“एडवोकेट द्वारा ‘नो इंस्ट्रक्शंस’ पर्सिस दाखिल करने पर क्लाइंट को 7 दिन का नोटिस देना अनिवार्य नहीं”: सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट अपीलीय नियमों की व्याख्या की
भूमिका: न्यायिक प्रक्रिया में वकील की जिम्मेदारी पर सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई वकील अपने मुवक्किल के पक्ष में “नो इंस्ट्रक्शंस” (No Instructions) पर्सिस दाखिल करता है, तो उसे क्लाइंट को सात दिन का नोटिस देना आवश्यक नहीं है। यह फैसला Bombay High Court Appellate Side Rules के प्रावधानों की व्याख्या से जुड़ा हुआ है, जिसमें न्यायालय ने कहा कि इस स्थिति में नियमों का उद्देश्य मुकदमे की निष्पक्षता सुनिश्चित करना है, न कि तकनीकी आधार पर मुकदमों में विलंब करना।
पृष्ठभूमि: मामला कैसे पहुंचा सुप्रीम कोर्ट तक
यह मामला बॉम्बे हाईकोर्ट के एक अपीलीय प्रकरण से जुड़ा था, जहां एक वकील ने अपने मुवक्किल के निर्देश न मिलने के कारण “नो इंस्ट्रक्शंस पर्सिस” दाखिल कर दी थी।
मुवक्किल ने बाद में यह तर्क दिया कि वकील ने बिना उसे सूचित किए ऐसा कदम उठाया, जिससे उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ। उसने यह भी कहा कि Bombay High Court Appellate Side Rules के अनुसार वकील को ‘नो इंस्ट्रक्शंस’ दाखिल करने से कम से कम सात दिन पूर्व क्लाइंट को नोटिस देना चाहिए था।
मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जहां यह सवाल उठाया गया कि क्या यह 7-दिन का नोटिस वकील पर बाध्यकारी है या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन: नियमों का उद्देश्य समझना जरूरी
सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस सत्यनारायण प्रसाद शामिल थे, ने कहा कि हाईकोर्ट के नियमों की व्याख्या “व्यावहारिक दृष्टिकोण” से की जानी चाहिए।
पीठ ने कहा —
“कानून का उद्देश्य न्याय की सुविधा है, बाधा नहीं। यदि वकील को निर्देश नहीं मिल रहे हैं, तो उसे मुकदमे को अनावश्यक रूप से लंबित नहीं रखना चाहिए। ‘नो इंस्ट्रक्शंस’ दाखिल करने के लिए क्लाइंट को 7 दिन का नोटिस देना अनिवार्य नहीं है, बल्कि यह एक विनीत प्रक्रिया-संबंधी अपेक्षा है।”
वकील की भूमिका और कर्तव्य पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी भी वकील का प्रथम कर्तव्य न्यायालय के प्रति होता है, और यदि उसे मुवक्किल से कोई संपर्क या निर्देश नहीं मिल रहे हैं, तो वह अदालत को इसकी जानकारी देने के लिए बाध्य है।
पीठ ने कहा —
“Advocate acts as an officer of the court. When he finds that the client has withdrawn instructions or has become unresponsive, he cannot be compelled to continue representation merely on procedural formalities.”
इससे स्पष्ट होता है कि वकील की पेशेवर जिम्मेदारी न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखना है, न कि अनावश्यक रूप से कार्यवाही को टालना।
Bombay High Court Appellate Side Rules का विश्लेषण
Rule 5, Chapter II, Part A के तहत यह प्रावधान है कि यदि कोई वकील मुकदमे से हटना चाहता है, तो उसे मुवक्किल को पूर्व सूचना देनी चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह प्रावधान मुकदमे की सुविधा और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए है, न कि वकील पर एक कठोर दायित्व थोपने के लिए।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि कोई वकील प्रमाणित रूप से यह दिखा सकता है कि मुवक्किल ने संवाद बंद कर दिया है या निर्देश देना बंद कर दिया है, तो “नो इंस्ट्रक्शंस” पर्सिस दाखिल करने में कोई त्रुटि नहीं है।
न्यायालय का तर्क: तकनीकी कठोरता से न्यायिक प्रक्रिया को क्षति
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून का उद्देश्य तकनीकीता नहीं, बल्कि न्याय है।
यदि वकील को क्लाइंट से कोई उत्तर नहीं मिल रहा, तो 7 दिन का नोटिस देने का औचित्य समाप्त हो जाता है, क्योंकि व्यावहारिक रूप से वह व्यक्ति अनुपलब्ध या असहयोगी है।
पीठ ने कहा —
“To insist on a rigid 7-day notice in every case would defeat the purpose of justice. Procedure is the handmaid of justice, not its mistress.”
