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“पड़ताल के पांच पड़ाव: क्यों सुप्रीम कोर्ट ने कोली को बरी किया — जब कबूलनामा न रहा भरोसेमंद और घर में न मिला कोई खून”


परिचय

     नोएडा के निठारी हत्याकांड में नामित मुख्य आरोपी सुरेंद्र कोली को सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में बरी कर दिया है। यह फैसला एक बेहद संवेदनशील और विवादित मुकदमे का समापन है, जिसने देश भर में जनता और मीडिया का ध्यान खींचा था। कोर्ट ने 19 सालों बाद कोली की कर्फेटिव पिटीशन स्वीकार करते हुए फैसला सुनाया कि अभियोजन पक्ष ने उस स्तर का सबूत प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे दोषसिद्धि “बाजू के संदेह” (mere suspicion) से परे साबित हो सके। सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से पांच प्रमुख कारणों की ओर इशारा किया, जिनकी वजह से उसे बरी किया गया — आइए उन्हें विस्तार से समझें।


पाँच वजहें – क्यों सुप्रीम कोर्ट ने कोली को बरी किया

     सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में अभियोजन की कहानी और सबूतों में गहन खामियाँ पाईं। ये खामियाँ न केवल तकनीकी थीं, बल्कि ऐसे बुनियादी सवाल खड़े करती थीं, जिनसे “किसी को दोषी मानने के लिए पर्याप्त सबूत” नहीं बन पाते। नीचे दी गई वह पाँच वजहें हैं, जिनके आधार पर कोर्ट ने कोली को बरी किया:

1. कबूलनामा (Confession) की विश्वसनीयता को खारिज करना

  • कोली का कथित कबूलनामा, जो कि जेल के भीतर CrPC की धारा 164 के तहत लिया गया था, सुप्रीम कोर्ट ने भरोसेमंद नहीं माना। अदालत ने ध्यान दिया कि वह लगभग 60 दिनों तक लगातार पुलिस हिरासत में था, लेकिन “मायने दार कानूनी मदद (legal aid)” उसे इस दौरान नहीं मिली।
  • और भी गंभीर पक्ष यह है कि कोली ने बाद में कबूलनामा वापस ले लिया और आरोप लगाया कि उसे पुलिस हिरासत में तोड़-फोड़ या यातनाएँ दी गई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि कथित “स्वैच्छिक बयान” की स्थिति प्रभावित हो सकती थी।
  • कोर्ट ने यह भी कहा कि गिरफ्तारी के बाद उसका मेडिकल परीक्षण समय पर नहीं कराया गया था, जो यह चेक करने के लिए जरूरी था कि उसे शारीरिक चोटें तो नहीं पहुंचीं थीं — संभवतः चोटों का स्रोत हो सकता था तपत्तर (torture)।
  • इस तरह, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कोली का कबूलनामा “स्वेच्छापूर्ण” नहीं था, और इसलिए इस पर भरोसा करना उचित नहीं था।

2. घर के अंदर खून धब्बों (bloodstains) का अभाव

  • एक बहुत अहम बिंदु था कि आरोपित घर (D-5, सेक्टर 31, Noida) में जांच करने वाली टीमों ने कोई मानव रक्त के धब्बे, शव अवशेष, या किसी प्रकार के “ट्रांसफर पैटर्न” (जैसे खूऩ का फैलाव इत्यादि) नहीं पाया, जिससे दर्शाया जा सके कि वहाँ कई हत्याएँ और टुकड़े-टुकड़े करना हुआ हो
  • अन्य ओर, वे हथियार (चाकू, कुल्हाड़ी) जो हत्या में उपयोग किए जाने का दावा था, उन्हें ** बिना खून, ऊतक (tissue), या बाल (hair) के निशान के साथ प्रदर्शित किया गया था**। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन साक्ष्यों का “इन्क्रीमिनेटिंग लिंक” (दोष सिद्धि में जोड़ने वाला प्रमाण) कोली से नहीं माना जा सकता क्योंकि उनके साथ सहायक सबूत मौजूद नहीं थे।
  • ये खामियाँ यह दर्शाती हैं कि अभियोजन पक्ष की कहानी में जो दावा था — “भयावह, जघन्य हत्याएँ और विच्छेदन” — उसे वैज्ञानिक और फॉरेंसिक स्तर पर समर्थन नहीं दिया गया।

3. अंग व्यापार (organ trade) के संभावना पर उचित जांच न करना

  • सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आलोचना की कि जांच एजेंसियों ने अंग व्यापार (organ-trade) के सुझावों की गंभीरता से पड़ताल नहीं की, जो पहले एक सरकारी समिति द्वारा उठाए गए थे।
  • अदालत ने कहा कि ऐसे “सुइट-लेड्स” (मजबूत संभावित जांच राह) पर कदम नहीं उठाए गए, जैसे कि घर और पड़ोस में संभव गवाहों का साक्ष्य लेना, और अन्य महत्वपूर्ण गवाहों की कॉल को अनदेखा करना।
  • इस कमी ने अभियोजन पक्ष की जांच की गहराई और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए, जिससे यह संकेत मिलता है कि केस की वास्तिविक तस्वीर पूरी तरह सामने नहीं आई।

