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तलाक कानून की गलत समझ पर दिल्ली हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी: फैमिली कोर्ट का फैसला रद्द, जज को “रिफ्रेशर ट्रेनिंग” का आदेश 

तलाक कानून की गलत समझ पर दिल्ली हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी: फैमिली कोर्ट का फैसला रद्द, जज को “रिफ्रेशर ट्रेनिंग” का आदेश 

      भारत का वैवाहिक न्याय तंत्र (Matrimonial Justice System) न्यायिक संवेदनशीलता, गहराई और कानूनी सिद्धांतों की सटीक समझ पर आधारित होता है। पारिवारिक मुकदमे केवल तकनीकी विवाद नहीं होते, बल्कि इनके पीछे मानव संबंध, भावनाएँ और गहन सामाजिक असर होता है। इसलिए फैमिली कोर्ट से अपेक्षा की जाती है कि वह न केवल कानून की सही व्याख्या करे बल्कि प्राकृतिक न्याय और प्रक्रिया के सिद्धांतों का भी कठोर पालन करे। इसी संदर्भ में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है, जिसमें पटियाला हाउस कोर्ट के फैमिली कोर्ट जज द्वारा दिया गया तलाक का आदेश न केवल रद्द किया गया, बल्कि उसे “कानूनन अस्थिर (legally unsustainable)” बताते हुए गंभीर टिप्पणियाँ भी की गईं।

       इस निर्णय में हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि वैवाहिक कानूनों — विशेषकर हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) और विशेष विवाह अधिनियम (SMA) — को लेकर फैमिली कोर्ट जज की समझ में गंभीर त्रुटियाँ थीं। इतना ही नहीं, जज ने SMA की धारा 28A (Section 28A) का उल्लेख किया, जबकि ऐसी कोई धारा कानून में अस्तित्व ही नहीं रखती। यह स्थिति यह दर्शाती है कि निर्णय बिना पर्याप्त कानूनी आधार और बिना उचित साक्ष्य रिकॉर्ड किए पारित किया गया।

      हाईकोर्ट ने जज के आचरण को “अनुचित, जल्दबाजी भरा और न्याय सिद्धांतों के विपरीत” कहा और आदेश दिया कि संबंधित जज एक बार फिर दिल्ली ज्यूडिशियल एकेडमी से रिफ्रेशर ट्रेनिंग प्राप्त करें, ताकि वैवाहिक कानूनों पर उनकी समझ मजबूत हो सके।


मामले की पृष्ठभूमि: तलाक आदेश पर क्यों उठे सवाल?

         फैमिली कोर्ट ने पति की याचिका स्वीकार करते हुए तलाक का निर्णय दे दिया था। यह तलाक दो अलग-अलग कानूनों—HMA और SMA—के प्रावधानों को मिलाकर दिया गया था। इससे कई गंभीर कानूनी गलतियाँ सामने आईं:

HMA और SMA के प्रावधानों का मिश्रण

      फैमिली कोर्ट ने फैसले में ऐसी भाषा और प्रावधानों का उपयोग किया जो इन दोनों अलग-अलग कानूनों को गड्डमड्ड कर देते हैं।
• HMA हिंदुओं पर लागू होता है।
• SMA एक सिविल विवाह कानून है और सभी नागरिकों पर लागू हो सकता है।

      दोनों की प्रक्रिया, आधार, शर्तें और रद्दीकरण के सिद्धांत पूरी तरह अलग हैं।

       फैमिली कोर्ट द्वारा इन दोनों को मिश्रित तरीके से लागू करना न केवल गलत था बल्कि यह निर्णय को अस्थिर करने के लिए पर्याप्त कारण था।

SMA की धारा 28A का हवाला – जबकि वह कानून में मौजूद ही नहीं!

        सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट—कानूनी सिद्धांतों का सबसे मूलभूत नियम है कि कोर्ट कानून में मौजूद नहीं प्रावधान का उल्लेख नहीं कर सकती।
फैमिली कोर्ट ने “Section 28A, Special Marriage Act” का जिक्र किया, जबकि SMA में ऐसी कोई धारा है ही नहीं।

       यह न्यायिक त्रुटि सामान्य नहीं, बल्कि एक कानूनी भ्रम और गलत व्याख्या का स्पष्ट प्रमाण है।


दिल्ली हाईकोर्ट क्यों हुआ नाराज़?

 1. बिना साक्ष्य रिकॉर्ड किए तलाक देना — प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध

हाईकोर्ट ने पाया कि:

• पत्नी को अपने बचाव में गवाही देने का अधिकार ही नहीं दिया गया।
• पहली ही तारीख पर उसकी “evidence closed” कर दी गई।
• किसी भी पक्ष से उचित और विस्तृत साक्ष्य नहीं लिया गया।

हाईकोर्ट के अनुसार, यह नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है। तलाक जैसे गंभीर निर्णय में दोनों पक्षों के साक्ष्य सुने जाना अनिवार्य है।

 2. जज का रवैया “अनुचित और जल्दबाज”

हाईकोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट का आदेश
hasty, superficial & legally flawed
था।

विशेष रूप से, साक्ष्य को बंद करना या पक्षकार को उचित अवसर न देना “न्यायिक पक्षपात” माना जाता है।

 3. ‘De Novo Trial’ का आदेश

क्योंकि मूल सुनवाई ही नियमों के अनुसार नहीं हुई, इसलिए हाईकोर्ट ने पूरे मामले को
“de novo” — यानी शुरुआत से दोबारा सुनने
का आदेश दिया।

इसका अर्थ है कि:
● पुराने सभी साक्ष्य निरस्त
● पक्षकारों को फिर से पूरा अवसर
● सबूत, दस्तावेज, गवाही सब नए सिरे से


हाईकोर्ट ने जज को प्रशिक्षण लेने का निर्देश क्यों दिया?

        इस निर्णय का सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि हाईकोर्ट ने संबंधित फैमिली कोर्ट जज को दिल्ली ज्यूडिशियल एकेडमी में प्रशिक्षण (Refresher Training) लेने का आदेश दिया।

यह आदेश सामान्यत: तब दिया जाता है जब—
• जज को कानून की मूलभूत गलतफहमी हो
• प्रक्रिया का गंभीर उल्लंघन हो
• आदेश में बुनियादी कानूनी त्रुटियाँ हों
• न्यायिक आचरण पर प्रश्नचिन्ह लगे

हाईकोर्ट ने साफ कहा—

“जब एक जज HMA और SMA की बुनियादी प्रक्रिया तक को सही समझ नहीं पा रहा और ऐसी धारा का उल्लेख कर रहा है जो कानून में है ही नहीं, तो उसे दोबारा प्रशिक्षण की आवश्यकता है।”

यह निर्देश यह सुनिश्चित करने के लिए है कि भविष्य में ऐसे मामलों में न्यायिक त्रुटियाँ न हों।


विशेष विवाह अधिनियम (SMA) और हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) — दोनों की गलत व्याख्या कैसे हुई?

 SMA (Special Marriage Act) एक सेकुलर कानून

यह अधिक प्रक्रियात्मक और साक्ष्य-आधारित है। तलाक के लिए धारा 27, 28 आदि लागू होती हैं।
लेकिन फैमिली कोर्ट ने:
● गलत धारा का उल्लेख किया
● गलत तरीके से दांपत्य अधिकारों (Restitution of Conjugal Rights) के सिद्धांत लागू किए

HMA एक धार्मिक-आधारित कानून

       हिंदुओं पर लागू। तलाक के आधार SMA से अलग हैं।
फैमिली कोर्ट ने HMA की भाषा को SMA में लागू कर दिया।

       इस मिश्रण को हाईकोर्ट ने ’jurisdictional error’ बताया – यानी जज ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर गलत कानून लागू किया।


हाईकोर्ट के मुख्य निष्कर्ष: फैसले के बड़े बिंदु

 1. तलाक आदेश पूरी तरह रद्द (Set Aside)

क्योंकि:
● गलत कानून लागू
● गलत प्रक्रियाएँ
● साक्ष्य का अभाव
● प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन

 2. पूरा मामला वापस फैमिली कोर्ट को भेजा गया

दोनों पक्षों को बराबरी का अवसर देते हुए नए सिरे से सुनवाई (De Novo Trial)

 3. दोनों पक्षकारों को मौखिक व दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करने का मौका मिलेगा

हाईकोर्ट ने कहा:

“Evidence shall be recorded afresh without prejudice.”

 4. जज को ‘Refresher Training’ जरूरी

यह सुनिश्चित करने के लिए कि भविष्य में गलत कानून, गलत प्रावधान और गलत प्रक्रिया न अपनाई जाए।

 5. दोनों पक्ष 5 दिसंबर 2025 को फैमिली कोर्ट के प्रधान जज के सामने पेश हों

यह प्रक्रिया शुरू करने और नया कोर्ट तय करने हेतु अनिवार्य उपस्थिति है।


कानूनी और सामाजिक दृष्टि से इस फैसले के प्रभाव

 वैवाहिक मामलों में कानूनी सटीकता को बढ़ावा

यह फैसला एक संदेश देता है कि:
● पारिवारिक विवाद संवेदनशील होते हैं
● कानून की गलत व्याख्या गंभीर अन्याय कर सकती है

 फैमिली कोर्टों में प्रशिक्षण की आवश्यकता

यह निर्णय एक बड़े मुद्दे को उजागर करता है—

भारत के परिवार न्यायालयों में कई बार जज matrimonial laws की बारीकियों से पूरी तरह परिचित नहीं होते।

 प्राकृतिक न्याय सर्वोपरि

न तो पति को और न ही पत्नी को बिना साक्ष्य के न्याय मिल सकता है।
Hearing, evidence, cross-examination—सब आवश्यक हैं।

 पक्षकारों को बराबरी का अवसर देना अनिवार्य

न्यायालय किसी एक पक्ष को जल्दबाजी में लाभ नहीं दे सकता।

 गलत कानून लागू करने से आदेश स्वत: अस्थिर हो जाता है

अगर लागू ही गलत प्रावधान किए जाएँ, तो पूरा फैसला रद्द हो जाता है।


निष्कर्ष: न्याय, प्रक्रिया और कानूनी समझ—तीनों का संतुलन आवश्यक

       दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल एक तलाक मामले पर टिप्पणी है, बल्कि यह भारतीय फैमिली कोर्ट सिस्टम को एक गहरा और महत्वपूर्ण संदेश देता है।

यह फैसला बताता है कि—

▪ तलाक मात्र तकनीकी आदेश नहीं है;
▪ यह एक गहरा मानव-संबंधी निर्णय है;
▪ इसे सही कानून, सही प्रावधान, सही साक्ष्य और सही प्रक्रिया से ही पारित किया जा सकता है।

फैमिली कोर्ट का आदेश इसलिए अस्वीकार्य था क्योंकि—
● गलत कानून लागू किए गए
● गैर-मौजूद धारा को उद्धृत किया गया
● पत्नी की गवाही का अधिकार छीन लिया गया
● साक्ष्य के बिना तलाक दे दिया गया

हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि:
● मामला नए सिरे से सुना जाए
● दोनों पक्षों को बराबर अवसर मिले
● जज को प्रशिक्षण मिले
● और न्याय की मूल भावना अक्षुण्ण रहे

     यह निर्णय न केवल एक प्रक्रिया की त्रुटि को सुधारता है बल्कि पूरे न्यायिक ढांचे को याद दिलाता है कि न्याय केवल निर्णय देने से नहीं, बल्कि सही प्रक्रिया और सही कानून अपनाने से होता है।