“आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन केवल दंड को आमंत्रित करता है, ऋण को अवैध नहीं बनाता — परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत देयता समाप्त नहीं होती” : भारत का सर्वोच्च न्यायालय
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यावहारिक निर्णय देते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 269SS का उल्लंघन करने से केवल दंडात्मक परिणाम (Penalty) उत्पन्न होते हैं, न कि ऋण (Debt) या देयता (Liability) की वैधता समाप्त होती है। न्यायालय ने यह भी दो-टूक शब्दों में कहा कि ऐसे उल्लंघन के आधार पर परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act – NI Act) के अंतर्गत चेक बाउंस की कार्यवाही को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय उन हजारों मामलों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है, जहाँ आरोपी यह तर्क देता रहा है कि चूँकि ऋण नकद (Cash) में लिया गया था और वह धारा 269SS के विरुद्ध है, इसलिए वह “कानूनी रूप से देय ऋण (Legally Enforceable Debt)” नहीं है और NI Act की धारा 138 लागू नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस भ्रम को समाप्त करते हुए कानून की स्थिति को स्पष्ट, स्थिर और व्यावहारिक बना दिया है।
मामले की पृष्ठभूमि
विवाद उस स्थिति से उत्पन्न हुआ, जहाँ शिकायतकर्ता ने आरोपी को एक निश्चित राशि नकद ऋण (Cash Loan) के रूप में दी। बाद में, ऋण चुकाने के लिए आरोपी द्वारा जारी किया गया चेक बाउंस हो गया। इसके बाद शिकायतकर्ता ने NI Act की धारा 138 के तहत आपराधिक शिकायत दायर की।
आरोपी ने अपने बचाव में यह तर्क उठाया कि:
- ऋण नकद में दिया गया था,
- राशि आयकर अधिनियम की धारा 269SS में निर्धारित सीमा से अधिक थी,
- अतः ऐसा ऋण कानून के विरुद्ध (Illegal) है,
- और इसलिए वह “कानूनी रूप से देय ऋण” नहीं माना जा सकता।
निचली अदालतों में इस प्रश्न पर अलग-अलग दृष्टिकोण देखने को मिले, जिसके कारण अंततः मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा।
मुख्य विधिक प्रश्न
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित महत्वपूर्ण प्रश्न विचारार्थ आए:
- क्या धारा 269SS आयकर अधिनियम का उल्लंघन ऋण को अवैध (Void/Illegal) बना देता है?
- क्या ऐसा ऋण NI Act की धारा 138 के अंतर्गत “Legally Enforceable Debt” नहीं माना जाएगा?
- क्या आयकर अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन, परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत आपराधिक देयता को निष्प्रभावी कर सकता है?
- क्या कर कानून (Tax Law) और आपराधिक/वाणिज्यिक कानून (NI Act) के उद्देश्यों को एक-दूसरे में मिलाया जा सकता है?
धारा 269SS आयकर अधिनियम — उद्देश्य और प्रकृति
सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले धारा 269SS के उद्देश्य की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि:
- धारा 269SS का उद्देश्य काले धन (Black Money) पर अंकुश लगाना है।
- यह प्रावधान बड़े नकद लेन-देन को हतोत्साहित करता है।
- इसका उल्लंघन करने पर धारा 271D के तहत दंड (Penalty) का प्रावधान है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:
धारा 269SS एक दंडात्मक कर प्रावधान है, न कि ऐसा प्रावधान जो ऋण या लेन-देन को स्वतः शून्य या अवैध घोषित कर दे।
क्या ऋण अवैध हो जाता है? — सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट उत्तर
सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णायक रूप से कहा:
“केवल इस आधार पर कि ऋण नकद में दिया गया और वह धारा 269SS के विरुद्ध है, उसे अवैध या अप्रवर्तनीय (unenforceable) नहीं कहा जा सकता।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि संसद की मंशा ऋण को अवैध बनाने की होती, तो वह स्पष्ट शब्दों में ऐसा प्रावधान करती। लेकिन आयकर अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो कहे कि धारा 269SS के उल्लंघन से ऋण शून्य हो जाएगा।
NI Act की धारा 138 और “Legally Enforceable Debt”
NI Act की धारा 138 के तहत अपराध तभी बनता है जब:
- चेक किसी कानूनी रूप से देय ऋण या देयता के निर्वहन के लिए जारी किया गया हो,
- और वह चेक बाउंस हो जाए।
आरोपी का मुख्य तर्क यही था कि धारा 269SS का उल्लंघन होने से ऋण “कानूनी रूप से देय” नहीं रह जाता।
इस तर्क को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
- आयकर अधिनियम और NI Act दो अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य करते हैं।
- एक कर कानून है, दूसरा वाणिज्यिक/दंडात्मक कानून।
- कर कानून का उल्लंघन, अपने आप में वाणिज्यिक देयता को समाप्त नहीं करता।
कर कानून बनाम परक्राम्य लिखत कानून
न्यायालय ने दोनों कानूनों के उद्देश्य में स्पष्ट अंतर रेखांकित किया:
| आयकर अधिनियम | परक्राम्य लिखत अधिनियम |
|---|---|
| कर संग्रह और काले धन पर रोक | व्यापारिक लेन-देन में विश्वास |
| दंडात्मक प्रकृति | वाणिज्यिक नैतिकता की रक्षा |
| राज्य बनाम करदाता | निजी पक्षों के बीच विवाद |
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक कानून के उल्लंघन को दूसरे कानून के तहत दायित्व से बचने का हथियार नहीं बनाया जा सकता।
धारा 139 NI Act — विधिक अनुमान (Presumption)
न्यायालय ने यह भी याद दिलाया कि NI Act की धारा 139 के तहत यह विधिक अनुमान होता है कि:
चेक किसी ऋण या देयता के निर्वहन के लिए जारी किया गया है।
इस अनुमान को तोड़ने का भार आरोपी पर होता है। केवल यह कहना कि ऋण नकद था और 269SS का उल्लंघन हुआ — इस अनुमान को स्वतः खंडित नहीं करता।
दंड बनाम शून्यता (Penalty vs Invalidity)
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सिद्धांत दोहराया:
जहाँ कानून केवल दंड का प्रावधान करता है, वहाँ लेन-देन को शून्य घोषित नहीं किया जा सकता।
धारा 269SS के उल्लंघन के लिए:
- दंड का स्पष्ट प्रावधान है,
- लेकिन ऋण को अवैध ठहराने का कोई प्रावधान नहीं।
अतः न्यायालयों को ऐसे ऋण को मान्य मानते हुए NI Act की कार्यवाही जारी रखनी चाहिए।
व्यावहारिक प्रभाव
इस निर्णय के दूरगामी प्रभाव हैं:
शिकायतकर्ताओं के लिए
- अब नकद ऋण के आधार पर चेक बाउंस केस खारिज होने का खतरा कम।
- NI Act की कार्यवाही अधिक मजबूत।
आरोपियों के लिए
- केवल 269SS का तर्क लेकर बचाव संभव नहीं।
- वास्तविक साक्ष्यों से ऋण न होने का प्रमाण देना होगा।
निचली अदालतों के लिए
- अब कानून की स्थिति स्पष्ट।
- तकनीकी कर आपत्तियों पर NI Act केस खारिज नहीं किए जा सकते।
न्यायिक नीति और विधायी मंशा
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि ऐसे तर्क स्वीकार कर लिए जाएँ, तो:
- हर चेक बाउंस आरोपी 269SS का सहारा लेकर बच निकलेगा,
- NI Act का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा,
- और व्यापारिक विश्वास गंभीर रूप से प्रभावित होगा।
इसलिए कानून की व्याख्या ऐसी होनी चाहिए जो न्याय, वाणिज्यिक स्थिरता और विधायी उद्देश्य — तीनों के अनुरूप हो।
निष्कर्ष
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय NI Act और आयकर अधिनियम के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह स्पष्ट करता है कि:
धारा 269SS का उल्लंघन कर दंडनीय हो सकता है, लेकिन वह ऋण को अवैध नहीं बनाता और न ही चेक बाउंस की आपराधिक देयता को समाप्त करता है।
यह फैसला न केवल विधिक स्पष्टता प्रदान करता है, बल्कि उन अनावश्यक तकनीकी बचावों पर भी रोक लगाता है जो वर्षों से न्याय प्रक्रिया को बाधित कर रहे थे।
कुल मिलाकर, यह निर्णय वाणिज्यिक नैतिकता, न्यायिक व्यावहारिकता और विधिक संतुलन — तीनों की दिशा में एक सशक्त और स्वागतयोग्य कदम है।