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धारा 9 आईबीसी के तहत बड़ा स्पष्टिकरण : देनदार की लेजर एंट्री और नोटिस के बाद किए गए भुगतान ‘पूर्व-विद्यमान विवाद’ की दलील को निष्प्रभावी करते हैं — सुप्रीम कोर्ट

धारा 9 आईबीसी के तहत बड़ा स्पष्टिकरण : देनदार की लेजर एंट्री और नोटिस के बाद किए गए भुगतान ‘पूर्व-विद्यमान विवाद’ की दलील को निष्प्रभावी करते हैं — सुप्रीम कोर्ट


भूमिका

       दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (Insolvency and Bankruptcy Code – IBC) का मूल उद्देश्य कॉरपोरेट देनदारों द्वारा भुगतान में की जा रही देरी पर प्रभावी अंकुश लगाना तथा समयबद्ध समाधान सुनिश्चित करना है। विशेष रूप से धारा 9 के अंतर्गत ऑपरेशनल क्रेडिटर को यह अधिकार दिया गया है कि यदि देनदार द्वारा भुगतान नहीं किया जाता और कोई वास्तविक पूर्व-विद्यमान विवाद (Pre-Existing Dispute) मौजूद नहीं है, तो वह कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (CIRP) प्रारंभ कर सके।

       इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि यदि कॉरपोरेट देनदार की स्वयं की लेजर (Ledger) में बकाया राशि दर्शाई गई हो और डिमांड नोटिस (Demand Notice) के बाद आंशिक भुगतान किया गया हो, तो ऐसे तथ्य पूर्व-विद्यमान विवाद की दलील को स्वतः कमजोर कर देते हैं। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में विवाद की दलील केवल दिवाला प्रक्रिया से बचने का एक बहाना मानी जाएगी।

        यह निर्णय आईबीसी की धारा 9 की व्याख्या को और अधिक व्यावहारिक, व्यावसायिक तथा उद्देश्यपरक बनाता है।


IBC की धारा 9 : संक्षिप्त कानूनी पृष्ठभूमि

धारा 9 के अंतर्गत—

  • ऑपरेशनल क्रेडिटर
  • कॉरपोरेट देनदार को धारा 8 के तहत डिमांड नोटिस भेजता है
  • यदि 10 दिनों के भीतर भुगतान नहीं होता और
  • कोई वास्तविक एवं पूर्व-विद्यमान विवाद मौजूद नहीं है

तो ऑपरेशनल क्रेडिटर एनसीएलटी (NCLT) के समक्ष दिवाला याचिका दायर कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने Mobilox Innovations v. Kirusa Software मामले में पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि—

विवाद वास्तविक, गंभीर और पहले से मौजूद होना चाहिए, न कि बाद में गढ़ा गया।


वर्तमान मामले की पृष्ठभूमि

इस मामले में—

  • ऑपरेशनल क्रेडिटर ने कॉरपोरेट देनदार को वस्तुएँ/सेवाएँ प्रदान की थीं
  • भुगतान निर्धारित समय पर नहीं किया गया
  • देनदार की खुद की अकाउंट लेजर में उक्त राशि को बकाया के रूप में दर्शाया गया था
  • डिमांड नोटिस जारी होने के बाद भी देनदार ने आंशिक भुगतान किया

इसके बावजूद, जब धारा 9 के तहत याचिका दायर की गई, तो कॉरपोरेट देनदार ने यह तर्क दिया कि—

  • दोनों पक्षों के बीच पहले से विवाद मौजूद था
  • इसलिए दिवाला याचिका पोषणीय नहीं है

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न

न्यायालय के समक्ष प्रमुख प्रश्न यह था कि—

क्या डिमांड नोटिस के बाद आंशिक भुगतान और स्वयं की लेजर में देय राशि का उल्लेख, ‘पूर्व-विद्यमान विवाद’ की दलील को निष्प्रभावी कर देता है?


सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट और निर्णायक दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि—

  1. लेजर एंट्री एक स्वीकारोक्ति है (Admission)
    यदि कॉरपोरेट देनदार की अकाउंट बुक्स/लेजर में किसी राशि को देय बताया गया है, तो यह अपने-आप में ऋण के अस्तित्व और देयता की स्वीकारोक्ति है।
  2. नोटिस के बाद भुगतान विवाद को कमजोर करता है
    यदि वास्तव में कोई गंभीर विवाद होता, तो—

    • देनदार भुगतान नहीं करता
    • बल्कि लिखित आपत्ति दर्ज कराता
  3. बाद में उठाया गया विवाद संदेहास्पद है
    नोटिस मिलने के बाद पहली बार विवाद उठाना, आईबीसी की भावना के विपरीत है।

‘पूर्व-विद्यमान विवाद’ की अवधारणा पर पुनः स्पष्टता

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि—

  • विवाद नोटिस से पहले मौजूद होना चाहिए
  • वह वास्तविक होना चाहिए, काल्पनिक नहीं
  • केवल ई-मेल या जवाब में उठाया गया अस्पष्ट विरोध पर्याप्त नहीं

इस मामले में, न्यायालय ने कहा कि—

“जब देनदार स्वयं भुगतान करता है और अपने खातों में देनदारी स्वीकार करता है, तो विवाद की दलील एक दिखावटी रक्षा (Sham Defence) मात्र रह जाती है।”


डिमांड नोटिस के बाद भुगतान का कानूनी महत्व

यह निर्णय विशेष रूप से इस बिंदु पर महत्वपूर्ण है कि—

  • नोटिस के बाद किया गया भुगतान
  • यह दर्शाता है कि देनदार स्वयं देयता को स्वीकार कर रहा है
  • और केवल दिवाला प्रक्रिया से बचने के लिए विवाद का सहारा ले रहा है

न्यायालय ने कहा कि—

“IBC एक रिकवरी मैकेनिज़्म नहीं है, लेकिन जहां देयता निर्विवाद हो, वहां इसका प्रयोग रोका भी नहीं जा सकता।”


लेजर और अकाउंट बुक्स : साक्ष्य के रूप में महत्व

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि—

  • अकाउंट बुक्स और लेजर
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत
  • महत्वपूर्ण दस्तावेजी साक्ष्य माने जाते हैं

यदि देनदार ने स्वयं—

  • इनवॉइस स्वीकार किए
  • बकाया राशि दर्ज की
  • और आंशिक भुगतान किया

तो विवाद की दलील टिक नहीं सकती।


NCLT और NCLAT के लिए मार्गदर्शन

यह फैसला निचली ट्रिब्यूनलों के लिए भी दिशानिर्देशक है—

  • हर “विवाद” को आंख मूंदकर स्वीकार न किया जाए
  • लेजर, भुगतान व्यवहार और पत्राचार को समग्र रूप से देखा जाए
  • तकनीकी आपत्तियों से आईबीसी की प्रक्रिया को निष्फल न किया जाए

कॉरपोरेट देनदारों के लिए संदेश

इस निर्णय के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि—

  • केवल विवाद का नाम लेकर धारा 9 से नहीं बचा जा सकता
  • भुगतान करने के बाद विवाद उठाना जोखिमपूर्ण है
  • अकाउंट बुक्स में की गई एंट्री कानूनी रूप से बाध्यकारी हो सकती है

ऑपरेशनल क्रेडिटर्स के लिए राहत

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला—

  • ऑपरेशनल क्रेडिटर्स की स्थिति मजबूत करता है
  • उन्हें मनमानी देरी से सुरक्षा प्रदान करता है
  • और आईबीसी की प्रभावशीलता को बढ़ाता है

पूर्व निर्णयों से सामंजस्य

यह निर्णय—

  • Mobilox Innovations
  • Kay Bouvet Engineering
  • Transmission Corporation

जैसे मामलों में स्थापित सिद्धांतों के अनुरूप है और उन्हें और स्पष्ट करता है।


IBC की मंशा और न्यायालय की भूमिका

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह दोहराया कि—

  • IBC का उद्देश्य कंपनियों को बंद करना नहीं
  • बल्कि भुगतान अनुशासन (Credit Discipline) स्थापित करना है
  • और व्यावसायिक विश्वास बनाए रखना है

निष्कर्ष

        धारा 9 आईबीसी पर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय दिवाला कानून में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि—

जब देनदार स्वयं अपनी लेजर में ऋण स्वीकार करता है और नोटिस के बाद भुगतान करता है, तो ‘पूर्व-विद्यमान विवाद’ की आड़ में दिवाला प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता।

         यह फैसला न केवल कानून की स्पष्टता बढ़ाता है, बल्कि व्यावसायिक ईमानदारी, अनुशासन और न्यायिक संतुलन को भी मजबूत करता है।
आने वाले समय में यह निर्णय धारा 9 के मामलों में एक मजबूत नजीर (Precedent) के रूप में उद्धृत किया जाएगा।