तलाकशुदा पत्नी के अधिकारों को नई मजबूती हर माह ₹50,000 स्थायी गुज़ारा भत्ता, पति की संपत्ति में हिस्सा और हर दो वर्ष में 5% वृद्धि— Rakhi Sadhukhan बनाम Raja Sadhukhan में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
प्रस्तावना
भारतीय पारिवारिक कानून में तलाकशुदा महिला के अधिकारों को लेकर लंबे समय से न्यायालयों द्वारा संतुलन साधने का प्रयास किया जाता रहा है। एक ओर पति की आर्थिक क्षमता, दूसरी ओर पत्नी की गरिमा, जीवन-निर्वाह और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार—इन दोनों के बीच न्यायालयों को निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है।
इसी कड़ी में सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय Rakhi Sadhukhan बनाम Raja Sadhukhan न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि तलाकशुदा महिलाओं के आर्थिक सुरक्षा अधिकारों को एक नई दिशा देता है। इस फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि—
तलाकशुदा लेकिन पुनर्विवाह न करने वाली पत्नी केवल भरण-पोषण की पात्र ही नहीं है, बल्कि पति की संपत्ति में उचित हिस्सा पाने की भी हकदार है।
न्यायालय ने पति को ₹50,000 प्रतिमाह स्थायी गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया और यह भी निर्देश दिया कि हर दो वर्ष में इस राशि में 5% की वृद्धि की जाएगी।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में पत्नी और पति के बीच वैवाहिक संबंधों में गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गए थे, जिसके परिणामस्वरूप विवाह विच्छेद (Divorce) हुआ। तलाक के पश्चात—
- पत्नी ने पुनर्विवाह नहीं किया
- उसके पास आय का कोई स्थायी स्रोत नहीं था
- पति आर्थिक रूप से संपन्न था और उसके नाम पर पर्याप्त संपत्ति थी
पत्नी ने न्यायालय से स्थायी गुज़ारा भत्ता (Permanent Alimony) और पति की संपत्ति में हिस्से की मांग की। निचली अदालतों से होते हुए मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुँचा।
न्यायालय के समक्ष प्रमुख प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य विधिक प्रश्न निम्नलिखित थे—
- क्या तलाकशुदा पत्नी, जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है, पति की संपत्ति में हिस्से की मांग कर सकती है?
- क्या केवल मासिक भरण-पोषण पर्याप्त है, या संपत्ति में हिस्सा भी दिया जाना चाहिए?
- क्या स्थायी गुज़ारा भत्ता की राशि समय के साथ बढ़ाई जा सकती है?
- पत्नी के जीवन-निर्वाह के अधिकार की सीमा क्या है?
सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत विश्लेषण
(1) जीवन-निर्वाह का अधिकार केवल जीवित रहने तक सीमित नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने दो-टूक शब्दों में कहा कि—
“पत्नी का जीवन-निर्वाह का अधिकार केवल भोजन और आश्रय तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें सम्मान, गरिमा और सामाजिक स्थिति के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि विवाह के दौरान पत्नी जिस जीवन-स्तर की अभ्यस्त थी, तलाक के बाद उसे अचानक न्यूनतम स्तर पर नहीं धकेला जा सकता।
(2) तलाक के बाद भी पति की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि तलाक का अर्थ यह नहीं है कि पति अपनी नैतिक और विधिक जिम्मेदारियों से पूर्णतः मुक्त हो जाए। यदि पत्नी—
- पुनर्विवाह नहीं करती
- स्वयं के निर्वाह में असमर्थ है
- और पति सक्षम है
तो पति का दायित्व बना रहता है।
(3) ₹50,000 प्रतिमाह स्थायी गुज़ारा भत्ता
सुप्रीम कोर्ट ने पति की आय, जीवन-शैली और संपत्ति को ध्यान में रखते हुए यह माना कि—
- ₹50,000 प्रतिमाह की राशि
- पत्नी के सम्मानजनक जीवन के लिए
- न तो अत्यधिक है और न ही अनुचित
