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समझौते के पश्चात भी उद्घोषित अपराधी? नहीं — मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर ऐतिहासिक व्याख्या सूरज कुमार बनाम राज्य पंजाब एवं अन्य (Pb & Hr HC, 2025) में महत्वपूर्ण निर्णय

समझौते के पश्चात भी उद्घोषित अपराधी? नहीं — मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर ऐतिहासिक व्याख्या सूरज कुमार बनाम राज्य पंजाब एवं अन्य (Pb & Hr HC, 2025) में महत्वपूर्ण निर्णय


प्रस्तावना

        भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में समझौता (Compromise), घोषित अपराधी (Proclaimed Person/Offender) और मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ — ये तीनों अवधारणाएँ अक्सर एक-दूसरे से टकराती हुई दिखाई देती हैं। विशेष रूप से तब, जब कोई अभियुक्त किसी मामले में घोषित अपराधी घोषित हो चुका हो, लेकिन बाद में मुख्य अपराध (Primary Offence) में सभी पीड़ितों के साथ पूर्ण समझौता हो जाए।

        इसी जटिल कानूनी प्रश्न पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने वर्ष 2025 में सूरज कुमार बनाम राज्य पंजाब एवं अन्य (CRM-M-28141/2025) में एक दूरगामी और मार्गदर्शक निर्णय दिया। इस फैसले में न्यायालय ने मजिस्ट्रेट की शक्तियों का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया कि—

यदि मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी भी मामले (FIR या शिकायत आधारित, जिनमें धारा 138 परक्राम्य लिखत अधिनियम के मामले भी शामिल हैं) में सभी पीड़ितों से समझौता हो चुका हो, तो अभियुक्त के आत्मसमर्पण (Surrender) करने मात्र से उद्घोषणा की कार्यवाही संतुष्ट मानी जाएगी, भले ही उसे पहले घोषित अपराधी घोषित किया गया हो।

        यह निर्णय न केवल धारा 174-A IPC (अब धारा 209 BNS) के मामलों में जमानत के प्रश्न को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी बताता है कि घोषणा (Proclamation) का उद्देश्य क्या है और वह कब समाप्त मानी जाएगी।


मामले की पृष्ठभूमि

     याचिकाकर्तासूरज कुमार के विरुद्ध एक आपराधिक मामला दर्ज था, जो मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय (Triable by Magistrate) था। अभियुक्त किसी कारणवश न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सका, जिसके परिणामस्वरूप—

  • उसके विरुद्ध धारा 82 Cr.P.C. के अंतर्गत उद्घोषणा कार्यवाही शुरू की गई,
  • और उसे Proclaimed Person घोषित कर दिया गया।

इसके बाद—

  • अभियुक्त और सभी पीड़ित पक्षों के बीच मुख्य अपराध में पूर्ण समझौता हो गया,
  • अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष स्वेच्छा से आत्मसमर्पण कर दिया।

हालाँकि, इसके बावजूद अभियुक्त को यह आशंका बनी रही कि—

  • उसके विरुद्ध धारा 174-A IPC / धारा 209 BNS (उद्घोषणा का उल्लंघन) के अंतर्गत अलग से गैर-जमानती अपराध कायम रहेगा,
  • और उसे जमानत नहीं मिलेगी।

इसी संदर्भ में मजिस्ट्रेट की शक्तियों और अभियुक्त के अधिकारों पर प्रश्न उठा।


मुख्य कानूनी प्रश्न

उच्च न्यायालय के समक्ष केंद्रीय प्रश्न यह था—

क्या ऐसे मामलों में, जहाँ मुख्य अपराध में समझौता हो चुका है, और अभियुक्त आत्मसमर्पण कर देता है, मजिस्ट्रेट उद्घोषणा को संतुष्ट मानते हुए धारा 174-A IPC / धारा 209 BNS के मामले में भी अभियुक्त को जमानत दे सकता है?


घोषणा (Proclamation) का उद्देश्य क्या है?