4. बयान और पुनरावृत्ति (Disclosure) में विरोधाभास

  • कोली के द्वारा दिए गए पंचनामा (panchnama) और रिमांड / गिरफ्तारी दस्तावेज़ों (remand papers) में कथन विरोधाभासी पाए गए। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि प्रारंभिक विवरण और बाद के विवरण के बीच महत्वपूर्ण मतभेद हैं।
  • उदाहरण के लिए, अभियोजन पक्ष पहले यह दावा करता था कि कोली और उसकी सह-आरोपी पंढेर ने मिलकर कबूलनामा दिया था, लेकिन बाद में कथन बदला गया और कहा गया कि कोली अकेले ही खुलासा-स्थान की ओर ले गया था। यह विरोधाभास अभियोजन की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा: “हर एक चूक (lapse) ने प्रमाणों की उत्पत्ति (provenance) और भरोसेमंदता को कमजोर किया है, और सत्य के रास्ते को संकुचित कर दिया है।”

5. ड्रेन (नाली) की सफ़ाई और पुनः प्राप्ति (Recovery) की असंगतियाँ

  • बहुत दिलचस्प और निर्णायक बिंदु यह है कि जहाँ अवशेष पाए गए, यानी ड्रेन (नाली) — उस नाली की सफ़ाई 20 दिसंबर से 23 दिसंबर 2006 के बीच की गई थी, लेकिन कथित तोड़फोड़ या अवशेषों की निकासी 30 दिसंबर को हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के तर्क को स्वीकार किया कि यह समय सारणी “बहुत मुश्किल” है — कैसे वह खून, हड्डियाँ या जैविक सामग्री, जो अपराधियों द्वारा पहले जमा की गई थी, सफाई के बाद फिर भी वहीं पाई गई?
  • हाई कोर्ट के अनुसार, यह “बेहद असंभव” है कि नाली की सफाई के बाद भी सारे अवशेष वहाँ मौजूद रहे हों, जैसा अभियोजन दावा करता है।
  • यह मुद्दा हमारे सामने खड़े करता है सवाल कि क्या पुनः प्राप्ति सही तरीके से हुई थी, या उसमें एजेंसियों द्वारा कमज़ोर कंट्रोल (जाँच-प्रक्रिया) रही।

सुप्रीम कोर्ट का व्यापक निष्कर्ष और सामाजिक महत्व

  • सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि निठारी हत्याकांड बेहद जघन्य अपराध थे, और पीड़ित परिवारों का दुःख “माप से परे” है। लेकिन, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में दोष सिद्धि के लिए “संभावना” (suspicion) पर्याप्त नहीं है, और “संभवतः दोषी हो सकता है” ऐसा अंदाजा आधार पर सजा देना न्याय संगत नहीं है।
  • कोर्ट ने यह कहा कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत सबूतों में संरचनात्मक दोष (structural infirmities) थे — ना केवल कुछ तथ्य-विशिष्ट गड़बड़ियाँ, बल्कि ऐसी खामियाँ जो पूरे तरीके से उनकी कहानी को आधारहीन बना देती थीं।
  • न्यायालय ने क्युरेटिव (curative) अधिकार का उपयोग किया — यानी उसने यह फैसला किया कि एक “स्पष्ट अन्याय (manifest miscarriage of justice)” हो रहा है, क्योंकि कोली के खिलाफ वही सबूत (कबूलनामा, पुनः प्राप्तियाँ) थे जिनकी वजह से उसे अन्य 12 मामलों में पहले ही हाई कोर्ट ने बरी किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दो असंगत नतीजे (12 मामलों में बरी, एक में सजा) “कानूनी प्रणाली में जनता के विश्वास (public confidence)” को कमजोर करेंगे।
  • अदालत ने इस बात पर रेख बढ़ाई कि न्याय तंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता की रक्षा जरूरी है, और यदि कोई मामला इतनी महत्वपूर्ण गलतियों पर आधारित हो, तो उसे न्याय की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए — न कि सिर्फ सार्वजनिक रोष या भावनात्मक प्रतिक्रिया के नाम पर।

निष्कर्ष

       सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ सुरेंद्र कोली की व्यक्तिगत मुक्ति का मामला नहीं है — यह न्याय व्यवस्था में साक्ष्य की गुणवत्ता, पॉलीस जांच की निष्पक्षता, और औपचारिक प्रक्रियाओं (procedural safeguards) की अहमियत पर एक गहरी चेतावनी है। अदालत ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि भीषण अपराधों की गंभीरता न्याय से ऊपर नहीं हो सकती, यदि अभियोजन पक्ष विश्वसनीय, वैज्ञानिक और कानूनी रूप से ठोस सबूत न पेश कर सके।

      यह फैसला पीड़ित परिवारों के लिए दर्दनाक हो सकता है, लेकिन विधि की भाषा में यह “सबूतों की न्यूनता” को सहन नहीं कर सकता। न्यायपालिका ने कहा कि सोच-समझ कर अपराध किया गया होगा, लेकिन “संभावना” को दायित्व (liability) या दोष सिद्धि (conviction) में बदलने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता।