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“चार साल तक आरोप तय न करना न्याय का मज़ाक”: सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र की अदालत को लगाई फटकार, कहा — ‘यह न्यायिक निष्क्रियता नहीं, संवैधानिक उल्लंघन है’

“चार साल तक आरोप तय न करना न्याय का मज़ाक”: सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र की अदालत को लगाई फटकार, कहा — ‘यह न्यायिक निष्क्रियता नहीं, संवैधानिक उल्लंघन है’

        न्यायालयों का कर्तव्य केवल कानून की व्याख्या करना नहीं, बल्कि न्याय के संवैधानिक उद्देश्य को साकार करना भी है। परंतु जब अदालतें वर्षों तक किसी आरोपी के विरुद्ध आरोप तय तक नहीं करतीं, तो यह न केवल अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का हनन है, बल्कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र की एक निचली अदालत के इसी रवैये पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि “चार वर्षों तक किसी आरोपी के खिलाफ आरोप तय न करना, केवल इसलिए कि सह-अभियुक्त अनुपस्थित है, अत्यंत चौंकाने वाला और अस्वीकार्य है।”

 मामला कैसे शुरू हुआ

         यह मामला महाराष्ट्र के एक आपराधिक प्रकरण से जुड़ा है, जिसमें एक आरोपी पिछले चार वर्षों से न्यायिक हिरासत में था। इस अवधि के दौरान उसके खिलाफ न तो आरोप तय हुए और न ही मुकदमे की कार्यवाही आगे बढ़ी। निचली अदालत ने इस देरी का कारण यह बताया कि अन्य सह-अभियुक्त अदालत में उपस्थित नहीं हो रहे हैं, इसलिए आरोप तय नहीं किए जा सकते।

       यह तर्क अभियुक्त के वकील को अस्वीकार्य लगा। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर कहा कि उनके मुवक्किल को बिना मुकदमे के वर्षों से जेल में रखा जा रहा है, जो उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।

सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी

       सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट और न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा की खंडपीठ ने महाराष्ट्र की अदालत की कार्यशैली को “न्याय के सिद्धांतों का अपमान” बताया। अदालत ने कहा —

“यह चौंकाने वाला है कि किसी अदालत ने चार वर्षों तक आरोप तय नहीं किए, केवल इसलिए कि सह-अभियुक्त उपस्थित नहीं हैं। यह न्यायिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है। अदालतों का यह दायित्व है कि वे मुकदमों की सुनवाई समयबद्ध तरीके से करें।

अनुच्छेद 21 और ‘त्वरित न्याय’ का अधिकार

          भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार देता है। इस अधिकार में त्वरित और निष्पक्ष न्याय प्राप्त करने का अधिकार भी निहित है। जब कोई व्यक्ति बिना मुकदमे के वर्षों तक जेल में रहता है, तो यह न केवल उसके कानूनी अधिकारों का, बल्कि मानवाधिकारों का भी हनन है।

        सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार की देरी संविधान के अनुच्छेद 21 की भावना के विपरीत है। अदालत ने उदाहरण देते हुए कहा कि यदि सह-अभियुक्त अनुपस्थित है, तो उसके खिलाफ प्रक्रिया अलग से चल सकती है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि बाकी अभियुक्तों को वर्षों तक जेल में रखा जाए।

कानूनी दृष्टिकोण: क्या कानून अनुमति देता है?

       भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 223 और 317 यह स्पष्ट करती है कि अदालतें अलग-अलग अभियुक्तों के विरुद्ध स्वतंत्र रूप से आरोप तय कर सकती हैं। अदालतें किसी सह-अभियुक्त की अनुपस्थिति को मुकदमे की देरी का आधार नहीं बना सकतीं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा —

“कानून यह नहीं कहता कि मुकदमे की प्रगति सभी अभियुक्तों की उपस्थिति पर निर्भर है। यदि कोई अभियुक्त फरार है, तो यह अभियोजन की विफलता है, न कि न्यायालय की निष्क्रियता का बहाना।”

निचली अदालतों की जवाबदेही

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि इस तरह की निष्क्रियता न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाती है। न्यायमूर्ति भट ने कहा,

