“राष्ट्रीय उद्यानों-व वन्यजीव अभयारण्यों में खनन निषिद्ध: Supreme Court of India ने वन-परिरक्षण को दी पहली प्राथमिकता”
प्रस्तावना
भारत में प्राकृतिक एवं जैव-विविधता के संरक्षण का महत्व निरंतर बढ़ रहा है। ऐसे में न्यायपालिका-द्वारा दिए गए निर्देश इस दिशा में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम निर्णय देते हुए कहा है कि Wild Life (Protection) Act, 1972 के अंतर्गत घोषित राष्ट्रीय उद्यानों (National Parks) और वन्यजीव अभयारण्यों (Wildlife Sanctuaries) के भीतर तथा उनके सिमा-रेखा से 1 किमी तक की दूरी में खनन-क्रियाएँ निषिद्ध होंगी। इस निर्णय से पर्यावरण-कानून, विकास-विनियोजन और संरक्षण-नीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया है।
मामला क्या है?
- यह मामला मूलतः In Re: T.N. Godavarman Thirumulpad vs. Union of India का हिस्सा है, जिसमें पर्यावरण संरक्षण, वन क्षेत्रों की उपेक्षा तथा राज्य-सरकारों एवं केंद्र सरकार की जिम्मेदारियों पर सवाल उठे थे।
- सुप्रीम कोर्ट ने 3 जून 2022 के अपने आदेश में कहा था कि प्रत्येक राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभयारण्य के चारों ओर कम-से-कम 1 किलोमीटर का “इको-सेंसिटिव ज़ोन” (ESZ) रखा जाना चाहिए।
- इसके बाद 26 अप्रैल 2023 को अदालत ने अपने पिछले आदेशों को संशोधित/स्पष्ट किया और यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय उद्यान तथा वाइल्डलाइफ सैंक्चुआरी के भीतर और उनकी सीमाओं से 1 किमी तक की दूरी में वाणिज्यिक खनन कार्य अनुमत नहीं होंगे।
- विशेष रूप से, अदालत ने यह भी कहा है कि यदि किसी संरक्षण-क्षेत्र के चारों ओर ESZ पहले ही अधिसूचित (draft/final) हो चुका है, तो उस अधिसूचना का दायरा भी मान्य होगा, पर खनन की निषेधावली उससे कम नहीं हो सकती।
न्यायालय के निर्देश – प्रमुख बिंदु
- खनन निषिद्ध क्षेत्र: “राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभयारण्यों के भीतर और उनके सीमांतों से 1 किमी की दूरी तक की सीमा में खनन कार्य नहीं किया जा सकता।”
- इको-सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) निर्माण: प्रत्येक संरक्षित क्षेत्र के चारों ओर कम-से-कम एक किलोमीटर का ESZ निर्धारित किया जाना चाहिए। यदि ESZ पहले से व्यापक है (1 किमी से अधिक), तो वही प्रावधान लागू होंगे।
- निर्माण व अन्य गतिविधियों-की समीक्षा: हालांकि खनन पूरी तरह निषिद्ध है, किन्तु निर्माण-संबंधी अन्य गतिविधियों (जैसे पारंपरिक निवासी-निर्माण, स्कूल, गाँव-सुविधाएँ) के संबंध में राज्य व केंद्र को अधिक लचीले निर्देश दिए गए हैं।
- गाइडलाइन्स का अनुपालन: Ministry of Environment, Forest and Climate Change की 9 फरवरी 2011 की गाइडलाइन्स को प्रत्येक राज्य-संघ/संघ-शासित प्रदेश को और केंद्र-सरकार को कठोरता से पालन करना होगा।
- प्रदेशों-की जिम्मेदारी एवं निगरानी: राज्य सरकारों, वन विभागों, केंद्र सरकार तथा स्थानीय प्रशासन को मिलकर खनन-अनुमोदन, प्रोजेक्ट-स्वीकृति, ESZ अधिसूचना आदि कार्य को शीघ्रता से पूर्ण करना होगा।
कानूनी पृष्ठभूमि एवं प्रभाव
- भारत में पर्यावरण संरक्षण-व वन संरक्षण के लिए प्रमुख कानूनों में Wild Life (Protection) Act, 1972, Forest (Conservation) Act, 1980 तथा Environment (Protection) Act, 1986 शामिल हैं। इनके अंतर्गत केंद्र सरकार को ऐसे क्षेत्र निर्धारित करने की शक्ति है जहाँ विशेष रूप से खान-उद्योग, निर्माण-कार्यालय आदि नियंत्रित/निषिद्ध हो सकते हैं।
- 2011 में जारी MOEF-CC की “Guidelines for Declaration of Eco-Sensitive Zones around Protected Areas” में यह प्रावधान था कि राष्ट्रीय उद्यान व अभयारण्यों के आसपास ESZ घोषित की जाए, जिसमें गतिविधियों को ‘निषिद्ध’, ‘नियंत्रित’ तथा ‘अनुमत’ श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
