IndianLawNotes.com

घोषणात्मक वाद में कोर्ट फीस का निर्धारण: गैर-निष्पादक द्वारा हस्तांतरण विलेख को चुनौती देने पर Ad Valorem Court Fee देय नहीं – पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट

घोषणात्मक वाद में कोर्ट फीस का निर्धारण: गैर-निष्पादक द्वारा हस्तांतरण विलेख को चुनौती देने पर Ad Valorem Court Fee देय नहीं – पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला

प्रस्तावना

        कोर्ट फीस एक महत्वपूर्ण कानूनी पहलू है जो किसी भी सिविल वाद की प्रकृति, उद्देश्य और मांगी गई राहत पर निर्भर करता है। विशेष रूप से, जब कोई पक्ष किसी दस्तावेज़—जैसे विक्रय विलेख (Sale Deed), उपहार विलेख (Gift Deed), या अन्य ट्रांसफर डीड—को चुनौती देता है, तो यह प्रश्न अक्सर उठता है कि वादकर्ता (Plaintiff) को किस प्रकार की कोर्ट फीस जमा करनी चाहिए: Ad Valorem (मूल्य आधारित) Court Fee या मात्र Fixed Court Fee?

       पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय ने इस विवाद को एक बार फिर स्पष्ट करते हुए यह स्थापित किया कि—
यदि वादकर्ता वह व्यक्ति है जिसने संबंधित दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर नहीं किए (Non-Executant) और वह दस्तावेज़ को रद्द या निरस्त घोषित करने की मांग करता है, तो उसे Ad Valorem Court Fee देने की आवश्यकता नहीं है।

         यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मार्गदर्शक निर्णय है जो सिविल न्याय प्रणाली में ‘घोषणात्मक वाद’ (Suit for Declaration) से संबंधित मामलों में कोर्ट फीस के निर्धारण के सिद्धांतों को मजबूती से स्थापित करता है।


मामले की पृष्ठभूमि: दस्तावेज़ चुनौती और कोर्ट फीस विवाद

        वादकर्ता ने एक ट्रांसफर डीड/सेल डीड को चुनौती देते हुए अदालत में वाद दायर किया। वाद का मुख्य आधार यह था कि—

  • वादकर्ता इस दस्तावेज़ का निर्माता/हस्ताक्षरकर्ता (executant) नहीं था।
  • दस्तावेज़ में उसकी सहमति के बिना, अवांछित, अवैध या धोखाधड़ीपूर्ण तरीके से उसके अधिकारों पर प्रभाव डाला गया।
  • वादकर्ता केवल यह घोषित करवाना चाहता था कि दस्तावेज़ उस पर बाध्यकारी नहीं है और वह उसके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता।

        ट्रायल कोर्ट में कोर्ट फीस को लेकर विवाद खड़ा हुआ। प्रतिवादी पक्ष ने तर्क दिया कि—
वादकर्ता दस्तावेज़ को “रद्द” (Cancel) करवाने की मांग कर रहा है, इसलिए उसे उस संपत्ति के बाजार मूल्य (market value) के आधार पर Ad Valorem Court Fee देनी चाहिए।

वादकर्ता का पक्ष था कि—

  • वह दस्तावेज़ का निर्माता नहीं है।
  • इसलिए दस्तावेज़ उसी पर बाध्यकारी नहीं है।
  • वह केवल एक घोषणात्मक राहत (Declaratory Relief) चाहता है।
  • इसलिए Fixed Court Fee ही पर्याप्त है।

यह विवाद उच्च न्यायालय तक पहुँच गया।


पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का निर्णय: Non-Executant को Ad Valorem Court Fee देनी आवश्यक नहीं

उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि—

यदि वादकर्ता दस्तावेज़ का Executant (हस्ताक्षरकर्ता/निर्माता) नहीं है, तो उसे Court Fee Act के तहत Ad Valorem Court Fee अदा करने की आवश्यकता नहीं है।

वादकर्ता द्वारा मांगी गई राहत केवल एक घोषणा (Declaration) है कि—

  • वह दस्तावेज़ का पक्ष नहीं है,
  • दस्तावेज़ उसके विरुद्ध प्रभावी नहीं है,
  • और उसके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता।

ऐसे मामलों में—

Court Fee Act की धारा 7(iv)(c) लागू होती है, जिसके अनुसार—

Declaration से जुड़े वादों में वादकर्ता को अपने “आकलन” (valuation) के अनुसार Fixed Court Fee देनी होती है, न कि संपत्ति के मूल्य के अनुरूप Ad Valorem Court Fee।


कानूनी सिद्धांत: Executant बनाम Non-Executant

1. Executant (निर्माता/हस्ताक्षरकर्ता)

यदि वादकर्ता ने स्वयं दस्तावेज़ निष्पादित (execute) किया हो,

  • जैसे स्वयं Sale Deed पर हस्ताक्षर किए हों,
  • स्वयं Gift Deed बनाई हो,

और वह इसे रद्द करने की मांग करता है, तो—
उसे Ad Valorem Court Fee देनी पड़ती है,
क्योंकि वह दस्तावेज़ को “cancel” कराना चाहता है।

