति साक्ष्य दे रहा है। जिसने स्वयं तथ्य को सुना हो, यदि इस तथ्य किसी व्यक्ति को राय है तथा ऐसा व्यक्ति साक्ष्य दे रहा है जो ऐसी राय स्वयं रखता हो तो ऐसे साक्ष्य को प्रत्यक्ष साक्ष्य कहते हैं। यहाँ साक्षी विवाद की विषयवस्तु का प्रत्यक्ष दे रहे होते हैं। प्रत्यक्ष साक्ष्य घटना का प्रत्यक्ष साक्ष्य होता है।

      जैसे यदि ‘अ’ पर ‘ब’ को पीटने का आरोप है। ‘स’, एक साक्षी कहता है कि उसने ‘अ’ को देखा था कि वह ‘ब’ को पीट रहा था। ‘अ’ पर आरोप है कि उसने ‘ब’ को गाली दी थी। ‘स’ ने यह कहा कि उसने स्वयं सुना था कि ‘अ’, ‘ब’ को गाली दे रहा था। ‘अ’ ने, ‘ब’ को गाली देते हुए सुना था। ‘अ’ एक चिकित्सक से अपनी राय का साक्ष्य दे रहा है। वह यदि स्वयं आकर बताये कि वह ऐसी राय किस आधार पर रखता है तो ऐसा साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य कहलाता है।

       चुन्नीलाल बनाम स्टेट ऑफ यू० पी० ए० आई० आर० (2010) एस० सी० 2467 के बाद में अभिनिर्धारित किया गया कि साक्षियों के पिता तथा उनके दो लड़कों की हत्या, मारने वाला उनके पिता का भाई था, उनका उस स्थान पर होना स्वाभाविक था, बचाव पक्ष उनके परिसाक्ष्य के बारे में कोई संदेह नहीं पैदा कर सकता था। साक्षियों द्वारा दिया गया साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य माना गया।

प्रश्न 25. प्राथमिक साक्ष्य एवं द्वितीयक साक्ष्य में अन्तर स्पष्ट करें। Differentiate between Primary and Secondary Evidence.

उत्तर- प्राथमिक तथा द्वितीयक साक्ष्य में अन्तर (Difference between Primary and Secondary Evidence) –

प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence)

(1) प्राथमिक साक्ष्य वह है, जो मूल दस्तावेज को न्यायालय के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किया गया है।

(2) प्राथमिक साक्ष्य प्रत्येक दशा में सर्वोत्तम साक्ष्य होते हैं।

(3) किसी दस्तावेज को साबित करने हेतु प्राथमिक साक्ष्य  दस्तावेज मूल रूप में) ही प्रस्तुत किया जायेगा यह आम (सामान्य) नियम है।

(4) प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत करने से पूर्व सूचना का नियम लागू नहीं होता ।

द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence)

(1) द्वितीयक साक्ष्य वह है जो मूल दस्तावेज की प्रतिलिपि है जिसे धारा 63 के अन्तर्गत दी हुई किसी एक विधि द्वारा निर्मित किया गया है ।

(2) द्वितीयक दस्तावेज गौण साक्ष्य हैं।

(3) किसी दस्तावेज को साबित करने हेतु द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता अपवाद है तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 में दी गई परिस्थितियों में ही किसी दस्तावेज का द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है।

(4) द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत करने के संदर्भ में विपक्षी को सूचना देना आवश्यक है। परन्तु धारा 66 में दी गई कतिपय परिवर्तन में यह सूचना आवश्यक नहीं है।

प्रश्न 26 किन परिस्थितियों में दस्तावेज की द्वितीयक साक्ष्य दी जा सकती है? Under what circumstances can secondary evidence of a document be given.

उत्तर- वे परिस्थितियाँ जिनमें दस्तावेज का द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है। निम्नलिखित हैं-

(1) जब मूल दस्तावेज विपक्षी के कब्जे में हो

(2) जब भूल दस्तावेज ऐसे व्यक्ति के कब्जे में हों, जो या तो न्यायालय की पहुँच से बाहर हो या जो न्यायालय की प्रक्रिया के अधीन न हो

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