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“जमानत की शर्तों का दुरुपयोग नहीं हो सकता: मद्रास हाईकोर्ट ने अनिश्चित ‘टॉप-अप डिपॉज़िट’ की शर्त को रद्द किया — न्यायिक विवेक, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान की विजय”

“जमानत की शर्तों का दुरुपयोग नहीं हो सकता: मद्रास हाईकोर्ट ने अनिश्चित ‘टॉप-अप डिपॉज़िट’ की शर्त को रद्द किया — न्यायिक विवेक, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान की विजय”


परिचय

      भारतीय न्यायपालिका समय-समय पर ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय देती रही है, जो न केवल विधिक सिद्धांतों को स्पष्ट करते हैं बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी करते हैं। हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण आदेश पारित करते हुए यह स्पष्ट किया कि जमानत पर ‘अनिश्चितकालीन टॉप-अप डिपॉज़िट’ की शर्त लगाना अत्यधिक, अनुचित और असंवैधानिक है, तथा यह न्यायिक प्रक्रिया को दंडात्मक स्वरूप में परिवर्तित कर देता है। अदालत ने कहा कि जमानत का उद्देश्य सजा देना नहीं बल्कि अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, इसलिए ऐसी शर्तें जो व्यक्ति की आर्थिक क्षमता को दरकिनार करके दंडात्मक प्रभाव डालती हैं, उन्हें न्यायालय बर्दाश्त नहीं करेगा।

       इस निर्णय ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), जमानत संबंधी सिद्धांतों तथा संविधान के अनुच्छेद 21—‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता’—को नया आयाम प्रदान किया है। यह फैसला बताता है कि जमानत को पवित्रता और व्यावहारिकता के साथ देखा जाना चाहिए, न कि ‘पैसों के माध्यम’ से एक सशर्त कारावास के रूप में।


मामले की पृष्ठभूमि

इस प्रकरण में निचली अदालत ने अभियुक्त को जमानत देते समय यह शर्त लगा दी थी कि—

“अभियुक्त को प्रत्येक माह एक निश्चित राशि जमा करनी होगी, और यह ‘टॉप-अप डिपॉज़िट’ अनिश्चितकाल तक चलता रहेगा।”

यह शर्त अपने आप में कई समस्याएँ उत्पन्न करती थी—

  • यह जमानत को सजा जैसा रूप दे रही थी।
  • मासिक जमा राशि अनिश्चित थी तथा उसकी अवधि तय नहीं थी।
  • यह शर्त आर्थिक रूप से कमजोर अभियुक्तों के लिए जमानत को व्यावहारिक रूप से असंभव बनाती थी।
  • CrPC की धारा 437 और 439 जमानत में यथोचित व व्यवहारिक शर्तें लगाने की अनुमति देती हैं, परंतु दंडात्मक या असंतुलित शर्तें नहीं।
  • इस प्रकार की शर्तें अनुच्छेद 14 और 21 के विरुद्ध मानी जाती हैं।

अभियुक्त ने इस ‘टॉप-अप’ शर्त को चुनौती देते हुए कहा कि यह ‘अनिश्चित दायित्व’ है, जिससे जमानत उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होती बल्कि जमानत का अधिकार छिन जाता है।


मुख्य मुद्दे

मद्रास हाईकोर्ट ने इस आदेश की समीक्षा करते हुए निम्नलिखित मुख्य प्रश्नों पर विचार किया—

  1. क्या जमानत की शर्त के रूप में ‘अनिश्चितकालीन आर्थिक जमा’ लगाया जा सकता है?
  2. क्या ऐसी शर्तें अभियुक्त की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध लगाती हैं?
  3. क्या यह ‘जमानत के बदले अप्रत्यक्ष दंड’ का रूप ले लेती है?
  4. क्या अदालत शर्तें लगाते समय आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों पर पड़ने वाले प्रभाव का ध्यान न रखकर मनमानी शर्तें लगा सकती है?

हाईकोर्ट का विश्लेषण

मद्रास हाईकोर्ट ने निर्णय देते हुए कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर जोर दिया।


1. जमानत दंड नहीं है, सुनिश्चित उपस्थिति का उपाय है

अदालत ने कहा कि जमानत शर्तों का उद्देश्य अभियुक्त के विरुद्ध एक अतिरिक्त दंडात्मक तंत्र लागू करना नहीं है।

“Economic deprivation cannot be used as an indirect form of incarceration.”