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि—

  • धारा 82 Cr.P.C. के तहत उद्घोषणा का उद्देश्य अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष उपस्थित कराना है,
  • न कि उसे दंडित करना।

यदि—

  • अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित हो जाता है,
  • या आत्मसमर्पण कर देता है,

तो—

  • उद्घोषणा का मूल उद्देश्य पूरा हो जाता है

धारा 174-A IPC / धारा 209 BNS: पृथक अपराध, पर आश्रित प्रकृति

उच्च न्यायालय ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा—

  • धारा 174-A IPC (अब 209 BNS) के अंतर्गत अपराध
    घोषणा का पालन न करने से उत्पन्न होता है,
  • लेकिन यह अपराध मुख्य अपराध पर आधारित (Consequential) होता है।

यदि—

  • मुख्य अपराध में समझौता हो चुका है,
  • और अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है,

तो—

  • धारा 174-A IPC का उद्देश्य दंडात्मक नहीं बल्कि अनुपालन सुनिश्चित करना रह जाता है।

मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर न्यायालय का विश्लेषण

1. सभी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय मामलों पर लागू

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह सिद्धांत—

  • सभी FIR आधारित मामलों,
  • सभी शिकायत आधारित मामलों,
  • तथा धारा 138 N.I. Act के मामलों पर भी लागू होगा।

2. उद्घोषणा “संतुष्ट” मानी जाएगी

यदि—

  • अभियुक्त उद्घोषणा के पश्चात न्यायालय में उपस्थित हो जाता है,

तो—

  • यह माना जाएगा कि उद्घोषणा का पालन हो गया है,
  • भले ही वह तकनीकी रूप से पहले Proclaimed Person घोषित किया गया हो।

3. जमानत से वंचित नहीं किया जा सकता

न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा—

जब मुख्य अपराध समझौते से समाप्त हो चुका हो, तो केवल धारा 174-A IPC / 209 BNS के आधार पर अभियुक्त को हिरासत में रखना न्यायसंगत नहीं है।

अतः—

  • मजिस्ट्रेट को अधिकार है कि वह अभियुक्त को
    परिणामी FIR (Consequent FIR) में भी जमानत प्रदान करे।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21

न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि—

  • अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है,
  • और जब विवाद का मूल कारण ही समाप्त हो चुका हो,
  • तब केवल प्रक्रिया के आधार पर स्वतंत्रता का हनन नहीं किया जा सकता।

न्यायालय का निष्कर्ष और निर्णय

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह घोषित किया कि—

  1. मुख्य अपराध में समझौते के बाद अभियुक्त का आत्मसमर्पण पर्याप्त है।
  2. उद्घोषणा की कार्यवाही संतुष्ट मानी जाएगी
  3. धारा 174-A IPC / धारा 209 BNS के मामलों में—
    • अभियुक्त को जमानत से वंचित नहीं किया जा सकता
  4. मजिस्ट्रेट के पास पूर्ण अधिकार है कि—
    • वह ऐसी परिस्थितियों में अभियुक्त को रिहा करे।

निर्णय का व्यापक प्रभाव

1. धारा 138 N.I. Act के मामलों में राहत

यह निर्णय—

  • चेक बाउंस मामलों में फंसे हजारों अभियुक्तों के लिए
    व्यावहारिक राहत लेकर आया है।

2. न्यायिक प्रक्रिया का मानवीय दृष्टिकोण

यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि—

  • प्रक्रिया न्याय का साधन बने,
  • न कि दमन का उपकरण।

3. मजिस्ट्रेटों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश

अब मजिस्ट्रेट—

  • तकनीकी आधार पर जमानत अस्वीकार करने के बजाय,
  • मामले के वास्तविक न्याय पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

निष्कर्ष

      सूरज कुमार बनाम राज्य पंजाब एवं अन्य (2025) का यह निर्णय आपराधिक प्रक्रिया कानून में एक क्रांतिकारी और व्यावहारिक व्याख्या प्रस्तुत करता है।

यह स्पष्ट करता है कि—

जब विवाद समाप्त हो चुका हो, तो अभियुक्त को अनावश्यक रूप से दंडित करना न्याय नहीं, बल्कि अन्याय है।

      यह फैसला न केवल मजिस्ट्रेट की शक्तियों को स्पष्ट करता है, बल्कि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली को मानवोचित, संतुलित और संविधानसम्मत बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।