यह राशि स्थायी गुज़ारा भत्ता के रूप में निर्धारित की गई।
(4) हर दो वर्ष में 5% वृद्धि का आदेश
न्यायालय ने एक अत्यंत व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा कि—
- महँगाई लगातार बढ़ रही है
- जीवन-यापन की लागत समय के साथ बढ़ती है
- स्थिर राशि भविष्य में अपर्याप्त हो सकती है
अतः यह निर्देश दिया गया कि—
हर दो वर्ष में गुज़ारा भत्ता राशि में 5% की वृद्धि अनिवार्य रूप से की जाएगी।
यह व्यवस्था पत्नी को बार-बार न्यायालय के चक्कर लगाने से भी बचाती है।
(5) पति की संपत्ति में हिस्सा
इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने पति की संपत्ति में पत्नी के हिस्से को भी मान्यता दी। न्यायालय ने कहा कि—
- पत्नी ने विवाह के दौरान पति के जीवन, करियर और गृहस्थी में योगदान दिया
- यह योगदान केवल आर्थिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक भी होता है
- ऐसे योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता
अतः न्यायालय ने संपत्ति हस्तांतरण (Property Transfer) को वैध और न्यायसंगत ठहराया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Held)
सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम रूप से यह आदेश दिया कि—
- तलाकशुदा, पुनर्विवाह न करने वाली पत्नी को
- ₹50,000 प्रतिमाह स्थायी गुज़ारा भत्ता मिलेगा
- इस राशि में
- हर दो वर्ष में 5% की वृद्धि होगी
- पत्नी को
- पति की संपत्ति में उचित हिस्सा प्रदान किया जाएगा
- यह आदेश
- पत्नी के जीवन-निर्वाह और गरिमा की रक्षा हेतु आवश्यक है
निर्णय का विधिक महत्व
(1) महिला अधिकारों को नई मजबूती
यह निर्णय तलाकशुदा महिलाओं को यह भरोसा देता है कि—
- वे आर्थिक असुरक्षा में नहीं छोड़ी जाएँगी
- उनका योगदान कानून की दृष्टि में मूल्यवान है
(2) भरण-पोषण की अवधारणा का विस्तार
अब भरण-पोषण केवल मासिक रकम तक सीमित नहीं रहा, बल्कि—
- संपत्ति में हिस्सा
- दीर्घकालिक सुरक्षा
- महँगाई के अनुरूप वृद्धि
जैसे पहलुओं को भी शामिल किया गया है।
(3) भविष्य के मामलों में मिसाल
यह फैसला भविष्य में—
- हिंदू विवाह अधिनियम
- दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125
- और स्थायी गुज़ारा भत्ता से जुड़े मामलों
में एक मजबूत न्यायिक मिसाल (precedent) बनेगा।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण
कुछ लोगों का यह तर्क हो सकता है कि—
- संपत्ति में हिस्सा देना अत्यधिक बोझ डालता है
- पति के अधिकारों की अनदेखी होती है
परंतु सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—
“यह आदेश हर मामले में स्वतः लागू नहीं होगा, बल्कि परिस्थितियों, पति की क्षमता और पत्नी की स्थिति पर निर्भर करेगा।”
व्यावहारिक प्रभाव
- तलाक मामलों में समझौते को बढ़ावा
अब पक्षकार अदालत के बाहर ही निष्पक्ष समझौता करने के लिए प्रेरित होंगे। - न्यायालयों में स्पष्ट दिशा-निर्देश
निचली अदालतों को स्थायी गुज़ारा भत्ता तय करने में मार्गदर्शन मिलेगा। - महिलाओं में आत्मनिर्भरता का विश्वास
आर्थिक सुरक्षा से महिला आत्मसम्मान के साथ जीवन जी सकेगी।
निष्कर्ष
Rakhi Sadhukhan बनाम Raja Sadhukhan में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय पारिवारिक कानून में मानवीय, संवेदनशील और यथार्थवादी दृष्टिकोण का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि—
तलाक का अर्थ परित्याग नहीं है, और कानून महिला को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार देता है।
₹50,000 प्रतिमाह गुज़ारा भत्ता, संपत्ति में हिस्सा और नियमित वृद्धि—ये सभी प्रावधान मिलकर तलाकशुदा महिला के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक बड़ा कदम हैं।
निस्संदेह, यह फैसला आने वाले वर्षों में पारिवारिक कानून के क्षेत्र में एक मील का पत्थर सिद्ध होगा।