प्रकरण का नतीजा: क्लाइंट की अपील खारिज
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि वकील ने अपने सभी व्यावहारिक प्रयास कर लिए थे — फोन, ईमेल और पत्राचार के माध्यम से संपर्क करने की कोशिश की गई थी, परंतु मुवक्किल की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला।
ऐसे में ‘नो इंस्ट्रक्शंस’ पर्सिस दाखिल करना उचित था।
अतः सुप्रीम कोर्ट ने क्लाइंट की अपील खारिज कर दी और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
महत्वपूर्ण निष्कर्ष: वकालत और क्लाइंट रिलेशन की सीमाएं
इस निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वकील और मुवक्किल का संबंध पेशेवर अनुबंध (Professional Engagement) पर आधारित है, जो विश्वास और संवाद पर निर्भर करता है।
यदि क्लाइंट संवादहीन हो जाए या निर्देश देना बंद कर दे, तो वकील को मुकदमे में फंसे रहना न्यायसंगत नहीं है।
न्यायिक दृष्टिकोण का व्यापक प्रभाव
यह निर्णय देशभर के वकीलों और न्यायालयों के लिए एक मिसाल के रूप में उभरा है।
अब अदालतें यह मान सकती हैं कि “नो इंस्ट्रक्शंस” पर्सिस केवल तभी अनुचित होगी जब वकील ने बिना किसी उचित कारण के मुवक्किल से दूरी बनाई हो।
अन्यथा, यदि मुवक्किल ही अनुपस्थित या असहयोगी है, तो वकील को मुकदमे से अलग होने का पूरा अधिकार है।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण: क्लाइंट की सुरक्षा भी आवश्यक
हालांकि यह फैसला वकीलों के पक्ष में एक राहत है, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इससे क्लाइंट के हितों पर असर पड़ सकता है।
यदि वकील बिना सूचना दिए मुकदमे से हट जाए, तो क्लाइंट को समय पर जानकारी न मिलने से उसका पक्ष कमजोर हो सकता है।
इसलिए कुछ विधि विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि अदालतें ऐसे मामलों में e-mail या online registry notification जैसी आधुनिक प्रणाली अपनाएं, ताकि क्लाइंट को स्वतः सूचना मिल सके।
निष्कर्ष: न्यायिक संतुलन और पेशेवर जिम्मेदारी का नया मानदंड
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया और पेशेवर नैतिकता के बीच एक संतुलन स्थापित करता है।
यह स्पष्ट संदेश देता है कि वकील की प्राथमिक जिम्मेदारी अदालत के प्रति है, न कि उस क्लाइंट के प्रति जो मुकदमे में सहयोग नहीं कर रहा।
साथ ही, यह निर्णय न्यायालयों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे हर मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर यह तय करें कि नोटिस आवश्यक है या नहीं।
संक्षेप में मुख्य बिंदु
- वकील को “नो इंस्ट्रक्शंस” दाखिल करने से पहले 7 दिन का नोटिस देना अनिवार्य नहीं।
- यदि क्लाइंट संवाद नहीं कर रहा, तो वकील मुकदमे से हट सकता है।
- Bombay High Court Appellate Side Rules का उद्देश्य न्याय की सुविधा है, न कि तकनीकी बाध्यता।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा—“प्रक्रिया न्याय की दासी है, उसकी स्वामिनी नहीं।”
- फैसला वकीलों की पेशेवर स्वतंत्रता और न्यायालय की निष्पक्षता दोनों को सुदृढ़ करता है।
यह निर्णय भारतीय न्याय-प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण व्याख्यात्मक मिसाल के रूप में दर्ज होगा, जो यह तय करता है कि वकील का दायित्व केवल क्लाइंट तक सीमित नहीं है, बल्कि वह न्याय के व्यापक तंत्र का हिस्सा है।