अर्थात, आर्थिक रुप से कमजोर अभियुक्तों पर ऐसी शर्तें थोपी नहीं जा सकतीं, जिससे वे जमानत प्राप्त ही न कर सकें।


2. टॉप-अप डिपॉज़िट शर्त ‘अनिश्चित और अव्यवहारिक’ है

हाईकोर्ट ने माना कि—

  • प्रत्येक माह जमा करने का आदेश जमानत को ‘अनिश्चित वित्तीय बंधन’ में बदल देता है,
  • इस पर कोई सीमा या अवधि निर्धारित नहीं की गई थी,
  • ऐसी शर्तें न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध हैं।

3. सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का हवाला

हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निम्न प्रख्यात निर्णयों के सिद्धांतों पर भरोसा किया—

(i) हुसैनारा खातून केस — 1979

जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त की गरीबी जमानत पाने में बाधा नहीं हो सकती।

(ii) सत्येंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI — 2022

सुप्रीम कोर्ट ने जमानत प्रक्रिया को मानवाधिकार केंद्रित बताते हुए कहा कि अदालतें अनावश्यक शर्तें न लगाएँ।

(iii) प्रसिद्ध ‘इंदिरा दास केस’

जहां कोर्ट ने कहा कि अत्यधिक शर्तें जमानत को निरर्थक बना देती हैं।


4. आर्थिक स्थिति का ध्यान रखना अनिवार्य

अदालत ने कहा कि जमानत की शर्त तय करते समय न्यायालय को अभियुक्त की—

  • आर्थिक क्षमता,
  • सामाजिक परिस्थितियाँ,
  • परिवारिक दायित्व,

का आकलन करना चाहिए।
अत्यधिक शर्तें समानता के अधिकार (Article 14) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Article 21) का उल्लंघन करती हैं।


5. ‘अनिश्चित’ और ‘अनवरत’ दायित्व असंवैधानिक हैं

अदालत ने कहा—

“No court can impose perpetual financial obligations as a bail condition.
Such a requirement is beyond the scope of Sections 437/439 CrPC.”

इसलिए अनिश्चित अवधि तक मासिक जमा करवाना ना केवल अवैध है बल्कि दुर्भावनापूर्ण भी प्रतीत होता है।


अंतिम निर्णय

अदालत ने अपने आदेश में कहा—

  • टॉप-अप डिपॉज़िट की शर्त को तुरंत प्रभाव से रद्द किया जाता है।
  • निचली अदालत भविष्य में किसी प्रकार का अतिरिक्त जमा (additional deposit) नहीं मांग सकती।
  •  जमानत केवल उन्हीं शर्तों पर चलेगी जिन्हें CrPC की धारा 437/439 के तहत न्यायोचित माना जा सकता है।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि—

  • जमानत का उद्देश्य अभियुक्त को ट्रायल से भगने से रोकना है,
  • न कि उसे आर्थिक रूप से दंडित करना।

निर्णय के प्रभाव

यह महत्वपूर्ण फैसला आगे चलकर पूरे देश की अदालतों के लिए दिशानिर्देश के रूप में काम करेगा।

1. मनमानी जमानत शर्तों पर रोक

कोई भी निचली अदालत अब अनिश्चित या अत्यधिक आर्थिक बोझ वाली शर्तें नहीं लगा सकेगी।

2. गरीब व कमजोर वर्गों को राहत

जमानत का अधिकार अब ‘पैसे वालों’ तक सीमित नहीं रहेगा।

3. कानून के मानवीय दृष्टिकोण को बढ़ावा

अदालतें जमानत देते समय मानवीय और संवैधानिक संतुलन का पालन करेंगी।

4. संविधान के अनुच्छेद 21 की मजबूती

यह फैसला फिर से स्पष्ट करता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि है।

5. न्यायिक विवेक का सशक्तीकरण

किसी भी शर्त को लगाने से पहले अदालतों को यह देखना होगा कि—

  • क्या यह ‘अनुचित बोझ’ तो नहीं है?
  • क्या यह अभियुक्त की स्वतंत्रता को अनावश्यक रूप से सीमित कर रही है?

कानूनी समुदाय में प्रतिक्रिया

कई अधिवक्ताओं और कानूनी विशेषज्ञों ने इस फैसले का स्वागत किया है। उनका मानना है कि—

  • जमानत की बढ़ती व्यावसायिकता पर रोक लगेगी,
  • न्यायिक प्रक्रिया अधिक मानवीय बनेगी,
  • अदालतें अब जमानत को एक दंडात्मक तंत्र के रूप में नहीं देखेंगी।

निष्कर्ष

      मद्रास हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय विधिक परिदृश्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह स्पष्ट संदेश देता है कि—

“न्यायालय जमानत की शर्तों का उपयोग कर अभियुक्त को अप्रत्यक्ष रूप से सजा नहीं दे सकते।”

      व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा लोकतंत्र की आत्मा है।
अनिश्चित ‘टॉप-अप डिपॉज़िट’ जैसी शर्तें न केवल असमानता बढ़ाती हैं बल्कि गरीबों को न्याय से दूर कर देती हैं। यह निर्णय एक ऐसे भारत की ओर कदम है जहां न्याय धन नहीं, बल्कि सिद्धांतों और संविधान के आधार पर मिलता है।