- न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि जहाँ ESZ कम-से-कम 1 किमी से कम हो, वहां भी खनन निषेध 1 किमी तक लागू होगा। यानी ESZ की सीमा कम होने पर “1 किमी बाहर भी चेतावनी-प्रभाव” रहेगा।
- इस प्रकार यह निर्णय केवल प्रत्यक्ष खनन निषेध ही नहीं है बल्कि संरक्षित क्षेत्र के बफर ज़ोन-रक्षा का भी कानूनी मानदंड स्थापित करता है।
सामाजिक-व आर्थिक असर, चुनौतियाँ और विश्लेषण
- खनन-उद्योग और विकास-दबाव: कई राज्यों में खनन एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत रहा है — रोजगार, रॉ मैटेरियल एवं स्थानीय अर्थव्यवस्था-के लिए। इस निर्णय से खनन-क्षेत्रों में पामी संभावनाएँ प्रभावित हो सकती हैं। लेकिन न्यायालय ने यह भी माना है कि इससे “वन्यजीव व जैव-विविधता” को पोनाही नुक़सान हो रहा था।
- स्थानीय-आबादी तथा वन-तटवर्ती समुदाय: अनेक गाँव ESZ के अंदर या उसके पास स्थित हैं। यदि हर निर्माण व गतिविधि कठोर रूप से नियंत्रित हो जाएँ, तो उनकी पारंपरिक गतिविधियों व जीवन-शैली पर असर हो सकता है। इसी कारण न्यायालय ने कुछ छूट-निर्देश दिए हैं, लेकिन खनन-पर निषेध स्पष्ट रूप से जारी रखा है।
- पर्यावरणीय दुष्प्रभाव: खनन और उससे जुड़ी गतिविधियाँ जैसे ओपन-कास्ट खान, अव्यवस्थित खनन अपशिष्ट, वनावरण कटाई, ध्वनि-प्रदूषण, जलप्रवाह क्षति व सड़क-प्रवेश मार्ग आदि ने वन्यजीवों-व आवास-परिस्थितियों पर बड़ा प्रभाव डाला है। इस आदेश से न्यायपालिका ने यह संकेत दिया कि “विकास” के नाम पर अव्यवस्थित खनन ठीक नहीं।
- निगरानी एवं अमल-चुनौतियाँ: अधिसूचनाएं जारी करना आसान है, लेकिन उनका पालन व वास्तविकता में क्रियान्वयन बहुत बड़ी चुनौती है। राज्य, केंद्र और वन विभागों की कार्य-क्षमता, राजनीतिक इच्छाशक्ति व संसाधन यहां निर्णायक होंगे।
- परिवर्तन-प्रभाव-लंबी अवश्यंभाविता: यह निर्णय तत्कालात्मक प्रभाव नहीं दिखाएगा—किन्तु यह एक लंबी अवधि का संकेत है कि वन-क्षेत्रों-की स्थिरता व जैव-विविधता संरक्षित रहनी है।
आगे की राह एवं सुझाव
- राज्य-स्तर पर अधिसूचनाएँ शीघ्र जारी करें: केंद्र सरकार व राज्य सरकारों को मिलकर उन संरक्षित क्षेत्रों के आसपास ESZ अधिसूचनाओं को शीघ्रता से जारी व लागू करना चाहिए।
- खनन-लाइसेंस व अनुमोदन-प्रक्रिया पुन: जाँचे जाएँ: उन सभी खनन-प्रोजेक्ट्स की सूची तैयार की जाए जो राष्ट्रीय उद्यान/अभयरण्यों-के 1 किमी के भीतर हैं। उन्हें तुरंत समीक्षा हेतु लाया जाना चाहिए।
- वैकल्पिक आर्थिक मॉडल विकसित करें: उन इलाकों में जहाँ खनन प्रतिबंध से स्थानीय लोगों-को प्रभाव होगा, वहाँ पर्यटन, जैव-खेती, पारिस्थितिकी-सेवाएँ जैसे विकल्पों पर चर्चा होनी चाहिए।
- निगरानी-मेकैनिज्म को सुदृढ़ करें: न्यायालय ने निर्देश दिए हैं कि राज्य-वन विभाग, PCCF (Principal Chief Conservator of Forests) आदि को नियमित रिपोर्टिंग व नियंत्रण सुनिश्चित करना होगा। इसके लिए डिजिटल-मानिटरिंग, डाटा-पोर्टल व नागरिक-सहभागिता महत्वपूर्ण होंगे।
- समुदाय-सहभागिता बढ़ाएं: वन-तटवर्ती ग्रामीण आबादी को इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए — इससे स्थानीय-विरासत व पर्यावरण-सरंक्षण दोनों सुनिश्चित होंगे।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक न्यायिक आदेश है, बल्कि पर्यावरण-व वन संरक्षण में एक मैल-पत्थर साबित हो सकता है। राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के “सुरक्षित क्षेत्र” केवल नाममात्र नहीं रहने चाहिए, उनके चारों ओर एक प्रभावी बफर-जोन होना चाहिए, जिसमें खनन जैसी खतरनाक गतिविधियों पर प्रतिबंध हो। इस तरह, समृद्ध जैव-विविधि और प्राकृतिक संतुलन को सुरक्षित रखने की दिशा आगे बढ़ेगी।
वन-वातावरण-विकास के संतुलन का संदेश इस आदेश से स्पष्ट है: विकास चाहिए — पर जंगलों व जीवों की कीमत पर नहीं। सरकार-व न्यायपालिका-व नागरिक मिलकर इस दिशा में भूमिका निभा सकते हैं।