“निचली अदालतों को यह समझना होगा कि न्याय केवल सजा देने का साधन नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता की रक्षा का उपकरण है। जब अदालतें देरी करती हैं, तो वे निर्दोषों को सजा देती हैं।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालयों को समय-समय पर निचली अदालतों की कार्यवाही की निगरानी करनी चाहिए ताकि ऐसे मामलों में सुधार हो सके।

राज्य सरकार और अभियोजन की भूमिका

       सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि मुकदमे में देरी केवल अदालत की विफलता नहीं, बल्कि राज्य सरकार और अभियोजन की लापरवाही का भी परिणाम है। कई बार अभियोजन पक्ष यह सुनिश्चित नहीं करता कि सह-अभियुक्त की उपस्थिति के लिए पर्याप्त कदम उठाए जाएं। कोर्ट ने कहा कि राज्य को अभियोजन तंत्र को सुदृढ़ करना चाहिए ताकि मुकदमे समय पर निपट सकें। 

सुप्रीम कोर्ट का आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र की अदालत को आदेश दिया कि वह तुरंत आरोपी के विरुद्ध आरोप तय करे और मुकदमे की सुनवाई शीघ्र शुरू करे। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि भविष्य में ऐसी घटनाओं पर उच्च न्यायालय स्वयं संज्ञान ले और जिम्मेदार न्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध उचित कार्रवाई सुनिश्चित करे।

न्यायिक व्यवस्था पर गहरी टिप्पणी

इस निर्णय के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय न्यायिक प्रणाली के उस पहलू को रेखांकित किया है जो वर्षों से चिंता का विषय रहा है—मुकदमों में अत्यधिक देरी। अदालत ने कहा कि “देश के हजारों जेलों में ऐसे कैदी हैं जो वर्षों से मुकदमे की प्रतीक्षा में हैं। यह हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की सबसे बड़ी त्रासदी है।”

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने कहा —

“न्याय का उद्देश्य केवल अपराधी को सजा देना नहीं, बल्कि निर्दोष को अनावश्यक कष्ट से बचाना भी है। जब मुकदमे में वर्षों तक कुछ नहीं होता, तो निर्दोष व्यक्ति की आत्मा ही मर जाती है।”

‘विलंबित न्याय’ का सामाजिक प्रभाव

मुकदमों में देरी का असर केवल अभियुक्तों पर ही नहीं, बल्कि समाज पर भी पड़ता है। जब लोग देखते हैं कि न्याय वर्षों तक टलता रहता है, तो उनमें न्यायपालिका के प्रति विश्वास कम होता है। यह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस संदेश को स्पष्ट करता है कि न्याय में पारदर्शिता और तत्परता दोनों समान रूप से आवश्यक हैं। यदि अदालतें निष्क्रिय रहीं, तो कानून के शासन (Rule of Law) की नींव कमजोर पड़ जाएगी।

अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 1992 के Hussainara Khatoon बनाम बिहार राज्य मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि “वर्षों तक मुकदमे की प्रतीक्षा करना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।” इसी प्रकार A.R. Antulay बनाम R.S. Nayak (1992) मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने त्वरित सुनवाई को न्याय का अनिवार्य तत्व बताया था।

निष्कर्ष: न्याय तभी जीवित है जब वह समय पर हो

यह निर्णय केवल एक आरोपी की रिहाई या मुकदमे की प्रगति का आदेश नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र के लिए चेतावनी है। अदालतों को यह याद रखना चाहिए कि “विलंबित न्याय, न्याय से इनकार है।” यदि अदालतें वर्षों तक निष्क्रिय रहती हैं, तो उनका अस्तित्व केवल औपचारिक रह जाता है।

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न्यायिक प्रक्रिया को गति देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में अदालतें संवैधानिक दायित्वों का पालन करते हुए मुकदमों का शीघ्र निपटारा सुनिश्चित करेंगी।

अंततः यह निर्णय उस सिद्धांत को पुनः स्थापित करता है कि —

“न्याय तब ही सजीव है जब वह समय पर दिया जाए, निष्पक्ष रूप से दिया जाए, और संविधान की आत्मा के अनुरूप दिया जाए।”