2. Non-Executant (गैर-निष्पादक)

यदि वादकर्ता दस्तावेज़ का निर्माता या हस्ताक्षरकर्ता नहीं है,

  • न उसने दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए,
  • न वह इसका पक्षकार है,

तो वह केवल यह घोषित करने की मांग करता है कि—
दस्तावेज़ उसके अधिकारों पर प्रभावी नहीं है।

तब—
यह Declaration Suit है, Cancellation Suit नहीं।
इसलिए—
✔ Fixed Court Fee
✘ Ad Valorem Court Fee

देनी आवश्यक है।


सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णयों का समर्थन

पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का निर्णय निम्न सुप्रीम कोर्ट फैसलों के अनुरूप है—

(1) Suhrid Singh v. Randhir Singh (2010)

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—

  • Executant को cancellation चाहिए → Ad Valorem Court Fee
  • Non-Executant को declaration चाहिए → Fixed Court Fee

(2) Shamsher Singh बनाम Rajinder Prashad (1973)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वाद की प्रकृति वादपत्र (plaint) से तय होती है, न कि प्रतिवादी जो दावा करे उससे।

(3) Vinay Krishna बनाम Keshav Chandra (1993)

घोषणात्मक वाद में Fixed Court Fee पर्याप्त है।


हाई कोर्ट के तर्क: Declaration वाद में Court Fee का निर्धारण

पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने कहा—

1. Non-Executant के लिए Relief की प्रकृति Declaratory है

वादकर्ता दस्तावेज़ को “रद्द” नहीं करवा रहा, बल्कि केवल यह घोषित करवा रहा है कि—

  • दस्तावेज़ “उस पर प्रभावी नहीं है”।

2. Cancellation और Declaration में अंतर

Cancellation से दस्तावेज़ अस्तित्वहीन हो जाता है।
Declaration से दस्तावेज़ वादकर्ता के विरुद्ध अप्रभावी हो जाता है।

3. Relief को पढ़ने का सही तरीका

Relief को “substance over form” के सिद्धांत से पढ़ा जाता है।
वादकर्ता को Document की पूरी वैधता को समाप्त नहीं करना है,
बल्कि केवल अपने अधिकार सुरक्षित रखने हैं।

4. Court Fee आर्थिक बोझ नहीं बननी चाहिए

यदि Non-Executant से Ad Valorem Court Fee ली जाए, तो—

  • न्याय तक पहुंच बाधित होगी,
  • गरीब वादकारी न्याय मांग ही नहीं पाएंगे।

निर्णय का प्रभाव और महत्व

यह फैसला सिविल मामलों पर व्यापक प्रभाव डालेगा—

1. संपत्ति विवादों में स्पष्टता

अक्सर परिवारिक, कृषि एवं शहरी भूमि विवादों में ऐसे वाद दायर होते हैं जहाँ एक पक्ष दस्तावेज़ का पक्षकार होते बिना उसके विरुद्ध अधिकारों की घोषणा चाहता है।
अब स्पष्ट है—
ऐसे सभी वादों में Fixed Court Fee ही देनी होगी।

2. न्याय तक आसान पहुँच

Ad Valorem Court Fee कई बार लाखों में पहुंच जाती है।
इस फैसले से आर्थिक रूप से कमजोर पक्ष भी न्याय प्राप्त कर पाएंगे।

3. दस्तावेज़ चुनौती के मामलों में नई दिशा

अब न्यायालयों में यह बहस कम होगी कि कौन-सी Court Fee उचित है।

4. वकीलों और कोर्ट में व्यावहारिक लाभ

कई बार ट्रायल कोर्ट गलतफहमी में Ad Valorem Court Fee मांग लेते थे।
यह फैसला उनकी विधिक समझ को भी दिशा देता है।


अंतिम निर्णय का सार

पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने कहा—

  • वादकर्ता दस्तावेज़ का Executant नहीं है।
  • वह केवल Declaration मांग रहा है।
  • इसलिए Court Fee Act के अनुसार—
    Fixed Court Fee ही देय है।
  • ट्रायल कोर्ट द्वारा Ad Valorem Court Fee की मांग गलत थी।
  • वाद को सुनवाई योग्य घोषित किया गया।

निष्कर्ष

       यह निर्णय न केवल विधिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह नागरिकों के लिए न्याय प्राप्ति के अधिकार को भी संरक्षित करता है।
सिविल कानून में कोर्ट फीस का प्रश्न अक्सर साधारण दिखता है, परंतु इसके माध्यम से ही यह निर्धारित होता है कि कोई व्यक्ति न्यायालय में अपने अधिकारों का दावा स्वतंत्र रूप से कर सकता है या नहीं।

      पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का यह फैसला एक बार फिर यह सिद्ध करता है कि—
कानून का उद्देश्य न्याय प्राप्ति को सुगम बनाना है, न कि उसे महंगा और जटिल बनाना।

       Non-Executant द्वारा किसी दस्तावेज़ को चुनौती देने पर केवल Declaratory Relief में Fixed Court Fee पर्याप्त है — यह सिद्धांत अब पूरी तरह स्थापित हो चुका है।